Author : Kriti M. Shah

Published on Jul 25, 2021 Updated 0 Hours ago

पूरे देश में तालिबान का बढ़ता दायरा एक डरावनी तस्वीर पेश करता है कि क्या होगा जब अपने कब्ज़े वाली आबादी पर तालिबान का नियंत्रण और शासन आगे भी बरकररार रहता है.

अफ़गानिस्तान: प्रोपगैंडा की लड़ाई जीत रहा है तालिबान

युद्ध की राजनीति में दोनों पक्ष अपनी तरफ़ घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय मत करने के लिए प्रोपगैंडा के अलग-अलग तरीकों का इस्तेमाल करते हैं. लेकिन अफ़ग़ानिस्तान के मामले में इस संघर्ष का केवल एक पक्ष,इरादतन और ग़ैर-इरादतन दोनों,प्रोपगैंडा की लड़ाई जीतता दिख रहा है. वो जीत की कहानी बना रहा है जो तेज़ी से ज़मीन पर हक़ीक़त में तब्दील हो रही है. अफ़सोस की बात ये है कि जीत की ये कहानी तालिबान की है. 

तालिबान और अफ़ग़ान नेशनल डिफेंस एंड सिक्युरिटी फोर्सेज़ (एएनडीएसएफ) के बीच हिंसा और लड़ाई चल रही है. लेकिन इसी दौरान व्हाइट हाउस की तरफ़ से ये एलान किया गया कि अमेरिका सितंबर 2021 तक अपने सभी सैनिकों को वापस बुला लेगा. इसकी वजह से तालिबान की हिंसा में ज़ोरदार बढ़ोतरी हुई है. इस लड़ाई पर नज़र रख रहे लॉन्ग वॉर जर्नल का अनुमान है कि 1 मई और 29 जून 2021 के बीच तालिबान के कब्ज़े वाले ज़िलों की संख्या 73 से बढ़कर 157 हो गई. जिस रफ़्तार से तालिबान ज़िलों पर अपना कब्ज़ा कर रहा है, उसको देखते हुए तेज़ी से हर रोज़ उन ज़िलों की संख्या बढ़ रही है जिन पर तालिबान का कब्ज़ा है. लॉन्ग वॉर जर्नल के मुताबिक़ 8 जुलाई तक अफ़ग़ानिस्तान के 50 प्रतिशत ज़िलों पर तालिबान का कब्ज़ा हो चुका है. 

तालिबान और अफ़ग़ान नेशनल डिफेंस एंड सिक्युरिटी फोर्सेज़ (एएनडीएसएफ) के बीच हिंसा और लड़ाई चल रही है. लेकिन इसी दौरान व्हाइट हाउस की तरफ़ से ये एलान किया गया कि अमेरिका सितंबर 2021 तक अपने सभी सैनिकों को वापस बुला लेगा. इसकी वजह से तालिबान की हिंसा में ज़ोरदार बढ़ोतरी हुई है. 

अगर ये आकलन सही है तो ख़ौफ़नाक हालात हैं. पूरे देश में तालिबान का बढ़ता दायरा एक डरावनी तस्वीर पेश करता है कि क्या होगा जब अपने कब्ज़े वाली आबादी पर तालिबान का नियंत्रण और शासन आगे भी बरकररार रहता है. तालिबान ने बार-बार दिखाया है कि वो नहीं बदला है और अभी भी ख़राब,कट्टर और आतंकवादी संगठन बना हुआ है. 

ये सच है कि तालिबान पूरे अफ़ग़ानिस्तान में तेज़ी से आगे बढ़ रहा है लेकिन उसके हिंसक व्यवहार और देश के अलग-अलग हिस्सों में तालिबान के नियंत्रण में ज़िलों के आने की लगातार मीडिया कवरेज से इस आतंकी संगठन को काफ़ी मदद मिली है. दुनिया भर के समाचार संगठनों ने इस बात पर ध्यान दिया है कि किस तरह तालिबान ने कई ज़िलों में जीत हासिल की है और किस तरह अफ़ग़ान बलों को उपद्रवियों ने घेर लिया है और वो ताजिकिस्तान भाग गए हैं. लेकिन युद्ध के मैदान में तालिबान के आगे बढ़ने का उन्होंने कोई प्रमाण नहीं दिया है. अफ़ग़ान सेना की कार्रवाइयों और तालिबान से वापस जीतने वाले ज़िलों की संख्या को नज़रअंदाज़ करके या मामूली कवरेज देकर मीडिया ने तालिबान को वो कवरेज दे दी है जो वो चाहते हैं. ऐसा होने से तालिबान को लगने लगेगा कि वो ताक़तवर और अजेय हो चुका है. साथ ही तालिबान को मुफ़्त का प्रचार भी मिल गया है जिसके ज़रिए तालिबान अपनी ‘फ़तह’ और ‘जीत’ की शेख़ी बघारेगा. 

ख़बरों पर तालिबान का एकाधिकार

वैसे तो अफ़ग़ानिस्तान में हालात ख़राब हैं लेकिन अफ़ग़ान सेना ने भी तालिबान के कब्ज़े में जाने वाले कुछ ज़िलों को वापस अपने नियंत्रण में लेकर छोटी-मोटी जीत हासिल की है. लेकिन ऐसी कवरेज बहुत कम हैं जिनमें अफ़ग़ान सेना की बढ़त को दिखाया गया है. अफ़ग़ानिस्तान के रक्षा-मंत्रालय की वेबसाइट हर रोज़ तालिबान लड़ाकों के मारे जाने के बारे में अपडेट देती है लेकिन ये संख्या और सूचना अख़बारों की सुर्ख़ियां नहीं बनती हैं. अफ़ग़ानिस्तान से बाहर आ रही ख़बरों पर तालिबान का एकाधिकार बना हुआ है और इस तरह तालिबान सुनिश्चित करता है कि उसकी सैन्य ताक़त को दिखाने वाली नियमित घटनाएं उसके लड़ाकों का मनोबल और भी बढ़ाए. 

दुनिया भर के समाचार संगठन तालिबान के बनावटी अजेय होने के प्रोपगैंडा में योगदान दे रहे हैं. कुछ मामले तो ऐसे भी हैं जहां किसी ज़िले पर कब्ज़ा करने की तालिबान की क्षमता का असर आस-पास के ज़िलों पर भी पड़ा और वहां बेहद कम प्रतिरोध का सामना करके तालिबान को जीत मिल गई.

पूरी तरह तालिबान की कार्रवाइयों और किस तरह वो ज़्यादा इलाक़ों पर कब्ज़ा करने में ‘कामयाब’ रहा है, पर ध्यान देकर और अफ़ग़ान सरकार और अफ़ग़ान सेना की सकारात्मक कार्रवाई या बढ़त को नज़रअंदाज़ करके दुनिया भर के समाचार संगठन तालिबान के बनावटी अजेय होने के प्रोपगैंडा में योगदान दे रहे हैं. कुछ मामले तो ऐसे भी हैं जहां किसी ज़िले पर कब्ज़ा करने की तालिबान की क्षमता का असर आस-पास के ज़िलों पर भी पड़ा और वहां बेहद कम प्रतिरोध का सामना करके तालिबान को जीत मिल गई. दुश्मन पर जीत की बात कहकर लोगों का ध्यान खींचने वाली सुर्ख़ियां और ख़बरों ने न सिर्फ़ तालिबान के एजेंडे में मदद की है बल्कि कुछ मामलों में तो लोगों के विरोध करने की ताक़त को भी कम किया है. 

सैन्य अभियान से लेकर नागरिक हालात तक 

तालिबान के प्रोपगैंडा ने उसके लड़ाकों तक पैग़ाम पहुंचाने और उनके बीच एकजुटता बरकरार रखने की कोशिश पर भी ध्यान दिया है. तालिबान के उप नेता के तौर पर काम कर रहे सिराजुद्दीन हक़्कानी ने अपने 24 जून के ताज़ा संदेश में संगठन के लड़ाकों को उनकी ‘लगातार जीत’ को लेकर संबोधित किया और उन्हें इस बात की याद दिलाई कि तालिबान का अभियान “सैन्य और जिहादी” अभियान से “नागरिक हालात” में बदल रहा है. दूसरे शब्दों में कहें तो हक़्क़ानी को भरोसा है कि जल्द ही तालिबान शासन करने की स्थिति में होगा और तालिबान के लड़ाके निश्चित रूप से “आम लोगों के साथ अच्छा बर्ताव करें.” आने वाले दिनों की काल्पनिक जीत वाले इस तरह के बयान निश्चित रूप से लड़ाकों में नया जोश भरेंगे, लड़ाई को लेकर उनका इरादा मज़बूत होगा और साथ ही उनके अभियान से और ज़्यादा लड़ाके जुड़ेंगे.

ये कहना सही होगा कि समझौते के तहत जो वादे उसने किए थे, उनको कभी उसने माना ही नहीं. अफ़ग़ानिस्तान के अलग-अलग प्रांतों की राजधानी पर जैसे-जैसे तालिबान के लड़ाकों की पकड़ मज़बूत हुई, वैसे-वैसे तालिबान ने कोई रियायत नहीं देने का फ़ैसला लिया.

विश्लेषकों की दलील है कि दो दशक से ज़्यादा समय तक अफ़ग़ानिस्तान में रहने के दौरान अमेरिका ने सोच की लड़ाई गंवा दी. अफ़ग़ानिस्तान के लिए तालिबान के नज़रिए में भले ही हर किसी को भरोसा न हो लेकिन हर कोई इस बात को मानता है कि अमेरिका को वापस घर जाने की ज़रूरत है. ये ऐसी सोच है जिसकी वक़ालत तालिबान करता रहा है. अब जब अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान से अपनी पूरी फ़ौज बाहर करने की प्रक्रिया में है, उस हालत में अमेरिका के द्वारा अफ़ग़ानिस्तान में एक सुरक्षित, लोकतांत्रिक और बहुलतावादी समाज स्थापित करने का काल्पनिक लक्ष्य उसके द्वाया उठाए जा रहे क़दमों के ख़िलाफ़ है. हक़्क़ानी को द न्यूयॉर्क टाइम्स में मंच प्रचार करने से लेकर अमेरिकी सेना के ज्वाइंट चीफ ऑफ स्टाफ के अध्यक्ष जनरल मार्क मिले के द्वारा लड़ाई के मैदान में तालिबान की कामयाबी को कम करके बताना और अफ़ग़ान बलों को बिना बताए एक अमेरिकी सैन्य अड्डे से निकल जाना, अमेरिका के द्वारा इस तरह के क़दम तालिबान के हाथों में खेलने की तरह हैं. ऐसा करके अमेरिका तालिबान के उस एजेंडे में फंस गया है जिसके तहत वो अपनी अंतर्राष्ट्रीय वैधता और एक महाशक्ति के ऊपर अपनी जीत को दिखा रहा है. 

अगर 2020 की दोहा बातचीत ने भविष्य के लिए उम्मीद की किरण दिखाई तो 2021 अंधेरा, मनहूस बादल लेकर आया है. शांति प्रक्रिया से मिलती-जुलती कोई भी धुंधली चीज़ तेज़ी से ग़ायब हो गई है और इसके साथ ही वो उम्मीद भी ख़त्म हो गई है कि पिछले साल अमेरिका और तालिबान के बीच का समझौता सभी पक्षों के लिए ‘सबसे बेहतर विकल्प’ था. तालिबान उस समझौते से पीछे हट गया है बल्कि ये कहना सही होगा कि समझौते के तहत जो वादे उसने किए थे, उनको कभी उसने माना ही नहीं. अफ़ग़ानिस्तान के अलग-अलग प्रांतों की राजधानी पर जैसे-जैसे तालिबान के लड़ाकों की पकड़ मज़बूत हुई, वैसे-वैसे तालिबान ने कोई रियायत नहीं देने का फ़ैसला लिया. पिछले कई वर्षों में चर्चा के दौरान अमेरिका के जाने के बाद जिन अलग-अलग हालात की कल्पना की गई थी, उनमें से कोई भी स्थिति कभी भी आदर्श नहीं थी. लेकिन मौजूदा हालात, जहां तालिबान हर रोज़ सैन्य, राजनीतिक और कूटनीतिक बढ़त बना रहा है, संभवत: उनमें से सबसे ख़राब स्थिति है. 

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