Author : Sushant Sareen

Published on Aug 17, 2021 Updated 0 Hours ago

अफ़ग़ानिस्तान को न सिर्फ़ दुनिया की उन बड़ी ताक़तों ने उसके हाल पर छोड़ दिया है, जिन्होंने फिर से ऐसा न करने का वादा किया था बल्कि, अफ़ग़ानिस्तान की राष्ट्रीय सेना ने भी बिना कोई लड़ाई किए ही अपने हथियार डाल दिए. 

अफ़ग़ानिस्तान: एक दौर का दुख़द अंत और नये ‘ग्रेट गेम’ की शुरुआत!

दीवार पर लिखी इबारत साफ़ दिख रही है. अफ़ग़ानिस्तान को न सिर्फ़ दुनिया की उन बड़ी ताक़तों ने उसके हाल पर छोड़ दिया है, जिन्होंने फिर से ऐसा न करने का वादा किया था. बल्कि, अफ़ग़ानिस्तान की राष्ट्रीय सेना ने भी बिना कोई लड़ाई किए ही अपने हथियार डाल दिए. अफ़ग़ान सूबों के नेताओं ने समय से क़दमताल मिलाते हुए, अपनी अपनी हिफ़ाज़त के लिए तालिबान से हाथ मिला लिया. या तो उन्हें रिश्वत देकर राज़ी कर लिया गया, या फिर दबाव डालकर हथियार डालने को मजबूर किया गया. इसके बाद इन नेताओं ने अपने शहरों और क़िलों के दरवाज़े पाकिस्तान के समर्थन वाले हथियारबंद संगठन तालिबान के लिए खोल दिए. अब देश की राजधानी काबुल पर भी तालिबान का क़ब्ज़ा हो गया है.

जब तालिबान के लड़ाके राजधानी काबुल के दरवाज़े तक पहुंच गए, तो अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी ने अपना बोरिया बिस्तर समेटा और अपने क़रीबी लोगों को लेकर विशेष विमान से देश से भाग निकले. राष्ट्रपति के साथ उनकी सरकार के कई मंत्री और अधिकारी भी भाग निकले. पश्चिमी देशों ने आनन-फ़ानन में अपने नागरिक काबुल से सुरक्षित निकालना शुरू कर दिया. तालिबान की आमद से काबुल में अराजकता फैल गई. जिसके बाद तालिबानी लड़ाके राष्ट्रपति के महल तक जा पहुंचे. दुनिया भर के लोगों ने देखा कि तालिबान के लड़ाके अफ़ग़ान राष्ट्रपति के महल की मेज़ पर हथियार रखकर मीडिया के कैमरों के लिए पोज़ दिए. वहीं, काबुल एयरपोर्ट से उड़ान भर रहे विमानों में लोग इस तरह सवार हो रहे थे, मानो वो कोई बस या टेंपो हो. बदहवासी में कई लोग उड़ते विमान से टपक पड़े और उनकी मौत हो गई. एयरपोर्ट पर फैली अराजकता देखकर वहां मौजूद अमेरिकी सैनिकों ने गोली चला दी, जिसमें सात लोग मारे गए.

जब तालिबान के लड़ाके राजधानी काबुल के दरवाज़े तक पहुंच गए, तो अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी ने अपना बोरिया बिस्तर समेटा और अपने क़रीबी लोगों को लेकर विशेष विमान से देश से भाग निकले. राष्ट्रपति के साथ उनकी सरकार के कई मंत्री और अधिकारी भी भाग निकले.

तालिबान को अंतरराष्ट्रीय मान्यता

आने वाले दिनों में शायद तालिबान दिखावे के लिए पिछली सरकार के कुछ लोगों के साथ मिलकर अंतरिम सरकार बना ले. पुरानी हुकूमत से जुड़े कुछ लोगों को सुरक्षित देश छोड़ने का समझौता हो जाए और तालिबान ये सुनिश्चित करें कि बड़े पैमाने पर न तो आम नागरिकों का और न ही अफ़ग़ान सैनिकों का क़त्ल-ए-आम हो. चूंकि तालिबान ने काबुल पर बिना किसी ज़ोर- ज़बरदस्ती के क़ब्ज़ा किया, तो इससे उसकी हुकूमत को अंतरराष्ट्रीय मान्यता के दरवाज़े खुलेंगे. उम्मीद के मुताबिक़, सबसे पहले चीन ने ये बयान दिया है कि उसे तालिबान के साथ काम करने में कोई दिक़्क़त नहीं. ज़ाहिर है पाकिस्तान भी तालिबान की हुकूमत को मान्यता देने में देर नहीं करेगा. इसके बाद रूस, मध्य एशियाई देश और शायद ईरान भी उन्हें मान्यता दे दे. अगर पश्चिमी देश भी काबुल लौटकर अपने दूतावास खोल लें, तो किसी को हैरानी नहीं होगी. हालांकि, वो ऐसा नहीं भी करते, तो किसी को इससे परेशानी नहीं होगी. पश्चिमी देश, अफ़ग़ानिस्तान की तरफ़ से मुंह फेर लेंगे. वो कभी कभार मानव अधिकारों के हालात, महिलाओं और धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ बर्ताव और नागरिकों की आज़ादी को लेकर भी चिंता ज़ाहिर करेंगे. पर कुल मिलाकर, पश्चिम में अफ़ग़ानिस्तान को बहुत जल्द एक बुरे ख़्वाब की तरह भुला दिया जाएगा.

अगर, काबुल पर क़ब्ज़े के लिए तालिबान को लड़ना पड़ता और वहां हिंसा होती, तो आज के डिजिटल दौर में हिंसा और मार-काट की तस्वीरें पूरी दुनिया तक पहुंचतीं. ज़ाहिर है, अमेरिका और दूसरे पश्चिमी देशों की इज़्ज़त पर दाग़ लगता और जो बाइडेन के बचे हुए कार्यकाल में काबुल की ये तस्वीरें उन्हें परेशान करती रहतीं. शायद यही वजह है कि अमेरिका ने दबाव बनाकर अशरफ़ ग़नी को देश छोड़ने पर मजबूर किया. देश छोड़ने से पहले जारी बयान में ही अशरफ़ ग़नी ने आने वाले दौर का इशारा कर दिया था.

पश्चिमी देश, अफ़ग़ानिस्तान की तरफ़ से मुंह फेर लेंगे. वो कभी कभार मानव अधिकारों के हालात, महिलाओं और धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ बर्ताव और नागरिकों की आज़ादी को लेकर भी चिंता ज़ाहिर करेंगे. पर कुल मिलाकर, पश्चिम में अफ़ग़ानिस्तान को बहुत जल्द एक बुरे ख़्वाब की तरह भुला दिया जाएगा.

कुल मिलाकर कहें कि अब दुनिया ने ये मान लिया है कि अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान का राज क़ायम हो गया है. दोहा संवाद के नाटक की उपयोगिता ख़त्म हो चुकी है. इस बातचीत का इकलौता मक़सद यही था कि तालिबान को किसी तरह से अंतरराष्ट्रीय मान्यता और पहचान दिलाई जा सके कि वो बदल गए हैं और हिंसा के बजाय, बातचीत से मसले हल करने में यक़ीन रखने लगे हैं. दोहा में बातचीत के ढोंग का एक फ़ायदा ये भी था कि इससे अमेरिकी और अफ़ग़ान जनता के मुंह बंद किए जा सकें. अशरफ़ ग़नी को सत्ता छोड़ने पर मजबूर करके शायद अमेरिका ने पाकिस्तान को उसके स्वतंत्रता दिवस का तोहफ़ा दिया है. तालिबान की जीत के बाद पाकिस्तान अपनी ख़ुशी छुपा नहीं पा रहा है. ज़ाहिर है, पाकिस्तान में भी बहुत से लोग हैं, जो दोमुंही बातें कर रहे हैं. अपने देश में तो वो तालिबान की जीत का जश्न मना रहे हैं. लेकिन, ऊपर से वो दिखावा ये कर रहे हैं कि अफ़ग़ानिस्तान के तालिबानीकरण से वो बहुत फ़िक्रमंद हैं. अफ़ग़ानिस्तान के तालिबानीकरण से लोग जितना ही पाकिस्तान पर बुरे असर की बातें कर रहे हैं, उससे पाकिस्तान का ही फ़ायदा हो रहा है, क्योंकि इससे पाकिस्तान को उस ग़ुस्से और आरोप को कम करने में मदद मिल रही है कि पिछले दो दशक से वो ही तालिबान को समर्थन देता आ रहा है. इससे उसे अपने ऊपर लग रहे सारे आरोपों से पल्ला झाड़ने में भी मदद मिल रही है.

पाकिस्तान की भूमिका

हालांकि, हक़ीक़त ये है कि पाकिस्तान और तालिबान दोनों ही जल्द से जल्द पूरे अफ़ग़ानिस्तान पर क़ब्ज़ा करके जंग ख़त्म करना चाह रहे थे. अगर लड़ाई लंबे समय तक से किसी को फ़ायदा नहीं होता, क्योंकि इससे उनकी सारी बड़ी बड़ी योजनाएं खटाई में पड़ जातीं. इनमें चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारे का मध्य एशिया तक विस्तार करके, पाकिस्तान के कनेक्टिविटी और भू-आर्थिक ख़्वाब को पूरा करना शामिल है. यही वजह है कि पाकिस्तान ने तालिबान के अभियान में अपनी पूरी ताक़त झोंक दी. अपना हाथ होने से इनकार करने के सारे विकल्प खोलकर, पाकिस्तान के जनरलों ने अपनी पूरी ताक़त तालिबान के पीछे लगा दी थी, जिससे जंग के ज़रिए जीत हासिल की जा सके. जिस तरह कुछ विश्लेषक तालिबान का प्रयोग पाकिस्तान पर भारी पड़ने की बात कह रहे हैं, उसे पाकिस्तानी जनरल  ग़लत मानते है. हां, कुछ चुनौतियां आएंगी. लेकिन, ये ऐसी नहीं होंगी जिनसे पाकिस्तान की फ़ौज निपट न सके. पाकिस्तान के जनरलों को इस बात की भी फ़िक्र नहीं है कि वो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अलग थलग पड़ जाएंगे या पाकिस्तान पर प्रतिबंध लग जाएंगे. बुरे से बुरे हालात में बस यही होगा कि पश्चिमी देशों के साथ रिश्तों में कुछ तनाव होगा. पाकिस्तान का मानना है कि वो इस चुनौती से भी पार पा लेंगे. इसमें चीन और रूस जैसे देश तो उसकी मदद करेंगे ही. पाकिस्तान का ये भी यक़ीन है कि अमेरिका उसे पूरी तरह हाशिए पर नहीं धकेलेगा और उसे ख़ुफ़िया उड़ानों के लिए पाकिस्तान के एयरस्पेस की ज़रूरत पड़ती रहेगी. इसलिए वो अफ़ग़ानिस्तान के हालात पर नज़र बनाए रखने के लिए पाकिस्तान पर निर्भर रहेगा.

पाकिस्तान का ये भी यक़ीन है कि अमेरिका उसे पूरी तरह हाशिए पर नहीं धकेलेगा और उसे ख़ुफ़िया उड़ानों के लिए पाकिस्तान के एयरस्पेस की ज़रूरत पड़ती रहेगी. इसलिए वो अफ़ग़ानिस्तान के हालात पर नज़र बनाए रखने के लिए पाकिस्तान पर निर्भर रहेगा.

पाकिस्तान के समीकरणों में काबुल और अफ़ग़ानिस्तान पर तुरंत क़ब्ज़े से दुनिया का नज़रिया भी बदलेगा. अगर अमेरिका की अगुवाई में कुछ देश तालिबान से किनारा भी करेंगे, तो कई और देश ऐसे होंगे जो बड़े उत्साह और ख़ुशी से तालिबान की हुकूमत क़ुबूल करेंगे और उसके साथ रिश्ते क़ायम करेंगे. चीन ने पहले ही ये कह दिया है कि वो तालिबान से हाथ मिलाने को तैयार है. इस मामले में चीन ने पहल कर दी, तो पाकिस्तान भी पीछे नहीं रहेगा. फिर रूस, मध्य एशिया के देश और ईरान भी ऐसा ही करेंगे. पाकिस्तान इसे भी अपनी बड़ी कूटनीतिक और सामरिक जीत के तौर पर देखेगा. पाकिस्तान, रूस, ईरान, चीन और मध्य एशियाई देशों का अफ़ग़ानिस्तान के इर्द-गिर्द बुना गया PRICs गठबंधन, पश्चिमी देशों की मान्यता की ज़रूरत ख़त्म कर देगा, और अगर चीज़ें योजना के हिसाब से हुईं तो हो सकता है कि कुछ पश्चिमी देश भी तालिबान की हुकूमत को मान्यता दे दें. पहले ही ऐसे संकेत हैं कि अमेरिका ने तालिबान को मान्यता देने का लालच दिया है. इसके एवज़ में तालिबान के सामने अमेरिका ने यही शर्त रखी कि है वो अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों के नागरिकों और राजनयिकों को सुरक्षित अफ़ग़ानिस्तान से निकालने दे.

तालिबान को अफ़ग़ानिस्तान पर क़ाबिज़ होने देने का काम पूरा होने के बाद अब नज़र इस बात पर होगी कि अफ़ग़ानिस्तान में आगे क्या होता है और इसका इस क्षेत्र और अन्य जगहों पर क्या असर पड़ता है. पाकिस्तान और दूसरे देशों की बड़ी-बड़ी योजनाएं इस बात पर टिकी हैं कि तालिबान किस तरह का बर्ताव करते हैं, और अफ़ग़ानिस्तान में किस तरह हुकूमत चलाते हैं. अगर तालिबान अपने बर्ताव में बदलाव नहीं लाते और वैसे ही ज़ुल्म ढाते हैं, जिसके लिए वो बदनाम रहे हैं, तो आशंका यही है कि लोग उनसे नज़दीकी बनाने से परहेज़ करेंगे. इसके अलावा दुनिया के दूसरे जिहादी संगठनों से तालिबान के रिश्तों की भी आलोचना होती रहेगी. चिंता इस बात की है कि अफ़ग़ानिस्तान एक बार फिर आतंक का अड्डा बन जाएगा. वहां इस क्षेत्र ही नहीं पूरी दुनिया के इस्लामिक आतंकी संगठनों को पनाह मिलेगी. हाल ही में दिए एक इंटरव्यू में तालिबान के प्रवक्ता ने इन आतंकवादी संगठनों के साथ रिश्ते को लेकर बड़ा अस्पष्ट नज़रिया सामने रखा था. सच तो ये है कि ये आतंकी संगठन पिछले 20 साल से तालिबान के साथ मिलकर लड़ते आए हैं और एक-दूसरे के सहयोगी बन चुके हैं. इसका मतलब ये है कि उनके बीच ताल्लुक़ सिर्फ़ इसलिए ख़त्म नहीं किए जा सकते कि तालिबान ने काबुल में हुकूमत पर क़ब्ज़ा कर लिया है. लेकिन, क्या आगे चलकर तालिबान इन इस्लामिक आतंकी संगठनों के अपना एजेंडा चलाने पर लगाम लगाएगा? इस सवाल का जवाब ही बाक़ी दुनिया और ख़ास तौर से अन्य क्षेत्रीय ताक़तों से तालिबानी अफ़ग़ानिस्तान के रिश्ते तय करेगा.

तालिबान भी चाहेंगे कि वो ताजिक, उज़्बेक, पाकिस्तानी, चीनी, चेचेन, अरब और कुछ ईरानी आतंकियों को अपने साथ जोड़े रखें, जिससे अगर कोई देश अफ़ग़ानिस्तान के मामलों में दख़ल देने के बारे में सोचे, तो वो इनका इस्तेमाल कर सकें.

अन्य आंतकी संगठन और तालिबान

कम से कम अभी तो तालिबान इन आतंकी संगठनों पर लगाम नहीं लगाने जा रहा, क्योंकि ये संगठन, सत्ता हासिल करने की जंग में उसके मददगार रहे हैं. तालिबान को अफ़ग़ानिस्तान पर अपना शिकंजा मज़बूत करने और बग़ावत के किसी भी सुर को ख़ामोश करने के लिए इनकी ज़रूरत पड़ेगी. लेकिन, जब ये दौर बीत जाएगा, तो तालिबान को इन आतंकी संगठनों के बारे में फ़ैसला लेना होगा. इनमें से बहुत से संगठन ये चाहेंगे कि तालिबान उनके एजेंडे को उसी तरह समर्थन दे, जिस तरह से उन्होंने तालिबान का साथ दिया है. अगर, तालिबान इन इस्लामिक संगठनों पर लगाम लगाता है, तो हो सकता है कि उनके रिश्ते ख़राब हों और लड़ाई शुरू हो जाए; अगर तालिबान इन संगठनों को पनाह देता है और उन्हें अपनी मनमानी करने देता है, तो इससे पड़ोसी देशों को परेशानी होगी. सच तो ये है कि जो देश तालिबान के साथ काम करने को तैयार हैं, वो भी इन आतंकी संगठनों को लेकर चिंतित हैं. इसीलिए, ये देश तालिबान पर किसी न किसी तरह का दबाव बनाए रखना चाहेंगे. इसका मतलब कुछ तालिबान विरोधियों को अपने यहां शरण देना होगा. तालिबान भी चाहेंगे कि वो ताजिक, उज़्बेक, पाकिस्तानी, चीनी, चेचेन, अरब और कुछ ईरानी आतंकियों को अपने साथ जोड़े रखें, जिससे अगर कोई देश अफ़ग़ानिस्तान के मामलों में दख़ल देने के बारे में सोचे, तो वो इनका इस्तेमाल कर सकें. तालिबान इन विदेशी जिहादियों के साथ कैसा बर्ताव करेगा, ये बहुत कुछ तालिबान के अंदरूनी समीकरण पर भी निर्भर करेगा. तालिबान के राजनीतिक चेहरे तो तमाम तरह का भरोसा दे रहे हैं. लेकिन, असल में ज़मीन पर काम करने वाले तालिबान के जंगी कमांडर ही हैं, जो विदेशी जिहादियों के साथ मिलकर लड़ते रहे हैं. अब उनके बारे में कौन फ़ैसला करेगा, ये तो हम आने वाले समय में ही जान सकेंगे.

अफ़ग़ानिस्तान में पाकिस्तान का बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है और ये सब इस बात पर निर्भर करेगा कि तालिबान किस तरह अपनी हुकूमत चलाते हैं. ज़ाहिर है पाकिस्तान इसमें अपने लिए एक भूमिका देखता है

और आख़िर में पाकिस्तान की भूमिका भी है. पाकिस्तानियों ने तालिबान का समर्थन किया है. उन्हें सुरक्षित ठिकाने और अड्डे मुहैया कराए हैं. तालिबान को दोबारा अपनी ताक़त बढ़ाने में मदद की है. उन्हें हथियार और पैसे दिए हैं और यहां तक कि उनकी योजनाएं और रणनीति बनाने में भी मदद की है और हत्या जैसे क़दम उठाकर, तालिबान आंदोलन को टूटने से बचाया है. ज़ाहिर है कि पाकिस्तान को ये महसूस हो रहा होगा कि अफ़ग़ानिस्तान में आगे क्या होगा, ये तय करने में उनकी राय अहम है. लेकिन, कुछ विश्लेषकों का कहना है कि तालिबान के बहुत से नेता अपने साथ हुए बर्ताव और दादागीरी के चलते पाकिस्तान के प्रति गहरी नाराज़गी रखते हैं. वहीं, पाकिस्तान को इस बात की चिंता है कि कहीं तालिबान अड़ियल रवैया न अख़्तियार कर लें. उनकी बात मानने से से इनकार न कर दें और पाकिस्तानी तालिबान का समर्थन न करने लगें. हो सकता है कि ये बातें फ़ौरी तौर पर न देखने को मिलें. लेकिन, देर सबेर ऐसा होने की आशंका पाकिस्तान को है. सच तो ये है कि इस बार पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान में सब कुछ अपने हिसाब से करने के लिए बेसब्र हो रहा है. अब वो दुनिया में और ख़ास तौर से इस क्षेत्र में अलग-थलग होना नहीं झेल पाएंगे. अफ़ग़ानिस्तान में पाकिस्तान का बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है और ये सब इस बात पर निर्भर करेगा कि तालिबान किस तरह अपनी हुकूमत चलाते हैं. ज़ाहिर है पाकिस्तान इसमें अपने लिए एक भूमिका देखता है और जैसी कि उनकी आदत है, वो कुछ ज़्यादा ही नाक घुसाने लगते हैं. दादागीरी करने लगते हैं और मांग करने लगते हैं. हो सकता है कि तालिबान इन बातों को नापसंद करे. इनका विरोध करे. इनसे भारत के लिए एक खिड़की खुल सकती है.

भारत के लिए गुंजाइश

अभी भारत को लंबी लड़ाई के लिए तैयारी करनी चाहिए. इसमें अफ़ग़ानिस्तान में अपने दोस्तों को भारत में शरण देकर मदद करना शामिल है. अफ़ग़ानिस्तान में हालात बदले तो वो हमारे सबसे दमदार साथी होंगे.

यहां एक बात साफ़ तौर पर समझनी होगी. अफ़ग़ानिस्तान का खेल ख़त्म नहीं हुआ. एक दौर भर बीता है और एक नया ‘ग्रेट गेम’ बस शुरू हो रहा है. इस समय भारत को सामरिक सब्र दिखाने की ज़रूरत है. जल्द ही भारत को भी अपने दांव चलने का मौक़ा मिलेगा. अगर तालिबान ये साबित करना चाहे कि वो मध्ययुग के शैतान नहीं, बल्कि रूढ़िवादी हैं, तो भारत भी उनके प्रति नरमी अख़्तियार करेगा. या फिर पाकिस्तान से संतुलन बनाने के लिए ख़ुद तालिबान ही भारत की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाएं. ये भी हो सकता है कि चारों तरफ़ से तालिबान का ही विरोध हो. ऐसा भी होता है, तो भारत के लिए नए विकल्प खुलेंगे. हालांकि, अभी भारत को लंबी लड़ाई के लिए तैयारी करनी चाहिए. इसमें अफ़ग़ानिस्तान में अपने दोस्तों को भारत में शरण देकर मदद करना शामिल है. अफ़ग़ानिस्तान में हालात बदले तो वो हमारे सबसे दमदार साथी होंगे. अफ़ग़ान दोस्तों की मदद करना सिर्फ़ जज़्बाती प्रतिक्रिया नहीं है. ये एक सामरिक क़दम भी है. 1990 के दशक में भारत ने जिन अफ़ग़ान नागरिकों की मदद की थी, वो पिछले 20 वर्षों में हमारे सबसे पक्के साथी साबित हुए. पिछले दो दशकों में भारत ने अगर अफ़ग़ानिस्तान में मौक़े पर मौक़े गंवाए, तो इसमें अफ़ग़ानों का कोई दोष नहीं है. ये भारत के नीति निर्माताओ की कमी रही कि उन्होंने देश की सॉफ्ट पावर पर ज़्यादा भरोसा किया और अफ़ग़ानिस्तान जैसे सख़्तजान देश में भारत की हार्ड पावर के विकल्प तैयार करने पर ध्यान नहीं दिया. हमें वैसी ही ग़लती दोबारा नहीं करनी चाहिए.

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