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आप दलील दे सकते हैं कि अफ़ग़ानिस्तान से पीछा छुड़ाकर अमेरिका पूर्वी एशिया में चीन जैसी चुनौतियों से निपटने में और ज़्यादा सक्षम बन जाएगा. लेकिन बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि किस तरह अमेरिका में आंतरिक रूप से ये मुद्दे उभरते हैं.
अफ़ग़ानिस्तान की घटनाओं ने उन बातों पर ज़ोर दिया है जो हमेशा हमारी तरफ़ मुंह बाए खड़ी थी: एक विशाल खाड़ी है जो इंडो-पैसिफिक में भारत और अमेरिका के हितों को अलग-अलग करती है. हम यहां इंडो-पैसिफिक को लेकर भारतीय परिभाषा को मानकर चल रहे हैं जो कि राजनीतिक के बदले भौगोलिक है और जिसके बारे में आख़िरी बार प्रधानमंत्री मोदी ने 2018 में समझाया था और जो वास्तव में एक ऐसा क्षेत्र है जो “अफ्रीका के समुद्र तट से लेकर लेकर अमेरिका तक” फैला हुआ है. इंडो-पैसिफिक को लेकर अमेरिका की धारणा अलग है क्योंकि अमेरिका के मुताबिक़ ये भारत के पश्चिमी समुद्र तट से शुरू होकर अमेरिका के समुद्र तट तक है.
भारत-अमेरिका सामरिक साझेदारी में पश्चिमी हिंद महासागर और उसके बेहद महत्वपूर्ण किनारे शामिल नहीं हैं. इस किनारे में सऊदी प्रायद्वीप, पूर्वी अफ्रीका और हमारे प्रमुख महाद्वीपीय सरोकार शामिल हैं. इन सरोकारों में यूरेशिया-ईरान, अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और मध्य एशिया हैं.
ये हैरानी की बात नहीं है कि हमारे इंडो-पैसिफिक सामरिक साझेदार ने हमें दोहा प्रक्रिया से अलग रखा, उसे ये उपयोगी नहीं लगा कि अब ख़त्म हो चुके पश्चिमी क्वॉड जिसमें अमेरिका, पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और उज़्बेकिस्तान जैसे देश शामिल थे, में भारत को रखा जाए.
इस तरह ये हैरानी की बात नहीं है कि हमारे इंडो-पैसिफिक सामरिक साझेदार ने हमें दोहा प्रक्रिया से अलग रखा, उसे ये उपयोगी नहीं लगा कि अब ख़त्म हो चुके पश्चिमी क्वॉड जिसमें अमेरिका, पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और उज़्बेकिस्तान जैसे देश शामिल थे, में भारत को रखा जाए. इन परिस्थितियों में इस बात का सवाल ही नहीं उठता कि भारत को अफ़ग़ानिस्तान के घटनाक्रम के बारे में सचेत रखा जाए जिनमें वहां से बाहर निकलने की अमेरिकी योजना के महत्वपूर्ण पहलू शामिल हैं. ये इस तथ्य के बावजूद कि हमने अफ़ग़ानिस्तान में जो भी किया- जो कि पुनर्निर्माण की कोशिशों के मामले में अपर्याप्त नहीं है- वो अमेरिकी सुरक्षा घेरे पर महत्वपूर्ण रूप से निर्भर था.
इस वजह से ऐसा लग रहा है कि साउथ ब्लॉक बहुत ज़्यादा ये दिखाने की कोशिश कर रहा है कि अमेरिका-भारत सामरिक साझेदारी अभी भी बची हुई है और अफ़ग़ानिस्तान में अराजकता के बाद भी इसमें मज़बूती आ रही है. ये दिखाने की कोशिश की जा रही है कि काबुल से अपने राजनयिकों को निकालने में भारत को अमेरिका से कितनी मदद मिली और इस काम में दोनों देशों के बीच कितना समन्वय हुआ. वहीं इस काम में तालिबान के द्वारा अदा की गई प्रमुख भूमिका को कम करके बताया जा रहा है या नज़रअंदाज़ किया जा रहा है.
भविष्य की तरफ़ देखते हुए ताज्जुब होता है कि क्या एक सामंजस्यपूर्ण इंडो-पैसिफिक नीति संभव भी है. जिस तरह से अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान को छोड़ा उसे देखते हुए लगता नहीं है कि अमेरिका इस क्षेत्र में कोई नया वादा करने की जल्दबाज़ी में है.
अमेरिका के नज़रिए से मध्य-पूर्व से रवानगी तो समझ में आती है. अमेरिका अब तेल के लिए उस झगड़ालु क्षेत्र पर निर्भर नहीं है. आज के समय में अमेरिकी की मुख्य चिंता संभवत: केवल इसराइल की सुरक्षा है. इससे वास्तव में अमेरिका को मदद मिलेगी कि वो इंडो-पैसिफिक क्षेत्र की अपनी परिभाषा में चीन के साथ अपने मुक़ाबले पर ध्यान दे.
भूगोल, भू-राजनीति का अचल हिस्सा, की ज़रूरत है कि भारत जहां है वहीं पर बना रहे. और वहां से अफ़ग़ान त्रासदी ख़ूबसूरत नहीं दिखती.
लेकिन भूगोल, भू-राजनीति का अचल हिस्सा, की ज़रूरत है कि भारत जहां है वहीं पर बना रहे. और वहां से अफ़ग़ान त्रासदी ख़ूबसूरत नहीं दिखती. अफ़ग़ानिस्तान में हमारे पास बहुत कम विकल्प थे लेकिन हम इस आरोप से परहेज़ नहीं कर सकते कि अमेरिका के इशारे पर हमने ईरान के साथ अपनी दोस्ती तोड़ ली. इस बात से हैरान होने की ज़रूरत नहीं है कि अब अमेरिका वास्तव में ईरान के साथ अपना समझौता फिर से शुरू कर ले. ये उस वक़्त जब ईरान ने भारत की कायरता पर अपना ग़ुस्सा दिखाते हुए हमें चाबाहार तक पहुंच देने से इनकार कर दिया है. वैसे भारत के लिए चाबाहार की उपयोगिता बहस का विषय है.
लेकिन भारत को बड़ा झटका अफ़ग़ानिस्तान में लगा है जहां के लोगों के बीच भारत की अच्छी छवि है और सरकार के साथ नज़दीकी संबंध थे. यहां तक कि अफ़ग़ानिस्तान की खुफ़िया सेवा, राष्ट्रीय सुरक्षा निदेशालय (एनडीएस), के साथ भी भारत के अच्छे संबंध थे जिसके ज़रिए वो पाकिस्तान में किसी अभियान को अंजाम दे सकता था.
पाकिस्तान के द्वारा हथियारों, पैसे और सुरक्षित पनाहगाह की सुविधा देने के बावजूद नये तालिबान पर उसके असर का अंदाज़ा लगाना मुश्किल है. दूसरी तरफ़ तालिबान ने ईरान और रूस के साथ रास्ते को खोला है और ऐसा करके उसने सुनिश्चित किया है कि उसके साजो-सामान पर इस्लामाबाद की पकड़ कमज़ोर होगी. मुल्ला बरादर, जिन्हें पाकिस्तान ने हिरासत में लिया था और 8 साल तक उनके साथ दुर्व्यवहार किया था, जैसे लोगों की याददाश्त मज़बूत होती है. लेकिन हक़्क़ानी नेटवर्क, जो अब शायद तालिबान के घटकों में सबसे मज़बूत हिस्सा है, के रूप में पाकिस्तान के पास एक महत्वपूर्ण तुरुप का पत्ता है.
भारत को बड़ा झटका अफ़ग़ानिस्तान में लगा है जहां के लोगों के बीच भारत की अच्छी छवि है और सरकार के साथ नज़दीकी संबंध थे. यहां तक कि अफ़ग़ानिस्तान की खुफ़िया सेवा, राष्ट्रीय सुरक्षा निदेशालय (एनडीएस), के साथ भी भारत के अच्छे संबंध थे जिसके ज़रिए वो पाकिस्तान में किसी अभियान को अंजाम दे सकता था.
भारत का पश्चिमी सिरदर्द बढ़ने की आशंका है क्योंकि पाकिस्तान और चीन सहयोग बढ़ाकर अपने नये त्रिकोण में अफ़ग़ानिस्तान को शामिल करने की कोशिश करेंगे. 18 अगस्त को फ़ोन पर बातचीत के दौरान चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद क़ुरैशी के सामने चार सुझाव रखे. पहला सुझाव अफ़ग़ानिस्तान में व्यापक, समावेशी राजनीतिक संरचना की स्थापना को समर्थन देने की ज़रूरत है. दूसरा सुझाव ऐसी प्रक्रिया को समर्थन देना है जो ये सुनिश्चित करे कि अफ़ग़ानिस्तान फिर से आतंकवाद के लिए पनाहगाह नहीं बने. तीसरा सुझाव अफ़ग़ानिस्तान में चीन और पाकिस्तान के कर्मियों की सुरक्षा को महत्व देने पर है. चौथा सुझाव अफ़ग़ानिस्तान को लेकर अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा देना है.
वांग यी और शाह महमूद क़ुरैशी की बातचीत के दिन ही चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने ईरान के राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी और इराक़ के राष्ट्रपति बरहम सालेह से अलग-अलग बातचीत की. ईरान के साथ बातचीत में शी ने द्विपक्षीय सहयोग और “बाहरी दखल” के ख़िलाफ़ ज़ोरदार समर्थन जताया. इसके अलावा शी ने व्यापक परमाणु समझौते को लेकर ईरान की “जायज़ चिंताओं” का समर्थन भी किया.
पाकिस्तान का जो भी लक्ष्य हो लेकिन अफ़ग़ानिस्तान में गड़बड़ी को बढ़ाने में चीन की दिलचस्पी नहीं होगी. अफ़ग़ानिस्तान में चीन का दृष्टिकोण रक्षात्मक है जिसका उद्देश्य मध्य एशिया में अमेरिकी ताक़त या इस्लामिक कट्टरता को बढ़ने से रोकना है. बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) के तहत मध्य एशिया, ईरान और पाकिस्तान में चीन ने बहुत अधिक वित्तीय निवेश किया है और अब उसका लक्ष्य बीआरआई में अफ़ग़ानिस्तान को शामिल करना भी होगा.
ऐसी ख़बरें पहले से ही हैं कि (यहां और यहां) कि किस तरह चीन अफ़ग़ानिस्तान में मौजूद दुर्लभ खनिजों, जिसकी क़ीमत 1 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर है, को अपने काम में ला सकता है. ग्लोबल टाइम्स के मुताबिक़ 2009 से ही चीन अफ़ग़ानिस्तान के खनन क्षेत्र के लिए प्रतिबद्ध है और उसने पहले ही 500 मिलियन अमेरिकी डॉलर के व्यापार के साथ वहां के खनन संचार और सड़क संचार क्षेत्र में 630 मिलियन अमेरिकी डॉलर का सीधा निवेश किया है
फिलहाल अफ़ग़ानिस्तान में भारतीय निवेश और व्यापार चीन के मुक़ाबले काफ़ी ज़्यादा है. भारत ने वहां सड़कें, बांध, बिजली की ट्रांसमिशन लाइन, सब स्टेशन, स्कूल, अस्पताल बनाए हैं, तोहफ़े के रूप में बसें दी हैं और कर्मियों को प्रशिक्षित किया है. भारत और ईरान ने हाजीगक में खनन भंडार का फ़ायदा उठाने के लिए भी हाथ मिलाए हैं. लेकिन अब अफ़ग़ानिस्तान में भारत के निवेश पर बड़ा सवाल होगा. अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता में आने वाली कोई भी नई सरकार अब इसे नये भू-राजनीतिक चश्मे के ज़रिए देखेगी और निश्चित रूप से इसके विपरीत भी देखा जाएगा.
हम लोग पहले ही भू-राजनीतिक घटनाक्रमों में थोड़ा बदलाव देख रहे हैं जो हमें सुकून नहीं देते हैं. चीन-पाकिस्तान के रिश्तों में गहराई के अलावा पाकिस्तान में अमेरिका की दिलचस्पी बढ़ गई है. अमेरिका ने पाकिस्तान में आतंकवाद निरोधी अड्डे बनाने की इच्छा की तरफ़ इशारा किया है लेकिन जब पाकिस्तान ने मज़बूती से इसका विरोध किया तो अमेरिका पीछे हट गया. मगर पाकिस्तान में अमेरिका के लंबे-चौड़े निवेश को देखते हुए लगता नहीं कि ये बात यहीं ख़त्म हो गई है.
इंडो-पैसिफिक के दूसरी तरफ़ अमेरिका और चीन- दोनों की तकरार जारी है. सबसे ताज़ा भिड़ंत आसियान क्षेत्रीय मंच (एआरएफ) पर हुई. इस बैठक को चीन के विदेश मंत्री वांग यी और अमेरिका के विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन ने संबोधित किया. भारत ने इसमें विदेश राज्य मंत्री राजकुमार रंजन सिंह को नुमाइंदगी के लिए भेजा. वांग ने ख़ुलासा किया कि 20 साल से ज़्यादा समय से चीन आसियान के साथ जो बात कर रहा है, उसमें आचार संहिता को लेकर पहले की एक मंत्रिस्तरीय बैठक में संभावित सहमति बन गई है. ऐसा कहकर वांग ये दिखाने की कोशिश कर रहे थे कि चीन और आसियान दक्षिणी चीन सागर की समस्याओं का समाधान कूटनीतिक तरीक़े से करना चाहते हैं. ये अमेरिका के उस रुख़ के ख़िलाफ़ है जिसके तहत वो दक्षिणी चीन सागर में “नौवहन की स्वतंत्रता” के अभ्यास के लिए भारत और यूरोप की नौसेना के गठबंधन को एकजुट कर रहा है. चीन आचार संहिता, जिसका मसौदा अगस्त 2018 में पेश किया गया था, में एक ऐसी शर्त जोड़ना चाहता है जिसके तहत इस क्षेत्र के बाहर के देशों के द्वारा सैन्य अभ्यासों और संसाधनों के विकास पर पाबंदी लग जाए.
एआरएफ की बैठक में ब्लिंकन ने हॉन्ग कॉन्ग, तिब्बत और शिनजियांग में चीन के मानवाधिकार के रिकॉर्ड पर हमला किया और चीन की बढ़ती परमाणु ताक़त के मुद्दे को उठाया. लेकिन आसियान की प्रतिक्रिया कुछ ख़ास नहीं रही और मानवाधिकार पर अमेरिका के प्रवचन पर कुछ विरोध हुआ. अमेरिका की उप राष्ट्रपति कमला हैरिस के इस इलाक़े के दौरे के बाद भी इसमें बदलाव की संभावना नहीं है.
अब अफ़ग़ानिस्तान में भारत के निवेश पर बड़ा सवाल होगा. अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता में आने वाली कोई भी नई सरकार अब इसे नये भू-राजनीतिक चश्मे के ज़रिए देखेगी और निश्चित रूप से इसके विपरीत भी देखा जाएगा.
बड़ी समस्या नौसेना और जहाज़ नहीं बल्कि आर्थिक नीति है. ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप (टीपीपी) से अमेरिका के अलग होने से चीन के ख़िलाफ़ एक भरोसेमंद जवाब कमज़ोर हुआ और इस बात का कोई संकेत नहीं है कि अमेरिका आने वाले समय में इस क्षेत्र के साथ व्यापार समझौता करना चाहता है. इसी तरह भारत ने रीजनल कंप्रिहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप (आरसीईपी) से अलग होने का फ़ैसला लिया.
अब अमेरिका और क्वॉड चीन के साथ अलग-अलग क्षेत्रों- वैक्सीन, जलवायु परिवर्तन की गंभीरता को कम करने और अंतर्राष्ट्रीय मानक में सहयोग और भविष्य की इनोवेटिव तकनीकों- में प्रतिस्पर्धा की क्षमता की बात कर रहे हैं. लेकिन ये सभी चीज़ें व्यापार समझौतों और निवेश पर निर्भर करती हैं जो अभी होना बाक़ी है.
इस साल जनवरी में लीक अमेरिका की आधिकारिक इंडो-पैसिफिक रणनीति पर जाएं तो अमेरिका इस क्षेत्र में, जो कि “अमेरिका की क्षेत्रीय और वैश्विक आर्थिक विकास का इंजन है”, अपनी पकड़ को बनाए रखना चाहता है और साथ-साथ “हिंद महासागर क्षेत्र के बाहर भारत की भागीदारी को प्रोत्साहन” देना चाहता है. वैसे तो ये दस्तावेज़ “महाद्वीपीय चुनौतियों के समाधान” में भारत की मदद की बात करता है लेकिन ये चीन के साथ सीमा विवाद के मुद्दे तक सीमित है.
ऐसे में साफ़ है कि ये ऐसी रणनीति है जो आम तौर पर भारत की विदेश और सुरक्षा नीति की प्रतिबद्धता को लेकर एक विशाल हिस्से का समाधान नहीं करती है.
दुनिया भर में सुरक्षा की गारंटी देने वाले देश के तौर पर अमेरिका की विश्वसनीयता को लेकर चिंताएं हैं. आप दलील दे सकते हैं कि अफ़ग़ानिस्तान से पीछा छुड़ाकर अमेरिका पूर्वी एशिया में चीन जैसी चुनौतियों से निपटने में और ज़्यादा सक्षम बन जाएगा. लेकिन बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि किस तरह अमेरिका में आंतरिक रूप से ये मुद्दे उभरते हैं. बाहरी प्रतिबद्धताओं पर अमेरिकी की विश्वसनीयता को मान लेना असावधानी होगी. यूरोप और नाटो को लेकर अमेरिका की प्रतिबद्धता के बारे में कम आशंका है लेकिन इंडो-पैसिफिक में ढीली-ढाली व्यवस्था कई सवाल छोड़ते हैं.
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Manoj Joshi is a Distinguished Fellow at the ORF. He has been a journalist specialising on national and international politics and is a commentator and ...
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