-
CENTRES
Progammes & Centres
Location
शेख हसीना को सत्ता से हटाने के साल भर बाद भी बांग्लादेश विवादास्पद जुलाई चार्टर के माध्यम से एक नई लोकतांत्रिक व्यवस्था बनाने के लिए संघर्ष कर रहा है.
Image Source: Wikipidia
अगस्त 2025 में बांग्लादेश में सत्ता परिवर्तन का एक साल पूरा हो रहा है. पिछले वर्ष अगस्त की शुरुआत में जिस देशव्यापी विरोध-प्रदर्शन के बाद पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना की सरकार का पतन हुआ, वह आरक्षण सुधारों के खिलाफ छात्रों के प्रदर्शनों पर सरकार की हिंसक कार्रवाई के कारण शुरू हुआ था. हालांकि, सत्ता-विरोधी रुझानों के संकेत भी उनसे मिल रहे थे, क्योंकि लोगों में लंबे समय से यह नाराज़गी थी कि लोकतांत्रिक मानदंडों को ख़त्म किया जा रहा है और सत्तारूढ़ दल बार-बार विवादित जनादेश से सत्ता में वापस लौट रहा है. इन सबका असर यह हुआ कि लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था बहाल करना अंतरिम सरकार की घोषित प्राथमिकताओं में प्रमुखता से शामिल रहा.
मुख्य सलाहकार मुहम्मद यूनुस के नेतृत्व में, अंतरिम सरकार को एक राष्ट्रीय सहमति आयोग बनाने का काम सौंपा गया, ताकि लोकतांत्रिक सुधारों को अंतिम रूप देने के लिए सभी दलों की सहमति से एक चार्टर का मसौदा बनाया जा सके. इसे ‘जुलाई चार्टर’ कहा गया, जिसे मुख्य रूप से जुलाई 2025 में जारी किया जाना था और फिर इसे सत्ता परिवर्तन की पहली वर्षगांठ के मौके पर, यानी 5 अगस्त तक के लिए टाल दिया गया था. यानी, अब तक इसकी दोनों समय-सीमाएं निकल चुकी हैं, फिर भी यह अधूरा है और इसे जारी नहीं किया जा सका है. हालांकि, इसे समावेशी बनाने का वायदा किया गया था, लेकिन इस काम में सभी सियासी दलों की भागीदारी नहीं है और इसमें शामिल कई पार्टियों ने इसके प्रस्तावों की निंदा की है. चूंकि यह चार्टर बांग्लादेश के राजनीतिक भविष्य को तय करने में महत्वपूर्ण साबित होगा, इसलिए इस दस्तावेज़ के महत्व और इसके कथित प्रावधानों की समीक्षा करना आवश्यक हो जाता है, खासकर मौजूदा राजनीतिक माहौल को देखते हुए.
इतिहास बताता है कि चार्टर सामाजिक उथल-पुथल के बाद, राजनीतिक बदलाव और संस्थागत अनिश्चितता के मौकों पर तैयार किए जाते हैं. ये मुख्य रूप से शासन के लिए मार्गदर्शक का काम करते हैं- संगठन, संस्था, समूह या सरकार के लिए अधिकारों, उत्तरदायित्वों, उद्देश्यों या नियमों की रूपरेखा तैयार करते हैं. सन् 1215 में इंग्लैंड में राजा जॉन और विद्रोही सामंतों के बीच सहमति बनाने वाला मैग्नाकार्टा, चार्टर का सबसे प्रसिद्ध उदाहरण है. इसी तरह, अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी रूजवेल्ट और ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने अगस्त 1941 में जो अटलांटिक चार्टर जारी किया, उसने युद्ध के बाद की विश्व व्यवस्था की रूपरेखा सामने रखी और संयुक्त राष्ट्र के गठन के लिए तमाम देशों को प्रेरित किया. बांग्लादेश भी, जो पहले पूर्वी पाकिस्तान था, इन चार्टरों से अनजान नहीं है, और उसने अपने पचपन साल के इतिहास में इस तरह के कई दस्तावेज़ देखे हैं. 1966 के छह-सूत्री आंदोलन के बाद भले ही चार्टर नहीं बन सका, लेकिन उसने पाकिस्तान के भीतर आर्थिक स्वायत्तता और संघवाद का स्पष्ट राजनीतिक ख़ाका ज़रूर खींच दिया. इसी तरह, अप्रैल 1971 में आज़ादी की घोषणा ने बांग्लादेश के संप्रभु राज्य की पहली लिखित नींव रखी. इन दस्तावेज़ों में लोगों की लोकतांत्रिक आकांक्षाएं शामिल थीं, जिन्हें मौजूदा शासन व्यवस्था पूरा नहीं कर पा रहा था, इसलिए उसमें सुधार की आवश्यकता थी.
ऐसे राजनीतिक माहौल में, जब अंतरिम सरकार की शक्तियों और कार्यकाल को लेकर लगातार सवाल उठ रहे हैं, इस तरह आम सहमति बनना इस तंत्र में विश्वास करने और इसे नियमों के अनुकूल बनाने की बाध्यता के प्रति जागरूक होने का संकेत है.
इसी सोच के साथ अंतरिम सरकार ने ‘जुलाई चार्टर’ बनाने के लिए एक राष्ट्रीय सुधार प्रक्रिया शुरू की, जिसका मक़सद सभी दलों की सहमति से देश के भावी शासन के लिए ज़रूरी रास्ता तैयार करना था. प्रोफेसर अली रियाज़ की अगुवाई में राष्ट्रीय सहमति आयोग (NCC) को व्यापक सहमति बनाने के लिए संवाद स्थापित करने का दायित्व सौंपा गया. इसकी हालिया बैठक 21 जुलाई को ढाका स्थित विदेश सेवा अकादमी में आयोजित की गई, जिसमें बांग्लादेश के तीस राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया. इस संवाद का एक प्रमुख नतीजा यह निकला कि सभी दलों में उस कार्यवाहक सरकार वाली व्यवस्था को फिर से शुरू करने पर सहमति बन गई, जिसे एक समय ख़त्म कर दिया गया था. आयोग ने बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (BNP), बांग्लादेश जमात-ए-इस्लामी, नेशनल सिटीजन पार्टी (NCP) और रिवोल्यूशनरी वर्कर्स पार्टी ऑफ बांग्लादेश के सुझावों के आधार पर एक संवैधानिक कार्यवाहक सरकार के गठन, उसकी संरचना, कार्यकाल और सीमाओं को लेकर एक प्रस्ताव पेश किया. संवाद में भाग लेने वाले प्रतिनिधियों से मिले सुझावों के आधार पर इसे और बेहतर बनाया गया है. ऐसे राजनीतिक माहौल में, जब अंतरिम सरकार की शक्तियों और कार्यकाल को लेकर लगातार सवाल उठ रहे हैं, इस तरह आम सहमति बनना इस तंत्र में विश्वास करने और इसे नियमों के अनुकूल बनाने की बाध्यता के प्रति जागरूक होने का संकेत है.
प्रस्ताव के अनुसार, कार्यवाहक सरकार के मुख्य सलाहकार का चयन संसद भंग होने से कम से कम 15 दिन पहले चयन समिति द्वारा किया जाना चाहिए. इस समिति में प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता, अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और संसद में तीसरी सबसे बड़ी पार्टी के प्रतिनिधि होने चाहिए. मुख्य सलाहकार का चयन यह समिति अपने गठन के 120 घंटों में करेगी और चयन संसदीय दलों, चुनाव आयोग द्वारा पंजीकृत अन्य दलों और स्वतंत्र सांसदों द्वारा प्रस्तावित उम्मीदवारों में से होना चाहिए, जो संसद के भंग होने से कम से कम 30 दिन पहले अपने उम्मीदवार का नाम प्रस्तावित कर देंगे. अगर यह प्रक्रिया पूरी नहीं हो पाती है, तो समिति सत्तारूढ़ दल, विपक्ष और तीसरी सबसे बड़ी पार्टी द्वारा अलग-अलग नामित तीन उम्मीदवारों को छांटेगी और आम सहमति बनाने का प्रयास करेगी. अगर आम सहमति नहीं बन पाती है, तो समिति के सदस्य गुप्त मतदान करेंगे और उम्मीदवारों का क्रम अनुसार चयन करके मुख्य सलाहकार पर अपना फ़ैसला सुना देंगे.
मुख्य सलाहकार की उम्र 75 वर्ष से अधिक नहीं होनी चाहिए और राष्ट्रपति द्वारा उनकी नियुक्ति 90 दिनों के कार्यकाल के लिए की जाएगी. इसके बाद, वह चयन समिति की सलाह से, 13 वें संविधान संशोधन के अनुच्छेद 58सी के तहत पात्रता संबंधी मानदंडों को पूरा करने वाले अधिकतम 15 सलाहकारों को नियुक्त करेंगे. राष्ट्रीय चुनाव संसद की समाप्ति या समय से पहले भंग होने की स्थिति में 90 दिनों के भीतर हो जाना चाहिए. कार्यवाहक सरकार विशेष परिस्थितियों में राष्ट्रीय चुनाव कराने के लिए 30 दिनों का अतिरिक्त समय ले सकती है.
ये सिफ़ारिशें बांग्लादेश की कार्यवाहक सरकार (जिसे शेख हसीना ने 2011 में ख़त्म कर दिया था) की पूर्ववर्ती व्यवस्था की तरह भी हैं और उससे कुछ अलग भी. उदाहरण के लिए, इसका कार्यकाल 90 दिनों का रखा गया है, लेकिन नियुक्त किए जाने वाले सलाहकारों की संख्या 10 से बढ़ाकर 15 कर दी गई है. हालांकि, एक बड़ा बदलाव मुख्य सलाहकार की चयन-प्रक्रिया में किया गया है. पहले इस पद पर राष्ट्रपति सबसे हाल में सेवा से मुक्त होने वाले प्रधान न्यायाधीश को नियुक्त करते थे. वह भी तब, जब उम्मीदवार उपयुक्त हो और उसे स्वीकार करने को तैयार हो. यदि प्रधान न्यायाधीश उपलब्ध नहीं होते, तो उनके ठीक पहले सेवानिवृत्त होने वाले प्रधान न्यायाधीश का चयन किया जाता, और इसी तरह यह सूची नीचे की ओर जाती थी. यदि उनमें से कोई भी उपयुक्त न होता, तो राष्ट्रपति अपीलीय विभाग में सबसे हालिया सेवानिवृत्त हुए न्यायाधीश को नियुक्त कर सकते थे. यदि इनमें कोई तैयार न होता, तो राष्ट्रपति सभी प्रमुख दलों से सलाह-मशविरा करने के बाद, एक योग्य नागरिक को मुख्य सलाहकार बना सकते थे. इन सभी विकल्पों के ख़त्म होने पर राष्ट्रपति खुद यह पद संभालते. मगर आयोग के प्रस्तावों के कथित प्रावधानों में मुख्य सलाहकार की भूमिका निभाने के लिए न्यायाधीशों को मिलनी वाली प्राथमिकताएं लोकप्रिय उम्मीदवारों को मिलने जा रही हैं. ऐसा शक्तियों के बंटवारे और न्यायिक स्वतंत्रता को बनाए रखने की लोकतांत्रिक ज़रूरतों को ध्यान में रखकर किया गया है. यह सब उस समय हो रहा है, जब पिछले एक साल में बांग्लादेश की न्यायपालिका की कड़ी आलोचना यह कहकर की जाती रही है कि वह पूर्व की अवामी लीग सरकार के प्रभाव में है.
भले ही कार्यवाहक सरकार की व्यवस्था पर सभी दलों की सहमति बन गई है, लेकिन कई पार्टियों ने नए प्रस्ताव भी पेश किए हैं, जिनको मसौदे में शामिल किया जा रहा है, ताकि सभी दलों का सही रुख़ पता चल सके. राजनीतिक दल संवाद के दूसरे दौर पर भी एकमत नहीं रहे हैं, जिसमें इस पर विचार-विमर्श किया गया कि क्या कोई व्यक्ति एक साथ प्रधानमंत्री, संसद का नेता और पार्टी प्रमुख, तीनों पदों पर आसीन रह सकता है. जहां BNP, नेशनल डेमोक्रेटिक मूवमेंट और लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी की नज़र में एक व्यक्ति द्वारा तीनों पदों को संभालना अलोकतांत्रिक नहीं था, वहीं जमात-ए-इस्लामी और रिवोल्यूशनरी वर्कर्स ऑफ़ बांग्लादेश का कहना था कि संसद का नेता व प्रधानमंत्री तो एक व्यक्ति हो सकता है, लेकिन हमें ऐसे सुधारों की वाकई ज़रूरत है कि वही व्यक्ति पार्टी प्रमुख न रहे. वहीं दूसरी तरफ, NCP ने प्रस्ताव दिया कि इन तीनों पदों पर तीन अलग-अलग व्यक्तियों को आसीन होना चाहिए, क्योंकि शक्तियों का बंटवारा संतुलन बनाने और भावी नेताओं को तैयार करने के लिए आवश्यक है. प्रधानमंत्री की शक्तियों को लेकर राजनीतिक दलों के बीच दुविधा स्वाभाविक है, क्योंकि उनकी इच्छा इस पद को पाने की रही है. हालांकि, इन सबका मक़सद भले ही लोकतांत्रिक सिद्धांतों को बनाए रखना है, लेकिन शक्तियों का अत्यधिक विभाजन प्रधानमंत्री के अधिकार में कमी ला सकता है, लालफीताशाही बढ़ा सकता है और नौकरशाहों में काम के प्रति उपेक्षा पैदा कर सकता है.
राष्ट्रीय सहमति आयोग जहां इस उलझन को दूर करने के लिए संघर्ष कर रहा है, वहीं कुछ मुद्दों पर वह सहमति बनाने में भी सफल रहा है, जैसे- संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व, चुनाव आयोग का गठन, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक और लोकपाल की नियुक्ति की प्रक्रिया आदि. वास्तव में, बेहिसाब काम होने के बावजूद, NCC ने सहमति वाली मुद्दों को रेखांकित करते हुए एक प्रारंभिक मसौदा तैयार किया है और इसे उन तमाम राजनीतिक दलों के पास सहमति के लिए भेजा है, जो इस प्रक्रिया में शामिल हैं. हालांकि, जमात-ए-इस्लामी, NCP और BNP ने इस मसौदे पर अपनी आपत्तियां जताई हैं. BNP ने प्रस्तावित सुधारों पर कुछ हद तक अपनी सहमति दी है, लेकिन संविधान में जुलाई क्रांति के ऐतिहासिक महत्व का उल्लेख करने पर कड़ी आपत्ति जताई है. उसने यह आशंका जताई है कि इससे कुछ खास समूहों द्वारा ‘दूसरे गणराज्य’ के विचार को बढ़ावा देने का रास्ता खुल सकता है. पार्टी ने आगे कहा कि जुलाई चार्टर को देश की मान्यता मिलनी चाहिए, संवैधानिक दर्ज़ा नहीं. जमात-ए-इस्लामी ने चार्टर के मसौदे को 'अधूरा और खतरनाक' बताया है और मांग की है कि ऐसा कोई मसौदा संसद की सहमति और जनमत संग्रह से तैयार किया जाना चाहिए, ताकि इसकी कानूनी वैधता सुनिश्चित हो सके. उधर, NCP ने भी बिना पर्याप्त चर्चा के इन बिंदुओं को अंतिम रूप देने के लिए आयोग की आलोचना की है.
यदि यह चार्टर वास्तव में बांग्लादेश के भावी शासन व्यवस्था को आकार देने वाला है, तो इसकी सिफ़ारिशों में निष्पक्षता का होना बहुत ज़रूरी है. मसौदे को आम लोगों के लिए जारी किए जाने के बाद इसके प्रावधानों की बारिकी से जांच-पड़ताल आवश्यक है.
इस बीच, अवामी लीग पर मई 2025 में प्रतिबंध लगा दिया गया और वह इस राजनीतिक संवाद का हिस्सा नहीं थी, जबकि उसने 2009 से 2024 तक देश पर शासन किया और जो दावा कर सकती है कि आज भी कुछ लोग उसके समर्थक हैं. जातीय पार्टी को भी, जिसे लंबे समय तक पूर्ववर्ती सत्तारूढ़ दल का समर्थक माना जाता रहा है, इससे बाहर रखा गया है. इन सबसे जुलाई चार्टर के प्रावधानों में समावेशिता के दावे पर सवाल उठते हैं. साफ़ है, NCC लोकतंत्र की बहाली के लिए राष्ट्रीय सहमति बनाने के मुश्किल काम में आगे बढ़ता ज़रूर दिख रहा है, लेकिन उसे दलीय पूर्वाग्रहों से भी सावधान रहना होगा, ख़ास तौर से अंतरिम सरकार के पूर्वाग्रहों से.
यदि यह चार्टर वास्तव में बांग्लादेश के भावी शासन व्यवस्था को आकार देने वाला है, तो इसकी सिफ़ारिशों में निष्पक्षता का होना बहुत ज़रूरी है. मसौदे को आम लोगों के लिए जारी किए जाने के बाद इसके प्रावधानों की बारिकी से जांच-पड़ताल आवश्यक है. 2026 में चुनाव कराए जाने का वादा किया गया था, इसलिए इस समय-सीमा के करीब आने के साथ जुलाई चार्टर को लेकर स्वाभाविक ही उत्सुकता बढ़ गई है. इसलिए, इसे तैयार करने वालों को समावेशिता, कानूनी वैधता और पारदर्शी संवाद व समय-सीमा को तवज्ज़ो देनी चाहिए, ताकि यह चार्टर बांग्लादेश के आगामी लोकतांत्रिक अध्याय की नींव बन सके.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.
Sohini Bose is an Associate Fellow at Observer Research Foundation (ORF), Kolkata with the Strategic Studies Programme. Her area of research is India’s eastern maritime ...
Read More +