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पिछले कुछ दशकों में भारत तेज़ी से शहरीकरण की ओर बढ़ रहा है. अब भारत की 30 प्रतिशत जनसंख्या शहरी क्षेत्रों में रह रही है. अनुमानों के मुताबिक 2030 तक शहरों में रहने वाले लोगों का आंकड़ा बढ़कर 40 प्रतिशत हो जाएगा. शहर महत्वपूर्ण आर्थिक केंद्र होते हैं और भारत की GDP में शहरों का योगदान लगभग 80 प्रतिशत है. लेकिन केवल भारत ही नहीं बल्कि दुनिया भर में शहरों की स्थिति जलवायु संकट समेत अलग-अलग ख़तरों की वजह से दयनीय है. पिछले दो दशकों में मौसम से जुड़ी चरम घटनाओं में लगातार बढ़ोतरी का परिणाम जान और माल के भारी नुकसान के रूप में निकला है. उदाहरण के लिए, जुलाई 2021 में बिहार, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में भारी बारिश की वजह से भयंकर बाढ़ और भूस्खलन के हालात बन गए. अगले तीन दशकों में समुद्र का स्तर 0.1-0.3 मीटर बढ़ने की आशंका है. इससे 2050 तक कई तटीय शहरों में महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे के डूबने का ख़तरा है. भीषण गर्मी की स्थिति भी बार-बार बन रही है जिसके कारण बिना हवादार और भीड़-भाड़ वाले घरों में रहने वाले लोगों की जान ख़तरे में पड़ गई है.
कम-आमदनी वाले समूहों, अस्थायी रूप से बसे लोगों, महिलाओं और हाशिए पर रहने वाली आबादी समेत असुरक्षित समुदायों को बुनियादी ढांचे और सेवाओं तक अपनी सीमित पहुंच की वजह से अक्सर जलवायु परिवर्तन का नुकसान उठाना पड़ता है. वास्तव में जलवायु संकट न केवल आजीविका को ख़तरे में डालता है बल्कि असमानता और सामाजिक असुरक्षाओं को भी बढ़ाता है. आवश्यकता इस बात की है कि बहुआयामी जलवायु संकटों के प्रति शहरी सामर्थ्य का निर्माण किया जाए ताकि ये सुनिश्चित किया जा सके कि कोई भी पीछे नहीं छूटे.
अगले तीन दशकों में समुद्र का स्तर 0.1-0.3 मीटर बढ़ने की आशंका है. इससे 2050 तक कई तटीय शहरों में महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे के डूबने का ख़तरा है. भीषण गर्मी की स्थिति भी बार-बार बन रही है जिसके कारण बिना हवादार और भीड़-भाड़ वाले घरों में रहने वाले लोगों की जान ख़तरे में पड़ गई है.
तेज़ी से बढ़ते जलवायु संकट के बीच असमानताओं को ठीक करने के लिए एक सहयोगात्मक दृष्टिकोण की आवश्यकता है जो सरकारों, सिविल सोसायटी संगठनों, परोपकार करने वाले क्षेत्रों और स्थानीय समुदायों समेत अलग-अलग हितधारकों को जोड़े. शहरी विकास के मामले में प्राथमिक रूप से ज़िम्मा उठाने वाले के रूप में सरकारों और नीति-निर्माताओं को ऐसी मज़बूत नीतिगत रूप-रेखा तैयार करने में प्रमुख भूमिका निभानी चाहिए जो स्थिरता और समानता को प्राथमिकता दे. जलवायु समर्थ सिद्धांतों को शहरी नियोजन और शासन व्यवस्था के साथ जोड़कर, असुरक्षित क्षेत्रों में बुनियादी ढांचे के विकास को प्राथमिकता देकर और हाशिए पर खड़े समुदायों की विशिष्ट आवश्यकताओं पर विचार करने वाली समावेशी नीतियों को सुनिश्चित करके नीति निर्माता भारतीय शहरों को दीर्घकालिक स्थिरता की ओर ले जा सकते हैं. विशेष रूप से स्थानीय सरकारें अपने शहरी परिदृश्य की विशिष्ट आवश्यकताओं और गतिशीलता के अनुसार नीतियां तैयार करने में निर्णायक भूमिका निभा सकती हैं. साक्ष्य और सामुदायिक विमर्श से पता चला है कि शहर के स्तर पर जलवायु को लेकर उठाए गए कदम समुदायों की ज़रूरत के अनुसार स्थानीय जलवायु उपाय को बढ़ाने के लिए प्रभावी ढांचे के रूप में काम कर सकते हैं.
एक बहु-हितधारक दृष्टिकोण
जलवायु उपाय का ज़िम्मा संभालने में केंद्र और राज्य सरकारों की भूमिका को लेकर चर्चा की कोई कमी नहीं है. लेकिन मौजूदा समय के निर्णायक संकट के ख़िलाफ धर्मयुद्ध में गैर-सरकारी किरदारों जैसे कि सिविल सोसायटी संगठन (CSO), परोपकार करने वालों और समुदायों की भूमिका एवं क्षमता को स्वीकार करना भी उतना ही महत्वपूर्ण है.
भारत की सिविल सोसायटी में 31 लाख रजिस्टर्ड संगठन शामिल हैं और ये स्थिरता एवं समानता की तरफ देश के शहरों की यात्रा को तय करने में साथ देते हैं. इनमें से ज़्यादातर संगठन अपने पुराने लक्षित समूहों पर तेज़ी से बढ़ते जलवायु संकट के प्रभाव को ध्यान में रखते हुए जानबूझकर सभी कार्यक्रमों और हस्तक्षेपों में जलवायु उपाय को जोड़ रहे हैं. ये CSO समुदायों के साथ अपनी निकटता, स्थानीय संदर्भों की समझ एवं समर्थन और लोगों को जुटाने में अपने कौशल के साथ अलग-अलग शहरों में न्यायसंगत जलवायु उपाय को मज़बूत करने में महत्वपूर्ण सहयोगी बनने के लिए विशिष्ट रूप से तैयार हैं.
ऐतिहासिक रूप से देखें तो भारत में सिविल सोसायटी संगठनों ने हाशिए पर खड़े एवं कमज़ोर समुदायों जैसे कि शहरी ग़रीबों, महिलाओं, दिव्यांगजनों और प्रवासियों के साथ नज़दीकी रूप से काम किया है. ये समुदाय व्याप्त असुरक्षा के कारण जलवायु परिवर्तन से प्रेरित संकट के असर से उबरने या तैयारी करने में सबसे कम सक्षम हैं. इसके अलावा सिविल सोसायटी संगठनों का नेतृत्व नज़दीकी नेताओं के द्वारा किया जाता है यानी वो लोग जो अत्याचार या असुरक्षा से प्रभावित समुदायों से संबंध रखते हैं. इसकी वजह से उन्हें जलवायु संकट के जटिल मूल कारणों की जानकारी रहती है.
सिविल सोसायटी संगठनों का नेतृत्व नज़दीकी नेताओं के द्वारा किया जाता है यानी वो लोग जो अत्याचार या असुरक्षा से प्रभावित समुदायों से संबंध रखते हैं. इसकी वजह से उन्हें जलवायु संकट के जटिल मूल कारणों की जानकारी रहती है.
ये CSO लोगों तक पहुंच, जागरूकता और शिक्षा की सुविधा के लिए स्थानीय पहल के माध्यम से समुदायों के साथ मिलकर काम करते हैं. वो सामर्थ्य निर्माण की प्रक्रिया को समावेशी बनाने को सुनिश्चित करते हुए सक्रिय रूप से समुदाय की क्षमता को मज़बूत करते हैं और निचले स्तर पर जलवायु सामर्थ्य को बढ़ाते हैं. मिसाल के तौर पर भारत में महिला हाउसिंग ट्रस्ट, वेस्ट वॉरियर्स, साहस और बायोमी एनवायरमेंटल ट्रस्ट जैसे संगठनों ने कई शहरों में गर्मी से राहत, एकीकृत जल प्रबंधन, आपदा सामर्थ्य और कूड़ा प्रबंधन के लिए समाधान को सफलतापूर्वक प्रेरित किया है.
नज़दीकी सामुदायिक पहुंच सिविल सोसायटी संगठनों को नीति और ज़मीनी स्तर पर उनके क्रियान्वयन के बीच दूरी को भरने का तुलनात्मक लाभ देती है. CSO ने न्यायसंगत हस्तक्षेप को सुनिश्चित करने के लिए सक्रिय रूप से शहरी नियोजन और प्रक्रियाओं में समुदाय की आवश्यकताओं और वास्तविकताओं को शामिल करने की वकालत की है. परिवहन, उद्योग, कूड़ा प्रबंधन और आवास जैसे क्षेत्रों में जलवायु उपाय की नीति को पहुंचाने और एकीकृत करने की दिशा में आगे बढ़ने की तेज़ होती आवश्यकता के बीच केंद्र, राज्य और शहरी स्तर की सरकारें देश की जलवायु प्रतिबद्धताओं के संचालन के लिए इन क्षेत्रों में भौगोलिक रूप से फैले CSO से समर्थन मांग रही हैं. CSO अधिकारियों के क्षमता निर्माण, डेटा एवं रिसर्च के साथ सरकारी विभागों के समर्थन, नई शुरुआत के नेतृत्व और नीति एवं अभ्यास के बीच दूरी को भर कर ये हासिल कर रहे हैं. उदाहरण के लिए, जनाग्रह और रीप बेनिफिट रिसर्च, साक्ष्य की संरचना, हाइपरलोकल डेटा कलेक्शन और समावेशिता के लिए समर्थन के माध्यम से मज़बूत जलवायु शासन व्यवस्था में योगदान कर रहे हैं.
वैसे तो CSO ज़मीनी स्तर के जलवायु उपाय में सबसे आगे हैं लेकिन अक्सर वो छोटे स्तर के होते हैं और अपने कार्यक्रमों के विस्तार के लिए उन्हें संसाधनों की कमी का सामना करना पड़ता है. इसलिए CSO, स्थानीय सरकारों, निजी क्षेत्रों और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के बीच तालमेल ज़रूरी है.
परोपकार की भूमिका
क्षमता निर्माण के लिए परोपकार CSO को महत्वपूर्ण समर्थन प्रदान कर सकता है. शहरी जलवायु उपाय पर नज़दीकी नेतृत्व के साथ ये ज़मीनी स्तर के संगठनों का समर्थन कर सकता है, उन्हें संगठन पर होने वाले खर्च को पूरा करने और अपने समुदायों की आवश्यकताओं के अनुसार प्रभावी रूप से ढलने में सक्षम बना सकता है. परोपकार किसी क्षेत्र की रिसर्च एवं जानकारी का बुनियादी ढांचा तैयार करने के लिए टिकाऊ और दीर्घकालिक पूंजी प्रदान कर सकता है, शहरी सामर्थ्य के लिए क्षेत्र आधारित पायलट प्रोग्राम लागू कर सकता है, इन संगठनों एवं समुदायों के लिए जलवायु परिवर्तन जानकारी की पहुंच एवं उपलब्धता बढ़ा सकता है, जलवायु अनुकूल नीतिगत सुधारों का समर्थन कर सकता है और इन नीतियों को लागू करने के लिए तकनीकी सहायता मुहैया करा सकता है. चूंकि परोपकार में ख़तरा उठाने की क्षमता अधिक होती है, ऐसे में ये सरकारों, बहुपक्षीय एजेंसियों और जलवायु उपाय का ज़िम्मा संभालने वाले ज़मीनी स्तर के संगठनों के प्रयासों की सहायता करने में उत्प्रेरक की भूमिका भी निभा सकता है. दान देने वाले अब अपने थैले में पर्यावरण और जलवायु के दृष्टिकोण को शामिल करने के लिए उत्सुक हैं. साथ ही वो जलवायु उपायों में जानबूझकर अधिक निवेश करते हैं.
चूंकि परोपकार में ख़तरा उठाने की क्षमता अधिक होती है, ऐसे में ये सरकारों, बहुपक्षीय एजेंसियों और जलवायु उपाय का ज़िम्मा संभालने वाले ज़मीनी स्तर के संगठनों के प्रयासों की सहायता करने में उत्प्रेरक की भूमिका भी निभा सकता है.
इंडिया फिलैंथ्रॉपी रिपोर्ट 2023 के अनुसार कई पीढ़ियों और मौजूदा पीढ़ी से दान करने वाले 90 प्रतिशत से ज़्यादा लोग उभरते मुद्दों जैसे कि जलवायु परिवर्तन के साथ अधिक भागीदारी चाहते हैं. ये एक सकारात्मक बदलाव है. परोपकार फंडिंग से जुड़े प्रयासों में महत्वपूर्ण मदद कर सकता है और जलवायु क्षेत्र में अनुकूलन एवं सामुदायिक सामर्थ्य के लिए विमर्श को मज़बूत कर सकता है जिसने अभी तक जलवायु संकट को कम करने पर ध्यान दिया था.
वर्तमान समय में पर्यावरण और स्थिरता क्षेत्र के लिए परोपकारी अनुदान 200 करोड़ रुपये (लगभग 28 मिलियन अमेरिकी डॉलर) से भी कम है जो कि देश में परोपकार के लिए कुल योगदान का एक छोटा सा हिस्सा है. इस क्षेत्र में निवेश मुख्य रूप से जलवायु संकट को कम करने पर केंद्रित है. शहरों और समुदायों में अनुकूलन और सामर्थ्य निर्माण पर बहुत कम ध्यान दिया जा रहा है. इसके अलावा परोपकार के रूप में आने वाला फंड सामान्य रूप से अधिक विकसित राज्यों जैसे कि महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में दिया जा रहा है. इसकी वजह से देश के अधिक असुरक्षित क्षेत्र अधर में हैं. फंडिंग से जुड़े इस अंतर को पाटने की गंभीर आवश्यकता है और दारोमदार परोपकार पर है कि वो अपनी पूरी क्षमता का उपयोग करे और न्यायसंगत जलवायु उपाय की दिशा में फंडिंग की कमियों को पूरा करे.
समुदायों के लिए एक टिकाऊ और समावेशी भविष्य की तलाश के लिए एक तालमेल वाले दृष्टिकोण की ज़रूरत है. समर्थ और न्यायसंगत शहरी परिदृश्य बनाने के उद्देश्य से अपनी अनूठी मज़बूती का लाभ उठाने के लिए सरकारों, सिविल सोसायटी, परोपकार और समुदायों को एकजुट होना चाहिए. टिकाऊ शहरों की सफलता अलग-अलग हितधारकों की तरफ से असरदार तालमेल बनाने, पारंपरिक सीमाओं को पार करने और एक अधिक टिकाऊ एवं समर्थ शहरी भविष्य की ओर रास्ता तैयार करने की क्षमता पर निर्भर करती है.
ये लेख एक व्यापक संग्रह "जलवायु संकट का सामना: शहरी सामर्थ्य का रास्ता" का हिस्सा है.
अक्षय शेट्टी ClimateRISE में जलवायु उपाय पर सहयोगात्मक निर्माण प्रयासों का नेतृत्व करते हैं.
कीर्ति जैन ClimateRISE की टीम में समावेशी और न्यायसंगत जलवायु उपाय में अनुसंधान और ज्ञान निर्माण की पहल का नेतृत्व करती हैं.
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