Published on Jan 12, 2021 Updated 0 Hours ago

महामारी का आर्थिक दुष्प्रभाव कई बरसों तक रह सकता है, लेकिन यह इस पर भी निर्भर करता है कि किसी देश को इससे कितना अधिक नुकसान हुआ है

2021: तैयारी, जोख़िम-भरी दुनिया के लिए!

अभी-अभी जो साल गुज़रा है, उसे पूरी तरह समझने में हमें कुछ वक्त लगेगा. 2020 ऐसा साल था, जिसने दुनिया के हर हिस्से को इस कदर हिला दिया, जिसके बारे में किसी ने सोचा तक न था. चीन के वुहान सूबे से दुनिया भर में फैली कोविड-19 महामारी का असर कई क्षेत्रों में हुआ. लेकिन साल 2020 में सिर्फ़ इतना ही नहीं हुआ. गुज़रे साल में हमने इससे उबरने के लिए इंसान की शिद्दत भी देखी, उसका हौसला भी देखा. हमने देखा कि रिकॉर्ड समय में कोविड-19 की वैक्सीन बनाने के लिए कई देशों में कितनी पहल हुई, इनोवेशन हुए. 

लेकिन जब महामारी के साथ अंतरराष्ट्रीय राजनीति की चर्चा होगी, तो चीन के रोल को भुलाना मुमकिन न होगा. किस तरह से चीन ने महामारी शुरू होने पर आरोप-प्रत्यारोप  का सिलसिला शुरू किया. उसे तब इस बात की फ़िक्र नहीं थी कि महामारी कहां से शुरू हुई, वह इसका पता लगाए. वायरस कहां से आया और किस तरह से फैला, इसकी जानकारी जुटाने पर ध्यान दे. कायदे से उसे तब पैंडेमिक डिप्लोमेसी (महामारी को लेकर दूसरे देशों के साथ सहयोग) करनी चाहिए थी, लेकिन सहयोग की बात तो दूर उसने दुनिया के दूसरे देशों में गलत टेस्टिंग किट और पीपीई किट की सप्लाई की. इसलिए अगर उसकी तरफ से पैंडेमिक डिप्लोमेसी की कोई पहल हुई भी हो तो दांव उलटा पड़ गया. साथ ही, जिस तरह से चीन ने विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) जैसे संस्थानों को हाईजैक किया, उससे यह बात भी सामने आ गई कि इनमें तुरंत सुधार करने की जरूरत है ताकि वे प्रभावशाली बने रहें और किसी एक देश की मिल्कियत बनकर न रह जाएं.

चीन ने जिस तरह से ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों पर आर्थिक और व्यापारिक दबाव  बनाया, उससे यह बात साफ़ ज़ाहिर हो गई. असल में ऑस्ट्रेलिया ने कोविड-19 वायरस कहां से फैला, इसकी स्वतंत्र जांच कराने की मांग की थी, जो ड्रैगन को नागवार गुज़री. चीन ने इसी तरह से एक और वैश्विक संस्था का एजेंडा कंट्रोल करने की कोशिश की  जिसका नाम है इंटरनेशनल सिविल एविएशन ऑर्गनाइजेशन (ICAO)। उसकी इस कोशिश का भी बुरा अंजाम हुआ और इससे वायरस का फैलाव हुआ. वैश्विक समुदाय का इन संस्थानों में बहुत कुछ दाव पर लगा है, इसलिए भारत को अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस, कनाडा और ब्रिटेन जैसे समान सोच रखने वाले देशों के साथ मिलकर इनकी निष्पक्षता, पारदर्शिता और जवाबदेही को बढ़ावा देना चाहिए.

वायरस का प्रभाव

चीन की इन कारगुज़ारियों के बीच महामारी का सामाजिक, आर्थिक और सुरक्षा, सब पर असर देखा जा रहा है. बड़ी अर्थव्यवस्थाएं कोविड-19 के प्रकोप की वजह से सिकुड़ गई हैं. इसका असर स्वास्थ्य, शिक्षा और रक्षा जैसे अहम क्षेत्रों पर भी पड़ा है. महामारी की चोट के कारण अलग-अलग देशों की इन क्षेत्रों पर खर्च करने की क्षमता प्रभावित हुई है. और इसका आर्थिक दुष्प्रभाव कई बरसों तक बना रह सकता है, जो इस पर निर्भर करेगा कि किसी देश को इसने कितनी बुरी तरह से चोट पहुंचाई है. चलिए भारत की ही बात करते हैं, जो महामारी के आने से पहले से ही आर्थिक चुनौतियों  का सामना कर रहा था. तब देश की इकॉनमी नोटबंदी और गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स (GST) को ग़लत तरीके से लागू करने का खामियाज़ा भुगत रही थी. कोविड-19 महामारी ने उन चुनौतियों को बढ़ा दिया और इस वजह से सैन्य, सामाजिक और आर्थिक मोर्चे पर भारत के लिए जोख़िम बढ़े हैं.

यह बात भी सही है कि 2020 की पहली छमाही में महामारी के कारण कई बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के जीडीपी (ग्रॉस डोमेस्टिक प्रोडक्ट) में भारी गिरावट आई, लेकिन इनमें भारत सबसे अधिक चोट खाने वाले देशों में शामिल रहा। साउथ एशिया इकॉनमिक फोकस नाम की विश्व बैंक की रिपोर्ट में बताया गया है कि वित्त वर्ष 2020-21 में भारत की जीडीपी दर माइनस 9.6 फीसदी रह सकती है। यह उसके जून के अनुमान से बदतर है, जिसमें उसने जीडीपी के माइनस 3.2 फीसदी रहने का अनुमान लगाया था.

महामारी की चोट के कारण अलग-अलग देशों की इन क्षेत्रों पर खर्च करने की क्षमता प्रभावित हुई है. और इसका आर्थिक दुष्प्रभाव कई बरसों तक बना रह सकता है, जो इस पर निर्भर करेगा कि किसी देश को इसने कितनी बुरी तरह से चोट पहुंचाई है

यह तो हुई इकॉनमी की बात, लगे हाथ सैन्य खर्च की बात भी कर लेते हैं. महामारी का पूरा आर्थिक असर सामने आने से पहले सरकारी अधिकारी रक्षा बजट में भारी कटौती पर विचार कर रहे थे. मई 2020 में रक्षा मंत्रालय के एक आला अफ़सर के हवाले से बताया गया था कि सैलरी और पेंशन को छोड़कर ‘वित्त वर्ष 2020-21 के लिए तय एलोकेशन में खर्च 20 फीसदी और शायद 40 फीसदी तक’ घटाया जा सकता है. ऐसा बताया गया था कि रक्षा बजट में 20 फीसदी की कटौती से सरकार खज़ाने में 40,000 करोड़ रुपये बचेंगे. यह बात तब हो रही थी, जब सेना मॉडर्नाइजेशन के लिए अधिक बजट की मांग कर रही थी. उसे सेना, वायुसेना और नौसेना तीनों के ही आधुनिकीकरण के लिए अधिक रकम की दरकार है. सरकार यूं तो राष्ट्रीय सुरक्षा को मजबूत बनाने की बात करती रहती है, लेकिन सच यह है कि 1962 में भारत-चीन सीमा युद्ध के बाद पिछले कुछ वर्षों के दौरान रक्षा खर्च सबसे कम रहा है.

सन 2018 में भारत के वाइस चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ, लेफ्टिनेंट जनरल शरत चंद ने रक्षा मामलों पर संसद की स्थायी समिति के सामने ज़ोरदार ढंग से यह बात रखी थी कि सेना, वायुसेना और नौसेना को रक्षा बजट में कटौती के कारण भारी परेशानी हो रही है. उन्होंने तब घरेलू सुरक्षा और बाहरी ख़तरों की तरफ इशारा किया था. उन्होंने उस वक्त ख़ासतौर पर चीन का ज़िक्र किया था. वाइस चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ, लेफ्टिनेंट जनरल शरत चंद ने कहा था कि चीन लगातार ‘अधिक आक्रामक’ होता जा रहा है. इस बात को दो साल हो चुके हैं, लेकिन हालात में अभी भी सुधार नहीं हुआ है. उलटे महामारी के कारण आर्थिक दबाव बढ़ने से स्थिति और बुरी हो गई है.

चीन के रूप में बड़ी चिंता

दुनिया आज महामारी की चुनौती का तो सामना कर ही रही है, उसके सामने चीन के रूप में भी एक खतरा खड़ा हो गया है. चीन अपने पड़ोसियों और दूसरे मुल्कों के प्रति सैन्य और राजनयिक तौर पर अधिक आक्रामक रुख़ अपना रहा है. दक्षिण चीन सागर में चीन की पीपल्स लिबरेशन आर्मी (PLA) ने छोटे पड़ोसी देशों को डराने-धमकाने की कोशिश की है तो पूरब में जापान और ताइवान और पश्चिम में भारत को. लद्दाख में भारत के साथ सीमा पर तनाव को शुरू हुए सात महीने हो चुके हैं. इस बीच भारत और चीन के बीच राजनयिक और सैन्य स्तर पर कई वार्ताएं हो चुकी हैं, लेकिन इस विवाद के  अभी तक सुलझने की सूरत नहीं दिख रही. इतना तो तय है कि इस विवाद का हल हाल-फिलहाल नहीं निकलने जा रहा.

गलवान में चीन के सैनिकों के साथ टकराव के बाद भारत का रुख कई तरह से बदला है. जैसा कि ऐश्ले टेलिस कह चुके हैं, भारत और चीन के द्विपक्षीय रिश्ते ‘अब कभी भी पहले की तरह सामान्य नहीं हो सकते. दोनों ही देशों में ऐसी होड़ शुरू होगी, जिसकी कल्पना इस संकट के शुरू होने पर किसी ने नहीं की थी.’ गलवान मामले ने यह बात भी साफ कर दी है कि भारत अपनी विदेश नीति को लेकर ऊहापोह में नहीं रह सकता. उसे स्पष्ट विदेश नीति बनानी होगी. दूसरे देशों के साथ सामरिक सहयोग को लेकर भी फैसले करने होंगे. अभी तक वह जिस ‘हेजिंग स्ट्रैटिजी’ पर चल रहा था, उसका कोई मतलब नहीं रह गया है. भारत में लोगों की जो राय है, ख़ासतौर पर कुलीन वर्ग की, उसे देखते हुए लगता है कि गलवान में हिंसक झड़प भारत की चीन नीति के मामले में गेम चेंजर साबित हुआ है. गलवान प्रकरण के बाद भारत समान सोच रखने वाले सहयोगी देशों के साथ सामरिक सहयोग बढ़ाने को तैयार दिख रहा है. ख़ासतौर पर क्वॉड और दूसरे त्रिपक्षीय और उन समूहों के साथ, जिनमें कुछ ही देश शामिल हैं.

गलवान मामले ने यह बात भी साफ कर दी है कि भारत अपनी विदेश नीति को लेकर ऊहापोह में नहीं रह सकता. उसे स्पष्ट विदेश नीति बनानी होगी. दूसरे देशों के साथ सामरिक सहयोग को लेकर भी फैसले करने होंगे. 

हिंद महासागर को लेकर चल रही राजनीति पर भी इसका असर दिख सकता है. चीन इस क्षेत्र में लगातार मौजूदगी बनाए रखने की कोशिश कर रहा है, जबकि भारत अमेरिका, फ्रांस, जापान, ऑस्ट्रेलिया जैसे सामरिक सहयोगियों और क्षेत्र के अन्य देशों को जोड़ना चाहता है. वैश्विक स्तर पर 2020 में अमेरिका-चीन के बीच तकनीक सहित कई क्षेत्रों में मुकाबला बढ़ा. इसके साथ एक बार फिर से ग्लोबल एक्सपोर्ट कंट्रोल पर ज़ोर बढ़ गया है ताकि संवेदनशील तकनीक और कमोडिटी की मुक्त आवाजाही रोकी जा सके. इससे सप्लाई चेन के साथ डिजिटल और नॉलेज नेटवर्क्स का मुद्दा उभर सकता है और इसमें चीन पर निर्भरता कम करने की कोशिश रफ्तार पकड़ सकती है. महामारी ने यह भी दिखा दिया कि ग्लोबल सप्लाई चेन के लिए चीन के रूप में एक मैन्युफैक्चरिंग सेंटर के भरोसे रहना कितना खतरनाक हो सकता है. इससे सप्लाई चेन में विविधता लाने यानी इससे कई देशों को जोड़ने की पहल शुरू हुई है. ऑस्ट्रेलिया-जापान-भारत सप्लाई चेन रिजिलिएंस इनीशिएटिव ऐसी ही कोशिश है, जिसकी डिटेल पर अभी काम चल रहा है. तीनों देश 2021 में एक मंच शुरू करना चाहते हैं. उनका इरादा इसे दक्षिणपूर्व एशिया के अन्य देशों तक ले जाने का भी है. अमेरिका और चीन के बीच टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में मुकाबला दोनों के रिश्तों के नए आयाम का एक पहलू है, जबकि इसका असर ग्लोबल गवर्नेंस में अंतरिक्ष और एटमी सुरक्षा जैसे कई क्षेत्रों पर हो सकता है.

एटमी क्षेत्र की दिक्कतें

वैसे, इन अड़चनों को दूर करने की भी कोशिश हो रही है. मिसाल के लिए, ब्रिटिश सरकार ने अंतरिक्ष सुरक्षा पर एक नया प्रस्ताव पेश किया है. इसमें नियम, कायदे और जवाबदेही तय करके अंतरिक्ष में ख़तरों को कम करने की बात कही गई है. यह बुनियादी अप्रोच है. सदस्य देशों की प्रस्ताव पर राय मिलने के बाद संयुक्त राष्ट्र के महासचिव सितंबर 2021 में संयुक्त राष्ट्र आमसभा के 76वें सेशन में इसे चर्चा के लिए पेश करेंगे. दो वजहों से यह प्रस्ताव खास है. पहला, इसमें इस बात पर ध्यान दिया गया है कि कौन क्या करता है क्योंकि अंतरिक्ष हथियारों को परिभाषित करने की कोशिशों का अभी तक कोई ठोस नतीजा नहीं निकला है. ये प्रस्ताव इसलिए भी खास है क्योंकि इसमें कोई एक रास्ता नहीं सुझाया गया है. इसलिए सभी देश आपस में बातचीत करके कोई रास्ता चुन सकते हैं. इसके बावजूद यह कहना गलत नहीं होगा कि इस प्रस्ताव के लिए जरूरी समर्थन जुटाना आसान नहीं होगा.

एटमी सुरक्षा की बात करें तो 2021 की गर्मियों में पहला रिव्यू कॉन्फ़्रेंस ऑफ द अमेंडेड कन्वेंशन ऑन द फिजिकल प्रोटेक्शन ऑफ न्यूक्लियर मैटीरियल (CPPNM) होगा. यह कन्वेंशन इंटरनेशनल एटॉमिक एनर्जी एजेंसी (IAEA) की निगहबानी में होगा. पांच साल पहले यह समझौता हुआ था. IAEA पर संशोधित CPPNM की समीक्षा की ज़िम्मेदारी है. 2021 का कॉन्फ़्रेंस पहला मौका होगा, जब संबंधित देश इस समझौते के लागू होने की समीक्षा करेंगे. वे इस पर गौर करेंगे कि सदस्य देश ज़मीन पर इस एग्रीमेंट को किस तरह से लागू कर रहे हैं. वे समझौते की कमज़ोरियों और ख़ामियों का पता लगाएंगे. यह भी देखेंगे कि इस मामले में कितनी तरक्की हुई है. सुरक्षा के लिए नए खतरे कौन से हैं और न्यूक्लियर सिक्योरिटी सेक्टर के लिए क्या जोख़िम हो सकते हैं. वैसे, इस क्षेत्र में तुलनात्मक तौर पर अच्छी प्रगति हुई है. न्यूक्लियर मैटीरियल और प्लांट्स के फिजिकल प्रोटेक्शन की खातिर एक व्यवस्था बनी है. लेकिन इसके साथ यह भी सच है कि दुनिया की बड़ी ताकतों के बीच जो होड़ बढ़ रही है, उसकी छाया इस रिव्यू कॉन्फ्रेंस पर पड़ सकती है.

सुरक्षा के लिए नए खतरे कौन से हैं और न्यूक्लियर सिक्योरिटी सेक्टर के लिए क्या जोख़िम हो सकते हैं. वैसे, इस क्षेत्र में तुलनात्मक तौर पर अच्छी प्रगति हुई है. न्यूक्लियर मैटीरियल और प्लांट्स के फिजिकल प्रोटेक्शन की खातिर एक व्यवस्था बनी है.

सिक्योरिटी और टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में जोख़िम और चुनौतियों की बात करें तो अंतरिक्ष, न्यूक्लियर और रक्षा से जुड़े क्षेत्रों में सायबर हमलों को लेकर चौकन्ना रहना होगा. आज न्यूक्लियर और अंतरिक्ष के क्षेत्र में काम करने वाले संस्थानों की भी ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म पर निर्भरता बढ़ रही है. इसलिए आने वाले वक्त में न सिर्फ ऐसे हमले बढ़ेंगे बल्कि ये कॉम्प्लेक्स भी होंगे यानी इनसे निपटना आसान नहीं होगा. दूसरी समस्या यह है कि महामारी से अर्थव्यवस्था को जो नुकसान हुआ है, उसकी वजह से इन संस्थानों को छंटनी करने पर मजबूर होना पड़ सकता है. इससे इनमें काम करने वाले कर्मचारियों में असंतुष्टि बढ़ सकती है, जिससे अंदरूनी तौर पर भी इनके लिए खतरा पैदा हो सकता है.

पिछले साल की तरह 2021 में भी सुरक्षा को लेकर कई मोर्चों पर चुनौतियां बढ़ेंगी. आज जब दुनिया महामारी के दूसरे वर्ष में प्रवेश कर रही है तो सबका ध्यान अपनी अर्थव्यवस्था को फिर से मजबूत करने पर है और इसमें कुछ गलत भी नहीं है. आखिर अर्थव्यवस्था के मजबूत रहने पर ही किसी देश के लिए रक्षा मामलों पर अधिक पैसा खर्च करने का सामर्थ्य आता है और इससे उसे एक भरोसेमंद राष्ट्रीय सुरक्षा व्यवस्था बनाने में मदद मिलती है. भारत इस सच्चाई को बखूबी समझता है.

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