Published on Sep 11, 2018 Updated 0 Hours ago

नई दिल्‍ली अमेरिका से रणनीतिक साझेदारी जारी रख रहा है। क्‍योंकि इसमें भारत का फ़ायदा है और ऐसे में उन बातों को ख़याल में रखना होगा जो इस फ़ायदे के लिए ज़रूरी हैं।

2+2 डायलॉग: रणनीतिक नज़दीकी को छेड़ें नहीं

नई दिल्‍ली (भारत सरकार) में अमेरिका से रिश्‍तों को लेकर काफ़ी बेचैनी है। भारत और अमेरिका पहली बार 2+2 स्‍ट्रेटजिक डायलॉग कर रहे हैं। कुछ सालों पहले भारत इस तरह की बातचीत के बारे में सोच भी नहीं सकता था। यही नहीं कहा जा रहा है कि अमेरिका से रणनीतिक साझेदारी के लिए बुनियादी समझौता करने के क़रीब है इसे CISMOA यानी कम्‍युनिकेशन एंड इंफॉर्मेशन सिक्‍योरिटी मेमोरेंडम ऑफ़ अंडरस्‍टैंडिंग भी कहते हैं (या फि‍र COMCASA यानी कम्‍युनिकेशन कम्‍पैटिबिलिटी एंड सिक्‍योरिटी एग्रीमेंट, ये भारत के लिए बनाया गया वर्ज़न है) एक और इंडिकेटर जिसमें भारत की तरफ से फ़ैसला लेने वाले लोगों को लगता है कि कहीं भारत को अपने फ़ायदे से समझौता न करना पड़ जाए। ऐसे में भारत को चिंता करनी होगी। अमेरिकी प्रतिबंधों का साया बना रहेगा। जब तक हम S-400 (रूसी एयर डिफ़ेंस मिसाइल सिस्‍टम) और उससे कम अहम ईरान से तेल खरीदने के मसले का कोई हल नहीं निकाल लेते। इसके अलावा दोनों देशों के बीच व्‍यापार का भी मुद्दा है जिसमें अमेरिकी राष्‍ट्रपति ट्रम्‍प की खासा दिलचस्‍पी है। इन सभी मसलों पर बातचीत के दौरान भारत को इस बात के लिए सतर्क रहना होगा कि कहीं भारत के हितों से समझौता न हो। नई दिल्‍ली अमेरिका से रणनीतिक साझेदारी इसलिए रख रहा है क्‍योंकि इसमें भारत का फ़ायदा है और ऐसे में उन बातों का ध्‍यान रखना होगा जो भारत के हितों को आगे ले जाएंगी।

S-400 (रूसी एयर डिफ़ेंस मिसाइल सिस्‍टम) का मसला सबसे बड़ी मुश्किल है। जिस पर 2+2 डायलॉग में बातचीत होगी। भारत के पास इस एयर डिफ़ेंस मिासइल को खरीदने की पर्याप्‍त वजहें हैं। ये काफ़ी सक्षम है। खासतौर से लंबी दूरी की ज़मीन से हवा में मार करने वाली मिसाइलों के लिए। इसके आने से चीन की तुलना में हमारी एयर डिफ़ेंस की क्षमता में इज़ाफ़ा होगा। ये भी कहा जा सकता है कि भारत को ये सिस्‍टम खरीदने से रोकना अमेरिका की नासमझी होगी। दूसरी तरफ़ हक़ीक़त ये है कि भारत बस 5 ऐसे एयर डिफ़ेंस सिस्‍टम खरीद रहा है जिस से साफ़ है कि ये चीन की सीमा के बजाय नई दिल्ली और दूसरी ऐसी जगहों पर तैनात किये जायेंगे जो निशाने पर हो सकती हैं लेकिन इन सभी सूरतों में भारत को इस सवाल का जवाब तलाशना होगा कि क्‍या S-400 आने से होने वाला सामरिक फ़ायदा अमेरिका से रिश्‍तों की कीमत पर सही होगा?इसमें कोई शक नहीं है कि अमेरिका भारत के लिए सामरिक तौर पर कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है।

उम्‍मीद करें कि दोनों पक्ष कोई बीच का रास्‍ता निकाल लें। हो सकता है कि भारत को रूस से किसी बड़ी सैन्‍य खरीददारी न करने का वादा करना पड़े और रूसी हथियारों पर अपनी निर्भरता को कम करना पड़े।

इस रास्‍ते पर भारत को समझदारी से चलना ही होगा: रूस की चीन से बढ़ती नज़दीकी उसे भारत का ग़ैरभरोसेमंद रणनीतिक साझेदार बना रही है और ऐसे में कोई मतलब नहीं बनता कि भारत रूस पर अपनी निर्भरता बढ़ाए। इसके अलावा आधुनिक तकनीक और बेहतर कीमत में रूसी हथियार मुहैया कराने की बात अब बीते ज़माने की हो गई है क्‍योंकि अब रूस के पास कटिंग एज यानी सबसे नई और बेहतरीन टेक्‍नोलॉजी भी नहीं रही और दोस्‍ती के चलते कीमतों में रियायत भी इतिहास की बात हो चुकी है इस बारे में भावुक होने की ज़रूरत नहीं है क्‍यों कि रूस पुराने रिश्‍तों के हिसाब से नए फ़ैसले नहीं ले रहा है।

मॉस्‍को वो कर रहा है जो उसके लिए ज़रूरी है वैसा ही भारत को भी करना चाहिए लेकिन वॉशिंगटन को भी इस सच्‍चाई को मानना होगा कि रूस पर से निर्भरता कम करने के लिए भारत को कुछ समय लगेगा। अमेरिका को इस बात को ध्‍यान में रखना होगा कि हुए कि भारतीय सेना में बड़ी तादाद में रूसी हथियार हैं।

ईरान से तेल खरदीने की समस्‍या कम गंभीर है ,ईरान तेल का इकलौता ज़रिया नहीं है और चाबहार बंदरगाह को भी हक़ीक़त की नज़र से देखना चाहिए। ऐसा नहीं है कि सेंट्रल एशिया में बेशुमार मौके और पैसे भारत का ही इंतज़ार कर रहे हैं जिसके लिए भारत ईरान से होते हुए वहां पहुंचेगा। जहां तक अफ़्ग़ानिस्‍तान की बात है वहां भारत की नीति को मुश्किल का सामना करना पड़ रहा है और इसका कनेक्‍टविटी से कम ही लेना-देना है। हांलाकि ये बेवकूफ़ी की बात होगी कि तेहरान जो नई दिल्‍ली के मुकाबले ज़्यादा यथार्थवादी है वो भारत से फिरौती की मांग नहीं रखेगा। इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि ईरान के ज़रिए अफ़गानिस्‍तान तक पहुंचने का रास्‍ता तैयार होने के बाद इसके बदले वो हमसे और डिमांड नहीं करेगा।

तालिबान पर ईरान की पॉलिसी कई दिशाओं में घूमती रही है और इससे भी साफ़ है कि भारत और एक ईरान की सोच एक जैसी नहीं है। अफ़ग़ानिस्‍तान में भारत की असली समस्‍या ये है कि भारत वहां कोई भूमिका निभाना चाहता तो है लेकिन बेरहम सियासत के नियम कहते हैं कि वहां निर्णायक भूमिका के लिए क्रूर और खेल बिगाड़ने वाली क्षमता होनी चाहिए जिसकी हमारे नेता इजाज़त नहीं देंगे।

भारत के सॉफ़्ट पावर और इंफ्रास्‍ट्रक्‍चर के काम की पाकिस्‍तान की गोलियों और बमों से कोई तुलना नहीं है। भारत को इस हक़ीक़त को समझना चाहिए बजाय इसके कि वो ऐसा हल तलाशने की कोशिश करे जो संभव नहीं है। सवाल ये नहीं है कि ईरान भारत के लिए अहम है या नहीं बल्कि ये है कि ईरान क्‍या भारत के लिए अमेरिका की अहमियत के कहीं पास भी ठहरता है या नहीं?

सीधी सी बात है कि अमेरिका के अलावा कोई और देश नहीं है जो चीन को बैलेंस कर सके और ये बात भी मायने रखती है कि क्‍या वाकई अमेरिका ऐसा करना चाहता है। वहीं प्रेसीडेंट ट्रम्‍प के अचानक किए गए ट्वीट्स ध्‍यान खींचते हैं हांलाकि ट्रम्‍प प्रशासन ने उन मसलों को लेकर ज़मीन पर पर बहुत कम काम किया है। इसमें भारत के साथ लगातार साझेदारी बनाए रखने की दिलचस्‍पी भी शामिल है। साउथ चाइना सी (दक्षिण चीन सागर) में चीनी दखल के खि़लाफ़ आवाजाही के मुद्दे को अमेरिका ने दमदार तरीके से उठाया और सोची समझी रणनीति के तहत यूएस स्‍ट्रे‍टजिक डॉक्‍यूमेंट में पैसिफ़ि‍क कमांड का नाम इंडो-पैसिफ़ि‍क कमांड कर दिया लेकिन अमेरिकी प्रशासन को लेकर इस बात पर थोड़ा शक है कि वो चीन को बैलेंस करने की नीति पर मजबूती से कायम रहेंगे।

भारत के लिए स्‍ट्रेटजी बनाने वालों का ये सोचना ख़वाब की दुनिया में रहना होगा कि वो विकल्‍पों में से कुछ चुनने के बिना पॉलिसी बना सकते हैं। चाहे अमेरिका, चीन, रूस या ईरान के साथ रणनीतिक साझेदारी करनी हो तो विकल्‍पों में से कुछ चुनना पड़ता है और ऐसे में कहीं न कहीं समझौता तो करना ही पड़ता है। नई दिल्‍ली को ये सवाल नहीं पूछना चाहिए कि समझौता करना है या नहीं, बल्कि ये देखना चाहिए कि किस बात पर समझौता करना पड़ रहा है।

जवाब इस बात का अंदाज़ा लगाकर निकालना चाहिए कि इससे हमें फ़ायदा होगा न कि आज़ादी के बाद की पुरानी सोच को ध्‍यान में रखकर। हांलाकि इतिहास कुछ और कहता है लेकिन अमेरिका से इस रणनीतिक करीबी को छेड़ने की कोशिश करना अच्‍छा नहीं होगा।

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