Published on Nov 08, 2021 Updated 0 Hours ago

16+1 की पहल को एक ऐसा मुखबिर बताया जा रहा है, जो यूरोपीय यूनियन में घुसपैठ की फ़िराक़ में है.

16+1 की पहल: क्या नतीजे तक पहुंचने में जल्दबाज़ी हुई?

चीन और मध्य एवं पूर्वी यूरोपीय देशों का नौवां शिखर सम्मेलन इस साल फ़रवरी में संपन्न हुआ. इस सम्मेलन में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने चीन और मध्य व पूर्वी यूरोपीय देशों (CEE) के बीच व्यापार बढ़ाने और इस क्षेत्र से 170 अरब डॉलर से ज़्यादा का सामान ख़रीदने और वैक्सीन के क्षेत्र में सहयोग को और बढ़ाने की बात कही थी. इसके साथ-साथ इस सम्मेलन में भाग लेने वाले यूरोपीय संघ के 12 सदस्य देशों में से छह ने अपने राष्ट्राध्यक्षों के बजाय मंत्रियों को प्रतिनिधि बनाकर भेजा था. ये इस बात का इशारा भी हो सकता है कि दोनों पक्ष इस मंच को जितनी अहमियत दे रहे हैं, उसमें कितना अंतर आ गया है. चीन ये उम्मीद कर रहा है कि मध्य और पूर्वी यूरोपीय देशों के साथ सहयोग का ये ढांचा लगातार विकसित होता रहे. वहीं, मध्य और पूर्वी यूरोप के देश इस संवाद के नतीजों से असंतुष्ट नज़र आ रहे हैं.

चीन और मध्य एवं पूर्वी यूरोपीय देशों (CEEC) के बीच सहयोग का ये मंच 2012 में स्थापित किया गया था. इसका मक़सद चीन और 16 यूरोपीय देशों- अल्बानिया, बोस्निया और हर्ज़ेगोविना, बुल्गारिया, क्रोएशिया, चेक गणराज्य, एस्टोनिया, यूनान, हंगरी, लैटविया, उत्तरी मैसेडोनिया, मोंटेनीग्रो, पोलैंड, रोमानिया, सर्बिया, स्लोवाकिया और स्लोवेनिया- के बीच आर्थिक और व्यापारि सहयोग को बढ़ाना था. लिथुआनिया ने हाल ही में इस समूह की सदस्यता छोड़ दी है. मध्य और पूर्वी यूरोप के देश उस जगह पर स्थित हैं, जो यूरोप और एशियाई महाद्वीप को जोड़ता है. ये रूस और मध्य पूर्व के बीच भी एक सामरिक क्षेत्र में स्थित है. इन देशों की जियोपॉलिटिकल अहमियत पर सबसे पहले हैलफोर्ड मैक्किंडर ने अपनी हार्टलैंड थ्योरी से ध्यान खींचा था. उन्होंने लिखा था कि, ‘जो भी पूर्वी यूरोप पर राज करता है, वो मध्य क्षेत्र को नियंत्रित करता है; और जो मध्यवर्ती क्षेत्र पर राज करता है वो दुनिया के द्वीप पर राज करता है; जो दुनिया के द्वीप पर राज करता है, वही दुनिया पर राज करता है.’

थोड़ा अलग तरह का सहयोग

चीन और मध्य व पूर्वी यूरोपीय देशों के बीच सहयोग की कई वर्षों से कड़ी आलोचना होती रही है. यूरोप के राजनयिक तो इसे चीन की फूट डालो और राज करो की नीति का औज़ार मानते हैं. वहीं दूसरी ओर, ख़ुद मध्य व पूर्वी यूरोपीय देशों (CEE) में इस बात से असंतोष बढ़ रहा है कि चीन के साथ आर्थिक संबंध बढ़ाने से भी उन्हें कोई ख़ास फ़ायदा नहीं हो रहा है. इस वजह से इस क्षेत्र में चीन का प्रभाव कम हुआ है. अपनी शुरुआत के दस साल बाद भी 16+1 की पहल से उठा सवाल जस का तस बना हुआ है; इसे चीन की फूट डालो और राज करो की नीति का औज़ार माना जाए या फिर सहयोग के एक उपयोगी माध्यम को बेवजह तवज्ज़ो दिया जाना कहें?

एक तरह से देखें तो ये मंच, चीन के बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव को आगे बढ़ाने का अहम ज़रिया है. मध्य और पूर्वी यूरोप के देश, पश्चिमी यूरोप और एशिया को जोड़ने वाली अहम सामरिक कड़ी हैं. इसीलिए 16+1 की पहल को BRI की कामयाबी के लिए उपयोगी माना जा रहा है. असली अंतर इसकी बनावट में है और एक बात ये भी है कि आम तौर पर चीन का साझीदार देशों पर जिस तरह का नियंत्रण होता है, वो इस मंच से जुड़े देशों के मामले में नहीं दिखता. इसके अलावा, BRI का मुख्य ज़ोर डिजिटल, कनेक्टिविटी- परिवहन और ऊर्जा के क्षेत्र पर है. वहीं, 16+1 बहुत से सदस्यों वाला ऐसा मंच है, जो एक साथ कई क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करता है.

यूरोपीय संघ और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों द्वारा पूंजी उपलब्ध कराने के बावजूद, मध्य और पूर्वी यूरोपीय देशों के विकास की ज़रूरतें पूरी करने में पूंजी की कमी रह जा रही है. ये कमी, विकासशील देशों से पूंजी हासिल किए बग़ैर पूरी नहीं की जा सकती है. चीन इसी कमी को पूरी करता है. वो CEE देशों को आर्थिक मदद का ऐसा पैकेज मुहैया कराता है, जो संस्थागत बाधाओं से परे है और जिन्हें तेज़ी से लागू किया जा सकता है.

दोनों ही तरफ़ के राजनेता, इस क्षेत्र में चीन के निवेश के असर को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते आए हैं. जबकि, इस मंच के ज़्यादातर सदस्य देशों के साथ चीन का व्यापार बहुत कम है. ऊपर से इसका पलड़ा चीन की तरफ़ झुके होने के चलते मध्य और पूर्वी यूरोपीय देशों का चीन के साथ व्यापार घाटा बढ़कर 75 अरब डॉलर तक पहुंच चुका है.

जहां तक मूलभूत ढांचे के विकास की बात है, तो यूरोपीय संघ की सदस्यता के हवाले से चीन और CEEC देशों के बीच सहयोग, बंटा हुआ नज़र आता है. इस मंच के वो पांच देश, जो यूरोपीय संघ के सदस्य नहीं हैं- यानी सर्बिया, अल्बानिया, मैसेडोनिया, मोंटेनीग्रो, बोस्निया और हर्ज़ेगोविना ने बड़ी गर्मजोशी से चीन की 6 अरब यूरो लागत वाली फंडिंग परियोजनाओं का स्वागत किया है. चीन के एग्ज़िम बैंक से मिले क़र्ज़ का इस्तेमाल पश्चिमी बाल्कन क्षेत्र में हाइवे, कोयले से चलने वाले बिजलीघर और रेलवे लाइन बनाने में किया जा रहा है. इन देशों के बीच चीन की फंडिंग की लोकप्रियता की एक बड़ी वजह यूरोपीय बैंक फॉर रिकंस्ट्रक्शन ऐंड डेवेलपमेंट, विश्व बैंक और सर्बिया को रूस से मिलने वाले मामूली क़र्ज़ हैं.

इन देशों की तुलना में उन बाक़ी 11 देशों के लिए घोषित की गई योजनाएं काग़ज़ और राजनीतिक एलानों से आगे नहीं बढ़ सकी हैं, जो यूरोपीय संघ के सदस्य हैं. हाल ये है कि 2013 में जिन परियोजनाओं पर दस्तख़त हुए थे, वो भी अब तक नहीं शुरू हो सकी हैं. सर्बिया की राजधानी बेलग्रेड को हंगरी की राजधानी बुडापेस्ट से जोड़ने वाली रेलवे लाइन ही इकलौता अपवाद है. 2019 में यूरोपीय संघ के देशों में चीन का निवेश उसके कुल प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) का मात्र तीन प्रतिशत है. जबकि यूरोपीय संघ के कुल GDP में इस क्षेत्र के देशों की हिस्सेदारी इससे कही ज़्यादा है. हालांकि चीन ने बुनियादी ढांचे के विकास से जुड़ी परियोजनाओं के ठेके बड़ी आसानी से हासिल कर लिए. लेकिन, वो क़र्ज़ देने वाले या निवेशक की भूमिका नहीं निभा सकता. वो इन देशों में महज़ एक ठेकेदार रह सकता है.

यूरोपीय संघ के देशों की चीन के निवेश को लेकर दिलचस्पी न दिखाने की वजह, यूरोपीय संघ के निवेश संबंधी क़ानून और चीन के निवेश का मॉडल है. दूसरी बात ये है कि पश्चिमी बाल्कन के देशों की तुलना में, यूरोपीय संघ के सदस्य देशों के लिए चीन, इकलौता सहारा नहीं, बल्कि निवेश का एक और विकल्प भर है. क्योंकि, इन देशों के लिए यूरोपीय निवेश बैंक से सस्ती दरों पर पारदर्शी शर्तों वाले आकर्षक क़र्ज़ हासिल करने के विकल्प खुले हुए हैं.

नीचे की टेबल ये संकेत देती है कि इन देशों में चीन से भारी मात्रा में निवेश दिखने के बावजूद, पूंजी का प्रवाह बढ़ने का असल मतलब प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) नहीं होता है. चीन के मालिकाना हक़ वाली सभी कंपनियों को चीन का सीधा निवेश माना जाता है. इसका मतलब ये है कि जब भी चीन की कोई कंपनी किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी का अधिग्रहण करती है, तो मध्य और पूर्वी यूरोपीय देशों में मौजूद उस कंपनी की शाखाओं को भी उसके बाद चीन का निवेश माना जाता है.

मध्य और पूर्वी यूरोप के देश ही क्यों?

इन देशों के साथ चीन के सहयोग को अक्सर, चीन की बांटो और राज करो की नीति के तौर पर देखा जाता है. ये शंकाएं इसलिए पैदा हुई हैं, क्योंकि चीन निवेश नहीं करता, क़र्ज़ देता है. ये क़र्ज़ चीन के सरकारी संस्थान देते हैं, जिसके बदले में चीन आम तौर पर दूसरे देश की सरकार से गारंटी लेता है. इससे निवेश से जुड़े जोखिम का बोझ, उधार लेने वाले देश के सिर पर आ जाता है. इसकी एक बेहतरीन मिसाल मोंटेनीग्रो का हाइवे प्रोजेक्ट है. इस प्रोजेक्ट से मोंटेनीग्रो पर चीन के भारी क़र्ज़ का बोझ पड़ गया है. ये क़र्ज़ मोंटेनीग्रो की सरकार के सालाना बजट के एक तिहाई से भी ज़्यादा है.

इस पहल का एक बड़ा हिस्सा, पर्यटन, थिंक टैंक के बीच सहयोग, युवा नेताओं के मंचों और साहित्य के अनुवाद के क्षेत्र में चीन और संबंधित देश की जनता के बीच संपर्क को बढ़ावा देना भी है. इससे चीन को उस देश के लोगों से सीधे संपर्क करने का भी मौक़ा मिल जाता है. जिसका फ़ायदा उठाते हुए चीन इन देशों के भविष्य के नीति नियंताओं से रिश्ते क़ायम कर लेता है. चीन और CEEC देशों के रिश्तों में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की भागीदारी स्थानीय स्तर पर लगातार बढ़ रही है. इन दलों के साथ सीधा संपर्क करने से चीन की कम्युनिस्ट पार्टी को कूटनीतिक और आधिकारिक सरकारी संपर्कों को परे करके सीधा संवाद करने का मौक़ा मिल जाता है.

यूरोपीय संघ इस पहल और पारदर्शिता की कमी को लेकर खुलकर अपनी आशंकाएं ज़ाहिर करता आया है. संघ ने 16+1 के सदस्य देशों से ये ‘सुनिश्चित करने के लिए भी कहा कि चीन के साथ रिश्तों को लेकर यूरोपीय संघ के स्वर एक हों’ और ये देश अपने राष्ट्रीय और यूरोप के हितों के साथ कोई समझौता न करें. यूरोपीय संघ ने अपनी चिंताओं को ठोस रूप देते हुए यूरोपीय संघ के सदस्य देशों में भविष्य में होने वाले प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) की पड़ताल की एक व्यवस्था भी बनाई है. हालांकि मध्य और पूर्वी यूरोपीय देशों में चीन इकलौता निवेशक नहीं है. लेकिन, यूरोपीय संघ के इस क़दम को मुख्य रूप से भविष्य में चीन के किसी भी निवेश पर कड़ी नज़र रखने के रूप में ही देखा जा रहा है. यूरोपीय संघ ने पश्चिमी बाल्कन देशों की भी आलोचना की है और उन्हें चेतावनी दी है कि चीन के साथ सहयोग बढ़ाते रहने से उनकी यूरोपीय संघ की संभावित सदस्यता को भी तगड़ा झटका लगेगा. इसके अलावा मध्य और पूर्वी यूरोपीय देशों की निवेश की पड़ताल करने की अपनी व्यवस्था की ख़ामियों पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है.

इस क्षेत्र के चीन का मोहरा बनने के आरोप इस डर से पैदा हुए हैं कि इस पहल में शामिल देशों में चीन का राजनीतिक प्रभाव बढ़ रहा है. जुलाई 2018 में यूरोपियन नेबरहुड पॉलिसी ऐंड एनलार्जमेंट निगोशिएन्स के यूरोपीय आयुक्त जोहानेस हान ने चेतावनी दी थी कि चीन पश्चिमी बाल्कन देशों को अपना मोहरा बना रहा है, जो अंतत: यूरोपीय संघ के सदस्य बनने वाले हैं. जून 2017 में ग्रीस ने संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार परिषद में चीन के मानव अधिकार संबंधी रिकॉर्ड की आलोचना करने वाले यूरोपीय संघ के प्रस्ताव में अड़ंगा लगा दिया था. उससे कुछ महीनों पहले हंगरी ने चीन में हिरासत में लिए गए वकीलों के टॉर्चर की आलोचना करने वाले एक ख़त पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया था. वैसे तो ये चिंतित करने वाली घटनाएं थीं. लेकिन, अभी भी ऐसी घटनाएं अपवाद ही हैं, आम नहीं बनी हैं. इसकी तुलना में मध्य और पूर्वी यूरोप के देशों में चीन के साथ अपने सहयोग को लेकर आशंका बढ़ रही है. हमें इसकी मिसाल इनमें से ज़्यादातर देशों द्वारा अपनी 5G तकनीक की व्यवस्था को सुरक्षित बनाने के लिए उठाए जाने वाले क़दमों और रोमानिया द्वारा परमाणु रिएक्टर के समझौते को रद्द करने के रूप में दिख रही है.

यही वजह है कि इन देशों के चीन का मोहरा बनने की बात ये जताती है कि पश्चिमी यूरोप के देशों की तुलना में मध्य और पूर्वी यूरोप के देश भरोसे के लायक़ नहीं हैं और ये अन्य देशों के साथ संबंधों को लेकर यूरोपीय संघ के हितों को आगे बढ़ा पाने में असमर्थ हैं. ये अजीब ही है कि मध्य और पूर्वी यूरोप के देशों की आलोचना उसी काम के लिए की जा रही है, जो ख़ुद जर्मनी और फ्रांस करते आ रहे हैं. ये दोनों ही देश चीन के साथ रिश्तों को आगे बढ़ाने में अपने राष्ट्रीय हितों को तरज़ीह दे रहे हैं. ऐसे में इस अविश्वास पर लगाम लगाने की ज़रूरत है. क्योंकि, यूरोपीय संघ को पश्चिम और पूरब में बांटने की ये सोच ख़ुद यूरोपीय संघ को कमज़ोर करेगी. इस सोच से यूरोपीय संघ, अपने लिए ख़ुद ही चीन से ज़्यादा समस्याएं खड़ी कर रहा है.

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