Author : Kabir Taneja

Published on Feb 16, 2021 Updated 0 Hours ago

अरब स्प्रिंग ने सबको सिखाया कि लोकतंत्र, परिवर्तन और राजनीतिक आंदोलन तमाशबीनों का खेल नहीं है बल्कि इनके लिए कड़ी मेहनत, समय, योजना और प्रतिबद्धता की ज़रूरत होती है.

अरब स्प्रिंग के 10 साल: पहले से जटिल पश्चिम एशिया

दिसंबर 2010 में मध्य ट्यूनिशिया के साफ़-सुथरे शहर सिदी बूज़िद में मोहम्मद बूअज़ीज़ी नाम के एक फल बेचने वाले ने भ्रष्टाचार और स्थानीय पुलिस की धमकी के ख़िलाफ़ उस जगह ख़ुद को आग लगा ली जहां वो अपना ठेला लगाकर फल बेचता था. एक स्थानीय फल बेचने वाले, जिसे कुछ नहीं समझा जाता था, के द्वारा इस ललकार ने मध्य-पूर्व में लंबे समय से राज कर रहे नेताओं के ख़िलाफ़ बड़े प्रदर्शन की शुरुआत की. इस प्रदर्शन को अरब स्प्रिंग का नाम दिया गया.

इसका नतीजा चौंकाने वाला था. ट्यूनिशिया से शुरू प्रदर्शन मिस्र, बहरीन, सीरिया, लीबिया और दूसरे अरब देशों तक पहुंच गया. सऊदी अरब, यूएई और ईरान की हुकूमतों को भी बग़ावत का डर सताने लगा. ये डर अभी भी इन देशों के द्वारा इलाक़े में लागू की जाने वाली नीतियों में दिखाई देता है. इन प्रदर्शनों पर पूरी दुनिया की नज़र गई. लाखों लोग, जिनकी अगुवाई अक्सर नौजवान करते थे, दशकों से सत्ता पर काबिज तानाशाहों के ख़िलाफ़ सड़कों पर उतरते थे. लंबे वक़्त से ट्यूनिशिया के राष्ट्रपति रहे ज़िने अल-आबिदीन को इस्तीफ़ा देने के लिए मजबूर होना पड़ा. इस इस्तीफ़े के साथ ही 1987 से राष्ट्रपति पद की बागडोर संभालने वाले आबिदीन की पारी का अंत हुआ. इसी तरह जब मिस्र की राजधानी काहिरा के तहरीर स्क्वायर में 10 लाख से ज़्यादा नागरिकों ने कब्ज़ा जमा लिया तो लंबे वक़्त से मिस्र के राष्ट्रपति रहे होस्नी मुबारक ने भी 30 साल तक सत्ता संभालने के बाद अपने पद को छोड़ा.

मौसम का बदलाव?

लोकप्रिय आंदोलन की अगुवाई में इन बदलावों का जश्न दुनिया भर में लोगों की जीत के रूप में मनाया गया. काफ़ी हद तक ये सही भी था लेकिन इन क्रांतियों में गहराई और संस्थानों की कमी थी. ये दुनिया का पहला सोशल मीडिया की अगुवाई वाला आंदोलन था और इसको लेकर पूरी दुनिया में उत्साह का माहौल था. ऐसे में ज़्यादा समझने-बूझने वाली सरकारें और वैश्विक नेता भी वास्तविकता और लोगों की राय के बीच फंस गए. और ऐसे में अक्सर लोगों की राय की जीत हुई.

ये दुनिया का पहला सोशल मीडिया की अगुवाई वाला आंदोलन था और इसको लेकर पूरी दुनिया में उत्साह का माहौल था. ऐसे में ज़्यादा समझने-बूझने वाली सरकारें और वैश्विक नेता भी वास्तविकता और लोगों की राय के बीच फंस गए.

लेकिन नतीजे बहुत अच्छे नहीं थे. मिस्र में 2012 में चुनाव हुए और मुस्लिम ब्रदरहुड के समर्थन से मोहम्मद मुर्सी की जीत हुई. लेकिन आख़िरकार 2013 में एक विद्रोह के ज़रिए मुर्सी को विपक्ष ने सत्ता से बेदखल कर दिया. इस विद्रोह को मुख्य़ रूप से सेना और धार्मिक समूहों का समर्थन हासिल था क्योंकि लोकतांत्रिक परिणाम कई को पसंद नहीं था- न सिर्फ़ इलाक़े में बल्कि विदेशों में भी (मुस्लिम ब्रदरहुड को उसी साल मिस्र में प्रतिबंधित कर दिया गया). 2014 में मिस्र एक बार फिर से सैन्य शासन के अधीन आ गया. इस बीच सीरिया, यमन और लीबिया भी गृहयुद्ध की चपेट में आ गए. इन देशों में गृह युद्ध अभी भी जारी हैं.

तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा के प्रशासन के तहत अमेरिका ने इन प्रदर्शनों को मध्य-पूर्व, ऐसा इलाक़ा जहां अमेरिका की विदेश नीति दशकों से गहराई से समाई हुई है, में बदलाव के लिए एक स्वाभाविक और मूलभूत आंदोलन की तरह देखा. वास्तव में जिन नेताओं को सत्ता से बेदख़ल कर दिया गया, उनमें से कई के अमेरिका के साथ काफ़ी अच्छे संबंध थे. ऐसे में ओबामा के सामने विकल्प था कि या तो वो लोगों की राय का समर्थन करें- ये एक क्षेत्रीय मुद्दा नहीं था क्योंकि दुनिया भर के लोगों तक अरब स्प्रिंग की बात पहुंच चुकी थी- नहीं तो वो इस क्षेत्र में दशकों तक अमेरिकी विदेश नीति द्वारा बनी यथास्थिति का समर्थन करते रहें. अरब स्प्रिंग से एक साल पहले 2009 में ओबामा प्रशासन ने वास्तव में सोशल मीडिया साइट ट्विटर को कहा कि वो किसी भी तरह के रख-रखाव के लिए ट्विटर को बंद करने में देरी करे ताकि ईरान में सरकार विरोधी प्रदर्शनों को मदद मिल सके. इस तरह ये साफ़-तौर पर कहा जा सकता है कि ओबामा प्रशासन इस बात को काफ़ी जल्दी समझ गया था कि लोगों को संगठित करने के लिए सोशल मीडिया एक अच्छा औज़ार है. दूरसंचार तक पहुंच के साथ उस वक़्त तक इंटरनेट और स्मार्टफ़ोन समाज और राजनीति का अभिन्न हिस्सा बन रहे थे. इस इलाक़े में सरकार से नाराज़ लोग इनका इस्तेमाल कर रहे थे.

अरब स्प्रिंग के लिए वैश्विक समुदाय का नैतिक समर्थन तो था लेकिन वास्तविकता थोड़ी हटकर थी. ज़्यादातर मामलों में कोई राजनीतिक प्लान बी या संस्थान नहीं थे. ऐसे मज़बूत नेता नहीं थे जो न सिर्फ़ भ्रष्ट सत्ता के पतन के बाद देश को संभालें बल्कि विदेशी दखल के साथ या विदेशी दखल के बिना राजनीतिक रूप से दुनिया के सबसे अस्थिर क्षेत्रों में से एक में लोकतांत्रिक प्रक्रिया का निर्माण कर सकें. दशकों तक कुशासन के ख़िलाफ़ लोगों की कोशिश के बाद आदर्शवाद और उत्साह की जैसी झलक काहिरा में दिखी, उसने लोकतांत्रिक राजनीति के लिए नये, स्थायी युग को लेकर इलाक़े की वास्तविक क्षमता का ग़लत आकलन किया. दूसरी तरफ़ दुनिया के दूसरे देश भी आर्थिक तौर पर छोटी-मोटी सहायता देने के अलावा मदद करने के लिए आगे नहीं आए.

अरब स्प्रिंग के ग़लत साबित होने का सबसे बड़ा उदाहरण आज शायद सीरिया है. राष्ट्रपति बशर अल-असद के शासन को चुनौती विद्रोह में तब्दील हो गई. विद्रोह कुछ हद तक सरकार के ख़िलाफ़ था तो कुछ विद्रोहियों को सरकार का समर्थन हासिल था और कुछ विद्रोही एक-दूसरे के ख़िलाफ़ थे. इन नाकामियों के बीच अल क़ायदा और तथाकथित इस्लामिक स्टेट (आईएसआईएस या दाएश) के निर्माण ने सांप्रदायिक दरार को बढ़ाया (ज़्यादातर शिया और सुन्नी के बीच). राजनीतिक शून्यता से इसमें मदद मिली. जूझ रही स्थानीय आबादी को अक्सर सांत्वना और सुरक्षा के लिए इन उग्रवादी समूहों के पास जाने को मजबूर होना पड़ा.

लोकतांत्रिक देशों से लोकतंत्र के लिए तलाश

भारत समेत दुनिया भर में ये बुनियादी राय है कि पश्चिम एशिया में लोकतंत्र काम नहीं करता और यहां अक्सर तानाशाही के ज़रिए स्थिरता आती है. अरब स्प्रिंग को लेकर भारत का दृष्टिकोण भी उसकी विदेश नीति के लक्ष्य से निकलकर बाहर आता है. पश्चिम एशिया में भारत की विदेश नीति का लक्ष्य है तेल उत्पादन, सप्लाई और क़ीमत में स्थिरता के साथ-साथ वहां फैले 80 लाख से ज़्यादा प्रवासियों की सुरक्षा. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत ने भी शायद लंबे वक़्त तक यकीन किया है कि इस इलाक़े में स्थिरता योजनाबद्ध लोकतांत्रिक बदलाव से नहीं आएगी बल्कि स्थिरता के लिए यहां की अरब आबादी के ऊपर फ़ैसला छोड़ दिया जाए कि वो क्या चाहते हैं. आख़िर में, हितों के लिए सुरक्षा की ज़रूरत होती है, इसके अलावा हर चीज़ कूटनीति है.

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत ने भी शायद लंबे वक़्त तक यकीन किया है कि इस इलाक़े में स्थिरता योजनाबद्ध लोकतांत्रिक बदलाव से नहीं आएगी बल्कि स्थिरता के लिए यहां की अरब आबादी के ऊपर फ़ैसला छोड़ दिया जाए कि वो क्या चाहते हैं.

अरब स्प्रिंग की पूरी प्रक्रिया के दौरान सीरिया के साथ भारत के संबंध ने ऊपर बताए गए दृष्टिकोण के बारे में सही ढंग से बताया. भारत ने सीरिया के साथ सामान्य संबंध को बनाए रखा. भारत कुछ गिने-चुने देशों में से था जिसने पूरे गृह युद्ध के दौरान (सुरक्षा चिंताओं की वजह से कुछ महीनों को छोड़कर) सीरिया में दूतावास बनाए रखा. शुरुआत में भारत को भी लगा कि अगर ट्यूनिशिया की तरह शांतिपूर्वक सत्ता परिवर्तन हो रहा है तो प्रदर्शन के पीछे मक़सद है. लेकिन वैश्विक उथल-पुथल के बावजूद इस संकट को लेकर भारत का दृष्टिकोण परंपरागत रहा यानी सीरिया में जो भी सत्ता में रहेगा भारत उसके साथ बातचीत करेगा. 2016 तक ये साफ़ हो गया कि असद का भविष्य प्रदर्शनों के द्वारा तय नहीं होगा बल्कि रूस और ईरान में मौजूद उनके समर्थक तय करेंगे.

शायद भारत के पूर्व विदेश सचिव शिव शंकर मेनन ने अरब स्प्रिंग को लेकर भारत की चिंताओं और दृष्टिकोण को उस वक़्त सबसे सारगर्भित ढंग से रखा. 2011-12 में मेनन ने कहा: “पश्चिमी देशों द्वारा विकसित अर्थव्यवस्था अब उस अराजकता को सह सकती है जो तथाकथित अरब स्प्रिंग की वजह से मध्य-पूर्व में आ रही है. वो सक्रिय रूप से इस क्षेत्र में सत्ता परिवर्तन को बढ़ावा दे सकती हैं. (तेल) आपूर्ति में अनिश्चितता का मुख्य शिकार भारत और चीन जैसी उभरती अर्थव्यवस्था होगी जो अभी भी इलाक़े से बाहर के देशों के साथ तेल की आपूर्ति को लेकर दीर्घकालीन समझौता नहीं कर पाए हैं.

निष्कर्ष

अंतत: अरब स्प्रिंग के ज़रिए लोगों का ग़ुस्सा, हताशा और ख़्वाहिशें बाहर निकलीं जो तानाशाही शासन की वजह से दबी हुई थीं. लेकिन आख़िरी नतीजा उम्मीद से काफ़ी कम था. अरब स्प्रिंग ने सिर्फ़ नाकामी को जन्म दिया. पहले से ही इस इलाक़े में भू-राजनीतिक माहौल अस्थिर था. अरब स्प्रिंग की वजह से नये, और ज़्यादा कट्टरपंथी समूह पैदा हुए. इससे ये इलाक़ा राजनीतिक लड़ाई की तरफ़ और झुका. अरब आबादी की शानदार कोशिश, जिनमें मुख्य रूप से नौजवान शामिल थे, सोशल मीडिया के ज़रिए पूरी दुनिया तक पहुंची. इसे चमत्कार की तरह देखा गया. लेकिन इस लोकतांत्रिक बदलाव को संस्थागत परिवर्तन की तरफ़ आगे ले जाने के लिए सूझबूझ, अनुभव या ताक़त के साथ कोई आगे नहीं बढ़ा. यहां तक कि प्रदर्शन की अगुवाई करने वाले भी आगे नहीं आए. शायद किसी और चीज़ से ज़्यादा अरब स्प्रिंग ने बताया कि न सिर्फ़ सरकार और नेताओं के लिए बल्कि आम लोगों के लिए भी, जो इस तरह की प्रणाली में सबसे ज़्यादा शामिल होती है, लोकतंत्र का निर्माण करना मुश्किल काम है. अंत में अरब स्प्रिंग ने सबको सिखाया कि लोकतंत्र, परिवर्तन और राजनीतिक आंदोलन तमाशबीनों का खेल नहीं है बल्कि इनके लिए कड़ी मेहनत, समय, योजना और प्रतिबद्धता की ज़रूरत होती है.

अंत में अरब स्प्रिंग ने सबको सिखाया कि लोकतंत्र, परिवर्तन और राजनीतिक आंदोलन तमाशबीनों का खेल नहीं है बल्कि इनके लिए कड़ी मेहनत, समय, योजना और प्रतिबद्धता की ज़रूरत होती है.

दिसंबर 2020 में ट्यूनिशिया, उन गिने-चुने देशों में शामिल जिसने लोकतंत्र की तरफ़ कुछ क़दम बढ़ाए हैं, एक बार फिर से पहले जैसी चुनौतियों का सामना कर रहा है. कोविड-19 महामारी की वजह से चुनौतियों में और बढ़ोतरी हुई है. 2010 की तरह ही उन्हीं इलाक़ों, उन्हीं मुद्दों पर प्रदर्शन हो रहे हैं. नौ अरब देशों में हुए एक नये सर्वे से पता चला है कि लोग अरब स्प्रिंग से पहले के मुक़ाबले ज़्यादा ग़ैर-बराबरी वाले समाज में रह रहे हैं (हालांकि सर्वे में शामिल ज़्यादातर लोगों ने भरोसा जताया कि प्रदर्शन ख़राब चीज़ नहीं थी). अंत में पत्रकार ग्रेग कार्लस्ट्रॉम अरब स्प्रिंग के कठिन दशक में रंग भरते हुए कहते हैं; “इतिहास सीधी रेखा नहीं है. क्रांति नाकाम हो जाती है, ख़राब लोग कभी-कभार जीत जाते हैं. इस बात की कोई वजह नहीं है कि बग़ावत का अगला दौर पिछली बार के मुक़ाबले सुखद नतीजे पेश करेगा. हालांकि, इसी तरह इस बात पर भरोसे की भी कोई वजह नहीं है जब तानाशाह कहते हैं कि वो क्रांति को रोक लेंगे.

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