21 वीं सदी के दूसरे दशक में राजनीति के स्वरूप में बुनियादी बदलाव हुए हैं और इसने एक परिवर्तनशील वैश्विक माहौल बनाया है. जलवायु परिवर्तन, असमानता, हिंसा, भ्रष्टाचार, आर्थिक संकट, राजनीतिक स्वतंत्रता, एलजीबीटीक्यूएआई अधिकार जैसे मुद्दे दुनिया के सभी हिस्सों में सिर उठा रहे हैं. इस दशक में बड़ी संख्य़ा में ऐसी महिलाएं भी देखीं गईं हैं, जो विभिन्न मुद्दों पर अपनी चिंताओं का झंडा बुलंद करने के लिए सड़कों पर उतरीं. भारत में समानता के लिए महिलाओं की समानता की दीवार बनाने से लेकर चिली में सड़कों पर बलात्कार के खिलाफ़ नारे, लगाने तक, सक्रियता की इस शैली ने तानाशाही, भ्रष्ट या पक्षपाती सरकारों के खिलाफ़ विरोध प्रदर्शन और बड़ी बुनियादी ढांचा परियोजनाओं की स्थापना पर आपत्ति जैसे मुद्दे भी पुरज़ोर तरीके से उठाए हैं. गरिमा और सुरक्षा के सिर्फ़ महिला केंद्रित मुद्दों के लिए लड़ाई में बदलाव आया है और अब इसमें व्यापक नीतिगत मुद्दे भी शामिल हो गए हैं.
आंदोलनों की इस शैली की ही तरह, विश्व राजनीति के परिदृश्य में भी व्यापक बदलाव आया है जिसमें बड़ी संख्या में महिलाएं नेतृत्वकारी भूमिका में हैं. फ़िनलैंड में दुनिया की सबसे कम उम्र की महिला प्रधानमंत्री बनने और न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री के मातृत्व अवकाश लेने के साथ, राजनीति में दबदबा बढ़ाते हुए महिलाएं प्रगतिशीलता की दिशा में आगे बढ़ी हैं. 1 जनवरी 2019 तक 50 देशों में 30 फ़ीसद या अधिक महिला सांसद हैं. रवांडा, क्यूबा और बोलीविया शिखर पर हैं जहां निचले सदन में क्रमशः 61.3 फ़ीसद, 53.2 फ़ीसद और 53.1 फ़ीसद सीटों पर महिला सांसद हैं.
आंदोलनों की इस शैली की ही तरह, विश्व राजनीति के परिदृश्य में भी व्यापक बदलाव आया है जिसमें बड़ी संख्या में महिलाएं नेतृत्वकारी भूमिका में हैं. फ़िनलैंड में दुनिया की सबसे कम उम्र की महिला प्रधानमंत्री बनने और न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री के मातृत्व अवकाश लेने के साथ, राजनीति में दबदबा बढ़ाते हुए महिलाएं प्रगतिशीलता की दिशा में आगे बढ़ी हैं.
राजनीति में महिलाओं की वैश्विक रैंकिंग में 191 देशों में भारत 149वें पायदान पर है. 16वीं लोकसभा में सिर्फ़ 11.3 फ़ीसद सांसद महिलाएं थीं, जो 2019 में 17वीं लोकसभा में बढ़कर 14 फ़ीसद हो गईं. यह संख्या विश्व औसत से काफी कम है. भारत अपने पड़ोसी देशों अफ़ग़ानिस्तान, बांग्लादेश, पाकिस्तान और नेपाल में भी सबसे पीछे है. हालांकि, भारत ने आंदोलनकारी के रूप में राजनीतिक क्षेत्र में आने वाली महिलाओं की संख्या में कई गुना वृद्धि हुई है, जो निजी जीवन में बड़ा बदलाव है, जिसे उन्होंने घरों तक सीमित कर दिया था. 19वीं और 20वीं सदी में भारत लंबे समय से अर्थव्यवस्था, आपातकाल, कृषि संकट आदि से जुड़ी समस्याओं से जूझ रहा था और इसलिए राष्ट्रीय महत्व के इन मुद्दों की भीड़ में महिलाओं का सवाल पीछे छूट गया. इस समय, देश में अपेक्षाकृत स्थिर राजनीतिक और सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के चलते महिलाओं के महत्व के मुद्दों पर बड़े पैमाने पर चर्चा और बहस हो रही है. अन्य कारणों में बढ़ती जागरूकता हो सकती है जो सीधे सोशल मीडिया तक पहुंच बढ़ाने और वैश्विक समुदाय से समर्थन के असर के रूप में आती है जो “बहनापे” के रास्ते पर साथ” है. हालांकि, बीते एक दशक में महिलाओं के इस तरह जनसमूह में सड़कों पर उतरने की घटनाओं में उल्लेखनीय बढ़ोत्तरी हुई है, ख़ासकर 2012 में निर्भया मामले के बाद से, लेकिन संसद से महिला आरक्षण विधेयक पारित कराने के लिए ऐसा ही एक आंदोलन ग़ायब है. महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए बहुत महत्वपूर्ण इस 108वें संवैधानिक संशोधन कानून के पारित नहीं होने को वर्ष 2021 में 25 साल हो जाएंगे.
ऐतिहासिक रूप से, अन्याय के ख़िलाफ दुनिया भर में महिलाओं के आंदोलन की क़ामयाबी 20वीं सदी में देखी जा सकती है, जब संयुक्त राष्ट्र ने उत्तरी अमेरिका और यूरोप में महिलाओं के प्रयासों की सराहना की जो अपने अधिकारों की लड़ाई जीतने में कामयाब रही थीं. पहला अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस 1911 में मनाया गया था. लेकिन भारत में काफी देर से 1975 में सरकार ने संयुक्त राष्ट्र के अनुरोध पर समानता को लेकर एक रिपोर्ट में महिलाओं की स्थिति का पता लगाया. आज़ादी से पहले भी राजा राममोहन राय, महात्मा गांधी जैसे भारतीय और ब्रिटिश राजनेता थे, जिन्होंने महिलाओं के अधिकारों की वक़ालत की. अक्सर इसका मतलब यह होता था कि महिलाओं की स्थिति में पुरुषों की सोच के हिसाब से, जिसे पुरुषों ने अन्यायपूर्ण या गलत माना, सुधार लाए गए. उदाहरण के लिए, अंग्रेजों ने सती प्रथा को इसलिए ख़त्म नहीं किया क्योंकि यह महिलाओं के प्रति अमानवीय थी, बल्कि सिर्फ़ इसलिए क्योंकि उन्होंने पुरुषों को बर्बर माना. चिपको आंदोलन में सिर्फ़ महिलाओं की भागीदारी रही क्योंकि जिस इलाके़ में पेड़ों को काटा जाना था, उस इलाक़े के पुरुष उस समय दूर थे, जब लकड़ी का काम करने वाली कंपनी पेड़ों को काटने आई थी.
भारत ने शायद ही कभी पूरी तरह महिलाओं द्वारा चलाया गया आंदोलन देखा हो, जहां महिलाएं विकास की अगुवा रही हों और खुद के मुद्दे के लिए खड़ी हुई हों. शायद एक स्वतंत्र आंदोलन की नामौजूदगी और अपने अधिकार के लिए दावे का अभाव ही है, जिसने राजनीतिक दलों के बीच एक-दूसरे पर टाले जा रहे विधेयक को पारित होने से रोक रखा है. विधेयक में प्रस्तावित आरक्षण हालांकि जरूरी है, लेकिन यह काफी नहीं है. “वास्तविक सशक्तीकरण” के बिना सिर्फ़ संसद में बैठने वाली महिलाओं की संख्या में बढ़ोत्तरी भारत के मामले को रवांडा से अलग नहीं करेगी, जो कि संसद में महिलाओं के अधिकतम प्रतिनिधित्व वाला देश है. वहां की महिलाओं को संसद में एक विधायी कदम के रूप में और वास्तविक सशक्तीकरण के लिए उनकी लामबंदी के बिना “अनुमति” दी गई थी. नतीजतन, रवांडा के सांसदों का 61.3 फ़ीसद महिलाएं होने के बाद भी वे बुनियादी मुद्दों जैसे कि मातृत्व अवकाश, जो फिलहाल सिर्फ़ 12 सप्ताह है, के विषय में कानून में बदलाव नहीं कर सकीं.
भारत ने शायद ही कभी पूरी तरह महिलाओं द्वारा चलाया गया आंदोलन देखा हो, जहां महिलाएं विकास की अगुवा रही हों और खुद के मुद्दे के लिए खड़ी हुई हों. शायद एक स्वतंत्र आंदोलन की नामौजूदगी और अपने अधिकार के लिए दावे का अभाव ही है, जिसने राजनीतिक दलों के बीच एक-दूसरे पर टाले जा रहे विधेयक को पारित होने से रोक रखा है.
दूसरी तरफ़ क्यूबा का मामला है जो राजनीति में महिलाओं के प्रतिनिधित्व के मामले में दूसरे पायदान पर है, लेकिन अभी तक कोई कोटा प्रणाली नहीं होने का दावा करता है. इसका श्रेय एक “क्रांति के भीतर क्रांति” को दिया जाता है, जो क्यूबा की क्रांति के दौरान हुई जब महिलाओं ने एकजुट होकर सुधार की प्रतीज्ञा ली थी और लगातार उसी दिशा में काम किया. इस तरह जबकि रवांडा, ब्राज़ील, दक्षिण अफ्रीका, बेल्जियम जैसे देशों के मामले यह दर्शाते हैं कि संसद में महिलाओं की संख्या बढ़ाने के लिए कोटा एक ज़रूरी और उपयोगी उपाय है, जबकि क्यूबा, मैक्सिको, नॉर्वे, स्वीडन आदि के मामले बताते हैं कि महिलाओं के वास्तविक सशक्तीकरण हासिल करने के लिए सुधार आंदोलन न सिर्फ महत्वपूर्ण हैं, बल्कि वे ज़मीनी स्तर पर समाज में सुधार लाने और महिलाओं के प्रति आलोचनात्मक दृष्टिकोण को बदलने में भी मदद करते हैं, जो सही और टिकाऊ फैसले लेने की शक्तियों की कुंजी है.
एक विश्लेषण में सामने आया है कि 1977 के बाद से 11 आम चुनावों (उप-चुनावों को छोड़कर) के दौरान कांग्रेस के कुल उम्मीदवारों में सिर्फ़ 5.8 फ़ीसद महिलाएं थीं. इस मामले में भाजपा और जद (एस) के आंकड़े क्रमशः 3.8 फ़ीसद और 9 फ़ीसद से कम हैं. यह राजनीति में महिलाओं की भागीदारी के संबंध में राजनीतिक दलों के रुख में विरोधाभास को दर्शाता है, जो महिलाओं के मनमर्ज़ी वाले और “आभासी सशक्तीकरण” का एक सबूत है. जब तक इस तरह का आभासी सशक्तीकरण जारी रहेगा, आज़ादी या तथाकथित सशक्तीकरण राजनीतिक सत्ता या सामाजिक नज़रिये की मर्ज़ी पर दिया या वापस लिया जा सकता है. 2012 के बाद से महिलाओं ने राजनीतिक क्षेत्र में जो ताक़त दिखाई है, उसके लिए ज़रूरी है कि वे सार्वजनिक भूमिकाओं में दिखती रहें, लेकिन खुद के किसी मुद्दे, प्रेरणा और दिशा के लिए. यह ज़रूरी है कि महिलाएं राजनीतिक दलों या समाज के साथी सदस्यों द्वारा बनाए गए सशक्तीकरण के “छलावे” के झांसे में न आएं.
महिलाओं के वास्तविक सशक्तीकरण हासिल करने के लिए सुधार आंदोलन न सिर्फ महत्वपूर्ण हैं, बल्कि वे ज़मीनी स्तर पर समाज में सुधार लाने और महिलाओं के प्रति आलोचनात्मक दृष्टिकोण को बदलने में भी मदद करते हैं, जो सही और टिकाऊ फैसले लेने की शक्तियों की कुंजी है.
हालांकि, राज्यों की विधानसभाओं के लिए महिलाएं बड़ी संख्या में चुनाव में खड़ी होती हैं, लेकिन जो चुनी जाती हैं उनका फ़ीसद बहुत मामूली है. यह ज़रूरी है कि महिलाओं को फैसले लेने की प्रक्रियाओं में उनकी मौजूदगी के महत्व के बारे में शिक्षित किया जाए और उन साथी महिलाओं के बारे में जागरूक किया जाए जो चुनाव में खड़ी होती हैं. यह सही समय है कि स्कूल और विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में नेतृत्व और सार्वजनिक सेवा कार्यक्रमों को शामिल किया जाए ताकि महिलाएं नीतिगत मामलों को “प्रभावित” कर सकें. सिर्फ इसलिए नहीं क्योंकि उनके पास कोटा है, बल्कि इसलिए भी क्योंकि उनके पास ऐसा करने का कौशल और क्षमता है.
जैसा कि पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा था, “अगर संसार में सभी देश महिलाओं द्वारा चलाए जाते, तो आपको चारों तरफ़ हर चीज़ में एक महत्वपूर्ण सुधार ज़रूर दिखाई देता, जीवन स्तर और नतीजे.” अब समय आ गया है कि महिलाएं देश में उस बदलाव के लिए लड़ाई छेड़ें और अपनी लामबंदी को सही दिशा दें और हालात को सुधारने के लिए लगाम अपने हाथ में लें.
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