Author : Ronak Gopaldas

Published on Aug 10, 2018 Updated 0 Hours ago

आख़िरकार एक वैश्विक व्यापर युद्ध को लेकर बन रहा अनिश्चितता का माहौल वित्तीय बाज़ार में घबराहट पैदा करेगा।

वैश्विक व्यापर युद्ध और अफ्रीका

मौजूदा दौर में एक वैश्विक व्यापार युद्ध के इर्द गिर्द काफी चर्चा चल रही है लेकिन इस में अफ्रीका की भूमिका क्या होगी इस पर बहुत कम विश्लेषण हुआ है। अमेरिका और चीन इस अफ्रीकी प्रायद्वीप में दो सबसे बड़े निवेशक हैं, और चीन यहाँ कि कई सबसे महत्वपूर्ण अर्थव्यवस्था जैसे दक्षिण अफ्रीका, नाइजीरिया और इथियोपिया का सबसे बड़ा कारोबारी सहयोगी है। हालाँकि अफ्रीका वैश्विक कारोबार का सिर्फ दो फीसदी हिस्सा है लेकिन इस वजह से अमेरिका-चीन और अमेरिका-यूरोप के कारोबारी रिश्ते और उनका संतुलन अफीका के लिए अहमियत रखता है।

हालाँकि अफ्रीकी प्रायद्वीप वैश्विक व्यापार का एक छोटा हिस्सा ही है लेकिन विश्व स्तर पर जो कुछ भी बदलाव होंगे या हो रहे हैं उसका इस पर सीधा असर पड़ेगा। ख़ास तौर पर बढती महंगाई का असर ज्यादा नज़र आएगा, और शुरूआती दौर के बाद इसका असर कई ऐसी अर्थव्यवस्था पर भी पड़ेगा जो पहले ही विकासशील अर्थव्यवस्था में हो रहे बदलावों और बिकवाली का असर झेल रही हैं।

इस सन्दर्भ में निवेशक और विश्लेषक दोनों ही असमंजस में हैं कि इसका मतलब क्या है।

ट्रम्प की आर्थिक नीति है क्या 

ट्रम्पओनोमिक्स यानी ट्रम्प की आर्थिक नीति दरअसल है क्या इसको गहराई में जा कर समझना बहुत ज़रूरी है। ट्रम्प की आर्थिक नीति के दरअसल दो पहलु हैं जिसे मोटे तौर पर दो खेमे में बांटा जा सकता है “गुड ट्रम्प बनाम बैड ट्रम्प।”

बाज़ार गुड ट्रम्प को बेहद पसंद करता है, जिसकी वजह से अमेरिकी शेयर बाज़ार का सूचकांक, डाऊ जोंस २०१७ में ऊँचाई पर पहुँच गया था और ७१ बार रिकॉर्ड ऊँचाई पर बंद हुआ था और इतिहास में पहली बार एक साल में इसमें 5,000 पॉइंट का उछाल आया था। इस से लगता है कि रुख व्यापार के पक्ष में है, जिस में शुल्क में कटौती और नियंत्रण में ढिलाई भी शामिल है। इस से विकासशील अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिलेगा जिस से एक अच्छी शुरुआत होगी। कम से कम बाज़ार का इस में विश्वास है — बीते साल वाइट हाउस में जो भी अफरा तफरी और राजनीतिक धोखाधड़ी चली उसके बावजूद।

अब इस आईडिया को बैड ट्रम्प के मुकाबले रख कर देखना चाहिए, बैड ट्रम्प जो एक संरक्षणवादी अर्थव्यवस्था, अमेरिका फर्स्ट नीति की वकालत करता है जिस के तहत कई संरक्षणवादी नीतियां अपनाई जाती हैं। जैसे आयात पर सीमाशुल्क, यूरोपियन यूनियन जैसे सहयोगी से टकराव, जो अमेरिकी कंपनियां राष्ट्रवादी नहीं लग रहीं उन पर ट्विटर के ज़रिये हमला, UNHCR जैसी वैश्विक संस्थाओं से बाहर आ जाना — परंपरागत अमेरिकी कूटनीति से हट कर ये नीतियां ये डर पैदा करती हैं कि “गुड ट्रम्प” के पक्ष में जो माहौल बन रहा है वो पटरी से उतर जाएगा। अगर इसे ठीक तरीके से नहीं संभाला गया तो कई गंभीर आर्थिक परिणाम होंगे, मुद्रा को लेकर टकराव भी बढ़ सकता है जिस से वैश्विक अर्थव्यवस्था में संतुलन की और कमी आ सकती है। हाल के दिनों में दुनिया के वित्तीय बाज़ारों पर सूझ बूझ या कूटनीति की जगह आवेग हावी रहा है।

वित्तीय बाज़ार ‘गुड ट्रम्प’ को पसंद करते हैं जिसकी वजह से २०१७ में डाऊ जोंस का औद्योगिक औसत इसतिहास में पहली बार एक साल में 5000 पॉइंट ऊपर गया था और ७१ बार रिकॉर्ड के साथ बंद हुआ।

बेशक इन दोनों नीतियों का आपस में टकराव है, एक भरोसा जगाती है और विकास को बढ़ावा देती है दूसरी आत्मविश्वास के साथ विकास में रोड़े अटकती है। तभी ताज्जुब नहीं कि ट्रम्प की आर्थिक नीतियां विश्व की अर्थव्यवस्था के लिए एक ऐसा खतरा है जो बाज़ार को ऊपर ले जा सकता है तो नीचे भी गिरा सकता है। अब इन में से कौन सी ताक़त हावी होगी, या क्या दोनों एक साथ बाज़ार पर असर डाल सकती हैं, इसी पर निर्भर होगा कि अमेरिका और विश्व की अर्थव्यवस्था किस राह जाएगी।

दिखावा या वास्तविक खतरा?

दूसरा सवाल जो पुछा जाना चाहिए वो ये कि ये क्या ड्रामा है या फिर जायज़ खतरा बना हुआ है। अमेरिका में मध्यवर्ती चुनाव करीब आ रहे है और अमेरिकी अर्थव्यवस्था अभी ऊपर की तरफ है, विकास दर २ फीसदी है और रोज़गार लगभग 100 फीसदी। ऐसे में राष्ट्रपति ट्रम्प को ये लगता होगा कि इस वैश्विक टकराव में उनकी स्थिति ऐसी है कि वो पहला क़दम उठा सकते हैं।

अगर राष्ट्रपति ट्रम्प के ऐलान को देखा जाये जिस में उन्होंने ने कहा था कि व्यापर युद्ध आसानी से जीता जा सकता है तो इसका राजनीतिक असर ये हो सकता है कि अगर कारोबार में उथल पुथल मची तो अमेरिका पर सबसे कम असर होगा। चीन में घरेलु अर्थव्यवस्था का दबाव है और ये भी सच है कि वो अमेरिका पर अपनी नौकरियों और आर्थिक विकास के लिए काफी निर्भर है, चीन भी अपने सब से अच्छे ग्राहक अमेरिका के साथ सीधा कारोबारी टकराव नहीं चाहेगा।

इस लिए मौजूदा यथास्थिति से हट कर किसी भी तरह के टकराव को बढ़ावा देना या फिर बदले की भावना से कारोबारी फैसले लेना किसी के हित में नहीं होगा। लेकिन ट्रम्प अगर अपने बेहतर परिस्थिति का फायदा उठाते हुए कुछ रियायत हासिल कर लेते हैं तो ये उन्हें एक ज्यादा मज़बूत लीडर के तौर पर ज़रूर पेश करेगा जो अपने बड़े प्रतिद्वंदी को पीछे छोड़ आये हैं।और सब जानते हैं कि पॉलिटिक्स में धारणा और छवि का बड़ा महत्त्व है।

लेकिन हो सकता है कि ट्रम्प नीतियों में ये उलट फेर, पल में तोला पल में माशा वाला रुख जान बूझ कर एक नीति के तहत अपना रहे हों। ऐसा पहले भी हुआ है कि वो एक सख्त रवैय्या अपनाते हैं और फिर बाद में उसमें नरमी आ जाती है नार्थ अमेरिकन फ्री ट्रेड अग्रीमेंट (NAFTA) इसकी एक मिसाल है। हाल के महीनो में NAFTA देशों में बढ़ता मेल मिलाप दिखाता है कि रुख में और व्यवहारिकता आयी है। हाल के दिनों में ट्रांस पसिफ़िक पार्टनरशिप (TPP) यानी प्रशांत महासागर के देशों में भी ऐसा ही चलन दिखाई दिया है। हो सकता है कि कुछ ऐसा ही चीन के साथ भी हो।

लेकिन ट्रम्प अगर अपने बेहतर परिस्थिति का फायदा उठाते हुए कुछ रियायत हासिल कर लेते हैं तो ये उन्हें एक ज्यादा मज़बूत लीडर के तौर पर ज़रूर पेश करेगा जो अपने बड़े प्रतिद्वंदी को पीछे छोड़ आये हैं।और सब जानते हैं कि पॉलिटिक्स में धारणा और छवि का बड़ा महत्त्व है।

निवेशकों के लिए ये एक अजीब स्थिति खड़ा करती है जिस से फैसले लेने में मुश्किल आती है। यूरेशिया ग्रुप के होटल के रोहितेश धवन कहते हैं कि मौजूदा स्थिति में कई विरोधाभास हैं। एक अविश्वसनीय स्थति है जहाँ वित्तीय हालत एक दशक में इस से बेहतर कभी नहीं लगे लेकिन भूराजनैतिक स्थिति ४० दशक में इस से बदतर कभी नहीं थी। वैश्विक स्तर पर इस तरह का तनाव शायद क्यूबा मिसाइल क्राइसिस के दौरान ही दिखा था।

इतने असमंजस के बीच इस मुद्दे पर सोंचने का सही तरीका क्या है? इस के इर्द गिर्द जो इतना हंगामा मचा है उसे हटा कर ये समझना ज़रूरी है कि इस पर कोई बड़ा सीधा टकराव हो ये मुश्किल है लेकिन हाँ इस के इर्द गिर्द एक राजनीतिक माहौल ज़रूर बनेगा और इस पर काफी नाटकीय घटनाक्रम चलने के बाद कोई बड़ा समझौता होगा। इसलिए ऐसा लगता है कि व्यापर युद्ध का मुद्दा समय समय पर चलता रहेगा लेकिन विश्व की अर्थव्यवस्था एक स्थाई रास्ते पर रहेगी। लेकिन ट्रम्प की कभी नर्म कभी गर्म कूटनीति जो उनकी अब तक पहचान रही है वो ख़त्म नहीं होने वाली।

अगर वाकई ऐसा हुआ तो?

बहरहाल फिर भी खतरा बना हुआ है कि क्या होगा अगर ये स्थिति बिगड़ गयी और जो सबसे बुरा विकल्प है वो सच हो गया।

हालाँकि पहले निर्देश का असर अफ्रीका पर काफी कम होगा क्यूंकि बहुत कम अफ्रीकी देश स्टील या अलमुनियम निर्यात करते हैं लेकिन दुसरे आदेश का असर ज्यादा तीव्र होगा। SAIIA की Talitha Bertelsmann-Scott चीन और अमेरिका के बारे में कहती हैं — “जब दो हाथी घांस पर लड़ते हैं तो घांस ही कुचली जाती है” — इसलिए यहाँ अगर चीन और अमेरिका व्यापर क्षेत्र में टकराते हैं तो विकासशील अर्थव्यवस्था और अफ्रीका पर इसका असर होगा।

अफ्रीका के देशों के लिए ३ चीज़ों का ध्यान रखना ज़रूरी है।।डॉलर में उतार चढ़ाव, चीज़ों की कीमत और अमेरिका में किसी भी प्रकार के ब्याज दर। इन्ही चीज़ों से तय होगा कि विश्व की अर्थव्यवस्था किस तरफ जा रही है और उनका आर्थिक भविष्य क्या होगा।

वित्तीय बाज़ार

आख़िरकार एक वैश्विक व्यापर युद्ध को लेकर बन रहा अनिश्चितता का माहौल वित्तीय बाज़ार में घबराहट पैदा करेगा। और मौजूदा अर्थव्यवस्था जिसे “goldilocks” इकॉनमी कहा जा सकता है जो न तो बहुत ठंडा है न बहुत गर्म, वो अचानक से ख़त्म हो सकती है। शुल्क दर कितना बढ़ सकता है और इसके क्या असर होंगे इन सब बातों को लेकर बढती चिंता के बीच तेज़ी से विक्सित होती अर्थव्यवस्था में बिकवाली का दौर देखा जा सकता है। कई अफ्रीकी अर्थव्यवस्था जो पहले से ही कमज़ोर है वो ख़ास तौर पर एक आक्रामक बिकवाली से जूझ नहीं पाएगी। इसका असर मुद्रा और शेयर बाज़ार पर पड़ेगा और इस से उनके क़र्ज़ पर भी असर पड़ेगा। हाल के हफ़्तों में ज़ाम्बिया और दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों ने इसे महसूस किया है। मार्च के आखिर से अफ्रीकी देशों के यूरो बौंड, इक्विटी पर रिटर्न में गिरावट आई है और विदेशी क़र्ज़ पर दिए जा रहे ब्याज पर भी असर बड़ा है। अप्रैल से दक्षिण अफ्रीका की मुद्रा रैंड में भी १३ फीसदी की गिरावट आई है, जबकि दुसरे अफ्रीकी देशों की मुद्रा में इसी दौर में ५ फीसदी की गिरावट आई है। स्टैण्डर्ड बैंक ग्रुप के मुताबिक २०१७ के शानदार प्रदर्शन के मुकाबले ये साल बहुत बुरा रहा। इस साल अफ्रीकी सरकारों द्वारा जारी यूरो बौंड के दर में 7।6 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है, जनवरी महीने के मुकाबले २०० बेस पॉइंट ऊपर।

बीते कुछ हफ़्तों में ज़ाम्बिया और दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों को इसकी चुभन पहले ही महसूस हो रही है। मार्च के आखिर से अफ्रीकी देशों के यूरो बौंड, इक्विटी पर रिटर्न में गिरावट आई है और विदेशी क़र्ज़ पर दिए जा रहे ब्याज पर भी असर बड़ा है।

व्यापार

फिर इसके अलावा कारोबारी नज़रिए को भी ध्यान में रखना ज़रूरी है।

रेनेस्सां कैपिटल में अफ्रीकी अर्थशास्त्री Yvonne Mhango को ये आशंका है कि व्यापार के माध्यम से दक्षिण अफ्रीका पर इस का सबसे ज्यादा और सबसे जल्दी असर पड़ेगा। “हम अभी से ही निवेशकों में गिरावट देख रहे हैं, वैश्विक व्यापर युद्ध की संभावना से ही निवेशक विकासशील और विकसित होते बाज़ार छोड़ कर ऐसी जगह निवेश कर रहे हैं जो ज्यादा सुरक्षित और स्थाई है। आखिरकार कारोबार की मंदी का असर विकास पर पड़ेगा ख़ास कर उन देशों में जो ऊर्जा, खनिज और मेटल का निर्यात करते हैं।”

अगर अमेरिका की व्यापर कूटनीति ज्यादा आक्रामक मोड़ लेती है तो क्या हो सकता है इसका अंदाज़ा हाल ही में इस्तेमाल किये गए कपड़ों के कारोबार को लेकर रवांडा के साथ हुई खटास में नज़र आता है।

रवांडा ने हाल में सेकंड हैण्ड यानी इस्तेमाल किये हुए कपड़ों के आयात पर रोक लगा दी क्यूंकि वो अमेरिकी कारोबारियों के डंपिंग नीति के खिलाफ अपने कपडा उद्योग को बढ़ावा देना चाहता है। दुसरे वो अपने नागरिकों के सम्मान की रक्षा करना चाहता है। लेकिन ये अफ्रीकन ग्रोथ एंड ओपर्चुनिटी अग्रीमेंट (AGOA) के खिलाफ है जो अमेरिका और अफ्रीकी देशों के बीच कारोबार में किसी भी तरह की बाधा को हटाने की बात करता है, इसके तहत शुल्क या किसी भी तरह के नियंत्रण से जुड़े रोक टोक को ख़त्म करने की वकालत की गई है।

अब ये मसला कैसे सुलझाया जाएगा उस पर निर्भर करेगा कि अफ्रीका और अमेरिका के कारोबारी रिश्तों का मिज़ाज क्या होगा। कयास लगाये जा रहे हैं कि AGOA जो अब तक अमेरिका और अफ्रीका के व्यापर नीति की नीव बना रहा, और जिस पर अब तक द्विपक्षीय सहमती रही, वो अब जांच के दायरे में आ जायेगा। लेकिन ये अकाल्पनिक लगता है क्यूंकि बड़ी तस्वीर देखें तो अफ्रीका अमेरिका के कारोबार का बहुत छोटा हिस्सा है सिर्फ दो फीसदी, और तथ्य ये है कि इस पर २०२५ तक के लिए कानून बना हुआ है।

फिर भी ट्रम्प प्रशासन का जो फलसफ़ा है जिस में निवेश पर मिलने वाला फायदा बहुत महत्वपूर्ण है और एक नई तरह की कूटनीति अपनाई जा रही है उसमें हो सकता है कि ट्रम्प प्रशासन को अब लगे कि अब अमेरिका को अफ्रीका से ज्यादा फायदा नहीं मिल रहा है इसलिए इस तरह के एकतरफा फायदे वाले कारोबारी समझौते को बनाये रखने की ज़रूरत नहीं है। इन हालत में अफ्रीका व्यापर युद्ध का नया अखाडा बन सकता है जिसका नकारात्मक असर दूर तक फैलेगा।

वास्तविक अर्थव्यवस्था

अर्थव्यवस्था पर असर के नज़रिए से किसी भी तरह का बढ़ता टकराव, वैश्विक कारोबार में कमी लाएगा और नतीजा होगा कि मांग भी घटेगी। एक कमज़ोर अमेरिका और कमज़ोर चीन दुनिया की सप्लाई चेन को कमज़ोर करेगा, जिस से विकास दर भी गिरेगी, चीज़ों की कीमत पर असर पड़ेगा जिस पर अफ्रीका बड़े स्तर पर निर्भर है।

Mhango के मुताबिक वैश्विक व्यापर युद्ध पहले ही चीन के निर्यात को कम कर रहा, चीनी एक्सपोर्टरों के मुताबिक जून के महीने में ही नए आर्डर में कमी आई है, ६ जुलाई से पहले ही जब अमेरिका ३४ बिलियन डॉलर के चीनी आयात पर 25 फीसदी शुल्क लगाने लगा है। एक बार फिर ये अफ्रीका के लिए बुरी खबर है। उसके पास अब पालिसी के स्तर पर मोल भाव के लिए ज्यादा गुंजाईश नहीं है और बहुत सारे देश पहले ही IMF के सहारे हैं, ये नतीजे सुधार कि किसी भी कोशिश को और कमज़ोर करेंगे।

अफ्रीका के लिए इसके क्या मायने हैं?

कडवी सच्चाई ये है कि वैश्विक व्यापर युद्ध में कोई भी विजेता नहीं, हार सबकी होगी। हार किसके लिए कितनी बड़ी होगी ये इस पर निर्भर करेगा की ये युद्ध कितने दौर तक चलेगा और पलटवार में उठाये गए क़दम कितने गहरे हैं। किसी भी सूरत में अफ्रीकी देशों का नुकसान होगा उन्ही कारणों से जिन्हें ऊपर बताया गया है।

तो ऐसी सूरत में अफ्रीकी नीतिकारों को क्या करना चाहिए?

इसकी कामयाबी या नाकामी तो नतीजे से ही पता चलेगी। सबसे बड़ा फ्री ट्रेड जोन बनाने का लक्ष्य बेशक सकारात्मक है लेकिन ये हकीक़त से दूर है।

त्रासदी ये है कि जहाँ पूरी दुनिया अब अंतर्मुखी हो रही है, संरक्षण वाद की तरफ बढ़ रही है वहीँ अफ्रीका इस चलन को तोड़ कर क्षेत्रीय सहयोग की कोशिश कर रहा है। किगाली में अफ्रीकन कॉन्टिनेंटल फ्री ट्रेड अग्रीमेंट (AfCFTA) इस दिशा में उठाया गया सही क़दम है और दिखाता है कि नेता अफ्रीकी समस्याओं के लिए अफ्रीकी समाधान ढूँढने को तैयार हैं।

फिर भी, इसकी कामयाबी या नाकामी तो नतीजे से ही पता चलेगी। सबसे बड़ा फ्री ट्रेड जोन बनाने का लक्ष्य बिलाशक सकारात्मक है लेकिन ये हकीक़त से दूर है।

सच्चाई ये है कि ज़्यादातर अफ्रीकी देशों में बाहरी माहौल पर उनका कोई कण्ट्रोल नहीं और नीतियों में भी ज्यादा लचीलापन नहीं है। वित्तीय स्तर पर उनके बही खाते पहले ही तनाव से भरे हैं और राजस्व का आधार छोटा है। इसलिए वैश्विक घटनाक्रम का असर कम करने के लिए उन्हें अपनी वो प्राथमिकता तय करनी होगी जो उनके नियंत्रण में है।

समझदारी इसमें होगी कि ऐसे क्षेत्रों की पहचान कर उसपर फोकस किया जाए जहाँ अफ्रीका की तरफ से अमेरिका और चीन के अनिश्चित बाज़ार और बदलती नीतियों पर निर्भरता कम है और साथ ही निवेश के नए सोर्स और कारोबार को और फैलाने पर ध्यान देना होगा। लेकिन ग्लोबर ट्रेड वॉर के इस खतरे के बीच कुछ अच्छे मौके भी हैं। अमरीका को यूरोप और अमेरिका के अलावा नए सप्लायर की ज़रूरत होगी जबकि चीन अमेरिका भेजे जाने वाले अपने माल के लिए नए बाज़ार की तलाश में होगा। अफ्रीकी देश अगर सचेत रह कर इस उलटफेर का एक छोटा हिस्सा भी अपने कब्जे में कर लें तो फायदे बहुत होंगे।

इनमें से कोई भी समाधान आसान नहीं है। लेकिन मौजूदा हालात में जहाँ असंतुलन बढ़ा है और विपरीत परिस्थितियां हैं, वहां संतुष्ट हो जाने से काम नहीं चलेगा।

इसलिए अफ्रीकी नीतिकारों के लिए सबसे अच्छी रणनीति ये होगी कि सबसे बुरे वक़्त की तैयारी करते हुए अच्छे की उम्मीद करें। इसके लिए साफ़ नीति बनाने की ज़रूरत है, साथ ही किफायती दर पर कारोबार की आसानी और क्षेत्रीय और प्रायद्वीप के स्तर पर बेहतर एकीकरण भी अहम् होगा। मौजूदा व्यापर युद्ध के माहौल में उभरते मौकों के तहत कौन से क्षेत्र ज्यादा अहम् हैं इसकी पहचान ज़रूरी है।ऐसा करने में नाकाम रहे तो नतीजे अच्छे नहीं होंगे।

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