Author : Ramanath Jha

Published on Aug 04, 2018 Updated 0 Hours ago

भारत के श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी मात्र 24 प्रतिशत है, इसे बढ़ाने के लिए क्या किया जा सकता है?

भारतीय श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी: चुनौतियां और समाधान

जेंडर यानी लिंग के महत्व की लम्बे अर्से से लैंगिक न्याय के परिदृश्य से पहचान की जा चुकी है। हालांकि अवसरों की समान उपलब्धता राष्ट्रीय आर्थिक सेहत का मामला भी है। हाल ही में मैक्किंस्की ग्लोबल इंस्टीट्यूट द्वारा कराए गए अध्ययन में एक बार फिर से इस बात की पुष्टि हो चुकी है। इस अध्ययन में उन आर्थिक लाभों की मात्रा के बारे में बताया गया है, जिन्हें भारत लैंगिक समानता का लक्ष्य हासिल किए जाने के बाद हासिल कर सकता है। इससे वर्ष 2025 तक 770 बिलियन अमरीकी डॉलर का अतिरिक्त लाभ, 18 प्रतिशत जीडीपी लाभ प्राप्त होगा। लेकिन इसके लिए देश को अपने श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी 10 प्रतिशत अंकों तक बढ़ानी होगी। आज देश के श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी मात्र 24 प्रतिशत है।

भारत महिलाओं को सशक्त बनाने की दिशा में कई तरह की पहल करता आया है, जिसकी बदौलत हाल के वर्षों में एशिया-प्रशांत क्षेत्र में त्वरित गति से प्रगति मुमकिन हो सकी है। यदि लैंगिक समानता के आंकड़ों (जेंडर पैरिटी स्कोर — जीपीएस) पर गौर किया जाए, तो भारत के घाटे की स्थिति अनेक एशियाई देशों से भी विकराल है। इसलिए, भारत को रोजगार के क्षेत्र में लैंगिक समानता प्राप्त करने के लिए बड़े पैमाने पर प्रयास करने की जरूरत होगी। इन प्रयासों में आर्थिक अवसर, कानूनी संरक्षण और भौतिक सुरक्षा जैसे कारक सम्मिलित होंगे। यदि हम अपने जहन में यह बात रखें कि महिलाएं पहले से हमारी अर्थव्यवस्था का हिस्सा है और अनौपचारिक क्षेत्र में कम पारिश्रमिक वाली नौकरियां कर रही हैं, ऐसे में उचित कौशल निर्माण ऐसे क्षेत्र के रूप में उभरेगा, जिस पर प्राथमिकता से गौर करने की आवश्यकता होगी।

राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था चूंकि ज्यादा से ज्यादा शहरों पर आधारित होती जा रही हैऐसे में महिलाओं के लिए रोजगार के अवसरों का सृजन करने के प्रयास भी मजबूरन शहरों को केंद्र में रखकर ही करने होंगे।

हालांकि राष्ट्रीय और राज्य सरकारें, राष्ट्रीय तथा राज्य स्तर की नीतियों का निर्धारण करती हैं और जेंडर संबंधी प्रयासों को प्रोत्साहन देने के लिए बजटीय सहायता देती हैं, वहीं शहरों पर आधारित नीतियों की भी उतनी ही महत्वपूर्ण भूमिका होती है। शहरों पर आधारित इस प्रकार की सहायता के बिना राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय प्रयास बाधित हो सकते हैं। शहरों पर केंद्रित कुछ सेवाओं के स्थानीय आयाम हैं, जो लैंगिक समानता प्राप्त करने की दिशा में महत्वपूर्ण हैं।

शहरों में रहने वाले हितधारकों के विविध समूहों के बीच, जो अपनी व्यापक रेंज वाली आवश्यकताओं के साथ शहरों में रहते हैं, जो दूसरों से भिन्न हो सकती हैं। ऐसे में महिलाओं की आवश्यकताएं सीधे तौर पर प्राथमिकता बन जाती हैं, जो शहर की आबादी का लगभग आधा हिस्सा हैं। शहरों के प्रशासनों को समझना होगा कि शहर में कोई काल्पनिक ‘औसत नागरिक’ नहीं होते और वे यह सोचकर ​निश्चितं नहीं हो सकते कि एक जैसी सेवाएं प्रदान करके सभी की आवश्यकताओं की पूर्ति की जा स​कती है। शहरों को अपनी आबादी को खंडों में बांटना होगा और उनकी विशिष्ट आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाली सेवाएं प्रदान करनी होंगी। यह मुश्किल काम है। हालांकि ऐसा होने पर ही किसी शहर को समावेशी करार दिया जा सकता है।

महिलाओं के संदर्भ में, शहरों को सबसे पहले राष्ट्रीय लक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए अपने उद्देश्यों के बारे में बताना होगा। ये उद्देश्य निम्नलिखित हो सकते हैं:

  • अधिक से अधिक महिलाएं शहर के श्रम बल का हिस्सा बनें और उनकी संख्या धीरे धीरे बढ़ती जाए। उपयुक्त आवास तथा उनके घर और काम करने की जगह के बीच सार्वजनिक परिवहन की सुविधाएं उपलब्ध करवा कर महिलाओं के लिए रहना और स्वतन्त्र रूप से काम करना सुगम बनाते हुए इस दिशा में सहायता दी सकती है।
  • वे अपने रहने की जगह वाजिब दामों पर दामों पर तलाश कर सकें। छोटे बच्चों के साथ रहने वाली विवाहित स्त्रियां इस आश्वासन के साथ अपने कार्य स्थल जा सकें कि उनके बच्चों की अच्छी देखभाल हो रही है।
  • अनौपचारिक क्षेत्रों में काम करने वाली महिलाएं, जिनकी पगार बहुत कम होती हैं जैसे घरेलू सहायकों या वेंडर्स को भी आजादी से जीने और स्वतंत्र रूप से काम करने की वैसी ही सुविधाएं मिलनी चाहिए।
  • जिन महिलाओं में वस्तुओं का निर्माण करने की क्षमता है, उन्हें अपना कौशल बढ़ाने और बाजार तक पहुंच की आवश्यकता है।
  • ऐसे परिवार, जहां अकेली महिलाएं कमाती हैं उन्हें सहायक सेवाओं के माध्यम से विशेष सहायता की आवश्यकता होती है।

 उद्देश्यों की पूर्ति करते हुए शहरों को उन कारकों का उचित विश्वलेषण करना चाहिए, जो उनके यहां महिलाओं के रोजगार में बाधा डालते हैं । इससे पता चलेगा कि इनमें से बहुत सी कमियां जगह का प्रावधान नहीं होने का परिणाम है और इसकी वजह शहर के विकास की योजना यानी डेवलपमेंट प्लान में खामियां होना है। इसलिए, शहरों के डेवलपमेंट प्लान में जेंडरिंग की दृष्टि से गंभीर रूप से ध्यान देने की जरूरत है।

शहरों में महिलाओं की भागीदारी को कष्टकारी बनाने के कारणों में से एक अकेली महिला के लिए अस्थायी आवास का अभाव, विवाहित/अकेली महिलाओं के बच्चों की देखभाल की सीमित सुविधाएं, बाजार/वेंडिंग की जगह तथा अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाली महिला कामगारों के लिए प्रशिक्षण की सुविधाओं का अभाव, सार्वजनिक शौचालयों तथा परिवहन के उचित साधनों का अभाव भी शामिल है।

अगर देश का सम्पूर्ण उद्देश्य अपने कार्यबल में महिलाओं का काफी बड़ा अनुपात शामिल करना हैतो शहरों को अपने यहां की उपरोक्त सेवाओं में मौजूद खामियों को दूर करना होगा।

शहरों की योजनाओं में शहर के अलग-अलग वार्डों में बहु-उद्देश्यीय होस्टलों के लिए स्थान का प्रावधान किया जाना चाहिए। इनमें सिंगल और डबल रूम्स, डोर्मेटरीज़, स्टुडियो अपार्टमेंट्स होने चाहिए और ये सभी किफा​यती किराए पर उपलब्ध कराए जाने चाहिए। इसमें काम के लिए शहर आने वाली महिलाओं के लिए गेस्ट हाउस भी होना चाहिए। इस स्थान पर कांफ्रेंस रूम्स और बहु-उद्देश्यीय हॉल होने चाहिए जिनका इस्तेमाल कौशल प्रावधान, व्याख्यानों और शेयरिंग के लिए किया जाना चाहिए। अच्छा हो कि इन्हें ऐसे क्षेत्रों में बनाया जाए, जहां वाणिज्यिक, कार्यालय प्रतिष्ठान और उच्च शिक्षण संस्थान हों। इसके अलावा, इन बहु-उद्देश्यीय होस्टलों में महिलाओं के लिए कॉमन वर्क एरिया और अध्ययन कक्ष की सुविधा के साथ ही साथ बच्चों के लिए बालवाड़ी भी होनी चाहिए।

शहरों की योजनाओं में आधार केंद्रों या अनेक कार्य करने वाले सपोर्ट सेंटर्स का प्रावधान होना चाहिए। उन्हें इस तरह डिजाइन किया जाना चाहिए कि उनमें एसजीएच (स्व सहायता समूहों)की महिलाओं द्वारा निर्मित उत्पादों का भंडारण किया जा सके। ये सेंटर सेवाओं के लिए कुशल व्यक्तियों को भी उपलब्ध करा सकते हैं। इसके अलावा, इन सेंटर्स में बहु-उद्देश्यीय हॉल होने चाहिए जिनका उपयोग एसएचजी को उद्यमों का प्रशिक्षण देने में किया जा सकता है। ये ऐसे स्थानों में बनाए जाने चाहिए कि पर्याप्त लोगों का आना-जान हो, अच्छा हो यदि इन्हें बाजारों और रेलवे स्टेशनों के आसपास तथा मेन रोड पर बनाया जाए, ताकि वह लोगों का ध्यान आकृष्ट कर सकें। शहरों की योजनाओं में प​थ विक्रेता अधिनियम या स्ट्रीट वेंडर्स एक्ट का संज्ञान लिया जाना चाहिए और महिलाओं के लिए निर्धारित जगहों पर माल बेचने के स्थान या हॉकिंग ज़ोन बनाने में सहायता करनी चाहिए। महिलाओं द्वारा एसएचजी द्वारा निर्मित उत्पादों को बेचने के लिए बाजारों में भी दुकानों की व्यवस्था की जानी चाहिए।

भारत सरकार कौशलों के लिए प्रशिक्षण प्रदान करने पर जोर देती रही है। महिलाएं शहर के लिए आवश्यक कुछ सेवाओं को प्रदान करने की दृष्टि से उपयुक्त हैं। हालांकि महिलाओं को काम के परम्परागत क्षेत्रों तक ही सीमित रखने का कोई कारण नहीं है। महिलाएं, यदि उचित कौशलों से युक्त हों, तो उनमें परम्परगत रुकावटों को दूर करने और नए रोजगारों में खुद को बेहतर साबित करने की स्वाभाविक योग्यता होती है। इसलिए शहरों को महिलाओं के लिए ‘स्किल सेंटर्स’ बनाने साथ ही विशिष्ट उपयोग के पाठ्यक्रमों के लिए आधार केंद्रों में जगह का प्रावधान करना चाहिए।

महिलाओं को विशिष्ट सार्वजनिक सुविधा ब्लाक्स की आवश्यकता होती हैं और वे पूरे शहर में बनाए जाने चाहिए। इन ब्लॉक्स में सार्वजनिक शौचालय होने चाहिए और महिलाओं के लिए अलग से शौचालय होने चाहिएजिन्हें उनकी आवश्यकताओं के मुताबिक डिजाइन किया गया हो।

इन शौचालयों में सेनेटरी पैड्स वै​ज्ञानिक तरीके से निपटाने की व्यवस्था होनी चाहिए तथा ग्राउंड लेवल पर पेयजल की सुविधा होनी चाहिए। साथ ही एक अन्य मंजिल पर चेंजिंग रूम होना चाहिए। इसके अलावा नाका और घरेलु कामगारों के लिए रेस्टिंग स्पेस साथ ही साथ पेयजल की सुविधा होनी चाहिए।

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.