Published on Jan 13, 2021 Updated 0 Hours ago

उग्र दक्षिणपंथी आंदोलनों के प्रति महिलाओं का समर्थन दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा है. प्रमाणों से स्पष्ट है कि धुर दक्षिणपंथ के समर्थन में अब महिला पुरुष का भेद कम होता जा रहा है.

महिलाएं और धुर दक्षिणपंथ — एक बेमेल जोड़ी, लेकिन उफ़ान पर!

धुर-दक्षिणपंथी आंदोलनों के समर्थकों के रूप में अक्सर गुस्सैल श्वेत पुरुषों की कल्पना की जाती है. लेकिन पोलैंड, जर्मनी, स्वीडन और फ्रांस में हुए अध्ययनों से ये सामने आया है कि अब यूरोपीय महिलाओं का रुझान वहां की अति-दक्षिणपंथी राजनीतिक दलों की ओर तेज़ी से बढ़ता जा रहा है. पितृसत्ता और खुले तौर पर नारी-विरोधी नीतियों की वकालत करने वाले दक्षिणपंथी संगठनों जैसे जेनेरेशन आईडेंटिटी या अल्टरनेटिव फर ड्यूचलैंड (एएफडी) के बारे में अब तक आम धारणा यही रही है कि महिलाएं इनसे दूरी बनाए रहती हैं. लेकिन सच्चाई ये है कि इन उग्र दक्षिणपंथी आंदोलनों के प्रति महिलाओं का समर्थन दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा है. प्रमाणों से स्पष्ट है कि धुर-दक्षिणपंथ के समर्थन के मामले में अब महिला-पुरुष का भेद कम होता जा रहा है.

सामाजिक रूप से अलग-थलग पड़ जाने और आर्थिक मुसीबतों का डर भी ऐसी वजहें हैं जिनके चलते महिलाओं में दक्षिणपंथी राजनीतिक दलों के प्रति समर्थन बढ़ रहा है

महिलाओं के प्रति दुर्भावनापूर्ण नीतियों के बावजूद इन समूहों का महिलाओं में धीरे-धीरे लोकप्रिय होना एक महत्वपूर्ण सवाल खड़ा करता है. आखिर क्या वजह है कि महिलाएं धुर-दक्षिणपंथी विचारधारा की ओर आकर्षित हो रही हैं? अक्सर किसी दलविशेष के प्रति महिलाओं के समर्थन को ‘घरेलू मुद्दों’ के संकीर्ण दृष्टिकोण से देखा जाता है. लेकिन 2016 के एक अध्ययन से ये बात सामने आई है कि 18-40 वर्ष के बीच की महिलाएं के लिए समान काम पर समान वेतन, पेशेवर जीवन में समान अवसर और बच्चों की देखभाल से जुड़ी बेहतर सुविधाओं जैसे मुद्दे ज़्यादा मायने रखते हैं. अध्ययनों से ये भी उभरकर आया है कि सामाजिक रूप से अलग-थलग पड़ जाने और आर्थिक मुसीबतों का डर भी ऐसी वजहें हैं जिनके चलते महिलाओं में दक्षिणपंथी राजनीतिक दलों के प्रति समर्थन बढ़ रहा है.

दक्षिणपंथी लोकप्रियतावादी संगठनों ने महिलाओं में व्याप्त इस तरह के डर को मिटाने के लिए कल्याणकारी तंत्र को मज़बूत करने का रास्ता ढूंढा है. पिछले कुछ दशकों में इन अति-दक्षिणपंथी दलों ने अपनी महिला-विरोधी नीतियों में हल्का बदलाव करते हुए कल्याणकारी उपायों वाली नीतियां अपनाकर सामाजिक समस्याओं के हल का रास्ता चुना है. मिसाल के तौर पर जर्मनी में एएफडी के चुनावी घोषणापत्र में वहां की मूल आबादी के जन्म-दर को बढ़ाने का लक्ष्य रखा गया. इसके लिए माताओं को 25000 यूरो का मातृत्व भत्ता देने की पेशकश की गई. पोलैंड के दक्षिणपंथी राजनीतिक दल ने भी ऐसा ही वादा दोहराया. वहां की अनुदारवादी दक्षिणपंथी पार्टी पीआईएस ने परिवार 500+ योजना लॉन्च की. इसके तहत दो बच्चों वाले परिवारों को बच्चों के 18 वर्ष का होते ही 120 यूरो प्रति माह देने की गारंटी दी गई.

दक्षिणपंथी लोकप्रियतावादी संगठनों ने महिलाओं में व्याप्त इस तरह के डर को मिटाने के लिए कल्याणकारी तंत्र को मज़बूत करने का रास्ता ढूंढा है. 

कल्याणकारी योजनाओं का सहारा

दक्षिणपंथी पार्टियों द्वारा महिलाओं के कल्याण के लिए ऐसी कल्याणकारी नीतियों का अपनाया जाना ये साफ दर्शाता है कि चुनावों के लिहाज से महिला वोट बैंक की अहमियत कितनी बढ़ गई है. जर्मनी में एएफडी पार्टी के दक्षिणपंथी लोकप्रियतावादी घोषणापत्र के बावजूद 2017 के संसदीय चुनावों में करीब 25 फीसदी महिलाओं ने उसके पक्ष में मतदान किया. इसी तरह पोलैंड की सत्ताधारी अतिदक्षिणपंथी पार्टी पीआईएस को 2020 के चुनावों में पुरुषों से ज़्यादा महिलाओं के वोट हासिल हुए. हालांकि इन दलों के लिए महिला वोटों के जुगाड़ से जुड़े ऐसे प्रयोग अभी नए-नए हैं. अतीत में इन दलों को महिलाओं के प्रति अपनी नीतियों के चलते महिला वोटरों के गुस्से का सामना करना पड़ता रहा है. लगता है उन्होंने अब इससे सबक लेकर अपनी नीतियों में उस हिसाब से ज़रूरी फेरबदल किए हैं. स्वीडन की प्रभावशाली अति दक्षिणपंथी हस्ती मारकस फॉलिन का ऑस्ट्रिया में ग्रीन पार्टी के हाथों अतिदक्षिणपंथी फ्रीडम पार्टी को मामूली अंतर से मिली हार को लेकर ये कहना रहा है कि अब समय आ गया है कि दक्षिणपंथी पार्टियां चुनावों में हार-जीत के लिए महिला वोटरों की अहमियत समझें. “द वूमन क्वेश्चन” के नाम से जारी अपने वीडियो के ज़रिए उन्होंने अपने प्रशंसकों से कहा है कि “महिलाओं के पास मतदान का अधिकार होने की बात आपको भले ही अच्छी न लगे लेकिन यहां प्रश्न दीर्घकालिक तौर पर राजनीतिक विजय पाने का है”. ऐसे में इन दलों के सामने एक विरोधाभासी स्थिति आ खड़ी हुई जिसमें एक तरफ उनकी महिलाविरोधी नीतियां हैं तो दूसरी तरफ उनके चुनावी हित. दोनों मामले एक दूसरे से टकराव भरे हैं. ऐसे में महिला वोट हासिल करने के लिए इन पार्टियों को बीच का रास्ता अपनाने को मजबूर होना पड़ा है.

इसी कड़ी में उनकी एक रणनीति महिला श्रमिकों की व्यथा को लेकर रही. दक्षिणपंथी दलों ने इसका इस्तेमाल अपने प्रवासी-विरोधी एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए किया. चूंकि महिलाएं परंपरागत तौर पर पार्ट टाइम काम करती हैं या फिर असंगठित क्षेत्रों में कार्यरत हैं जहां नौकरी की सुरक्षा नहीं है और उन्हें सीमित संसाधनों के लिए आप्रवासियों के साथ कड़ी प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है. लिहाजा आप्रवासियों के विरोध में उनकी भावनाओं को धुर-दक्षिणपंथी दलों ने अपने हितों के लिए इस्तेमाल करना शुरू कर दिया. गोथ इंस्टीट्यूट की शोधकर्ता एलिशा गुशे का कहना है कि “महिलाओं को लगता है कि वो समाज में निचले पायदान पर हैं और उन्हें शरणार्थियों और आप्रवासियों से प्रतिस्पर्धा करनी होती है.” आप्रवासियों के हाथों अपने नौकरी गंवा देने को लेकर इन महिलाओं की चिंताओं ने दक्षिणपंथी दलों को अपनी अप्रवासी-विरोधी नीतियों को और मज़बूती से आगे बढ़ाने का मौका दे दिया है. इस डर को और हवा देकर वे महिलाओं के सामने खुद को और लुभावने तरीके से पेश कर अपना चुनावी भविष्य चमका रहे हैं.

महिलाओं में आप्रवासियों द्वारा अपनी आजीविका छीन लिए जाने के डर का इस्तेमाल करने के साथ-साथ दक्षिणपंथी संगठनों ने आप्रवासियों के बारे में एक और निराधार बात फैलाई कि महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा के मामलों में सिर्फ़ इन आप्रवासियों का ही हाथ होता है. 

महिलाओं में आप्रवासियों द्वारा अपनी आजीविका छीन लिए जाने के डर का इस्तेमाल करने के साथ-साथ दक्षिणपंथी संगठनों ने आप्रवासियों के बारे में एक और निराधार बात फैलाई कि महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा के मामलों में सिर्फ़ इन आप्रवासियों का ही हाथ होता है. इन संगठनों द्वारा योजनाबद्ध तरीके से महिलाओं तक ये संदेश पहुंचाया जाता है कि अगर आप्रवासियों को- ख़ासकर मुस्लिम देशों से आने वालों को खुली छूट मिली तो उनकी सुरक्षा को ख़तरा पैदा हो जाएगा. फ्रांस की नेशनल रैली पार्टी के अध्यक्ष मैरिन ले पेन का कहना है कि “मुझे इस बात की आशंका है कि अप्रवासी संकट कहीं महिला अधिकारों के अंत की शुरुआत न बन जाए”. ले पेन द्वारा फैलाया गया ये डर सिर्फ़ फ्रांस तक ही सीमित नहीं है. 2015 में कोलोन और हैम्बर्ग में एक के बाद एक हुई यौन हिंसा की घटनाओं का ठीकरा प्रवासियों पर फोड़ा गया, हालांकि इसके कोई ठोस सबूत नहीं थे. इसके विपरीत आंकड़े बताते हैं कि जर्मनी में यौन उत्पीड़न की ज़्यादातर घटनाओं के पीछे जर्मन पुरुषों का ही हाथ रहता है. हालांकि जनमत बनाने में आंकड़ों से कहीं ज़्यादा अपनी बात को ठीक ढंग से लोगों तक पहुंचाने और उनको अपनी बात समझाने की क्षमता काम आती है. दक्षिणपंथी समूह प्रवासियों को यौन उत्पीड़क के तौर पर प्रचारित करते हैं जबकि खुद को महिला अधिकारों का रक्षक बताते हैं. ये एक प्रभावी विचार है और इससे प्रभावित होकर बड़ी संख्या में श्वेत महिलाएं दक्षिणपंथी समूहों से जुड़ती चली जा रही हैं.

महिला आंदोलन की नई ‘परिभाषा’

दक्षिणपंथी समूह एक और रणनीति पर काम करते हैं और वो है ‘महिला आंदोलन’ की परिभाषा अपने हिसाब से गढ़ने की. शोधकर्ता लॉरा गॉर्डन का कहना है कि नारीवाद को एक सुस्पष्ट विचारधारा के तौर पर देखना सही नहीं होगा और इसको अपने हिसाब से परिभाषित करने की कला से दक्षिणपंथी एजेंडे को बल मिलता है. धुर-दक्षिणपंथी समूहों का तर्क ये है कि अगर महिलाएं अपनी परंपरागत भूमिका की ओर वापस लौटती हैं तो ये महिला सशक्तिकरण का सबसे सटीक उदाहरण होगा. हालांकि, ये विचार नारीवादी आंदोलन के प्रगतिवादी रुख़ के बिल्कुल विपरीत है. महिलाओं को उनके परंपरागत रोल में वापस देखने की दक्षिणपंथी सोच सांस्कृतिक तौर पर नारीवाद के वामपंथी स्वरूप की काट के तौर पर सामने रखी जाती है. स्पेन की दक्षिणपंथी फलांग राजनीतिक आंदोलन की महिला शाखा सेकॉन फेमिना ने ये सोच सामने रखी थी. उसने “आदर्श महिला” के बारे में अपना विचार पेश करते हुए उसके लिए त्याग की प्रतिमूर्ति और आज्ञाकारी जैसे गुणों को ज़रूरी बताया. ऐसी महिलाओं को 1960 के दशक में सशक्तिकरण के पीछे की ताकत के तौर पर देखा जाता था जो उस समय महिला श्रमिकों के अधिकारों के लिए संघर्ष कर रही थीं. हाल के समय में बेरोकटोक चल रहे इंटरनेट प्लेटफॉर्म जैसे गाब आदि दक्षिणपंथी विमर्श के मुख्य वाहक बन गए हैं. और इनपर “ट्राड वाइव्स” जैसे ऑनलाइन समुदाय छाए हुए हैं. करीब 30,000 महिला सदस्यों वाला ये ग्रुप नारीवाद को खारिज करता है और हाल में ये काफी लोकप्रिय भी हो चला है. इस तरह के समुदायों से महिला प्रशंसकों के लगातार जुड़ते चले जाने से ये साफ़ है कि धुर-दक्षिणपंथी समूहों ने महिलाओं के एक तबके में बढ़ते असंतोष को अपने हितों के हिसाब से इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है और इनकी आड़ में वो अपना प्रभावक्षेत्र बढ़ाते चले जा रहे हैं.

हाल के समय में बेरोकटोक चल रहे इंटरनेट प्लेटफॉर्म जैसे गाब आदि दक्षिणपंथी विमर्श के मुख्य वाहक बन गए हैं. और इनपर “ट्राड वाइव्स” जैसे ऑनलाइन समुदाय छाए हुए हैं. करीब 30,000 महिला सदस्यों वाला ये ग्रुप नारीवाद को खारिज करता है 

धुर-दक्षिणपंथी दलों को मिल रहे महिला समर्थन से जो एक बड़ी बात समझ में आती है वो ये कि किसी दल-विशेष को मिलने वाला समर्थन लैंगिग सीमारेखा से परे है. अतिदक्षिणपंथी दलों और महिलाओं के बारे में उनके विरोधाभासी घोषणा पत्रों को मिलने वाले नारी-समर्थन से स्पष्ट है कि महिलाएं उन्हें मुहैया कराई जा रही सामाजिक सुरक्षा चक्रों से ज़्यादा प्रभावित होती हैं. अति दक्षिणपंथी लोकप्रियतावादी गुट भी अब “महिला अधिकारों” के लुभावने मुद्दों को अपनी रणनीति के हिसाब से उठाकर अपनी राजनीतिक बुनियाद पक्की कर रहे हैं. लैंगिक और महिला अधिकारों के मुद्दे को अपने अप्रवासी-विरोधी एजेंडे के साथ जोड़कर पेश करने से इन दक्षिणपंथी समूहों को ‘घरवाले’ और ‘बाहरवाले’ की राजनीति चमकाने का मौका मिलता है. एक तरफ तो एएफडी पार्टी महिलाओं के हिजाब पहनने पर पाबंदी का बचाव करती है क्योंकि उसे लगता है कि हिजाब पुरुषों के आगे महिलाओं का कमतर होना दिखाता है, वहीं दूसरी ओर यही पार्टी बच्चों के लिए डे-केयर सुविधाओं के खिलाफ हैं. उसे लगता है कि इससे परंपरागत पारिवारिक ढांचे को नुकसान पहुंचता है. एक और दक्षिणपंथी समूह जेनेरेशन आइडेंटिटी दक्षिणपंथी आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने का हिमायती है लेकिन इसके साथ ही अपने संगठकों को उसने विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाली नवयुवतियों को अपना टारगेट बनाने कहा है क्योंकि उसके मुताबिक वो कमज़ोर और नाज़ुक होती हैं. महिलाओं के प्रति इस तरह के दोहरे मानदंड और आडंबर वाली नीति दक्षिणपंथी समूहों में व्याप्त घोर नारीविरोधी मानसिकता को उजागर करती हैं. ऐसे में ये ज़रूरी हो जाता है कि अति दक्षिणपंथी गुटों द्वारा नारीवादी मूल्यों को अनुचित तरीके से प्रस्तुत किए जाने की प्रभावी तरीके से काट की जाए. साथ ही इसकी आड़ में छिपी जातीयतावादी राजनीति को भी उजागर किया जाए. ऐसे समूहों की नारीविरोधी और दोहरे मापदंड वाली सियासत को प्रभावी संदेशों के ज़रिए कुंद किए जाने की ज़रूरत है.

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