Author : Samir Saran

Published on Jul 29, 2019 Updated 0 Hours ago

जिस मॉडल से यूरेशिया और हिन्द-प्रशांत क्षेत्र के उभरते हुए देशों की विकास और सुरक्षा की ज़रूरत पूरी होगी, उसके सफलता की संभावना अधिक है.

क्या हिन्द-प्रशांत प्रोजेक्ट अपने मक़सद में कामयाब होगा?

बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) और ‘मुक्त एवं खुला’ हिन्द-प्रशांत क्षेत्र एक दूसरे से होड़ करने वाली परियोजनाएं हैं. यह विकासशील देशों को तय करना है कि वे इनमें से किसे चुनते हैं. फिलहाल वे दोनों ही परियोजनाओं के बहाने अपने लिए बेस्ट डील हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं. हो सकता है कि आगे चलकर दोनों ही प्रोजेक्ट्स को लेकर दुनिया के बीच कोई सहमति बन जाए. इस पूरे मुद्दे पर ओआरएफ़ प्रेसीडेंट समीर सरन ने कुछ समय पहले बातचीत की थी अमेरिका के सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट्स माइक पॉम्पियो के बारे में, जिसका कुछ अंश हम यहां प्रकाशित कर रहे हैं.


यूरेशिया (यूरोप और एशिया) से कनेक्टिविटी या संपर्क को बेहतर बनाने के लिए हिन्द-प्रशांत को चीन के बेल्ट रोड प्रोजेक्ट्स के मुकाबले में खड़ा किया जा रहा है. यह सोच कितनी सही है?

समीर सरन: हिन्द-प्रशांत और यूरेशिया अलग-अलग क्षेत्र नहीं हैं. दोनों के बाज़ार और समुदाय एक दूसरे पर निर्भर हैं और सुरक्षा को लेकर उनकी फिक्र भी एक जैसी है. कई देश इस क्षेत्र के राजनीतिक, आर्थिक और सुरक्षा ढांचे को प्रभावित करने की कोशिश कर रहे हैं. इनमें चीन सबसे आगे है.

चीन के उभार की वजह से उसके मुकाबले में दुनिया के कई देशों के बीच वैकल्पिक गठजोड़ भी हुआ है. एक तरफ चीन अपने राजनीतिक तानाशाही और सरकारी पूंजीवाद के मॉडल को दुनिया में ले जाना चाहता है, वहीं दूसरी तरफ अमेरिका, यूरोपीय संघ के सदस्य, भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया लोकतंत्र, बहुउद्देश्यीय, सुशासन और नियमों पर आधारित सुरक्षा व्यवस्था को बढ़ावा देना चाहते हैं. सवाल यह है कि इनमें से कौन सा मॉडल सफल होगा? मुझे लगता है कि जिस मॉडल से यूरेशिया और हिन्द-प्रशांत क्षेत्र के उभरते हुए देशों की विकास और सुरक्षा की ज़रूरत पूरी होगी, उसके सफलता की संभावना अधिक है. अगर बहुत लंबे वक्त की बात न करें तो ये दोनों ही मॉडल आपस में होड़ करने के साथ एक साथ बने रह सकते हैं.

अमेरिका और उसके क्षेत्रीय सहयोगी, खासतौर पर भारत और जापान किन आर्थिक, राजनीतिक और रणनीतिक लक्ष्यों के लिए काम कर रहे हैं? किन बातों पर उनके बीच सहमति है और किन मुद्दों पर उनके बीच मतभेद हैं?

सरन: अमेरिका, एशिया में अपने व्यापक प्रभाव को बनाए रखना चाहता है. इसका मतलब यह है कि वह ऐसी पहल का समर्थन करेगा, जिससे राजनीतिक आजादी को बढ़ावा मिले. जिससे व्यापार के लिए मुक्त बाज़ार के नियम बनें और जो अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा समझौतों का पालन करे. इसी वजह से वह चीन से मुकाबला कर रहा है. जापान का भी यही मकसद है, लेकिन वह बेल्ट रोड इनिशिएटिव पर चीन के साथ अपने व्यावसायिक हितों के लिए सहयोग कर रहा है. वह इंफ्रास्ट्रक्चर कनेक्टिविटी के नियमों को लेकर चीन से मुकाबला करेगा. जापान इस तरह के जिन प्रोजेक्ट्स से जुड़ेगा, वह उनमें गुड गवर्नेंस (सुशासन) और वित्तीय तौर पर उन्हें आत्मनिर्भर बनाने के लिए ज़ोर डालेगा.

चीन और अमेरिका के साथ भारत के रिश्ते उलझे हुए हैं. भारत बीआरआई से नहीं जुड़ेगा क्योंकि इससे उसकी संप्रभुता (सॉवरिनिटी) का उल्लंघन होता है. वह इस प्रोजेक्ट को प्रभावित करने की स्थिति में भी नहीं है. बीआरआई से उसकी दूरी की यह भी एक वजह है. दूसरी तरफ, भारत में सबसे अधिक निवेश करने वाले देशों में चीन भी शामिल है. भारत को चीन के साथ आर्थिक रिश्ते मज़बूत करने के साथ राजनीतिक मामलों में सख्त़ी से पेश आना होगा.

इन मामलों में भारत और अमेरिका के बीच सहयोग की कई वजहें हैं. पहली बात तो यह है कि चीन के बढ़ते दबदबे को रोकने पर दोनों की राय एक है. दूसरी, भारत और अमेरिका के बीच सहयोग साझे आदर्शों पर आधारित है. वहीं, हिन्द-प्रशांत पर दोनों का रुख़ अलग है. इस क्षेत्र में जहां अमेरिका की सोच पश्चिम एशिया तक सीमित है, वहीं भारत पश्चिमी प्रशांत से लेकर पूर्वी अफ्रीका तक के बारे में सोच रहा है. ईरान और रूस जैसे यूरेशियाई देशों पर भी दोनों के बीच मतभेद हैं.

क्या बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव और हिन्द-प्रशांत सहयोग को जीरो-सम गेम यानी एक की कीमत पर दूसरे को फायदा के संदर्भ में देखा जाए?

सरन: अभी बीआरआई और ‘फ्री एंड ओपन’ हिन्द-प्रशांत के बीच मुकाबला चल रहा है. इस क्षेत्र के विकासशील देशों के रुख़ से तय होगा कि इनमें से किसका पलड़ा भारी रहता है. अभी ये देश दोनों के बीच होड़ का इस्तेमाल करके अपने लिए बेहतर डील हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं. लंबी अवधि में दोनों ही पहल को लेकर किसी बहुउद्देश्यीय समझौते से इनकार नहीं किया जा सकता.

ऐसे आरोप लगते रहे हैं कि बेल्ड एंड रोड इनिशिएटिव के जरिये चीन अपने राजनीतिक और आर्थिक हितों को साधने की कोशिश कर रहा है. क्या हिन्द-प्रशांत पहल के साथ भी ऐसा ही है?

सरन: हां, दोनों में राजनीतिक और आर्थिक मकसद मिले हुए हैं. जैसा कि मैं पहले कह चुका हूं कि दोनों प्रोजेक्ट के नियम, संस्थानों और जिस तरह की साझेदारी को वे बढ़ावा देने की कोशिश कर रहे हैं, अंतर उनमें हैं. चीन का बीआरआई एक देश का प्रोजेक्ट है. इसलिए उससे सिर्फ़ चीन के हितों को बढ़ावा मिलेगा. हिन्द-प्रशांत पहल से कई देश जुड़े हैं. यह सिर्फ़ इसके गारंटरों (अमेरिका, जापान, भारत और ऑस्ट्रेलिया) के हितों की रक्षा तक सीमित नहीं है बल्कि जो भी देश इससे जुड़ेंगे, इस पहल के ज़रिये उन सभी के हितों को संरक्षित किया जाएगा. इसमें शामिल होने वाले देश बातचीत और सहयोग के ज़रिये साझा लक्ष्य के लिए काम करेंगे, जबकि चीन के बीआरआई में सिर्फ ‘क्लाइंट स्टेट्स’ यानी जो देश चीन के लिए बाजार होंगे, उन्हें वरीयता दी जाएगी.

रूस की यूरेशिया को लेकर जो रणनीति है, क्या उसे उसमें हिन्द-प्रशांत पहल से मदद मिलेगी?

सरन: यूरेशिया में इस पहल से रूस को चीन पर बढ़त हासिल होगी. अभी रूस, चीन की अर्थव्यवस्था का मोहताज है, इसलिए उसे उसके राजनीतिक इरादों का भी समर्थन करना पड़ रहा है. रूस को यह समझना होगा कि चीन भले ही बहुध्रुवीय वैश्विक व्यवस्था चाहता है, लेकिन यूरेशिया पर वह अपना एकछत्र राज कायम करने का इरादा रखता है. रूस को तभी फ़ायदा होगा, जब हिन्द-प्रशांत और यूरेशिया में कई देश ताकतवर हों. इसमें रूस-भारत के द्विपक्षीय रिश्ते की बड़ी भूमिका हो सकती है. दोनों देश यूरेशिया और हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में व्यावसायिक और सुरक्षा पहल में एक दूसरे का सहयोग कर सकते हैं.


यह इंटरव्यू Valdaiclub में प्रकाशित हो चुका है.

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