Author : Ramanath Jha

Published on Oct 26, 2020 Updated 0 Hours ago

‘शहरीकृत’ ग्रामीण क्षेत्रों में उन विनियमों को अपनाना चाहिए, जो सही तरीके से शहरीकरण करें.

‘शहरीकृत गांवों’ को शहरी स्थानीय निकाय में शामिल करने का विरोध क्यों?

यह आम सच्चाई है कि अपनी ख़ास लोकेशन के चलते कई गांव अपना ग्रामीण चरित्र खो चुके हैं और धीरे-धीरे शहरी विशेषताओं को अपनाते जा रहे हैं. भारतीय संविधान ऐसे किसी भी बदलाव वाली बस्ती को ‘संक्रमणकालीन क्षेत्र (ट्रांज़िशनल एरिया)’ के रूप में देखता है. अंततः ये गांव ख़ुद को ठीक-ठाक शहरों में बदल लेते हैं. इस कायांतरण की प्रक्रिया में आबादी में बढ़ोत्तरी, आबादी का ज़्यादा घनत्व, ज़्यादा स्थानीय राजस्व उगाही, गैर-कृषि रोज़गार का ऊंचा प्रतिशत, आर्थिक महत्व में बढ़ोत्तरी और ऐसे ही कई कारक शामिल हैं. इन बदलावों के आकलन के आधार पर, सरकारें एक आधिकारिक अधिसूचना के माध्यम से ऐसे गांवों को शहरी स्थानीय निकाय (अर्बन लोकल बॉडी या यूएलबी) घोषित करती हैं.

यह भी साफ़ है कि शहरीकरण की ताक़तें सिर्फ़ एक बस्ती के दायरे में सीमित नहीं रहतीं. वे बाहर की ओर अपना विस्तार करती हैं, बाहरी किनारे शहरी चरित्र अपनाते हैं. कुछ समय बाद वे पड़ोस के अधिसूचित स्थानीय निकाय संस्था में विलय के लिए तैयार हो जाते हैं. इस तरह, हम समय-समय पर पाते हैं कि गांवों के विलय के साथ यूएलबी के क्षेत्रों का दायरा बढ़ता है. विलय से यूएलबी बड़ा भौगोलिक क्षेत्र बनता है, उस दायरे के भीतर ज़्यादा आबादी और ज़्यादा आर्थिक गतिविधियां शामिल होती हैं.

शहरीकरण की ताक़तें सिर्फ़ एक बस्ती के दायरे में सीमित नहीं रहतीं. वे बाहर की ओर अपना विस्तार करती हैं, बाहरी किनारे शहरी चरित्र अपनाते हैं. कुछ समय बाद वे पड़ोस के अधिसूचित स्थानीय निकाय संस्था में विलय के लिए तैयार हो जाते हैं. इस तरह, हम समय-समय पर पाते हैं कि गांवों के विलय के साथ यूएलबी के क्षेत्रों का दायरा बढ़ता है. 

हालांकि, लगभग हमेशा ही किसी गांव को यूएलबी में बदलना या पड़ोसी यूएलबी में विलय करना गांवों के लिए बहुत ज़्यादा अलोकप्रिय साबित हो रहा है. ऐसे विरोध के उदाहरण चारों तरफ़ हैं. हाल ही में, सितंबर 2020 में महाराष्ट्र सरकार ने सतारा म्यूनिसिपल काउंसिल में इससे सटे कुछ गांवों के विलय को मंज़ूरी दी. इस विलय से अंततः इन पूर्व गांवों पर स्थानीय कर बढ़ जाएंगे. झटके को हलका करने के लिए, सरकार ने कर में वृद्धि को पांच साल की अवधि के लिए टाल दिया है. दिलचस्प बात यह है कि विस्तार प्रस्ताव पहली बार 1979 में पेश किया गया था और अंतिम फ़ैसला लेने में 41 साल निकल गए क्योंकि सरकार को कई दबावों का सामना करना पड़ रहा था, ख़ासतौर से स्थानीय नेताओं और निवासियों की तरफ़ से.

जून 2020 में, गुजरात सरकार ने छह नगर निगमों— अहमदाबाद, सूरत, गांधीनगर, राजकोट, भावनगर और वडोदरा की सीमाओं का विस्तार किया. अहमदाबाद के 464 वर्ग किलोमीटर के मौजूदा क्षेत्र में  कुल 100 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र जोड़ा गया. सूरत में 27 गांव और दो यूएलबी शामिल कर शहर की सीमा को 326 वर्ग किलोमीटर से बढ़ाकर 500 वर्ग किलोमीटर कर दिया गया। गांधीनगर में 18 गांव और एक नगर पालिका, राजकोट में चार गांव और वडोदरा में सात गांव मिलाए गए हैं. इन प्रस्तावों काफी समय से विचार चल रहा था; लेकिन कई ग्राम पंचायतों की तरफ़ से कड़ा विरोध जताया गया और उनमें से चार ने विलय के खिलाफ गुजरात हाई कोर्ट का रुख़ किया. चार गांवों में से एक के सरपंच भट्ट ने सवाल किया कि वडोदरा को और ज़्यादा क्षेत्र क्यों चाहिए, जबकि वह “पिछले विस्तार में मिलाए गए गांवों को बुनियादी सुविधाएं भी नहीं दे सका है.”

साल 2010 में, तमिलनाडु सरकार ने तीन नगर पालिकाओं, सात नगर पंचायतों और एक ग्राम पंचायत को मिलाकर कोयंबटूर नगर निगम की सीमा का विस्तार किया. नाराज़ गांव वालों को शांत करने की कोशिश में सरकार ने घोषणा की कि वह पांच वर्षों तक करों में वृद्धि नहीं करेगी. चेन्नई में इसके भौगोलिक क्षेत्र का विस्तार करने के 2018 के प्रस्ताव का नागरिकों और एक्टिविस्ट द्वारा ज़ोरदार विरोध किया गया. उत्तर प्रदेश में कई गांवों का विलय कर प्रयागराज की सीमाओं को बढ़ाने का प्रस्ताव 2013 से लटका है. हाल ही में हुई कैबिनेट बैठक में यह प्रस्ताव रोक दिया गया था. कथित तौर पर, उत्तर प्रदेश के एक मंत्री ने यह कहते हुए इस तरह के विस्तार का विरोध किया कि अफ़सरों ने उन्हें तथ्यों से अवगत नहीं कराया था.

किसी यूएलबी के साथ विलय के ख़िलाफ़ स्थानीय निवासियों में इस तरह के गहरे पूर्वाग्रह क्यों हैं? सबसे महत्वपूर्ण कारणों में से एक, जिसे आमतौर पर खुले तौर पर ज़ाहिर नहीं किया जाता, राजनीतिक है. यह ग्राम पंचायत का ‘सरपंच’ है. सरपंच को पंचायत में ‘हर मर्ज़ की दवा’ वाली स्थिति प्राप्त है और वही महत्वपूर्ण फैसले लेता है. यूएलबी के साथ विलय उसके राजनीतिक वर्चस्व को पूरी तरह ख़त्म कर देता है. वह भावी पार्षद बन सकता है; लेकिन उसके पास ऐसा कोई अधिकार नहीं होगा जैसा पहले हासिल था. ज़ाहिर है कि सरपंच इस तरह के फ़ैसले को रुकवाने के लिए राज्य की राजनीति में जहां भी ज़ोर लगा सकता है, ज़ोर लगाकर ऐसी किसी भी फ़ैसले का विरोध करेगा.

हैरानी की बात है कि विलय को लेकर ख़ुद स्थानीय निकाय भी बहुत उत्साहित नहीं रह गए हैं. पुराने ‘चुंगी वाले दिनों’ में, उत्साह बहुत अधिक था. ऐसा इसलिए था क्योंकि स्थानीय व्यापारियों ने चुंगी से बचने के लिए अपने गोदामों को स्थानीय निकाय की सीमा के बाहर बनाते थे

प्रतिरोध बढ़ता जाता है क्योंकि गांववाले अलग-अलग वजहों से विलय का विरोध करते हैं. सबसे पहली वजह है कर में बढ़ोत्तरी. इस देश की शासन संरचना में ग्राम पंचायतों की तुलना में यूएलबी को सरकार से वित्तीय सहायता कम मिल मिलती है. ऐसी उम्मीद की जाती है कि मज़बूत आर्थिक स्थिति के साथ शहर अपने वित्तीय बोझ का बड़ा हिस्सा ख़ुद उठाने में सक्षम होंगे. इसका मतलब यह होगा कि यूएलबी के रखरखाव के लिए हर पूर्ववर्ती ग्रामवासी की जेब से ज़्यादा पैसा जाएगा. असंतोष तब और तक़लीफदेह हो जाता है जब करों में बढ़ोत्तरी के बाद भी सेवाओं में कोई प्रत्यक्ष सुधार दिखाई नहीं देता. कुछ मामलों में, उनके पैसे को दूसरे वार्डों में ख़र्च करने के लिए डायवर्ट किया जा सकता है, जहां स्थानीय पार्षद ज़्यादा प्रभावशाली होते हैं, जैसे कि स्थायी समिति के अध्यक्ष. स्थानीय सेवा वितरण के मुद्दों और शिकायत के समाधान की व्यवस्था के ज़्यादा केंद्रीकृत होने की संभावना से ग्रामीण भी उत्साहित नहीं हैं. इसका मतलब लोगों को ज़्यादा दूरी पर स्थानीय निकाय कार्यालय जाना होगा और वहां की लालफ़ीताशाही से जूझना  होगा. जैसा कि कोयंबटूर के एक पार्षद ने विरोध, करते हुए कहा था, “एक बड़े निर्वाचित निकाय में, यह बाजा़र में चिल्लाने जैसा हाल होता है.” दिलचस्प बात यह है कि ग्रामीण यूएलबी में बदलने और विलय का विरोध करते हैं, न कि शहरीकरण का. शहरीकरण से जो प्रॉपर्टी की कीमत में बढ़ोत्तरी होती है और स्थानीय अर्थव्यवस्था में विकास आता है, ग्रामीण उसे ख़ुशी-ख़ुशी लपक लेते हैं.

मामूली जनसमर्थन के साथ, राज्य का शहरी विकास विभाग विलय का एकमात्र पक्षधर है. समस्या अनिवार्य रूप से एक ग्रामीण प्रशासनिक ढांचे के भीतर शहरीकरण द्वारा बनाई स्थिति के कारण आती है. यह सही नियोजन और विकास नियंत्रण नियमों के अभाव में बेतरतीब शहरीकरण की दिशा में बढ़ता है. इससे स्वास्थ्य, परिवहन और पर्यावरण की समस्याएं पैदा होती हैं. 

हैरानी की बात है कि विलय को लेकर ख़ुद स्थानीय निकाय भी बहुत उत्साहित नहीं रह गए हैं. पुराने ‘चुंगी वाले दिनों’ में, उत्साह बहुत अधिक था. ऐसा इसलिए था क्योंकि स्थानीय व्यापारियों ने चुंगी से बचने के लिए अपने गोदामों को स्थानीय निकाय की सीमा के बाहर बनाते थे. हालांकि, निकाय यह बात जानते थे कि इन गोदामों में माल यूएलबी के अंदर ही खपत के लिए था. इसलिए, वो इन गोदामों को स्थानीय निकाय सीमा के भीतर लाने के लिए अपनी सीमाओं का विस्तार करने की मांग करते थे. जनरल सर्विसेज एंड गुड्स टैक्स (जीएसटी) लागू होने के साथ, चुंगी भी जीएसटी में शामिल हो गई है. सीमाओं का विस्तार अब यूएलबी के लिए बोझ बन गया क्योंकि इससे मामूली राजस्व बढ़ता है, जबकि देखभाल के लिए एक बड़ी आबादी मिल जाती है और एक बड़े गांव के कर्मचारियों को समायोजित करना पड़ता है जिनकी जटिल निकाय कार्यों को संभालने की क्षमता बहुत अच्छी नहीं होती.

मामूली जनसमर्थन के साथ, राज्य का शहरी विकास विभाग विलय का एकमात्र पक्षधर है. समस्या अनिवार्य रूप से एक ग्रामीण प्रशासनिक ढांचे के भीतर शहरीकरण द्वारा बनाई स्थिति के कारण आती है. यह सही नियोजन और विकास नियंत्रण नियमों के अभाव में बेतरतीब शहरीकरण की दिशा में बढ़ता है. इससे स्वास्थ्य, परिवहन और पर्यावरण की समस्याएं पैदा होती हैं. बदकिस्मती से राज्य स्तर पर भी, राजनीतिक दल किसी भी शहरी वर्गीकरण और विलय का समर्थन करने से पहले राजनीतिक नफ़ा-नुकसान का हिसाब लगाते हैं

‘शहरीकृत’ ग्रामीण क्षेत्रों में उन विनियमों को अपनाना चाहिए जो सही तरीके से शहरीकरण करें. व्यावहारिकता और आर्थिक स्थिति के आधार पर ऐसे गांवों को स्वतंत्र यूएलबी घोषित कर या उन्हें अन्य यूएलबी में शामिल कर ऐसा किया जा सकता है. 

निम्न-स्तरीय शहरीकरण को बढ़ावा देना स्पष्ट रूप से राष्ट्र के समग्र हित में नहीं है. ‘शहरीकृत’ ग्रामीण क्षेत्रों में उन विनियमों को अपनाना चाहिए जो सही तरीके से शहरीकरण करें. व्यावहारिकता और आर्थिक स्थिति के आधार पर ऐसे गांवों को स्वतंत्र यूएलबी घोषित कर या उन्हें अन्य यूएलबी में शामिल कर ऐसा किया जा सकता है. चिंता की एक और बात यह है कि ढेरों कारकों और उनके स्तर को निर्धारित करने में संविधान द्वारा बड़ी मात्रा में राज्य को विवेकाधिकार दिया गया है, जिनके आधार पर गांवों को शहर माना जाएगा. इसके नतीजे में विभिन्न पैमाने अपनाए जाते हैं जो देश में शहरीकरण के स्तर का आकलन करना मुश्किल बनाते हैं. इसके अलावा, इस तरह का विवेकाधिकार राजनीतिक अवसरवादिता का मौका देता है, साथ ही शहरी नियोजन प्रक्रिया को भटकाता है. इसलिए, ज़रूरी है कि सबके लिए एक मानक लागू किया जाए. एक निश्चित शहरी सीमा को पार करने वाली सभी ग्रामीण बस्तियों को अपने आप यूएलबी में बदल देना चाहिए या किसी यूएलबी के साथ विलय कर दिया जाना चाहिए. हालांकि, ऐसा होने के लिए, नागरिकों को उन सेवाओं की गुणवत्ता में प्रत्यक्ष अंतर दिखना चाहिए जो एक यूएलबी देता है. यह तभी मुमकिन है जब भारत सरकार और राज्य सरकारें यूएलबी के लिए पर्याप्त संसाधन मुहैया कराएं. मौजूदा फ़ाइनेंस का स्तर बेहद कम है और इसके अभाव में आर्थिक रूप से संघर्षरत शहर शहरीकरण की लहर और लोगों की आकांक्षाओं को पूरा नहीं कर पाएंगे.

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