Published on May 09, 2018 Updated 0 Hours ago

अमेरिका, पाकिस्तान, एक गलत समझौता और अविश्वास का युग।

अमेरिकी-पाकिस्तान संबंधों का टूटना तय क्यों है

वाशिंगटन डीसी की उड़ान भरने पर आप तीन बड़े हवाईअड्डों में से किसी एक पर लैंड कर सकते हैं।

यह बाल्टीमोर वाशिंगटन इंटरनेशनल भी हो सकता है जो शहर के मुख्य इलाके बाल्टीमोर के दक्षिण की ओर है। अन्य दो हवाईअड्डों के नाम प्रभावशाली अमेरिकी राजनयिकों के नाम पर रखे गये हैं। रोनाल्ड रीगन अंतरराष्ट्रीय हवाईअड्डा का नाम 40वें अमेरिकी राष्ट्रपति के नाम पर है जबकि ड्यूल्स अंतरराष्ट्रीय हवाईअड्डा का नाम देश के 52वें विदेश मंत्री जॉन फोस्टर ड्यूल्स के नाम पर रखा गया है। अमेरिकी विदेश नीति के इन दो दिग्गजों ने महत्वपूर्ण समय में अमेरिकी विदेश नीति की रूपरेखा तैयार की और पाकिस्तान के साथ अमेरिकी संबंध तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

अमेरिका और पाकिस्तान के बीच संबंध महज द्विपक्षीय समझौता नहीं है। असल में इसे पाकिस्तान की अपनी कहानी के रूप में देखा जा सकता है।

1930 के दशक के उतरार्द्ध के दौर में अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट इस बात वाकिफ थे कि भारतीय उपमहाद्वीप में अलग मुस्लिम देश बनाने के मुद्दे पर तनाव लगातार बढ़ रहा है। रूजवेल्ट का यहां तक मानना था कि राष्ट्र को दो देशों में विभाजित करने का विचार बुरा है। कई वरिष्ठ राजनयिक रूजवेल्ट के विचार से इत्तफाक रखते थे और यह सोचते थे कि विभाजन का कोई औचित्य नहीं है।

हांलाकि ब्रिटेन ने अमेरिका को पाकिस्तान के साथ राजनियक संबंध स्थापित करने की सलाह दी और इस तरह कराची (पाकिस्तान की पूर्व राजधानी) में दूतावास बनाया गया। तत्कालीन विदेश मंत्री डीन एकसन का ये दृढ़ विचार था कि भारत ही अमेरिका का स्वाभाविक मित्र होगा। हांलाकि पाकिस्तान के साथ अच्छा रिश्ता भी जरूरी था लेकिन अमेरिकियों ने कभी भी पाकिस्तान को अपने सच्चे रणनीतिक साझेदार के रूप में नहीं देखा।

वाशिंगटन में पाकिस्तान के पूर्व राजदूत हुसैन हक्कानी ने अपनी पुस्तक में बिल्कुल सही लिखा है कि जब पाकिस्तान की स्थापना हुई तो इसे ब्रिटिश भारत का 19 फीसदी भूभाग और संसाधनों का 15 फीसदी हिस्सा मिला लेकिन बंटवारे में आनुपातिक रूप से सेना का ज्यादा बड़ा 33 फीसदी का हिस्सा उसके पास आया।

अधिकतर देश खतरे का मुकाबला करने के लिए सेना तैयार करते हैं लेकिन पाकिस्तान ने अपनी सेना के बड़े आकार को सही साबित करने के लिए पड़ोसी भारत से संभावित खतरे को जरूरत से ज्यादा गंभीर बताने की कोशिश की।

उस समय सोवियत संघ और अमेरिका शक्ति केन्द्र के रूप में उभर रहे थे और पाकिस्तान को इसका अहसास था। पाकिस्तान ने ये महसूस किया कि अमेरिका से सेना के लिए वित्तीय सहायता, हथियार और आर्थिक मदद हासिल करनी है तो उसे खुद को अमेरिकी हितों के अनुरूप बनाना होगा। पाकिस्तान ने वाशिंगटन डीसी की ओर अपना हाथ बढ़ाया और खुद को साम्यवाद (Communism) के खिलाफ एक मजबूत हथियार के रूप में प्रचारित करने की कोशिश की। पाकिस्तान ने उस दौरान ये भी जताने प्रयास किया कि उसकी सेना एशिया में साम्यवाद के प्रसार के खिलाफ लड़ाई में अहम भूमिका निभा सकती है।

जब एकसन और उनका विदेश विभाग भारत से नजदीकियां बढ़ाने में लगा था तब पाकिस्तान भी अमेरिका को लुभाने की हरसंभव कोशिश कर रहा था। पाकिस्तान अपने शुरूआती समय में संघर्ष कर रहा था और वह वित्तीय संकट में फंसा हुआ था। पाकिस्तान को अमेरिकी वित्तीय सहायता और अपनी सेना में बड़े बदलाव की जरूरत थी। पाकिस्तान ने उस समय अमेरिका से करीब दो अरब डॉलर की वित्तीय सहायता का बेतुका सा अनुरोध किया था। अमेरिकियों ने इसके जवाब में एक करोड़ डॉलर की राशि दी। आंकड़ों का ये अंतर आने वाले वर्षों में ये साबित करने के लिए काफी था कि दोनों पक्षों मे एक दूसरे से अपेक्षाओं और उन अपेक्षाओं की पूर्ति के बीच कितना फर्क था।

अमेरिका और पाकिस्तान के बीच के संबंधों में 1952 में अलग गर्माहट आई। सैन्य महारथी के रुप में प्रसिद्ध ड्वाइट आइजनहॉवर के नेतृत्व वाले नये अमेरिकी प्रशासन में पाकिस्तान को दो मजबूत समर्थक मिले। इनमें से एक थे उपराष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन और और दूसरे विदेश मंत्री जॉन ड्यूल्स।

ड्यूल्स ने उस दौरान भारत और पाकिस्तान दोनों का दौरा किया लेकिन वे अमेरिकी शक्ति केन्द्र में शामिल होने के मसले पर भारत के अनिच्छुक रवैये से खिन्न थे। आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू गुट निरपेक्ष आंदोलन के रचनाकारों में से एक थे। भारत करीब दो शताब्दी तक औपनिवेशिक शासन में रहा था और नेहरू इस बात को लेकर चिंतित थे कि भारत कहीं एक पश्चिमी आधिपत्य ( ब्रिटिश) से मुक्त होकर दूसरे पश्चिमी आधिपत्य (अमेरिकी) का शिकार न हो जाये।

अमेरिकी पत्रकार वाल्टर लिपमैन के साथ बातचीत में ड्यूल्स की अज्ञानता साफ झलकती है। पुलित्जर पुरस्कार विजेता पत्रकार इस बात से हतप्रभ था कि अमेरिका ने पाकिस्तान को साउथ ईस्ट एशिया ट्रीटी आर्गेनाइजेशन (SEATO) में शामिल होने को कहा था जबकि सच्चाई ये थी कि पाकिस्तान का अस्तित्व दक्षिण पूर्व एशिया में कहीं भी नहीं था; म्यांमार के साथ पूर्वी पाकिस्तान की सीमा इसका पर्याप्त पुख्ता कारण नहीं था। ड्यूल्स ने इसका जवाब ये दिया कि उन्हें ब्रिटेन ने ये सूचित किया है कि गुरखा निडर योद्धा हैं और उन्हें मुस्लिम देश के रूप में पाकिस्तान की सेवाओं की जरूरत है जो इस क्षेत्र में कम्युनिस्टों का मुकाबला कर सके।

लिपमैन इस बात पर आश्चर्यचकित थे और उन्होंने ड्यूल्स को याद दिलाया कि गुरखा पाकिस्तानी नहीं हैं और असलियत में वे मुस्लिम भी नहीं हैं। लिपमैन ने बताया कि गुरखा नेपाल के हिंदू हैं जिनका भारत और पाकिस्तान के साथ कोई लेना देना नहीं है।

जाहिर है, ये पाकिस्तानी सेना के तत्कालीन प्रभारी फील्ड मार्शल अयूब खान के लिए कोई मायने नहीं रखता था। उन्होंने कम्युनिस्टों से मुकाबला करने के पाकिस्तान के संकल्प को लेकर बड़ी बेशर्मी से ड्यूल्स को फिर आश्वस्त किया। उन्होंने निर्लज्जता से कहा “हमारी सेना आपकी सेना होगी जब तक आप इसके लिए भुगतान करते रहेंगे।”

पाकिस्तान जल्द ही अमेरिका का मित्र बन गया और उसे सैन्य खर्चों, आर्थिक बढ़ोतरी और विकास कार्यों के लिए भारी धनराशि मिलने लगी। उन जरूरतों में से सिर्फ एक की पूर्ति प्रभावी तरीके से हुई। अमेरिकी लोग अयूब खान पर फिदा थे जो काफी सलीकेदार अंग्रेजी भाषण देते थे, जिनकी कद काठी काफी मजबूत थी और उनकी ट्रेनिंग ब्रिटेन में सैंडहर्स्ट

 में हुई थी। हांलाकि क्या वे गलत हो सकते थे?

विडंबना ये थी कि पाकिस्तान ने कम्युनिज्म के खिलाफ अमेरिका के युद्ध में न तो एक डॉलर खर्च किया और ना ही कोई सैनिक भेजा। पाकिस्तान बड़े ही प्रभावशाली तरीके से कई वर्षों तक कोरिया और वियतनाम में अपने सैनिक भेजने से बचता रहा और इसकी बजाय कश्मीर में अपनी दावेदारी बढ़ाने के लिए नये सैन्य साजोसामान जुटाने में लगा रहा।

1965 में भारत-पाकिस्तान के बीच पहले बड़े युद्ध के समय तक राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन को ‘ड्यूल्स सिद्धांत’ की एक गलती का अहसास होने लगा। ये भरोसा सही नहीं था कि किसी देश की सेना में निवेश करने और उसे मजबूत बनाने से वो देश अमेरिकी सेना का सहज समर्थक बन जायेगा।

कई वर्षों बाद अफगानिस्तान में सोवियत संघ के आक्रमण ने पाकिस्तान के तानाशाह जिया उल हक को अमेरिका का प्रिय पात्र बना दिया। कुख्यात तानाशाह को बड़े पैमाने पर हथियार और नकद राशि अदा की गयी ताकि अफगानिस्तान में मुजाहिदीन की मदद की जा सके। अमेरिका ने हाल ही में चार्ली विल्सन की जंग लड़ी थी और सोवियत संघ पराजित हो चुका था। कम्युनिज्म की ताकत घटने लगी थी और अमेरिकी विदेश विभाग मैदान छोड़ने की तैयारी में था।

युद्ध के इन धुरंधरों ने विश्व के अलग अलग हिस्सों से टैंक, ग्रेनेड और अन्य सैन्य सामानों से अफगानिस्तान को भर दिया जो बाद में वहीं छूट गये। वे इतने नेकदिल नहीं थे कि उस देश में स्कूल और कॉलेज का पुनर्निर्माण करते। इसकी बजाय वे तालिबानी बन गये। जिया और पाकिस्तानी हुक्मरानों का आत्मविश्वास लौटने लगा था, जिन्होंने भारत के साथ युद्ध के बाद अपना पूर्वी हिस्सा (बंगला देश) गंवा दिया था। अगर बलशाली सोवियत संघ मुजाहिदीन के आगे झुक सकता है तो कश्मीर में भी भारत की पकड़ ढीली हो सकती है। पाकिस्तान के पास अब ये प्रशिक्षित लड़ाके थे जो कत्ले-आम कर सकते थे और उनका सदाचार में कोई यकीन नहीं था।

आज की तारीख में वाशिंगटन और इस्लामाबाद के बीच के रिश्ते पतन की राह पर हैं। हांलाकि राष्ट्रीय सुरक्षा हितों और आतंकवाद की परिभाषा को लेकर पाकिस्तान और अमेरिका के विचार काफी समय अलग हैं। पाकिस्तान काफी समय से अच्छा आतंकवाद और खराब आतंकवाद के तर्क को मानने लगा है।

पाकिस्तानी अवधारणा इस तर्क के इर्द गिर्द घूमती है कि इस्लाम हमें जोड़ने वाला है, भारत हमारा स्थायी दुश्मन है, अमेरिका ज्यादा कुछ नहीं करता, और कश्मीर हमेशा ज्वलंत मुद्दा बना रहेगा।

अमेरिका की स्थिति सामान्य है। आज की तारीख में अमेरिका ये नहीं जानता कि पाकिस्तान से सख्ती और प्रभावी तरीके से कैसे निपटा जा सकता है। उन्होंने सहयोगियों से भी कोशिश की लेकिन उसका फायदा नहीं हुआ लेकिन अलगाव ज्यादा लंबे समय तक नहीं चल सकता। यह बहुआयामी भूराजनीतिक संबंध है जो इतिहास की महत्ता पर जोर देता है। लेकिन यहां हुसैन हक्कानी की टिप्पणी को एक बार फिर याद करना बनता है “ये सिर्फ अमेरिका में होता है जहां हम इस कहावत ‘ये इतिहास की बात है’ का जिक्र तभी करते हैं जब ये कहना होता है कि अब इसका कोई महत्व नहीं रहा।”

अगर यहां ऐसा कुछ है जिससे हमने कुछ सीखा है तो ये कि इतिहास कभी महत्वहीन नहीं होता।

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