दिल्ली में टाइम्स नाऊ समिट में गृह मंत्री अमित शाह ने जम्मू-कश्मीर के राजनेताओं की नज़रबंदी की ज़िम्मेदारी केंद्र शासित प्रदेश के स्थानीय प्रशासन पर डाल दी. गृह मंत्री के कहने का तात्पर्य यह था कि इन नेताओं की नज़रबंदी में केंद्र सरकार की कोई भूमिका नहीं है. हालांकि, स्थानीय प्रशासन का कोई भी अधिकारी ये दुस्साहस नहीं करेगा कि वो केंद्र के राजनीतिक नेतृत्व की सहमति के बिना जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्रियों को नज़रबंद कर सके. हक़ीक़त तो ये है कि आज जम्मू-कश्मीर की सुरक्षा से जुड़े मसलों पर केंद्र सरकार ज़्यादा से ज़्यादा शक्ति अपने हाथ में लेती जा रही है. हालत ये है कि निम्न स्तर के पुलिस अधिकारियों की तैनाती तक के फ़ैसले दिल्ली में गृह मंत्रालय के दफ़्तर में लिए जा रहे हैं.
जम्मू-कश्मीर राज्य का विभाजन करके उसे केंद्र शासित प्रदेश बनाने के बाद से ही जम्मू-कश्मीर की पुलिस के अधिकारों का क्षरण लगातार जारी है. सत्ता के बन रहे नए समीकरणों की वजह से जम्मू-कश्मीर पुलिस के अधिकारी हाशिए पर धकेले जा रहे हैं. जम्मू-कश्मीर पुलिस को देश की सबसे अच्छे पुलिस बलों में से एक माना जाता है. जम्मू-कश्मीर पुलिस ने इस क्षेत्र में आतंकवाद के ख़िलाफ़ संघर्ष के पहले मोर्चे पर रहकर लड़ाई लड़ी है. लेकिन, अब जम्मू-कश्मीर पुलिस अपना ये कद गंवाती जा रही है.
इस साल की शुरुआत में, 14 जनवरी को जम्मू-कश्मीर के उप-राज्यपाल जी.सी. मुर्मू ने एक आदेश जारी किया. इसके तहत उनके सलाहकार आर. आर.भटनागर को पुलिस और सुरक्षा के मसलों पर व्यापक अधिकार प्रदान कर दिए. इस आदेश के अंतर्गत आर. आर. भटनागर को अन्य बातों के अतिरिक्त, ये अधिकार भी दिया गया कि वो जम्मू-कश्मीर के थानों में थाना अध्यक्षों की नियुक्ति के बारे में भी फ़ैसले कर सकते हैं. इससे भी ज़्यादा बड़ी बात ये कि जम्मू-कश्मीर पुलिस के थाना स्तर के कर्मचारियों के स्थानांतरण भी अब गृह मंत्रालय के विशेष सुरक्षा सलाहकार की सहमति से होंगे.
उप-राज्यपाल जी.सी. मुर्मू द्वारा 14 जनवरी 2020 को जारी ये आदेश No.78-JK(GAD) कहता है कि: राज्यपाल के विशेष सलाहकार असरदार पुलिस व्यवस्था, और असरदार पुलिस व्यवस्था के लिए ख़ुफ़िया जानकारी जुटाने, जिसमें एसएचओ के स्थानांतरण और अन्य तीक्ष्ण निर्णय लेने की सलाह, गृह मंत्रालय के विशेष सुरक्षा सलाहकार से सलाह-मशविरा करके देंगे.
कुल मिलाकर कहें, तो उप-राज्यपाल का ये आदेश, राज्य के पुलिस महानिदेशक से निम्न स्तर के पुलिस कर्मचारियों के तबादले का अधिकार भी छीन लेता है. और अब ये अधिकार, दो सलाहकारों, जिसमें से एक उप-राज्यपाल के सलाहकार हैं, तो दूसरे गृह मंत्रालय के विशेष सलाहकार, के पास चले गए हैं. इससे पहले एसपी रैंक के अधिकारियों से नीचे के पुलिस कर्मचारियों के तबादले के अधिकार, राज्य के पुलिस प्रमुख के पास थे. एसपी रैंक से ऊपर के पुलिस अधिकारियों के तबादले के अधिकार राज्य की कैबिनेट के पास थे. और राज्यपाल शासन की स्थिति में एसपी स्तर के अधिकारियों के स्थानांतरण का निर्णय राज्य सलाहाकार बोर्ड के पास होता था.
शक्ति के केंद्रीकरण के माध्यम से दिल्ली में बैठने वाले गृह मंत्रालय के अधिकारी, जम्मू-कश्मीर की सत्ता को अपने नियंत्रण में करने का प्रयास कर रहे हैं. दोनों ही सलाहकार पूर्व आईपीएस अधिकारी हैं, जिन्होंने जम्मू-कश्मीर में कभी काम नहीं किया है. उनमें से एक के पास तो आतंकवाद निरोधक अभियानों का बिल्कुल भी अनुभव नहीं है और वो कभी भी जम्मू-कश्मीर में नहीं तैनात रहे थे
इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि उप-राज्यपाल के इस आदेश के विरुद्ध दबे स्वरों में राज्य पुलिस अधिकारियों ने आवाज़ भी उठाई और इसकी आलोचना की. शक्ति के केंद्रीकरण के माध्यम से दिल्ली में बैठने वाले गृह मंत्रालय के अधिकारी, जम्मू-कश्मीर की सत्ता को अपने नियंत्रण में करने का प्रयास कर रहे हैं. दोनों ही सलाहकार पूर्व आईपीएस अधिकारी हैं, जिन्होंने जम्मू-कश्मीर में कभी काम नहीं किया है. उनमें से एक के पास तो आतंकवाद निरोधक अभियानों का बिल्कुल भी अनुभव नहीं है और वो कभी भी जम्मू-कश्मीर में नहीं तैनात रहे थे.
पुलिस के महानिदेशक से निम्न पुलिस अधिकारियों के तबादले का अधिकार छीन कर उसे केंद्रीय बलों के पूर्व अधिकारियों को सौंपने से निश्चित रूप से जानकारी का एक अभाव पैदा होगा. क्योंकि राज्य के पुलिस प्रमुख को जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा की विशिष्ट परिस्थितियों में कई वर्ष काम करने का अनुभव होता है. इसके साथ ही साथ ये क़दम जम्मू-कश्मीर पुलिस के वरिष्ठ अधिकारियों के आत्मविश्वास पर भी बुरा असर डालेगा. इससे भी बड़ी बात ये है कि इस फ़ैसले से जम्मू-कश्मीर पुलिस के निम्न स्तर के कर्मचारियों को ये संदेश दिया गया है कि उनके बॉस गृह मंत्रालय में बैठते हैं. जबकि पहले ये कर्मचारी पोस्टिंग और स्थानांतरण के लिए राज्य के अपने बड़े अधिकारियों के पास जा सकते थे.
एक रिपोर्ट के अनुसार, उप-राज्यपाल के इस निर्णय से जम्मू-कश्मीर पुलिस के अधिकारी और कर्मचारी असंतुष्ट हैं. इस रिपोर्ट के अनुसार पुलिस अधिकारियों और निचले कर्मचारियों के बीच निराशा बड़ी तेज़ी से बढ़ रही है. जबकि ये वही वर्ग है, जो आतंकवाद निरोधक अभियानों की अगुवाई करता है. ये क़दम जम्मू-कश्मीर पुलिस के प्रति अविश्वास को दर्शाता है, जो केंद्र सरकार और राज्य पुलिस के बीच बड़ी तेज़ी से बढ़ता जा रहा है.
कुछ दिनों पश्चात ही एक और निर्णय के अंतर्गत श्रीनगर अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे की आंतरिक सुरक्षा का उत्तरदायित्व जम्मू-कश्मीर पुलिस के हाथ से लेकर इसे केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल के हवाले कर दिया गया. हालांकि ये निर्णय अन्य राज्यों में हवाई अड्डों की सुरक्षा के मानकों के अनुरूप ही था. लेकिन, जम्मू-कश्मीर पुलिस में बहुत से ऐसे अधिकारी हैं, जो इस क़दम से निराश हैं. क्योंकि, हवाई अड्डे की सुरक्षा में तैनाती अच्छी पोस्ट मानी जाती थी.
इसी तरह, जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन एक्ट के अंतर्गत एक अन्य निर्णय ने भी जम्मू-कश्मीर पुलिस में अव्यवस्था और उलट-पुलट को जन्म दिया है. भारतीय पुलिस सेवा के जम्मू-कश्मीर काडर और एजीएमयूटी कैडर के विलय ने अन्य केंद्र शासित प्रदेशों के अधिकारियों की जम्मू-कश्मीर में नियुक्ति की संभावनाओं के द्वार खोल दिए हैं. इनमें से कई अधिकारियों को जम्मू-कश्मीर में चलने वाले आतंकवाद निरोधक अभियानों और सुरक्षा के अन्य पेचीदा मामलों की कोई समझ नहीं है. अधिकारियों के दोनों काडर के विलय से एक अन्य संभावना भी उत्पन्न हुई है कि जम्मू-कश्मीर काडर के पुराने अधिकारियों को इस केंद्र शासित प्रदेश से बाहर भी नियुक्त किया जा सकता है. ये विषय भी पुलिस अधिकारियों के अंदर नाख़ुशी पैदा कर सकता है.
जम्मू-कश्मीर पुलिस के अधिकारियों के बीच ये धारणा बढ़ रही है कि अब हर छोटे-बड़े निर्णय दिल्ली में बैठ कर लिए जाएंगे. या फिर केंद्र के राजनीतिक नेतृत्व की सहमति से लिए जाएंगे. उदाहरण के लिए, जम्मू-कश्मीर में दूरसंचार पर लगी पाबंदियों को हटाने में काफ़ी देर की गई. हालांकि, जम्मू-कश्मीर पुलिस और अन्य सुरक्षा एजेंसियों ने काफ़ी पहले ये सुझाव दिया था कि संचार पर लगी कुछ पाबंदियों को हटाया जा सकता है.
क़रीब तीन दशक लंबे आतंकवाद निरोधक अभियान के दौरान शायद ऐसा पहली बार हो रहा है कि जम्मू-कश्मीर की पुलिस व्यवस्था में परिवर्तन किए जा रहे हैं. और इसकी वजह से जम्मू-कश्मीर की सुरक्षा व्यवस्था में इस बल को हाशिए पर धकेला जा रहा है.
हालांकि, सुरक्षा मामलों से जुड़े निर्णय अपने संरक्षण में रखने को लेकर केंद्र सरकार के अपने तर्क हो सकते हैं. लेकिन, ज़मीन पर काम कर रहे सुरक्षा बलों की समझ के हिसाब से उचित न मिलने पर इन निर्णयों को लागू करने में मुश्किलें आ सकती हैं. जिस सुरक्षा बल को पहले की प्रशासनिक व्यवस्था में महत्वपूर्ण शक्तियां प्राप्त थीं, उसके अंदर ये भावना घर कर रही है कि नई परिस्थितियों में सीआरपीएफ़ और सीआईएसएफ़ जैसे केंद्रीय बलों की शक्तियां बढ़ेंगी और उन्हें प्राथमिकता दी जाएगी.
कहने की आवश्यकता नहीं है कि आतंकवाद का मुक़ाबला करने के दौरान जम्मू-कश्मीर पुलिस ने असंख्य बलिदान दिए हैं. और क़रीब तीन दशक लंबे आतंकवाद निरोधक अभियान के दौरान शायद ऐसा पहली बार हो रहा है कि जम्मू-कश्मीर की पुलिस व्यवस्था में परिवर्तन किए जा रहे हैं. और इसकी वजह से जम्मू-कश्मीर की सुरक्षा व्यवस्था में इस बल को हाशिए पर धकेला जा रहा है. जम्मू-कश्मीर पुलिस का ख़ुफ़िया जानकारी जुटाने और स्थानीय आयामों को समझने का शानदार रिकॉर्ड रहा है. इसी वजह से जम्मू-कश्मीर पुलिस को केंद्रीय सशस्त्र बलों और भारतीय सेना के आंख और कान कहा जाता है.
अब इस बात को लेकर गंभीर चिंता जताई जा रही है कि आने वाली गर्मियों में कश्मीर में तनाव बढ़ा रहेगा. इस बात की आशंका भी बढ़ रही है कि 5 अगस्त 2019 को लिए गए निर्णय की वजह से आतंकवाद का दायरा कश्मीर घाटी के बाहर भी फैल सकता है. इसलिए, गुप्त जानकारी के लिए स्थानीय लोगों की ज़रूरत और भी बढ़ जाएगी. ऐसे में यह ज़रूरी है कि सुरक्षा से जुड़ी जो भी नीति बने, वो जम्मू-कश्मीर पुलिस के अतुलनीय योगदान को ध्यान में रख कर ही बनाई जानी चाहिए. ताकि वो भविष्य में भी आतंकवाद निरोधक अभियानों में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती रहे. कोशिश ये होनी चाहिए कि जम्मू-कश्मीर पुलिस की छवि ख़राब करके उसे केवल इसलिए हाशिए पर न धकेल दिया जाए, क्योंकि कुछ लोगों ने देश विरोधी गतिविधियों को अंजाम दिया.
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