Author : Jaya Thakur

Published on Jun 12, 2018 Updated 0 Hours ago

क्या हम अपने देश की प्रमुख नदियों का जल प्रबंधन करने में सक्षम हैं, अगर नहीं तो ये कमियां कैसे दूर करनी होंगे?

क्यों आसान नहीं भारत में जल प्रबंधन

हांलाकि मानसून में उच्च प्रवाह के दौरान हिमालय की नदी बेसिन निरंतर जल प्लावन से प्रभावित होती हैं लेकिन इन पर मीडिया का ध्यान कभी कभार ही जाता है। हर वर्ष जल प्लावित रहने वाला ये विशाल भौगोलिक क्षेत्र गंगा-ब्रह्मपुत्र-मेघना बेसिन (जीबीएम बेसिन) का हिस्सा है। जीबीएम बेसिन के बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में से कुछ, दुनिया के सबसे घनी आबादी वाले इलाकों में से हैं जहां कोलकाता, ढाका, पटना जैसे बड़े नगर बसे हुए हैं। बाढ़ का मैदान होने के कारण वार्षिक तौर पर होने वाला जल प्लावन, इस क्षेत्र की एक सामान्य जलविज्ञान परिघटना है। हजारों वर्षों से इस क्षेत्र के निवासियों ने जल प्लावन के साथ जीना सीख लिया है। परंतु कई कारणों से जीबीएम बेसिन के बाढ़ प्रभावित मैदानी इलाकों के निवासी अकसर उच्च जल प्लावन स्तर का सामना करने के लिए मजबूर रहते हैं। इन कारणों में प्राकृतिक और मानव जन्य दोनों शामिल है।

जलवायु स्वरूप

गंगा, ब्रह्मपुत्र जैसी हिमालयी नदियां अपने कुल बहाव का 75 फीसदी मानसून के मात्र तीन महीनों में प्रवाहित कर देती हैं (बंद्योपाध्याय और ग्यावली, 1994:12)। बाढ़ की तीव्रता को बढ़ाने वाले कई घटक हैं जैसे आंतरिक भूभाग की संरचनात्मक सक्रियता, जलग्रहण क्षेत्र में अल्प अवधि में भारी वर्षा, स्थानीय उच्च भूजल स्तर, अवसंरचना निर्माण के कारण जलनिकासी में बाधा तथा गंगा ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियों में एक ही समय में उच्च बहाव। (बंद्योपाध्याय, 2009: 73)। ऐसा प्रतीत होता है कि बाढ़ और अलनीनो दक्षिण स्पंदन परिघटना के बीच भी एक संबंध है क्योंकि पिछले 40 वर्षों के दौरान दक्षिण एशिया में आये सात विनाशकारी बाढ़ों में से छह ला नीना वर्षों में आये थे। (मेयर्स एटएल, 2007)।

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सामान्य तौर पर बाढ़ को एक खतरे के रूप में देखा जाता है जो गलत है। वास्तव में ये जलविज्ञान चक्र के अभिन्न घटक हैं जो पारितंत्र में अपना योगदान देते हैं तथा मानव समुदाय को लाभ पहुंचाते हैं। (उदाहरण — नये निक्षेप से मिट्टी का निर्माण तथा मिट्टी की उर्वरा शक्ति में वृद्धि करना, भूजल स्तर में वृद्धि करना, मछली व अन्य जैव विविधताओं का स्थानांतरण)। न्यूनीकरणवादी अंकगणितीय जलविज्ञान सिद्धांत बाढ़ को एक अनिवार्य प्राकृतिक घटना के रूप में स्वीकार नहीं करता है। इस सिद्धांत पर आधारित पुराने इंजीनियरिंग हस्तक्षेपों जैसे विशाल बांधों व बाढ़ तटबंधों के निर्माण से जल निकाली प्रणाली के प्राकृतिक प्रवाह में व्यवधान आया है। (बंद्योपाध्याय, 2009: 77)। इससे जलजमाव की समस्या में वृद्धि हुई है और इसने जीबीएम बेसिन के बाढ़ प्रभावित मैदानी इलाकों की पारिस्थितिक विशेषताओं को प्रभावित किया है।

शहरी विकास: नियोजित या अनियोजित?

लखनऊ, पटना, कोलकाता या ढाका जैसे बाढ़ के जोखिम वाले बड़े नगरों में विकास के नाम पर अनियोजित निर्माण क्षेत्र में वृद्धि तथा प्राकृतिक दलदली क्षेत्र के विनाश ने सामान्य जल निकास प्रणाली को अत्यधिक प्रभावित किया है। पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव का भी अधूरे मन से तथा अपर्याप्त मूल्यांकन किया गया है। (कुछ मामलों में पर्यावरण कानूनों तथा स्थानीय भूआकृति विज्ञान के सिद्धांतों की पूरी तरह अवहेलना की गयी है)। शहरी क्षेत्रों में प्राकृतिक जल निकासी ढलान पर शायद ही कभी विचार किया गया है। परिणामस्वरूप शहरी जल जमाव में वृद्धि हो रही है। इसका कुप्रभाव आम जनजीवन, अर्थव्यवस्था और पारितंत्र पर पड़ता है क्योंकि मानसून और मानसून के बाद की अवधि में क्षेत्र का जनजीवन थम जाता है। स्थानीय भू-जलविज्ञान विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए शहरी विकास को विनियिमित करने की आवश्यकता है।

आगे का रास्ता: प्रतिमान परिवर्तन

केवल जीबीएम बेसिन में ही नहीं वरन पूरे दक्षिण एशिया में बाढ़ प्रबंधन प्रणाली के संदर्भ में प्रतिमान-परिवर्तन की अत्यधिक आवश्यकता है। सबसे पहले हमें ये स्वीकार करना चाहिए कि बाढ़ पर पूर्ण नियंत्रण और इससे पूरी तरह बचाव शायद ही कभी संभव हो क्योंकि बाढ़ नियंत्रण की सभी प्रणालियां सीमित रूप में ही प्रभावी हैं। बाढ़-मैदानों में जल प्लावन अनिवार्य प्राकृतिक घटना है और ये प्रशासकीय सीमाओं से बंधे नहीं होते हैं इसलिए प्रशासनिक इकाई आधारित प्रबंधन के स्थान पर बेसिन आधारित प्रबंधन रणनीति अपनायी जानी चाहिए। इस प्रकार की रणनीति में निश्चित रूप से क्षेत्रीय-अंतरराष्ट्रीय सहयोग की जरूरत होती है। जीबीएम बेसिन के मामले में नेपाल, भारत, बांग्लादेश और भूटान के बीच सहयोग की आवश्यकता है।

पारंपरिक इंजीनियरिंग हस्तक्षेपों के निर्माण की बजाय पानी को उचित निकास देने तथा भूमि में जल रिसाव पर ध्यान दिया जाना चाहिए। पुराने जलनिकास चैनल, आर्द्र भूमि, दलदली क्षेत्र और तालाब इस संबंध में हमारी मदद कर सकते हैं। आर्द्र भूमि और दलदली क्षेत्र प्राकृतिक रूप से बाढ़ के पानी का भूमि में रिसाव करते हैं और इस प्रकार कुल बहाव में कमी आती है। आधिकारिक स्तर पर मौजूदा आर्द्र भूमि को संरक्षित रखने की नीति है परंतु गैर आधिकारिक रूप में जमीन पर अवैध कब्जा करने वालों के कारण आर्द्र भूक्षेत्र धीरे धीरे गायब होते जा रहे हैं। जिन लोगों पर इसे संरक्षित रखने की जिम्मेदारी है उनकी नजरों के सामने ही ये काम हो रहे हैं। जमीन-भराव को रोकने के लिए न्यायालय के आदेश के बावजूद ऐसा होता रहा है।

‘विफल-सुरक्षित’ की बजाय सुरक्षित-विफल

यद्यपि जल प्लावन के प्रबंधन के लिए प्रारंभिक उपाय किये जाते हैं और सावधानियां बरती जाती हैं तथापि जीबीएम बेसिन जैसे घनी आबादी वाले बाढ़ मैदानों में बाढ़ से व्यापक नुकसान होता है। आवश्यकता इस बात की है कि एक सतत बाढ़ पट्टी विकास प्रणाली को विकसित किया जाये जो ‘विफल सुरक्षित’ होने की बजाय ‘सुरक्षित विफल’ हो (अज्ञात, 2003: 278) तथा समय और स्थान विशेष के मुताबिक बहुस्तरीय बाढ़ प्रबंधन प्रणाली हो। इसके अलावा अंतरराष्ट्रीय, राष्ट्रीय, प्रांतीय और जिला स्तर पर समितियां गठित की जानी चाहिए जो घटना के पूर्व, घटना के दौरान और घटना के पश्चात स्थितियों को ध्यान में रखते हुए कार्य करें। यहां ‘विफल’ शब्द का अर्थ है कि इस प्रबंधन प्रणाली का उपयोग करके बाढ़ों को रोका नहीं जा सकता। बाढ़ से होने वाले नुकसान को कम करने के सुरक्षित तरीकों को अपनाने में यह ‘विफल’ रहता है। बड़े नदी बेसिनों में वृहत स्तर पर बाढ़ के खतरों का विश्लेषण किया जाना चाहिए। जलवायु प्रवृत्ति पर उपलब्ध प्रारूपों व आंकड़ों तथा स्थितियों का वास्तविक समय के आधार पर गहन विश्लेषण किया जाना चाहिए। वर्षा तथा संभावित बाढ़ की भविष्यवाणी की जानी चाहिए तथा इन्हें मीडिया के माध्यम से प्रसारित किया जाना चाहिए। ये प्रणाली भारत और बांग्लादेश में विद्यमान है परंतु इसकी कार्यकुशलता पर सवाल उठाये जाते हैं। इसके अतिरिक्त एक अंतर-सीमा बेसिन रणनीति के तहत निरंतर संवाद किया जाना चाहिए तथा ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखते हुए एक साझा मंच का गठन किया जाना चाहिए।

आंकड़ों के साथ आधार निर्माण

जीबीएम बेसिन में बाढ़ के संदर्भ में प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली को विकसित करने में सबसे बड़ी बाधा रही है — सीमा-पार के प्रवाह-आंकड़ों की अनुपलब्धता। इन नदियों के प्रवाह संबंधी सीमा पार के वर्गीकृत आंकड़ों को शोधकर्ताओं के लिए सहज रूप से उपलब्ध कराया जाना चाहिए ताकि बेहतर प्रारूपों के निर्माण हेतु बेसिनों में बाढ़ उत्पत्ति के तंत्र को बेहतर तंत्र से समझा जा सके। इस पर बहस हो सकती है कि क्षेत्र में बाढ़ प्रारूप के उचित निर्माण तथा उचित प्रबंधन रणनीति बनाने के लिए कितने आंकड़ों की जरूरत है या कितने आंकड़े पर्याप्त हैं? उपलब्ध आंकड़ों में उपयोग किये जाने लायक आंकड़ों की पहचान करना एक बेहतर समाधान हो सकता है। प्रारंभ में इन्हीं आंकड़ों से शुरूआत की जानी चाहिए तथा भविष्य में प्रारूपों और रणनीति में संशोधन के लिए आंकड़ों का संग्रह किया जाना चाहिए। बेसिन आधारित दृष्टिकोण अपनाने के लिए विभिन्न देशों के उपलब्ध आंकड़ों के मानकीकरण की भी आवश्यकता है। जमीनी स्तर पर असुरक्षित समूहों को जोखिम प्रबंधन के लिए तैयार किया जाना चाहिए ताकि आपदा आने पर तत्काल जरूरी उपाय किये जा सकें तथा उनकी असुरक्षा को कम किया जा सके। राहत और बचाव कार्यों के दौरान तथा इसके बाद की स्थिति के लिए स्थानीय स्तर पर समूहों का गठन किया जाना चाहिए। इस प्रकार की गतिविधियो के दौरान एक मजबूत राजनीतिक और समूह पक्षपात की भावना देखी गयी है जो कभी कभी पूरे स्पष्ट तौर पर दिखाई देती है। इस तरह के दृष्टिकोण के विरूद्ध खड़े होने के लिए उच्च स्तरीय नीति निर्माताओं तथा सामान्य नागरिकों को सक्रिय होना चाहिए तथा उन्हें विषय की जानकारी होनी चाहिए। योजना प्रक्रिया में सभी हितधारकों को शामिल किये जाने की जरूरत है चूंकि ये मामला सीमा पार से संबंधित है इसलिए एक व्यवस्थित दृष्टिकोण अपनाये जाने की जरूरत है। अंतिम बात यह कि योजना प्रक्रिया जारी रहनी चाहिए। बाढ़ के कम होने के साथ प्रणाली को रोका नहीं जाना चाहिए और अगले मानसून तक इसे बंद नहीं किया जाना चाहिए। पूरे वर्ष के दौरान बाढ़ के प्रति आपसी संवाद और जागरूकता बनाये रखना चाहिए। अंत में ये कहा जा सकता है कि लक्ष्य बाढ़ के प्रतिरोध का नहीं बल्कि इस स्थिति के पैदा होने तथा इसके साथ तालमेल बनाये रखने से संबंधित होना चाहिए। अभी सौ वर्षों में वैश्विक जलवायु पैटर्नों में अनुमानित बदलावों से स्थिति और अधिक गंभीर होती चली जायेगी। क्षेत्र की अर्थव्यवस्था और पारितंत्र को बनाये रखने के लिए बाढ़ और सूखे जैसी वैश्विक जलविज्ञान परिघटनाओं के प्रबंधन के लिए एक अच्छी तरह से तैयार की गयी बेसिन योजना को शीघ्र अपनाया जाना चाहिए। समय ही बतायेगा कि हम इस मामले में कितना कुछ कर पाते हैं ?


संदर्भ

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Bandyopadhyay, J. (2009). Water, Ecosystem and Society: A Confluence of Disciplines . New Delhi: Sage Publications India Pvt Ltd.

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Basu, P., Mukhopadhyay, S. & Jayaraman T. (2001). Climate Change Adaptation in Flood Plain of West Bengal. Kolkata.

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