प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी की वुहान यात्रा और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ उनकी बैठक से पहले, चीन के विदेश मंत्री वेंग यी ने नेपाल के विदेश मंत्री प्रदीप कुमार ग्यावाली को हिमालय के जरिए बहुआयामी सम्पर्क वाले एक आर्थिक गलियारे के निर्माण के लिए भारत, नेपाल और चीन के बीच त्रिपक्षीय सहयोग की पेशकश की थी। उनके प्रस्ताव में हालांकि कुछ नयापन नहीं था और इसकी चर्चा माओवादी नेता पुष्प कमल दहल या प्रचंड द्वारा लगभग पांच साल पहले की जा चुकी थी। उस समय अनेक भारतीय और नेपाली चिंतकों ने इस बारे में विचार-विमर्श किया था। आज, बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के मद्देनजर इसके मायने बदल चुके हैं। नेपाल 2017 में बीआरआई में शामिल हो गया था। पूरी संभावना इसी बात की है कि नेपाल गलियारा बनाने के प्रस्ताव का समर्थन करेगा, लेकिन भारत इस बारे में कोई प्रतिबद्धता व्यक्त नहीं करेगा।
भारत ने बीआरआई पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं और उसकी अलग-थलग रहने की मंशा अब, खासतौर पर डोकलाम गतिरोध के बाद, बिल्कुल साफ हो चुकी है। चीन द्वारा पाकिस्तान में 50 बिलियन डॉलर राशि का आर्थिक गलियारा (सीपीईसी) बनाने की दिशा में आगे बढ़ने के मद्देनजर भारत का यह कदम एक तरह की प्रतिक्रिया भी था। भारत ने अपनी सम्प्रभुता के आधार पर इस गलियारे पर आपत्ति व्यक्त की थी, क्योंकि यह पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर के विवादित क्षेत्र से होकर गुजर रहा है। लगभग 30 देश बीआरआई परियोजना में शामिल हो चुके हैं।
वर्ष 2013 में, जब त्रिपक्षीय सहयोग का विचार सामने रखा गया, उस समय भी भारत ने इसमें ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई थी। नेपाल के लिए, इस दिशा में आगे बढ़ना फायदेमंद होगा, क्योंकि बुनियादी ढांचे के विकास से जुड़ी यह प्रस्तावित परियोजना चीन के साथ संबद्ध है। चाहे कुछ भी हो, ऐसा लगता है कि नेपाल के वर्तमान प्रधानमंत्री के.पी.शर्मा ओली का झुकाव चीन की ओर काफी ज्यादा है।
चीन, जिसकी वृद्धि की रफ्तार तीन दशक की तेज गति के बाद मंद पड़ रही है और जिसे अब कुछ क्षेत्रों में ज्यादा वेतन/मजदूरों की कमी का सामना करना पड़ रहा है उसके लिए नेपाल के साथ हाथ मिलाना आकर्षक होगा, क्योंकि इससे पर्यटन तथा नेपाल को और नेपाल के जरिए भारत को होने वाले निर्यात में वृद्धि होगी। चीन को तेज गति से हो रहे शहरीकरण के कारण अपनी आबादी का पेट भरने के लिए पर्याप्त मात्रा में अन्न उपजाने की समस्याओं का भी सामना करना पड़ रहा है। नेपाल भले ही छोटा देश है, लेकिन वह मुख्यत: कृषि पर आश्रित है और कुछ हिस्सों में तीन फसले उगाई जा सकती हैं। वह अपनी सीमा से सटे तिब्बत के लिए अनाज उगा सकता है और चीन को नेपाल के रास्ते बड़ी आसानी से और बेहद सस्ते दाम पर अनाज भेजा जा सकता है। साथ ही, नेपाल ने इस बात पर भी सहमति प्रकट की है कि वह अपनी धरती का इस्तेमाल चीन-विरोधी गतिविधियों के लिए नहीं होने देगा। चाहे कुछ भी हो, चीन क्षेत्र में अपने व्यापार का विस्तार करने के लिए आर्थिक गलियारे के जरिए ढुलाई पर आने वाली अपनी लागत में काफी हद तक कमी ला सकेगा।
चीन के लोग मोटी आमदनी के कारण अच्छी क्वालिटी के भोजन के बारे में सजग हो रहे हैं और वहां ऑर्गेनिक तथा बागवानी उत्पादों की मांग बढ़ रही है। इन उत्पादों की आपूर्ति नेपाल बड़ी आसानी से कर सकता है। उसका शहद और हर्बल उत्पाद दुनिया भर में मशहूर हैं। जरूरत पड़ने पर नेपाल का प्रवासी मजदूर चीन के खेतों में काम भी कर सकता है।
जल संसाधन की दृष्टि से नेपाल समृद्ध है, लेकिन उसके यहां बिजली की भारी कमी है। वहां बेरोजगारी की दर 4 प्रतिशत है, जो कि कम है, लेकिन आईएलओ के अनुसार, लगभग 70 प्रतिशत रोजगार असुरक्षित हैं, जिनमें परिवार में काम करने वाले श्रमिक या अपना काम-धंधा करने वाले लोग शामिल हैं। भारत ने नेपाल में आए विनाशकारी भूकम्प के बाद वहां बुनियादी ढांचा तैयार करने और पुनर्निर्माण की प्रक्रिया में उसकी काफी मदद की थी। बुनियादी ढांचे के विकास का अभाव आज भी उसके उद्योगों और लघु उद्योगों के लिए बड़ी समस्या है। बेहतर सड़कों और रेलवे से चीन और भारत के साथ नेपाल के व्यापार को बढ़ावा मिलेगा और इससे नेपाल का निर्यात बढ़ेगा जिससे रोजगार के साधनों का सृजन होगा।
भारत को डर है कि चीन, नेपाल के रास्ते अपनी उपभोक्ता वस्तुओं को उसके यहां पहुंचा देगा जिसकी वजह से चीन के साथ उसका भुगतान संतुलन और बिगड़ जाएगा। यह पहले से ही 51 बिलियन डॉलर है। भारत पहले से ही नेपाल सीमा के जरिए होने वाली चीनी वस्तुओं की तस्करी की समस्या से जूझ रहा है। लेकिन दूसरी ओर इस आर्थिक गलियारे के अस्तित्व में आने पर भारत, चीन को अपनी वस्तुओं और कच्चे माल का निर्यात बढ़ा भी सकता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत को न सिर्फ नेपाल, बल्कि भूटान, म्यांमार, थाईलैंड और आसियान के साथ व्यापार के लिए, हिमालयी क्षेत्र में बेहतर बुनियादी ढांचे की जरूरत है। जाहिर है कि ऊंचाई वाले दुर्गम इलाकों में सड़के तैयार करने के लिए चीन के पास पैसा और इंजीनियरिंग दोनों तरह की ताकत मौजूद है। और साथ ही क्षेत्र में बुनियादी ढांचे का विकास करने के लिए एशियन इंफ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक (शंघाई) के ऋण तक भी उसकी पहुंच है।
नेपाल पहले ही चीन के साथ रेलवे, उड्डयन, राजमार्ग, बिजली और दूरसंचार जैसे अन्य आर्थिक क्षेत्रों में भविष्य में सहयोग करने की घोषणा कर चुका है। ऐसी संभावना है कि ये सभी परियोजनाएं जल्द शुरु हो जाएंगी और नेपाल से सटी भारतीय सरहद पर चीनी कामगारों और अन्य कर्मियों की मौजूदगी होगी। ऐसे में, बेहतर होगा कि भारत में बुनियादी ढांचा तैयार करने की चीन की पेशकश को ठुकराने के बारे में एक बार फिर से सोचा जाए, क्योंकि इससे भारत के समूचे व्यापार और निवेश में मदद मिल सकती है। वह चीन से इस बारे में मोल-भाव भी कर सकता है कि वह भारतीय आईटी कामगारों की सेवाओं के लिए अपने दरवाजे खोले तथा भारतीय वस्तुओं को अपने बाजारों तक मुक्त पहुंच उपलब्ध कराए।
साथ ही, तीन देशों को जोड़ने वाले गलियारे से, पर्यटन और जनता के बीच आपसी सहयोग बढ़ने की संभावना है, जो भारत और चीन के बीच मौजूद विश्वास की कमी को दूर करने के लिहाज से महत्वपूर्ण है।
चीन आज विश्व शक्ति है और वह भारत का करीबी पड़ोसी है तथा दोनों देशों के बीच 3488 किलोमीटर लम्बी साझा सीमा है। अगर अभी नहीं, तो भविष्य में हिमालयी क्षेत्र को चीन के साथ जोड़ने वाली सड़कों का निर्माण किया जाएगा। बेहतर होगा कि इन सड़कों का निर्माण टालने की जगह उन्हें फौरन बनवाया जाए, क्योंकि इससे विश्व के निर्धनतम क्षेत्रों में से एक में तेज गति से विकास हो सकेगा। यह क्षेत्र नेपाल तथा भारत के उत्तरी और पूर्वोत्तर क्षेत्र में है।इससे इस क्षेत्र की गरीबी मिटाने में मदद मिलेगी। इससे विदेशी निवेश बढ़ेगा तथा नेपाल और भारत के सीमावर्ती क्षेत्रों, विशेषकर उत्तर प्रदेश और बिहार में एसईजेड की स्थापना की जा सकेगी। इससे रोजगार के साधनों का सृजन होगा तथा महिलाओं को रोजगार मिलेगा। इससे भारत-नेपाल को व्यापार और निवेश में मदद मिलेगी, जिसे पर्याप्त बुनियादी ढांचा न होने का खामियाजा उठाना पड़ा है।
चाहे कुछ भी, भारत और चीन के व्यापार में भविष्य में भी वृद्धि होती रहेगी, खासतौर पर तब, जब भारत विशाल क्षेत्रीय समग्र आर्थिक साझेदारी संधि (आरसीईपी)में शामिल हो जाएगा, जिसके भारत और चीन दोनों सदस्य हैं। इस संधि पर इसी साल हस्ताक्षर होने हैं। उसके बाद, भारत को शुल्क में कटौती के जरिए सभी सदस्यों, विशेष तौर पर चीन के लिए अपने बाजारों तक पहुंच बढ़ानी होगी। जहां तक भारत के इस डर का सवाल है कि चीन, नेपाल के जरिए उसके यहां बहुत ज्यादा तादाद में अपने उत्पाद पहुंचा देगा, तो इस मामले का हल डब्ल्यूटीओ के तहत मंजूर प्रतिकार शुल्क या रीटैल्यटॉरी ड्यूटी के जरिए निकाला जा सकता है। भारत को आजीविका संबंधी उन बड़े फायदों के बारे में सोचना चाहिए, जो तीन देशों का गलियारा उसके पिछड़े क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के लिए लाने वाला है।
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