Published on Mar 12, 2018 Updated 0 Hours ago

चीन वैश्विक स्तर पर अपनी जो जगह बनाना चाहता है — पाकिस्तान उसका एक हिस्सा है।

चीन और पाकिस्तान की सदाबहार दोस्ती क्यूँ हो रही है डावाँडोल

चीन-पाकिस्तान सीमा | छवि — फ़्लिकर/बनालिटीज़

करीब पांच साल पहले पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने चीन और पाकिस्तान की दोस्ती के कसीदे पढ़े थे.. चीन के ग्रेट हाल आफ द पीपुल् में राष्ट्रपति ली केछियांग को संबोधित करते हुए नवाज शरीफ ने कहा था कि चीन और पाकिस्तान की दोस्ती हिमालय से उंची है, ये रिश्ता सबसे गहरे समंदर से ज्यादा गहरा औऱ शहद से मीठा है। चीन हमारा सदाबहार दोस्त है।

इतिहासकार और सामरिक विशलेषक दोनों ही इस अजीबो-गरीब दोस्ती पर हैरान रहे हैं। दो ऐसे मुल्क जो सामान्यतौर पर दोस्त नहीं होने चाहिए थे, लेकिन देशों के सामरिक और भूराजनीतिक रिश्ते गणित के फॅर्मुले से कब चलते हैं, वो सियासत पर टिके होते हैं।

पाकिस्तान और चीन का साथ उतना ही पुराना है जितना पाकिस्तान का इतिहास। ताइपाई में चीनी गणतंत्र की सरकार से रिशता तोड़ कर पाकिस्तान के इसल्मिक गणतंत्र ने कम्युनिस्ट पार्टी को सबसे पहले मान्यता दी।

पाकिस्तान के मिलिट्री शासक यह्य्या खान अमेरिकी के राष्ट्रपति निक्सन और माओ की दोस्ती का जरिया बने। अमेरिका और चीन के बीच दोस्ती के दरवाजे खोलने में सहायक रहे।


पाकिस्तान और चीन का साथ उतना ही पुराना है जितना पाकिस्तान का इतिहास।


उसके बाद से दोनों देश, यानी चीन और पाकिस्तान ने एक दूसरे के साथ मतलब की यारी निभाई है। चीन ने पाकिस्तान के कश्मीर पर दावे का हमेशा समर्थन किया है। पाकिस्तानी आतंकी मसूद अजहर को आतंकवादी घोषित करने के यूएन के प्रस्ताव में अड़ंगा लगाया। बदले में पाकिस्तान ने तिब्बत और ताइवान पर चीन के दावे का समर्थन किया।

दूसरे इस्लामिक देशों के साथ चीन के रिश्ते पाकिस्तान से ही होकर निकले। इस्लामिक देशों के साथ चीन के रिश्ते में पाकिस्तान का रोल वही है जो सऊदी अरब का अमेरिका के लिए है, फर्क ये है कि पाकिस्तान में अरब जैसे तेल के भंडार नहीं है।

देशों के भूराजनीतिक रिश्ते पेचीदा होते हैं। कहते हैं दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है। चीन और भारत के रिश्ते 1962 के भारत चीन युद्ध के दौर से ही ठंडे रहे हैं। उसके बाद भी भारत और चीन लगातार सीमा विवाद में फंसे रहे।

भारत को काबू में रखने के लिए एक ज्यादा शक्तिशाली और आक्रामक चीन पाकिस्तान के हित में है। जैसे अमेरिका एक भारत में एक मजबूत लोकतंत्र को कम्यूनिस्ट चीन को रोकने के लिए इस्तमाल करता रहा है, ठीक उसी तरह पाकिस्तान मानता है कि चीन की शक्ति भारत के तथाकथित आक्रामक रवैय्ये को रोकने में कारगर होगी। खास कर के आज के दौर में पाकिस्तान चीन से अपनी ये दोस्ती अपनी सुरक्षा के लिए जरूरी मानता है।

यूं तो कहने को पाकिस्तान अमेरिका का सहयोगी है लेकिन 11 सितंबर को अमेरिका पर हुए हमले के बाद से पाकिस्तान और अमेरिका के रिशते बिगड़ते गए और अब सबसे खराब दौर में हैं।

मुशर्रफ के दौर में पाकिस्तान ने बुश प्रशासम को आतंक के खिलाफ अमेरिका की लड़ाई में मदद करने का धोखा दिया। लेकिन ओबामा के दौर में पाकिस्तान पर से ये भरोसा कम होता गया। इसकी बड़ी वजह रही ओसामा बिन लादेन का एबटाबाद के एक सेफ हाउस में पाया जाना। ये सेफ हाउस पाकिस्तान मिलिट्री अकादमी के पड़ोस में था और ओसामा एक तरह से पाकिस्तानी सेना के संरक्षण में। हुसैन हक्कानी ने अपनी किताब मैगनिफिसेंट डिल्यूजन में ये बात कही है कि पाकिस्तान और अमेरिका की दोस्ती एक झूठ पर आधारित है जो एक बुरे अंत की तरफ बढ़ रही है। साल 2018 की शुरुआत में राष्ट्रपति ट्रंप के ट्वीट ने अंतराष्ट्रीय रिश्तों में हलचल पैदा कर दी।

ट्रंप ने कहा पाकिस्तान आतंक का स्पॅंसर है, उसको दी जा रही आर्थिक मदद में कटौती की जाएगी। ये एलान पहले की रणनीति से अलग था।

अमेरिकी की अब तक की विदेश नीति ये रही है कि किसी भी कीमत पर पाकिस्तान के साथ कूटनीतिक संबंध बनाए रखना है, जबकि ट्रूमन भवन में अमेरिकी प्रशासन में से बहुतों को हमेशा से ये साफ पता था कि आतंक के खिलाफ जंग में पाकिस्तान ईमानदार नहीं है।

अमेरिका से पाकिस्कान की दूरी बढ़ती गई है और इसी दूरी की वजह से पाकिस्तान चीन में उस सूपरपावर का सहारा ढूंढने लगा जो अब तक अमेरिका से मिल रहा था। अमेरिकी डॅलर की जगह अब चीन के युआन ने ले ली। अंकल सैम से जो उम्मीद टूटी है वो चीन से जुड़ी है।


अमेरिकी की अब तक की विदेश नीति ये रही है कि किसी भी कीमत पर पाकिस्स्तान के साथ कूटनीतिक संबंध बनाए रखना है..


चीन-पाकिस्तान इकानॅमिक कॅरिडोर (CPEC) से पाकिस्तान अपनी अर्थव्यवस्था सुधारने की उम्मीद लगाए बैठा है। उम्मीद है कि चीन बिना शर्तों के पैसे उंडेलेगा और CPEC से चीन और पाकिस्तान दोनों का फायदा होगा। चीन के नजरिए से ये शी जिनपिंग के वन बेल्ट वन रोड का हिस्सा है जिससे चीन के लिए अरब महासागर तक का रास्ता खुल जाएगा, और साथ ही खनिजों से भरा प्रांत बलूचिस्तान और ग्वादर बंदगाह भी। और पाकितान के पक्ष में ये होगा कि चीन का निवेश उसकी अर्थव्सवस्था को मजबूती देगा, पुराने पड़ते ढांचे को नया करेगा, उर्जा से जुड़े छेत्रों को मजबूत करेगा।

लेकिन शायद पाकिस्तान इसके दूर्गामी नतीजे नहीं देख रहा है। वो ये भूल रहा है कि चीन की सौगात जो लाल लिफाफों में लिपटी आती है लेकिन उस लाल रंग के साथ कई शर्तें जुडी होती है। चीनी निवेश अमेरिकी एज जैसा नहीं है मिसाल के तौर पर श्रीलेंका का हंबनतोता बंदरगाह। श्रीलंका के पूर्व राष्ट्रपति की योजना हंबनतोता को आघुनिक बनाने की थी। चीन ने इसमें खुशी से निवेश किया, बंदरगाह के आस पास एक शहर विकसित किया, लेकिन पर्यटन और कारोबार की कमी की वजह से श्रीलंका के सर पर चीन का एक बड़ा कर्ज हो गया। परिणाम ये हुआ कि कर्ज चुकाने के लिए अब चीन ने 99 साल की लीज है जिसके तहत हंबनतोता बंदरगाह के 70 फीसदी हिस्से पर चीन का अधिकार है। ये संभव है कि पाकिस्तान भी कर्ज के ऐसे ही जाल में फंस जाए।

जिस तरह चीन अभी पाकिस्तान को आसान कर्ज दे रहा है, हो सकता है कि इसके परिणामस्वरूप पाकिस्तान चीन की कॅलनी बनने की तरफ अग्रसर हो। पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था की हालत बुरी है, बैंक का कर्ज चुकाने में वो असमर्थ है। इसे देखकर ऐसा लगता है कि चीन वो चीन का उपनिवेश बनता जा रहा है।

पाकिस्तान और अमेरिका, दोनों को जैसे ही ये समझ में आ गया कि उनके हित और प्राथमिकताएं अलग हैं, उनके सहयोग और संबंध की सच्चाई सामने आने लगी।

चीन और पाकिस्तान, दोनों स्वभाव से बहुत अलग देश हैं। पाकिस्तान की बुनियाद धर्म है, शायद अकेला देश जो इस्लाम के आधार पर बना। पाकिस्तान खुद को धर्म के आइने से देखता है, चीन एक राष्ट्र के तौर पर नास्तिक है चीन की पहचान एक ऐसे देश के तौर पर है जिसका कोई धर्म नहीं। और चीन की ये नास्तिकता उसके जिनजियांग प्रांत के लिए एक चुनौती है — जिनजियांग प्रांत उईघर मुसलमानों का घर है। चीन पर आरोप है कि वो यहां धार्मिक आजादी कुचलता आया है। जिसकी वजह से वीघर भाग कर पाकिस्तान में शरण ले रहे हैं। चीन को पाकिस्तान में रहने वाले वीघर मुसलमानों पर हमेशा संदेह रहा है।


पाकिस्तान की बुनियाद धर्म है, शायद अकेला देश जो इस्लाम के आधार पर बना। पाकिस्तान खुद को धर्म के आइने से देखता है, चीन एक राष्ट्र के तौर पर नास्तिक है चीन की पहचान एक ऐसे देश के तौर पर है जिसका कोई धर्म नहीं।


पूर्वी तुर्किस्तान की आजादी की मुहिम में उन्हें समर्थक के तौर पर देखता है — सवाल ये है कि पाकिस्तान के कट्टरपंथी जो धर्म के नाम पर भारत और पश्चिमी देशों के खिलाफ जिहाद छेड़ते रहते हैं — क्या वे वीघर मुसलमानों पर हो रहे जुल्म के खिलाफ खामोश रहेंगे। जब चीन इन मुसलमानों पर मार्किस्म थोपेगा तो क्या ये इस्लाम के ठेकेदार खामोश रहेंगे?

अमेरिका से रिश्ते तोड़ना और बीजिंग के गले लगना पाकिस्तान के लिए फायदंमंद नहीं रहेगा। हालांकि पाकिस्तान चीन के हथियारों सबसे बड़ा खरीदार है, फिर भी बीजिंग पाकिस्तान को ऐसे आधुनिक हथियार नहीं दे सकता जो अमेरिका दे सकता है और सालों देता रहा है। साथ ही दक्षिण एशिया के दूसरे नौजवानों की तरह पाकिस्तान के शहरी युवा पर भी पश्चिम का असर है। चीन साफ्ट पावर की जगह नहीं ले पा रहा क्योंकी भाषा की दीवार भी है।

मुझे एक बार एक फुलब्राइट स्कालर ने बताया कि अमेरिका में भारत के मुकाबले ज्यादा पाकिस्तानी फुलब्राइट स्कालर हैं इससे मुझे हैरानी हुई क्योंकी भारत की आबादी ज्यादा बड़ी है, यहां ज्यादा टैलेंट है लेकिन उन साहब ने मुझे बताया कि फुल्ब्राइट स्कॅलरशिप ऐसा प्रोग्राम है जिससे अमेरिका अपनी बेहतरीन शिक्षा विदेशी छात्रों को देता है इस शर्त पर कि वो पढ़ाई खत्म कर के देश वापस जाएंगे।

चूंकि पाकिस्तान अमेरिका की नजर में एक ऐसा इस्लामी मुल्क है जो कई मुसीबतों की जड़ है इसलिए पाकिस्तानी छात्रों को ज्यादा प्रोत्साहन दिया जाता है, इस उम्मीद में कि वो वापस जाकर प्रशासन के उंचे ओहदों पर बैठेंगे तो अमेरिका के साथ रिश्ते बेहतर होंगे। ऐसा लगता नहीं है कि लाहौर के एक मेधावी छात्र के लिए प्रिंसटन की जगह आज भी पेकिंग युनिवर्सिटी ले पाई है।


चूंकि पाकिस्तान अमेरिका की नजर में एक ऐसा इस्लामी मुल्क है जो कई मुसीबतों की जड़ है इसलिए पाकिस्तानी छात्रों को ज्यादा प्रोत्साहन दिया जाता है, इस उम्मीद में कि वो वापस जाकर प्रशासन के उंचे ओहदों पर बैठेंगे तो अमेरिका के साथ रिश्ते बेहतर होंगे।


हजार जख्मों से भारत को कमजोर करने की पाकिस्तानी नीति कश्मीर में अमेरिकी हथियारों की सप्लाई और आर्थिक मदद की वजह से ही जारी रही। और अमेरिका मदद इसलिए मिलती रही क्योंकी अफगानिस्तान में अमेरिका के हितों की रक्षा करने के लिए पाकिस्तान जरूरी था। लेकिन पाकिस्तान को अब ये लगता है कि उसको एक सुपरपावर की छत्रछाया चीन दे रहा है। चीन ने पाकिस्तान की सेना, अर्थव्यवस्था और राजनीति सभी में निवेश किया है लेकिन ये चीन के सामिरक मंहत्वकांक्षाओं का एक हिस्सा है। चीन का अपना अजेंडा है। वो कई और दिशाओं में अपने दबदबे की लड़ाई लड़ रहा है।

साउथ चाइना सी में अमेरिका और आसियान देशों के साथ टकराव है, उत्तर कोरिया और पश्चिमी देशों के बीच मध्यस्तता की कोशिश मे लगा है पड़ोसी ताइवान के साथ गुत्थी में उलझा हुआ है, जापान के साथ सेनकाकू दिआओयू आयलैंड को लेकर टकराव है।

वैश्विक स्तर पर चीन की महत्वकांक्षा फैल रही है। वन बेल्ट वन रोड जैसी पहल चीन के बढ़ते हुए आर्थिक अजेंडे का हिस्सा है। और सबसे बढ़कर, विश्व की आर्थिक स्थिरता बनाए रखने में एक लीडर को रोल में चीन अमेरिका की जगह लेने में जुटा है।

ट्रंप प्रशासन की नीति संरक्षणवादी है, जिसमें दूसरे देशों की जगह कम है — इसलिए इस्लामाबाद शायद अपनी सारी उम्मीदें चीन पर ही लगा रहा है, अंग्रेजी में एक कहावत है कि सारे अंडे एक ही टोकरी में डालना.. पाकिस्तान वही कर रहा है, चीन पर सारी उम्मीद लगाना अकलमंदी नहीं होगी।

क्योंकि चीन वैश्विक स्तर पर अपनी जो जगह बनाना चाहता है पाकिस्तान उसका एक हिस्सा है। CPEC के बाद हो सकता है पाकिस्तान खुद को चीन का नैतिक और आर्थिक कर्जदार मानने लगे, इस बात की तो श्रीलंका भी गवाही देगा कि हंबनतोता बंदरगाह के विकास में चीन की मदद लेना उसके लिए आसान नहीं रही है।

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