Author : Harsha Kakar

Published on Mar 07, 2018 Updated 0 Hours ago

क्या पाकिस्तान के बारे में हमारी रणनीति विफल हो रही है?

पाकिस्तान के बारे में हमारी रणनीति विफल क्यों हो रही है?

नए दौर की बख्तरबंद सेना टी 90 उर्फ भीष्म — भारतीय सेना

छवि: जसकीरत सिंह बावा/फ़्लिकर

नियंत्रण रेखा के हालात बहुत उफान पर हैं। भारत सरहद पर पाकिस्तान की गोलीबारी का मुंहतोड़ जवाब तो दे रहा है, लेकिन इसके परिणामस्वरूप उसे अनुचित मौतों का सामना करने के साथ ही साथ अपने जवानों की कीमती जानें भी गंवानी पड़ रही हैं। सैन्य ठिकानों पर हो रहे फिदायीन हमलों के कारण जानी नुकसान भी झेलना पड़ रहा है। पठानकोट, उसके बाद उड़ी और अभी हाल में संजुवान में सैन्य शिविर को निशाना बनाया गया। बरसों से पाकिस्तान पहल करता रहा है और घुसपैठ, संघर्षविराम उल्लंघन और फिदायीन हमलों की जगह तय करता आया है।

भारत जवाबी कार्रवाई करता रहा है, लेकिन पाकिस्तान की ओर से होने वाले हमलों में कमी नहीं आई है। जहां एक ओर, हम अपने जवानों के जरिए सर्जिकल स्ट्राइक्स और क्रॉस-बॉर्डर आपरेशन्स करते समय हमेशा मिशन की नाकामी और उसके परिणामस्वरूप होने वाले जानी नुकसान की आशंका को लेकर चिंतित रहते हैं, वहीं दूसरी ओर पाकिस्तान हमेशा बहुत कम ट्रेनिंग पाए आतंकवादियों का इस्तेमाल करता है, उनकी जिंदगी उसके लिए कोई मायने नहीं रखती। इतना ही नहीं, वह उनके जीवित बचने की रत्ती भर भी चिंता या परवाह नहीं करता। और तो और वह उनके शवों तक को स्वीकार करने से इंकार कर देता है और इस तरह ऐसी घटनाओं से पूरी तरह अपना पल्ला झाड़ लेता है। उसे जानी नुकसान का कोई पछतावा नहीं होता,जबकि भारत को होता है।


बरसों तकभारत अपने क्रॉस-बॉर्डर ऑपरेशन्स के बारे में चर्चा करने से भी बचता रहाजब तक कि मौजूदा सरकार ने इसकी जानकारी साझा करने का फैसला नहीं कर लिया।


पाकिस्तान ने यह हकीकत कभी नहीं छुपाई कि वह कश्मीर के अलगाववादी आंदोलन का समर्थन करता है, हुर्रियत का हिमायती है तथा हाफिज सईद और अन्य नामजद आतंकवादियों को खुलेआम धन इकट्ठा की छूट देता है। वह भले ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आतंकवादी गुटों की सहायता करने से मुकरता रहा हो, लेकिन सबूतों के बावजूद वह ऐसा करना जारी रखे हुए है। नियंत्रण रेखा के पार से घुसपैठ करने वाले आतंकवादी मंगल गृह के नहीं हो सकते — वे स्पष्ट तौर पर पाकिस्तानी हैं और तो और उनके पास पाकिस्तान में बना सामान भी होता है।

स्वतंत्र विचार रखने वाले मणिशंकर अय्यर और घाटी से ताल्लुक रखने वाले नेताओं सहित भारतीय राजनीतिज्ञ सरकार से पाकिस्तान के साथ बातचीत शुरु करने का लगातार अनुरोध करते रहे हैं। भारत की प्रत्येक सरकार ने सत्ता में आते ही बातचीत की प्रक्रिया शुरु करने की कोशिश की है, लेकिन हर बार उसे या तो सिलसिलेवार आतंकवादी हमलों या फिर करगिल जैसी घटना का सामना करना पड़ा। पाकिस्तान में हुकूमत को नियंत्रण में रखने वाली सेना ही तय करती है कि भारत के प्रति क्या विदेश नीति होगी और उसकी भारत के साथ बातचीत शुरु करने में कोई दिलचस्पी नहीं है। दोनों देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) भले ही एक-दूसरे के सम्पर्क में रहते हैं, लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।

संजुवान हमले के बाद, भारत की रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण ने अंतर्राष्ट्रीय सीमा और नियंत्रण रेखा के समीप सैन्य छावनियों में सुरक्षा का बुनियादी ढांचा मजबूत बनाने के लिए धनराशि जारी की। इस तरह, भारत ने अपने ठिकानों को आतंकवादी हमलों से बचाना शुरु किया, यह आक्रामक नहीं, बल्कि रक्षात्मक नजरिया है।


भारतीय सुरक्षा बलों को मजबूरन अपनी रणनीति बदलते हुए परम्परागत ऑपरेशन्स की जगह आतंकवाद विरोधी ऑपरेशन्स का रास्ता चुनना पड़ा है। इस तरहहमारी प्राथमिकताएं पाकिस्तान को धमकाने और उस पर प्रभुत्व जमाने की जगह अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करनापाकिस्तान में प्रशिक्षण पाए आतंकवादियों को भारत में दाखिल होने से रोकना और उनका सफाया करना हो चुकी हैं।


हमने पाकिस्तान को अपनी गतिविधियां रोकने के लिए मजबूर करने के संभावित विकल्पों के बारे में शायद ही कभी सोचा हो। हमारी जवाबी कार्रवाई पाकिस्तानी सेना तक सीमित रही है। दूसरी ओर, पाकिस्तान हमारे सैन्यकर्मियों के मासूम परिवारों को निशाना बनाता है, यह जानते हुए भी इससे सेना के जवानों के साथ ही साथ नियंत्रण रेखा से सटे गांवों को भी नुकसान पहुंचेगा। सेना यह बखूबी जानती है कि जितने ज्यादा आतंकवादियों को वह मारेगी, सीमा पार करने की कोशिशें उतनी ही ज्यादा होंगी — यह घाटी में हिंसा का कभी खत्म न होने वाला चक्र है, जिसका दायरा अब दक्षिण में जम्मू तक फैलता जा रहा है।

सेना जब राष्ट्रीय सुरक्षा सुनिश्चित करने और आतंकवाद का सफाया करने, घाटी को राहत पहुंचाने की दिशा में कदम बढ़ाती है, तो राष्ट्र उसके साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा होता है और उसका समर्थन करता है। जब भी जानी नुकसान होता है, तो वह आंसू बहाता है और अपनी जान कुर्बान करने वाले जांबाजों के परिजनों का दुख महसूस करता है। वहीं दूसरी ओर, पाकिस्तानी आतंकवादियों के परिजनों को शायद कभी पता नहीं चलेगा कि उनके बेटे या भाई भारत में मारे जा चुके हैं और गुमनाम दफन हो चुके हैं।

पाकिस्तान सस्ते में उपलब्ध आतंकवादियों का इस्तेमाल करता हैजो भारत को लहुलुहान करेंउसका ध्यान विकास के अन्य क्षेत्रों से भटकाकर उसके उन लड़ाकों का सफाया करने में लगाएजिनकी जिंदगी की उसे कतई परवाह नहीं है। सेनाजिसे पाकिस्तान पर दबाव बनाना चाहिएवह आतंकवादी हमलों से खुद को बचाने के लिए पूरी तरह रक्षात्मक रुख अपनाने के लिए मजबूर हो जाती है। जम्मू-कश्मीर में तैनात सैन्य प्रतिष्ठानजिन्हें पाकिस्तान के खिलाफ आक्रामक कार्रवाई करने के लिए तैनात किया जाना चाहिएवे आतंकवादियों का सफाया करने में व्यस्त हैं।

जहां एक ओर हम सर्जिकल स्ट्राइक्स को अपनी कामयाबी समझ रहे होते हैं, वहीं दूसरी ओर उनका कोई बड़ा प्रभाव नहीं पड़ता। पाकिस्तान उनसे इंकार करता है, उनसे पहुंचे नुकसान को छुपाता है और अपनी गतिविधियां पहले की तरह ही जारी रखता है। पाकिस्तान के रक्षा ढांचे पर वार करने और उसकी सेना को निशाना बनाने का फिर से कोई नतीजा नहीं निकलता। हम जवाबी कार्रवाई करते रहे हैं, बहुत से जानी नुकसान का सबब बनते रहे हैं, जिसकी उनके देश में किसी को भनक तक नहीं लगती, क्योंकि उनका मीडिया ऐसे नुकसान को बहुत कम करके दिखाता है। हम हर बार, हम अपने प्रशिक्षित सैनिकों को इसका जिम्मा सौंपते हैं, जबकि पाकिस्तान अपने ऐसे आतंकवादियों को मैदान में उतारता है, जिनका ब्रेनवॉश करके उन्हें मरने के लिए तैयार किया गया होता है, जिनकी मौत से उसको कभी कोई फर्क नहीं पड़ा।

राष्ट्र जवाब चाहता है। हर बार जब भी कोई घटना होती है, तो राजनीतिक नेतृत्व की ओर से शोक संदेश जारी होते हैं, पाकिस्तान के कार्यों की आलोचना की जाती है और उसे सबक सिखाने के वादे किये जाते हैं। अब यह सब खोखला महसूस होता है। सेना अपना काम करती है, लेकिन क्या केवल सीमा पर छोटे हमलों से काम चलेगा या सरकार को कुछ और भी करना होगा? क्या सरकार के पास पाकिस्तान से निपटने की कोई रणनीति है या वह अंधेरे में तीर चला रही है और कोई रास्ता ढूंढने का प्रयास कर रही है? क्या रक्षात्मक नजरिया अपनाना ही हल है या हमें पाकिस्तान को लहुलुहान करने का प्रयास करना चाहिए?

अगर हमारे तमाम कूटनीतिक दबावों के बावजूदपाकिस्तान अपने आक्रामक रवैये पर कायम हैतो इसके मायने हैं कि हमारी कूटनीति कारगर नहीं रही। अमेरिका के नजदीक जाने से भी कोई लाभ नहीं हुआक्योंकि उसको कश्मीर से ज्यादा अफगानिस्तान की चिंता है। चीन से फासले बढ़ने से पाकिस्तान को अपने ऑपरेशन्स का दायरा बढ़ाने का हौंसला मिला है। पाकिस्तान के परम्परागत समर्थकोंपश्चिम एशियाई देशों के साथ अपनी निकटता बढ़ाकर उसे कूटनीतिक स्तर पर अलग-थलग करने के प्रयासों से भी हम उस पर दबाव नहीं बढ़ा सके हैं। 

जहां एक ओर युद्ध आखिरी उपाय होना चाहिए, वहीं दूसरी ओर कुछ अन्य विकल्प भी हो सकते हैं। यह इस बात पर निर्भर करेगा कि सरकार पाकिस्तान पर दबाव बनाने के लिए क्या कदम उठाती है। अगर वह सैन्य तरीके से दबाव बनाना चाहती है, तो उसे आक्रामक रुख अपनाते हुए सुरक्षा बलों को नियंत्रण रेखा के निकट ले जाकर पूरे अग्रिम मोर्चे पर गोलीबारी तेज करनी होगी, पाकिस्तान को चेतावनी देनी होगी। सेना अपनी गतिविधियों का दायरा बढ़ाने को तैयार है, क्योंकि उसके पास संसाधन हैं। यदि वह कूटनीतिक तरीके से दबाव बनाना चाहती है तो उसे पाकिस्तान को मिलने वाले कर्ज और अनुदान रुकवा कर उस पर दबाव बढ़ाने के तरीके ढूंढने होंगे। यदि आर्थिक दबाव बनाना चाहती है, तो उसे पाकिस्तान को हथियारों की होड़ में धकेलने की जरूरत है, जिसका खर्च उठाने की स्थिति में वह नहीं है।

सरकार के थिंक टैंक्स और राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद का मानना है कि ऐसी रणनीतियां बनाने और अपनाने की जरूरत है, जो आखिरकार कारगर साबित हो सकें। कई दशक बीत चुके हैं और राष्ट्र अपने राजनीतिज्ञों से केवल आलोचना और वादे ही सुनता आया है। सेना ने सौंपे गए सभी कार्यों को जी-जान से पूरा किया है। अब वक्त आ गया है कि पाकिस्तान के मंसूबों पर पानी फेरने के लिए कोई मुकम्मल रणनीति तैयार की जाए या फिर देश उसके आक्रामक हथकंडों पर प्रतिक्रिया व्यक्त करना जारी रखे।

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