Published on Apr 06, 2018 Updated 0 Hours ago

पुतिन के रूस को खांचों में बांटना मुश्किल है। वो शक्तिशाली है तो कहीं बेहद कमज़ोर भी, तानाशाह है तो कहीं अराजक भी, परम्पराओं से बंधा है लेकिन साथ ही बिना मूल्यों के भी नज़र आता है।

पुतिन को क्यूँ पश्चिम से परहेज़ है

साल १९८९, पूरे जर्मनी में बदलाव की आंधी चल रही थी। पूर्वी यूरोप पर से जर्मन पकड़ कमज़ोर हो रही थी। पूर्वी यूरोप में कम्युनिज्म की जडें हिल गयी थीं और अमेरिका दुनिया में लोकतंत्र के मूल्यों को बहाल करने का नेतृत्व कर रहा था।

उसी साल जर्मनी के ड्रेसडेन मे सोवियत खुफिया एजेंसी KGB का एक नौजवान अफसर संवेदनशील दस्तावेज़ आग के हवाले कर रहा था। बाहर प्रदर्शनकारियों की भीड़ जमा थी, बर्लिन की दीवार ढह रही थी और सोवियत युग और वर्चस्व की आखिरी निशानी टूट रही थी.. वो नौजवान अफसर जिस का नाम व्लादिमीर पुतिन था, वो मानता था कि ये सब जो हो रहा था वो बड़ा गुनाह था। वो आग जो दस्तावेजों को जला रही थी उसकी लपटें पुतिन के अन्दर भी उठ रही थी, उन्ही लपटों ने आने वाले दो दशकों तक क्रेमलिन की राह पुतिन के लिए रोशन की। इस बड़ी त्रासदी में पुतिन ने सीधे तौर पर अमेरिका का हाथ देखा। क्रेमलिन की दीवार के ढहने को पुतिन ने २०वीं सदी की सबसे बड़ी भूराजनीतिक तबाही बताया।

रूस के सियासी इतिहास में ये दूसरी सबसे बड़ी तबाही थी। क्रेमलिन इन ऐतिहासिक तारीखों को याद ज़रूर करता है, ये अलग बात है की सार्वजनिक तौर पर इसे इसे स्वीकार नहीं किया जाता। २०१७ में बोल्शेविक विद्रोह के सौ साल पूरे हो गए, वो विद्रोह, जब समाजवादियों की एक छोटी संख्या ने सत्ता छीनकर मार्क्सवाद की राह चुनी थी।


बोल्शेविक क्रांतिकारी थे और पुतिन स्टेट के वफादार। इसलिए क्रांति या विद्रोह से उन्हें नफरत है। उनकी पूरी ट्रेनिंग सोवियत स्टेट के एक ऐसे नागरिक के तौर पे हुई है जो कम्युनिज्म के प्रतीक, हथौड़े और दराती के प्रति वफादार रहा है।


१९९१ में सोवियत यूनियन और उसके कई पूर्व उपनिवेश अपनी राष्ट्रीय पहचान बनाने की राह पर चलने लगे। २०१६ के दिसंबर में सोवियत यूनियन के टूटने के २५ साल हो गए। लेकिन रूस की सरकारी मीडिया ने इन दोनों अहम तारीखों को नज़रंदाज़ किया। क्यूंकि ये तारीखें पुतिन को उन घटनाओं की याद दिलाती हैं जो नहीं होनी चाहिए थी।

वो सोवियत यूनियन जो साम्यवाद की महाशक्ति था, वो जब बिखर गया, तब पूरी दुनिया को ये यकीन हो गया की कम्युनिज्म एक विचारधारा के तौर पे आर्थिक नज़रिए से मुमकिन नहीं है। दूसरी तरफ चीन, एक दूसरा कम्युनिस्ट देश कुछ ही साल पहले अपनी अर्थव्यवस्था को विश्व के लिए खोल चुका था और नए आर्थिक मॉडल अपना रहा था। भारत, जो सोवियत संघ के समाजवाद को अपने देश में लागू करने का प्रयोग कर रहा था, उसने भी आर्थिक दलदल में फंसने के बाद १९९१ मं आर्थिक सुधार शुरू कर दिए थे। ये साफ़ हो रहा था की सोवियत युग की राजनीति और अर्थव्यवस्था पुरानी पड़ रही थी। दुनिया भर में अमेरिका के लिए एक राय बन रही थी। ऐसा लग रहा था कि अमेरिका लोकतांत्रिक मूल्यों और खुली अर्थव्यवस्था के मॉडल को अपना कर सही राह पर चल रहा था।

पुतिन ने रूस की कहानी को एक नए परिदृश्य में दोबारा लिखने की कोशिश की। २००१ में गोल्डमन सैक्स ने एक नए संगठन को परिभाषित किया BRICS जिसमें R रूस के लिए था। ये गुट विकास के लिए बनाया गया था और सोवियत दौर के मार्क्सवाद और लेनिन से प्रेरित इकॉनमी से बिलकुल अलग था। भूराजनीतिक फ्रंट पर रूस चेचन्या के इस्लामिक अलगावादियों से जूझ रहा था। फिर हुआ ११ सितम्बर का हमला, अमेरिका पर वो आतंकी हमला जिसने दुनिया बदल दी। राष्ट्रपति बुश ने आतंक के खिलाफ जंग छेड़ी और पुतिन उन लीडरों में थे जिन्हों ने बुश की इस लड़ाई को सबसे पहले समर्थन दिया। पुतिन के लिए ये रूस और अमेरिका के रिश्तों को फिर से शुरू करने का एक मौक़ा था। पहली बार इतिहास में दोनों परमाणु शक्ति किसी बात पर एक दुसरे का समर्थन कर रहे थे, दोनों आतंक के खिलाफ लड़ाई में एक दुसरे के सहयोगी थे। पुतिन ने अमेरिका को इराक पर हमला करने के खिलाफ चेताया था लेकिन बुश और उनके सलाहकार, उनके सैनिक रणनीतिकार ने इसे नज़रंदाज़ किया क्यूंकि वो इरादा कर चुके थे की इराक पर हमला होगा। बुश ने इन आपत्तियों पर ध्यान नहीं दिया और न ही संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् की बात मानी। मास्को को ये ख़ास तौर पर अपमानजनक लगा क्यूंकि वो सुरक्षा परिषद् का स्थाई सदस्य था और उसके पास वीटो पॉवर भी थी। रूस के सुझाव को नज़रंदाज़ किया गया। इराक अमेरिका का एजेंडा था और इस अजेंडे में मास्को की कोई जगह नहीं थी।

पुतिन के लिए ये शीत युद्ध के दौरान के अमेरिकी तिरस्कार की अपमानजनक याद थी। त्रासदी ये थी कि पुतिन और मास्को को ये लगता था की २००० के शुरूआती सालों के मुकाबले अमेरिका का शीत युद्ध के दौरान रूस के साथ ज्यादा सम्मानजनक रवैय्या था। इसकी वजह हालाँकि कुछ और थी। तब ये डर था कि रूस एक परमाणु शक्ति है। लेकिन बर्फ पिघलने के बाद अमेरिका ने ये मान लिया कि शीत युद्ध में उसकी जीत हुई है और एक कम्युनिस्ट शासन की हार। साथ ही वो कम्युनिज्म के फैलाव को रोक पाया है।


पुतिन और रूस के अन्दर अमेरिका के अनकहे पटकथा के खिलाफ नाराज़गी फूट रही थी। वो अमेरिकी कथा के आलोचक थे। रूस के नज़रिए से शीत युद्ध कभी भी ऐसा सीधा टकराव नहीं था जिसमें हार या जीत होती।


शीत युद्ध में कभी कोई औपचारिक सरेंडर या फिर शान्ति संधि नहीं हुई। पुतिन को हमेशा ऐसा लगा है की रूस को शीत युद्ध ख़त्म करने का श्रेय नहीं दिया गया। जबकि रूस ने पूर्वी यूरोप के देशों को कम्युनिज्म छोड़ कर अपने रास्ते जाने की आजादी दी। इसलिए वाशिंगटन शीत युद्ध में जब खुद को विजयी दिखाने की कोशिश करता है तो क्रेमलिन तिलमिला कर रह जाता है।

पुतिन ने अमेरिका के खड़े किये उदारवादी नए विश्व की संरचना में खुद को फिट करने कि कोशिश की लेकिन लगा की यहाँ बराबरी की जगह ही नहीं है। पहले विश्व युद्ध के बाद दुसरे विश्व युद्ध कि आशंका कई देशों को थी क्यूंकि वर्साई की संधि में जर्मनी का सरेआम अपमान हुआ था दुसरे विश्व युद्ध में अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी जर्मनी और रूस के नेतृत्व में पूर्वी जर्मनी ने आखिरकार जर्मनी की समस्या का हल किया हालंकि इसमें कुछ परेशानियाँ थीं। पुतिन को ये लगता रहा है की रूस को एक बड़ी शक्ति के तौर पर पहचान नहीं मिली और न ही उसे वो जगह मिली।

क्रेमलिन के नज़रिए से अमरीका के खड़े किये उदारवादी सिस्टम में रूस को जोड़ने की बजाय, अमेरिका ने ९० के दशक में रूस के लिए आर्थिक मुश्किलें कड़ी की। अमेरिकी संस्थाओं ने ऐसी नीतियां बनायी जो रूस के हित में नहीं थीं। इसलिए ९० के दशक के बाद साल २००० से रूस से ये साफ़ सन्देश आने लगे की ऐसा नहीं चलेगा।

पुतिन के लिए म्युनिक में २००७ में हुआ सुरक्षा सम्मलेन ऐतिहासिक था। पुतिन ने ऐलान किया की दो दशक पहले दुनिया आर्थिक और सैधांतिक तौर पर दो महाशक्तियों में बंटी हुई थी और उसकी सुरक्षा की गारंटी भी इन दो सुपर पावरों की शक्ति थी। लेकिन इस बाइपोलर व्यवस्था की जगह अब एक महाशक्ति ने ले ली हैं। एकध्रुवीय विश्व व्यवस्था पर अमेरिका का क़ब्ज़ा है। अब ये एक आका, एक संप्रभुता की दुनिया हो गयी है।


रूस इस दुनिया को एक बहुध्रुवीय दुनिया के तौर पर देखना चाहता है, जहाँ रूस खुद, भारत और चीन को सुपरपावर के तौर पर देखना चाहता है।


पुतिन के म्युनिक सिद्धांत में एक दबा हुआ स्वर था, वो ये की अमेरिका ऊपर से लोकतंत्र की पराकाष्ठा बनता है, अच्छे प्रशासन की बात करता है पर दरअसल वो अमेरिका ही है जो अपने शीत युद्ध की नीतियों के तहत दुसरे देशों के लीडरों को हटाने औत तख़्त पर बिठाने में लगा हुआ है।

इसी वजह से पुतिन ने सीरिया के बशर अल अस्साद का साथ दिया। पुतिन को लग रहा था की असद की लड़ाई एक साझा दुश्मन से है। कट्टर जिहादी। ख़ास कर के इराक की उलझन के बाद, पुतिन का ये मत रहा है की अमेरिकी दखल की नीति ने दुसरे मुल्कों में हालात बद से बदतर बनाये हैं। शासकों को हटा कर नए शासकों को बिठाने की अमेरिकी नीति नाकाम रही है।


सीरिया का साथ दे कर रूस हो सकता है एक ऐसे देश का साथ दे रहा हो जिसे अमेरिका POL POT की तरह दगाबाज़ मानता है, लेकिन पुतिन का सन्देश साफ़ है, अगर कोई दूसरा बेहतर विकल्प तैयार नहीं तो फिर मौजूदा शासक को हटाने का कोई मतलब नहीं।


क्रीमिया का रूस के साथ विलय करने के बाद पुतिन की रेटिंग उनके देश में और बढ़ गयी। ज्यादा लोगों ने उनके क़दम का साथ दिया क्यूंकि ये रूस के महाशक्ति होने की तरफ लौटने के क़दम की तरह देखा गया। अमेरिका और NATO की सेना ने इसे क्रीमिया पर रूस का क़ब्ज़ा माना लेकिन पुतिन का जवाब था कि ये क्रीमिया को रूस में वापस शामिल करने की प्रक्रिया है। ये राजनीतिक तौर पर पुतिन के लिए एक चुनौती भरा क़दम था, एक खतरा था जो पियीं उठा रहे थे लेकिन रूस की पहचान को मज़बूत करने के लिए अहम था। रूस की ज़्यादातर जनता क्रीमिया का रूस से अलग होने को एक नाइंसाफी मानते हैं। १९५४ में निकिता ख्रुश्चेव ने सोवियत संघ के अंदरूनी बंटवारे के दौरान क्रीमिया को रूस से लग कर दिया था।

पुतिन क्रीमिया के जनमतसंग्रह को अपनी जीत की तौर पर पेश करते हैं। वो कहते हैं की क्रीमिया की बड़ी आबादी रूसी है जो न सिर्फ रूसी भाषा बोलती है बल्कि सोवियत दौर में अंदरूनी सीमाओं को फिर से खींचने के दौरान वो क्रीमिया में रह गए थे। वो क्रीमिया के रूस में वापस शामिल होने का श्री रूई जनता को देते हैं.. लेकिन ये सिर्फ क्रीमिया की वापसी की बात नहीं थी, पुतिन की तरफ से शतरंज की एक ऐसी चाल थी जिसके ज़रिये जिसे वो अपना मानते थे उसे वापस हासिल कर रहे थे, इस दौरान रास्ते में जो मोहरे आये उन पर छलांग लगते हुए अपनी चीज़ हासिल की। प्रतिबंधों और पश्चिम की आलोचना की फ़िक्र किये बिना।

पुतिन ने हमेशा अमेरिका पर शक किया है। दुनिया भर में लोकतंत्र की बहाली को भी संदेह की निगाह से देखा है। पुतिन रूस के दो बड़े ऐतिहासिक घटनाक्रम को भूले नहीं। १९१७ की बोल्शेविक क्रांति और १९९१ में सोवियत संघ का टूटना। पुतिन को ये डर है की अगर फिर से रूस किसी ऐसे दौर से गुज़रता है तो अमेरिका या पश्चिम के निशाने पर वो खुद होंगे।


पुतिन रूस को एक बड़े रोल में देख रहे हैं। IMF और संयुक्त राष्ट्र उसे जितना आंकता है उस से कहीं ज्यादा बड़ा। वो सोवियत संघ के इस देश को एशिया पैसिफिक में यूरोप का विस्तार मानते हैं।


रूस के मज़बूत नेता पुतिन २०१६ के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में रूस का हाथ होने के आरोप से बिलकुल भी परेशान नहीं। रूस और क्रेमलिन को समझने वाले जानकारों का मानना है कि ऐसे आरोपों से पुतिन बेपरवाह हैं। पूर्व KGB अफसर के तौर पर पुतिन ये खूब जानते हैं कि पेंटागन और NSA के मिलिट्री प्रोग्राम के अंतर्गत अमेरिका ने सब से पहले साइबर मिलिट्री कमांड बनाया। महत्वपूर्ण ये है कि रूस ने अमेरिकी चुनाव में अपनी छाप को छुपाया नहीं, ये दिखाता है कि अमेरिका की तरफ पुतिन का रवैय्या कैसे बदला है।

पुतिन के रूस को खांचों में बांटना मुश्किल है। वो शक्तिशाली है तो कहीं बेहद कमज़ोर भी, तानाशाह है तो कहीं अराजक भी, परम्पराओं से बंधा है लेकिन साथ ही बिना मूल्यों के भी नज़र आता है। पुतिन फिर से बिसात बिछा रहे हैं, अमेरिका की नाकामियों को देखते हुए इस उम्मीद के साथ कि दुनिया एक अलग और वैकल्पिक आवाज़ को सुनेगी, जो शायद रूस की होगी।

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