Author : Avijit Goel

Published on Apr 01, 2019 Updated 0 Hours ago

चीन की बड़ी तेल कंपनियां ईरान से प्रतिदिन तकरीबन 3,60,000 बैरल कच्चे तेल का आयात करती हैं। अमेरिका का ईरान के साथ समझौते से पीछे हटने और आर्थिक प्रतिबंध लगाने से पहले ये आयात दोगुना था।

आखिर क्यों ईरान का भविष्य अंधकारमय है

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के ईरान के साथ 2015 के नाभिकीय समझौते (Joint Comprehensive Plan of Action) से पीछे हटने के एकतरफा फैसले से यूरोपीय संघ सैद्धांतिक रूप से असहमत है। इस समझौते के तहत ईरान को अपने नाभिकीय और बैलेस्टिक मिसाइल कार्यक्रम को रद करना था, बदले में तेहरान के ऊपर लगाए गए आर्थिक प्रतिबंध हटाए जाने थे। इस समझौते पर अमेरिका के पीछे हटने से पहले की समयावधि (2015 से 2018 तक) में ईरान के वैश्विक बिरादरी के साथ एकीककरण की हल्की सी झलक नजर आई थी। इस समझौते की वजह से ही रेनो, एअर बस और टोटल जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियां ईरान में दाखिल हुई थीं। पेट्रोलियम के बेतहाशा जरूरतमंद चीन और भारत जैसे एशियाई दिग्गजों ने इस दौरान चीन से बड़ी मात्रा में पेट्रोलियम आयात किया था।

ट्रंप ने ईरान पर समझौते की शर्तों का पूरी तरह पालन न करने का इल्जाम लगाते हुए इस समझौते से पीछे हटने की घोषणा की, तो यूरोपीय संघ के देशों ने अमेरिका के इस कदम के खिलाफ बयानबाजी तेज कर दी। ऐसे में जबकि अमेरिका और ईरान के बीच किसी सुलह-सफाई की संभावनाएं बहुत क्षीण हैं, यूरोपीय संघ की जिन कंपनियों ने ईरान में अपने कारोबार को लेकर भारी-भरकम निवेश किया था, अपने घाटे को पाटने के लिए वहां से अपना कारोबार समेटना शुरू कर चुकी हैं। इस बीच, यूरोपीय संघ इस समझौते को बचाए रखने के रास्ते खोजने पर मजबूर है। उसे लगता है कि अमेरिकी पैंतरेबाजी को नियंत्रण में रखने के लिए और अन्य देशों पर लगाए जाने वाली पाबंदियों का असर कम करने के लिए ऐसा करना जरूरी है।

ईरान के साथ अपने अच्छे संबंधों का कूटनीतिक संदेश देने के लिए और अपनी कंपनियों के ईरान में निवेश की रक्षा के प्रयासों के तहत फरवरी 2019 के पहले हफ्ते में ईरान के साथ नाभिकीय संधि पर दस्तखत करने वाले आठ में से तीन यूरोपीय देशों ने औपचारिक रूप से इंस्टेक्स (इंस्ट्रूमेंट फॉर सपोर्टिंग ट्रेड एक्सचेंज) की स्थापना की है। फ्रांस, जर्मनी और ब्रिटेन ने कारोबार को लेकर ईरान पर लगाए गए अमेरिकी प्रतिबंधों को बायपास करने के लिए यह विशेष किस्म की व्यवस्था की है।

इंस्टेक्स को लेकर इतनी उत्सुकता के बीच यह जान लेना जरूरी है कि तेल एवं गैस इसमें शामिल नहीं है। यही ईरान की अर्थव्यवस्था का आधार है। किसी नाटकीय घटनाक्रम या फिर पेट्रोलियम उत्पादों को इंस्टेक्स में शामिल किए बगैर यह तीनों यूरोपीय देशों की चीन के साथ कारोबार में अपना मुंह उजला रखने भर की छोटी सी कवायद भर है।

इंस्टेक्स की स्थापना यूरोप और ईरान के बीच बगैर डॉलर के कारोबार को संभव बनाने के लिए की गई है। साथ ही इसके जरिये खाद्यान्न और दवाइयों (अमेरिका द्वारा बगैर प्रतिबंध वाली मानवीय सहायता की श्रेणी) की जरूरत को भी पूरा किया जा सकेगा। इंस्टेक्स को लेकर इतनी उत्सुकता के बीच यह जान लेना जरूरी है कि तेल एवं गैस इस व्यवस्था के दायरे में शामिल नहीं है। तेल और गैस ही ईरान की अर्थव्यवस्था का आधार हैं। किसी नाटकीय घटनाक्रम या फिर पेट्रोलियम उत्पादों को इंस्टेक्स में शामिल किए बगैर यह कवायद असल में तीनों यूरोपीय देशों की चीन के साथ कारोबार में अपना मुंह उजला रखने भर की छोटी सी कोशिश भर है।

जहां एक ओर ईरान यूरोपीय संघ पर समझौते का सम्मान करने का दबाव बना रहा है, यह मुश्किल है कि यूरोपीय संघ की कंपनियां (जिनकी अमेरिकी बाजारों में बड़ी पैठ है) खुलकर अमेरिका के खिलाफ कोई कदम उठाएंगी। अमेरिकी आर्थिक तंत्र में अपनी पहुंच को ये खतरे में क्यूं डालेंगी।

इस सबके इतर हालिया दिनों में चीन और ईरान के बीच कुछ रोचक चल रहा है। ईरान के विदेश मंत्री जवाद जरिफ हाल में ही चीन के विदेश मंत्री वांग यी से मिले। वांग ने ईरान के चीन के साथ रणनीतिक विश्वास को गहरा करने के प्रयासों की सराहना की। ईरानी प्रतिनिधिमंडल में ईरानी संसद के स्पीकर अली लारिजानी, ईरानी केंद्रीय बैंक के अधिकारी और वहां के वित्त एवं पेट्रोलियम मंत्री भी शामिल थे।

इस प्रतिनिधिमंडल के स्वरूप से आप अंदाजा लगा लगा सकते हैं कि ईरान और चीन के व्यापार को प्रतिबंधों के असर से बचाए रखने का कोई विकल्प इस सारी कवायद का रोचक नतीजा हो सकता है। अमेरिका के ईरान के साथ समझौते से अलग होने से पहले चीन ईरानी कच्चे तेल का दुनिया का सबसे बड़ा आयातकर्ता था। ईरान के आर्थिक भागीदार के रूप में अपनी भूमिका को पुख्ता करने के लिए यह चीन की नीति थी। बदले में ईरान चीन में बने सामान का भारी मात्रा में आयात करता था। दोनों के बीच आयात और निर्यात का जो संतुलन है, उसमें एक-दूसरे की सामग्रियों के लेन-देन के जरिये भुगतान से अमेरिकी प्रतिबंधों को बायपास करने की एक संभावना बनती है। दोनों देशों के बीच कुनलुन बैंक के जरिये पहले से ही भुगतान का एक चैनल है। हालांकि इस चैनल के जरिये जितना लेन-देन हो सकता है, वह ईरान की बड़े पैमाने पर तेल, सामग्री और अन्य वित्तीय कारोबार की आकांक्षा को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं होगा।

इस प्रतिनिधि मंडल के स्वरूप से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि ईरान और चीन के व्यापार को प्रतिबंधों के असर से बचाए रखने के लिए कोई विकल्प इस सारी कवायद का रोचक नतीजा हो सकता ह

चीन की बड़ी तेल कंपनियां (सिनोपेक और सीएनपीसी) ईरान से फिलहाल प्रतिदिन 3,60,000 बैरल कच्चे तेल का आयात कर रही हैं। अमेरिका के ईरान के साथ नाभिकीय समझौते से अलग होने से पहले यह आयात दोगुना था।

ईरान के लिए ये एक चिंताजनक पहलू है। यह दर्शाता है कि चीन भी अमेरिकी प्रतिबंधों का पालन करने का इच्छुक है। चीन की बड़ी कंपनियां ऐसा कोई काम नहीं करेंगी, जिससे अमेरिका के माथे पर शिकन आए। (हुवाई का अमेरिका के साथ ताजा अनुभव इसका महत्वपूर्ण कारण है)। शायद चीन के छोटे बैंक और कंपनियां, जो कि आराम से अमेरिकी प्रतिबंधों से छिप सकते हैं, ईरान की तरफ कदम बढ़ाएं, लेकिन इसमें भी कारोबार के आकार की सीमा हमेशा बनी रहेगी।

यद्यपि चीन और यूरोपीय संघ ईरान के महत्वपूर्ण राजनीतिक एवं कूटनीतिक सहयोगी हैं, लेकिन इनके लिए भी अमेरिका के दबाव अभियान की अवहेलना करना मुश्किल होगा। ईरान के वैश्विक आर्थिक समन्वय की वकालत होती रहेगी, इंस्टेक्स जैसी छोटी पहल और भी हो सकती हैं या फिर चीन से कुछ मदद मिल सकती है, लेकिन ईरान के आर्थिक समन्वय के लिए कुछ ठोस हो, यह फिलहाल दूर की कौड़ी है।

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