हम देखेंगे,
वो दिन कि जिसका वादा है, जो लौह-ए-अज़ल में लिखा है..
फैज़ की ये नज़्म, जो तराना के नाम से मशहूर हुई आजकल फिर चर्चा में है. अच्छा है कि फैज़ जैसे शायर की चर्चा हो रही है लेकिन अफ़सोस कि नज़्म के मज़हब की तलाश की जा रही है. फैज़ ने अपनी ये नज़्म 1979 में लिखी, वो खुद 84 में गुज़र गए, इक़बाल बानो ने उनके गुज़र जाने के एक साल बाद ज़िया उल हक़ के फरमान को नज़रंदाज़ करते हुए लाहौर में ५० हज़ार की भीड़ के सामने ये नज़्म गायी. जनरल ज़िया ने इस नज़्म के गाने पर रोक लगाई थी. कुछ सालों बाद इस नज़्म को गाने पर प्रतिबंध लगाने वाले ज़िया उल हक़ गुज़र गए, इक़बाल बानो को गुज़रे भी अरसा बीता लेकिन ये नज़्म आज भी जिंदा है और धड़क रही है, हर उस नौजवान दिल में जो अपनी अपनी समझ के मुताबिक़ किसी न किसी व्यवस्था को चुनौती देने का ज़ज़्बा रखता है. ये है कविता की ताक़त, यही ताक़त है जो शासकों को डराती रही है.
आईआईटी कानपुर जो अब तक सिर्फ़ एक बेहतरीन शिक्षा संस्थान के रूप में जाना जाता रहा, जहाँ दाख़िला पाना हर इंजीनियरिंग स्टूडेंट का सपना होता है, वो अब इस बात के लिए ख़बरों में आया कि वहां एक शिकायत पर संस्था ने एक कमेटी बना दी जो इस बात की जांच कर रही है कि क्या फैज़ का ये तराना हिंदू विरोधी है.
जब आईआईटी कानपुर के छात्र जामिया के छात्रों पर पुलिस की बरसती लाठियों के ख़िलाफ बाहर आये तो उनके साथ भी थी फैज़ की ये नज़्म. नतीजा ये हुआ कि वो आईआईटी कानपुर जो अब तक सिर्फ़ एक बेहतरीन शिक्षा संस्थान के रूप में जाना जाता रहा, जहाँ दाख़िला पाना हर इंजीनियरिंग स्टूडेंट का सपना होता है, वो अब इस बात के लिए ख़बरों में आया कि वहां एक शिकायत पर संस्था ने एक कमेटी बना दी जो इस बात की जांच कर रही है कि क्या फैज़ का ये तराना हिंदू विरोधी है. हिंदुस्तान में आज जिन लोगों को फैज़ की इस नज़्म के हिन्दू विरोधी होने की वजह से परेशानी है, वो उस दौर में कट्टरपंथी इस्लाम परस्त तानाशाह ज़िया उल हक़ को डराती रही. तभी ज़िया उल हक़ ने इस नज़्म के गाने पर पाबंदी लगायी. हुकूमतें भगवान से नहीं डरतीं, शब्दों की ताक़त से घबराती हैं.
इसके अशआर से इस नज़्म के संदर्भ को समझ सकते हैं, कि ये ज़िया उल हक़ के सैनिक शासन के ख़िलाफ लिखी गई. फैज़ के गुज़र जाने के एक साल बाद इक़बाल बानो ने इसे लाहौर में 50 हज़ार लोगों के हुजूम के सामने गाया. ये जिया के ख़िलाफ विरोध था. इसके बाद तो ये हुआ कि इक़बाल बनो की आवाज़ में गायी ये कविता इस क़दर मशहूर हुई कि क्या हिंदुस्तान, क्या पाकिस्तान, ये सत्ता को चुनौती देने का प्रतीक बन गई. ये एशिया के अलग-अलग मुल्कों में हुकूमतों के ख़िलाफ आंदोलन का नग़मा हो गया.
जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गरां,
रुई की तरह उड़ जायेंगे..
यानी जब ज़ुल्म के बड़े बड़े पहाड़ बिखर जायेंगे..
जब अर्ज-ए-ख़ुदा के काबे से ख़ुदा..
सब बुत उठवाए जायेंगे.
हम अहल-ए-सफ़ा, मरदूद-ए-हरम..
मसनद पे बिठाये जायेंगे..
जब ताज उछाले जायेंगे, तख़्त गिराए जायेंगे
जब ख़ुदा की ज़मीन पर बुत बन कर बैठे फौजियों को उससे बेदखल किया जाएगा, जब शोषित और वंचित लोगों का शासन होगा..
ये साफ़ करता है कि ये अवाम का गीत है, लेकिन आज शायरी में इस्तेमाल हुए प्रतीकों को धर्म से जोड़ कर उसे हिंदू मुस्लिम रंग दिया जा रहा है..
आगे की पंक्तियाँ जिस पर सबसे ज्यादा आपत्ति है, वो कुछ इस तरह से है..
बस नाम रहेगा अल्लाह़ का..
जो ग़ायब भी है हाज़िर भी..
इन पंक्तियों को भी उस दौर के संदर्भ में देखा जाना चाहिए. ये किसी एक मज़हब के अल्लाह़ की बात नहीं, बल्कि उस रहानी एह़सास की बात है जिसमें आजादी के ख्य़ाल को एक आध्यात्मिक रंगत दी जाती है. आज़ादी उस तानाशाह से जो खुद को उस मुल्क का ख़ुदा समझ बैठा था, यहाँ संदर्भ ज़िया उल हक़ के सैनिक शासन, उनके लगाए गए प्रतिबंधों को चुनौती देना है. इसे इसका सतही मतलब निकाल कर हिंदू विरोधी समझना सही नहीं होगा क्यूंकि इसी के आगे वो पंक्तियाँ भी है जो कविता के इस्लाम विरोधी होने के इलज़ाम की वजह बनी.
उठेगा अन-अल-हक का नारा, जो मैं भी हूँ और तुम भी हो,
अन-अल-हक जिससे आप अहम् ब्रह्मास्मि से भी समझ सकते हैं. जिसे इस्लामी प्रथा में कुफ़्र माना गया, जिसे अन-अल-हक कहने पर मंसूर को सूली पर चढ़ा दिया गया.
तो अल्लाह, अन-अल-हक. और ये सारी तमाम बातें एक ही नज़्म में जो शायर करता है, वो कविता अगर हिंदू विरोधी है तो इस्लाम विरोधी भी होनी चाहिए, ख़ासतौर पर वहाबी कट्टर इस्लाम को मानने वालों के लिए. शायद थी भी, तभी इसके गाने पर रोक लगी.
बहरहाल, मामला फैज़ का नहीं, एक नज़्म का नहीं, एक हुक़ूमत का भी नहीं, एक लोकतांत्रिक समाज में कविता की समझ का है. और सबसे खतरनाक है यही बात है. एक समाज में कविता और साहित्य के लिए संवेदना का कमज़ोर होना. फैज़ अकेले नहीं हैं. दुष्यंत, नागार्जुन, पाश. कई नारे और कई नज़्म इन विरोध प्रदर्शनों का प्रतीक बन रही हैं, जैसे जनवादी कवी गोरख पांडे की कविता.
कटती है तो ज़बान है बन जायेगी तलवार
सच कितने धारदार हैं उनसे न पूछिए
दरअसल, बहुत सारे अशार, बहुत साड़ी नज्में, कविताएं, वक़्त और मुल्कों से बड़े हो जाते हैं. वो सदियों में नहीं बंधते, वो जनता के गीत हो जाते हैं,
दुष्यंत की वो ग़ज़ल
हो गयी है पीर परबत सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकालनी चाहिए
इसी तरह पाश की कविताओं को भला कौन नहीं दोहराता है
सबसे खतरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना
ये पंक्तियां ख़ासतौर पर छात्र आंदोलनों का तराना बनती रही हैं
उस संदर्भ की समझ होना बहुत ज़रूरी है जिस में वो नज़्म लिखी गई
जो लोग साहित्य को समझते नहीं या समझना नहीं चाहते वो इसे हिन्दू-मुस्लिम के टकराव का मुद्दा बनाते हैं.ये निशानी है एक सतही और सपाट समाज की, नहीं तो ऐसे सवाल उठते नहीं और कविताओं के भाव पर जांच कमेटी नहीं बिठाई जाती.
अब्बासी की ख़िलाफत के दौर में मंसूर अन-अल-हक का नारा लगते थे, जो इस्लाम के परंपरागत प्रतीक के ख़िलाफ है, इस्लाम में अल्लाह का कोई शरीक नहीं, लेकिन सूफी विचारधारा में ऐसे प्रतीक इस्तेमाल होते हैं. फैज़ की इस कविता में अल्लाह का नाम भी है और अन-अल-हक का नारा भी है, और ये कवि की अभिव्यक्ति की आज़ादी भी है. लेकिन जो लोग साहित्य को समझते नहीं या समझना नहीं चाहते वो इसे हिन्दू-मुस्लिम के टकराव का मुद्दा बनाते हैं.ये निशानी है एक सतही और सपाट समाज की, नहीं तो ऐसे सवाल उठते नहीं और कविताओं के भाव पर जांच कमेटी नहीं बिठाई जाती. यहाँ धर्मवीर भारती की रचना अँधा युग को याद करना बेहद ज़रूरी है जिसमें आत्ममुग्ध होने के ख़तरे को युद्ध के संदर्भ में पेश किया गया है. कहानी ये बताती है कि जब समाज अपनी संस्कृति और सभ्यता के विवेक को छोड़ उस क्षण की भावनाओं में बह जाता है तो उसके ख़तरे बड़े होते हैं.
फैज़ की नज़्म की आलोचना एक नज़्म के तौर पर अच्छी या साधारण होने पर की जा सकती है, उसके भाव पर सवाल उठा कर उस के गाये जाने पर पाबंदी की मांग करना उसी पुराने मार्शल लॉ की याद दिलाता है जिसके ख़िलाफ ये नज़्म लिखी गयी. इसे गाना न गाना, इसे पसंद करना या न करना लोगों की मर्ज़ी पर है. जहां तक इसके हिन्दू विरोधी होने का सवाल है तो दिलचस्प है कि जब फैज़ की पहली बरसी पर इक़बाल बानो ने इसे लाहौर में गाया था तो काली साड़ी पहनी थी, साड़ी जिसपर गैर इस्लामिक होने के इलज़ाम में ज़िया उल हक़ ने प्रतिबंध लगा दिया था, और इसकी सज़ा उन्हें यूँ मिली कि उसके बाद उनके टीवी या रेडियो के कार्यक्रम पर रोक लगा दी गई थी.
आज ये देखना दिलचस्प है कि वो एक नज़्म जो कभी गैर-इस्लामी होने की कसूरवार थी, आज हिंदू विरोधी होने का आरोप झेल रही है.
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