मौजूदा दौर भू-राजनीतिक टकरावों से भरा है. ऐसे में अंतरराष्ट्रीय सहयोग से जुड़ी क़वायदों में कई तरह की कठिनाइयां पेश आ रही हैं. हाल ही में रोम में हुए जी-20 देशों के शिखर सम्मेलन में भी तमाम मुश्किलें उभरकर सामने आईं. अतीत में इस तरह के जमावड़ों का आयोजन बेहद भव्य तरीक़े से हुआ करता था. इन आयोजनों से वैश्विकरण की ओर बढ़ती दुनिया में आपसी सहयोग को और ऊंचे मुकाम पर ले जाने की हसरत सामने आती थी. बहरहाल, आज हालात बिल्कुल बदल गए हैं. रोम में संपन्न जी-20 सम्मेलन में चीनी नेता शी जिनपिंग नदारद रहे. साफ़ है कि दुनिया में व्यापक स्तर पर अंतरराष्ट्रीय सहयोग कायम करने को लेकर दिलचस्पी घटती जा रही है. मौजूदा दौर में दुनिया के देशों में वैश्विक स्तर पर एकजुट होने का रुझान कम हो रहा है. आज के वक़्त में देशों का सबसे महत्वाकांक्षी लक्ष्य है- समान सोच वाले दूसरे देशों के साथ अंतरराष्ट्रीय सहयोग कायम करना.
रोम में संपन्न जी-20 सम्मेलन में चीनी नेता शी जिनपिंग नदारद रहे. साफ़ है कि दुनिया में व्यापक स्तर पर अंतरराष्ट्रीय सहयोग कायम करने को लेकर दिलचस्पी घटती जा रही है.
रोम में संपन्न जी20 की बैठक में शी जिनपिंग की ग़ैर-मौजूदगी भले ही बहुत हैरान करने वाली घटना नहीं है, लेकिन इस ग़ैर-हाज़िरी के अपने मायने ज़रूर हैं. चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव और देश के राष्ट्रपति के तौर पर शी ने चीन की नीतियों में आमूलचूल बदलाव कर डाला है. वो बाक़ी दुनिया के साथ संबंधों को कम से कम करने और संपर्कों को न्यूनतम स्तर पर रखने पर ज़ोर देते हैं. चीन के लिए उनका मंत्र है- अधिक से अधिक आत्मनिर्भरता और कम से कम वैश्विकरण. इसमें कोई शक़ नहीं कि चीन को इस तरह की नीति की आर्थिक क़ीमत चुकानी होगी. बहुत संभव है कि बाक़ी दुनिया के साथ चीन के कारोबारी संपर्कों में कमी आने से उसकी आर्थिक वृद्धि का स्तर भी नीचे रहे. हालांकि शी ने अपनी प्राथमिकता तय कर रखी है. वो ये सुनिश्चित करना चाहते हैं कि चीन में कम्युनिस्ट पार्टी की हुकूमत पूरी हिफ़ाज़त से कायम रहे. उन्हें लगता है कि आज के दौर में अंतर्मुखी नीतियों के ज़रिए ही ये लक्ष्य हासिल किया जा सकता है.
कोविड-19 महामारी ने शी को इस नीति को और मज़बूती से आगे बढ़ाने का मौका दे दिया. महामारी के बाद के कालखंड में चीन से अंतरराष्ट्रीय उड़ानों की आवाजाही में 98 फ़ीसदी तक की कमी आ गई है. जी20 के सम्मेलन के लिए रोम न जाकर शी ने चीनी नागरिकों को दो टूक संदेश दे दिया है. ये संदेश है- विदेश जाने से घर पर रहना कहीं ज़्यादा सुरक्षित है. चीन स्वैच्छिक रूप से बाक़ी दुनिया से अलग-थलग होने की नीति अपना रहा है और तेज़ी के साथ इस लक्ष्य की ओर आगे बढ़ रहा है. बहुपक्षीय मंचों पर सहयोग की अहमियत अब पहले के मुक़ाबले काफ़ी कम हो गई है.
अलग-थलग पड़ता रूस
रूसी राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन ने भी रोम न जाकर घर पर ही रहने का फ़ैसला किया. हालांकि उनके फ़ैसले के पीछे कुछ दूसरी वजहें थीं. दरअसल जी-20 की बैठकें पुतिन के लिए कभी भी आसान नहीं रही हैं. 2014 में ऑस्ट्रेलिया के तत्कालीन प्रधानमंत्री टोनी एबॉट ने रूस द्वारा क्रीमिया को कब्ज़े में कर लेने के लिए पुतिन से दो टूक बात करने और उन्हें ‘आईना दिखाने’ का वादा किया था. तब से लेकर अब तक जी20 के शिखर सम्मेलनों में पुतिन दोयम दर्जे के भागीदार के तौर पर शिरकत करते रहे. हो सकता है कि ऊर्जा से जुड़े मुद्दों पर दूसरों का भाषण सुनने में पुतिन की दिलचस्पी हाल के समय में घट गई हो. इतना ही नहीं चीन को छोड़कर बाक़ी दुनिया रूस के साथ रिश्तों को और गहरा करने में कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं ले रही है. ऐसे में पुतिन ने भी रोम न जाकर घर पर ही रहना बेहतर समझा.
चीन और रूस को छोड़कर दुनिया के बाक़ी तमाम ताक़तवर देश आपसी सहयोग को और मज़बूत बना रहे हैं. हालांकि सबसे बड़ा मुद्दा भूराजनीतिक टकराव का है.
हालांकि मोटे तौर पर वैश्विक स्तर पर अंतरराष्ट्रीय सहयोग में कोई कमी नहीं आई है. जून में कॉनवॉल में हुए जी7 शिखर सम्मेलन से यही बात उभरकर सामने आई थी. चीन और रूस को छोड़कर दुनिया के बाक़ी तमाम ताक़तवर देश आपसी सहयोग को और मज़बूत बना रहे हैं. हालांकि सबसे बड़ा मुद्दा भूराजनीतिक टकराव का है. अमेरिका ने समान सोच वाले देशों के साथ तालमेल और सहयोग के फ़ायदों को नए सिरे से महसूस किया है. कई मसलों पर (जिनमें सुरक्षा का सवाल सबसे पहला और सबसे बड़ा है) अमेरिका एक बार फिर बातचीत की मेज़ पर लौट आया है. निश्चित तौर पर चीन के साथ भूराजनीतिक टकराव को एक अहम मुद्दा बनाने का श्रेय डोनाल्ड ट्रंप को देना होगा. जो बाइडेन भी गठजोड़ बनाने की कोशिशों में लगे हैं और इस दिशा में कुछ कामयाबी पाने का दावा भी कर सकते हैं.
इस साल हुए जी7 सम्मेलन में ऑस्ट्रेलिया, भारत, दक्षिण कोरिया और दक्षिण अफ़्रीका ने भी हिस्सा लिया था. लिहाज़ा रोम में हुए जी-20 सम्मेलन में शिरकत करने वाले देशों और कॉनवॉल में हुए जी7 सम्मेलन में जुटे देशों के जमावड़े में कोई ख़ास अंतर नहीं रह गया है. ऐसा लगता है कि दोनों समूहों की सदस्यता एक जैसी हो गई है. जी7 के विस्तृत स्वरूप को चीन-विरोधी गठजोड़ के तौर पर देखा जा सकता है. हालांकि जी20 के कुछ देश, ख़ासतौर से जर्मनी निश्चित रूप से इस तरह के किसी दर्जे की मुख़ालफ़त करेंगे. बहरहाल विकसित दुनिया में चीन के प्रति संदेह का भाव बढ़ता जा रहा है. इस बात के प्रमाण दिन ब दिन और स्पष्ट होते जा रहे हैं.
चीन और जलवायु परिवर्तन का मुद्दा विकसित देशों के सामने मुंह बाए खड़ा है. जलवायु परिवर्तन पर ग्लासगो में बेहद अहम मंथन हो रहा है. बहरहाल इनके अलावा भी कई दूसरे मसले हैं जिनपर ध्यान दिए जाने की ज़रूरत है.
वार्ता की मेज़ पर अमेरिका की वापसी
चीन और जलवायु परिवर्तन का मुद्दा विकसित देशों के सामने मुंह बाए खड़ा है. जलवायु परिवर्तन पर ग्लासगो में बेहद अहम मंथन हो रहा है. बहरहाल इनके अलावा भी कई दूसरे मसले हैं जिनपर ध्यान दिए जाने की ज़रूरत है. शायद इनमें सबसे अहम मुद्दा है दुनिया पर मंडरा रही वित्तीय अस्थिरता. कई अर्थव्यवस्थाओं में महंगाई लगातार बढ़ती जा रही है. जी-20 देशों की मौद्रिक नीति के लिए ये एक बड़ा मुद्दा है. हालांकि इस मसले पर उनकी प्रतिक्रियाएं अलग-अलग हैं. अमेरिकी फ़ेडरल रिज़र्व और बैंक ऑफ़ इंग्लैंड ने 2022 में अपनी मौद्रिक नीतियों को सख़्त करने के संकेत दिए हैं. दूसरी ओर यूरोपियन सेंट्रल बैंक (ईसीबी) का रुख़ बिल्कुल जुदा है. ईसीबी ने महंगाई के मौजूदा स्तर को ख़तरनाक मानने से इनकार किया है. फ़्रैकफर्ट स्थित ईसीबी के अधिकारी उम्मीद जता रहे हैं कि अगले साल महंगाई दर महामारी से पहले वाले स्तर तक आ जाएगी. हालांकि अगर ऐसा नहीं होता है तो भी ईसीबी ब्याज़ दर के मोर्चे पर शायद ही कोई सख़्त फ़ैसला करे. दरअसल ईसीबी को डर है कि ब्याज़ दरों में बढ़ोतरी होने से मौद्रिक संघ के सदस्य देशों की अर्थव्यवस्थाओं में सामान्य हालात बहाल करने में रुकावट आ सकती है.
वैसे अगर विनिमय दर पर कोई प्रभाव नहीं होता है तो यूरोप अपनी नीतियों को उसी हिसाब से आगे बढ़ाएगा. आकलन के हिसाब से मौजूद स्तर पर डॉलर के ख़िलाफ़ यूरो की क़ीमत का स्तर करीब 15 फ़ीसदी नीचे है. अगर ईसीबी अपनी मौद्रिक नीति में कोई सख़्ती न लाए और फ़ेडरल रिज़र्व अपनी मौद्रिक नीतियों को सख़्त कर दे तो हो सकता है कि 1 के बदले 1 की विनमय दर और यूरो की क़ीमत के स्तर में कमी का दौर देखने को मिले. लिहाज़ा रोम में संपन्न जी20 की बैठक में मौद्रिक नीति में तालमेल लाने को लेकर बातचीत होनी चाहिए थी. वैसे हुआ वही जो पहले से तय था. मौद्रिक नीतियों से जुड़े मुद्दे को सम्मेलन के एजेंडे में कोई ख़ास अहमियत नहीं मिल सकी.
डोनाल्ड ट्रंप के उलट राष्ट्रपति जो बाइडेन की अगुवाई में अमेरिका एक बार फिर बहुपक्षीय मंच पर वापस लौट आया है. हालांकि यूरोपीय देशों के साथ तमाम मसलों पर अब भी सहजता नहीं आ सकी है.
डोनाल्ड ट्रंप के उलट राष्ट्रपति जो बाइडेन की अगुवाई में अमेरिका एक बार फिर बहुपक्षीय मंच पर वापस लौट आया है. हालांकि यूरोपीय देशों के साथ तमाम मसलों पर अब भी सहजता नहीं आ सकी है. ख़ासतौर पर चीन के संदर्भ में जर्मनी का रुख़ यूरोपीय संघ के बाक़ी सदस्यों से अलग है. चीन को लेकर जर्मनी एक ऐसी नीति का समर्थक है जिसमें कारोबारी हितों पर ज़ोर हो. इस सिलसिले में जर्मनी लगातार आक्रामक होती चीनी विदेश नीति पर ज़्यादा तवज्जो नहीं देकर इससे जुड़े मसलों को दरकिनार करना चाहता है. वित्तीय मामलों में यूरोपीय संघ स्वार्थी मौद्रिक नीति अपनाने का समर्थक है. इस नीति के तहत यूरो की क़ीमत में डॉलर के मुक़ाबले कमी के दूसरे देशों पर पड़ने वाले प्रभावों को नज़रअंदाज़ किया जाता है. रोम में जी20 शिखर सम्मेलन में शिरकत कर रहे नेताओं की तस्वीरें निश्चित तौर पर आकर्षक हैं, लेकिन इस सम्मेलन से इन तमाम मसलों का कोई ठोस समाधान नहीं मिला. इस जमावड़े से न तो चीन के संदर्भ में और न ही वित्तीय अस्थिरता को टालने को लेकर कोई भरोसेमंद उपाय सामने आया.
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