Author : Niranjan Sahoo

Published on Nov 17, 2020 Updated 0 Hours ago

उच्च शिक्षा का अंतरराष्ट्रीयकरण, भारत में शिक्षा के क्षेत्र में दूसरी पीढ़ी के सुधार की कुंजी है. भारत में इस सुधार का लंबे समय से इंतज़ार किया जा रहा है. जब 1990 के दशक में भारत ने आर्थिक उदारीकरण का क्रांतिकारी क़दम उठाया था, तब से ही उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सुधार की अपेक्षा की जा रही है

भारत में उच्च शिक्षा का अंतरराष्ट्रीयकरण क्यों और कैसे गेम चेंजर साबित हो सकता है?

हाल ही में जारी किए गए  राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020 के तमाम प्रस्तावों में से जिस पहलू की सबसे कम चर्चा हुई है, वो है उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीयकरण के सुझाव. जबकि ये, नई शिक्षा नीति के सबसे महत्वपूर्ण और दूरगामी प्रभाव वाले सुझाव हैं. और इनका साफ़ लक्ष्य है भारत को उच्च शिक्षा के क्षेत्र में ‘वैश्विक स्टडी डेस्टिनेशन’ बनाना है. नई शिक्षा नीति में भारत के उच्च शिक्षा के क्षेत्र में एक महत्वाकांक्षी रोडमैप का प्रस्ताव रखा गया है. जिसके तहत वर्ष 2030 तक देश की उच्च शिक्षा का अंतरराष्ट्रीयकरण होना है. ये बात तब और साफ हो जाती है, जब हम राष्ट्रीय शिक्षा नीति की बारीक़ी से पड़ताल करते हैं. इसमें लिखा है कि, ‘विश्व की कुछ गिनी-चुनी यूनिवर्सिटी, जैसे कि टॉप 100 विश्वविद्यालयों में से कुछ को भारत में काम करने की इजाज़त दी जाएगी. ऐसे विश्वविद्यालयों के भारत में प्रवेश को सुगम बनाने के लिए ज़रूरी क़ानूनी सुधार किए जाएंगे. और ऐसे विश्वविद्यालयों को नियामक व्यवस्था और प्रशासनिक स्तर पर विशेष दर्जा दिया जाएगा. उन्हें देश के अन्य स्वायत्त शिक्षण संस्थानों की तरह की छूट दी जाएगी.’ नई शिक्षा नीति के इन सुझावों के तहत भारत का शिक्षा मंत्रालय भारत के उच्च शिक्षा आयोग की स्थापना के लिए विधेयक तैयार कर रहा है. जिससे विदेश के विश्वविद्यालयों को भारत में अपनी शाखाएं खोलने का मौक़ा मिल सकेगा. उदाहरण के लिए प्रस्तावित उच्च शिक्षा आयोग विधेयक 2020 की धारा 20 (4) में ख़ास तौर से इस बात का ज़िक्र किया गया है कि, ‘ये आयोग दुनिया के तमाम मशहूर और सम्मानित विश्वविद्यालयों और शिक्षण संस्थानों को भारत में अपना कैम्पस स्थापित करने के लिए नियम तय करेगा और ऐसे प्रस्तावों को तय नियमों के अंतर्गत अनुमति देगा.’ विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में अपना कैम्पस स्थापित करने के अलावा, राष्ट्रीय शिक्षा नीति का मक़सद भारत में अच्छा प्रदर्शन करने वाली यूनिवर्सिटी को अन्य देशों में अपना कैंपस स्थापित करने की भी इजाज़त देगा. इसके लिए वो अन्य देशों की संस्थाओं से सहयोग कर सकेंगे. जिनमें विश्व की सबसे प्रमुख यूनिवर्सिटी शामिल होंगी.

नई शिक्षा नीति में भारत के उच्च शिक्षा के क्षेत्र में एक महत्वाकांक्षी रोडमैप का प्रस्ताव रखा गया है. जिसके तहत वर्ष 2030 तक देश की उच्च शिक्षा का अंतरराष्ट्रीयकरण होना है. ये बात तब और साफ हो जाती है, जब हम राष्ट्रीय शिक्षा नीति की बारीक़ी से पड़ताल करते हैं

उच्च शिक्षा के अंतरराष्ट्रीयकरण की आवश्यकता क्यों है?

राष्ट्रीय शिक्षा नीति में अगर उच्च शिक्षा के अंतरराष्ट्रीयकरण पर इतना अधिक ज़ोर दिया गया है. भारत के शिक्षा क्षेत्र के द्वार अंतरराष्ट्रीय शैक्षिक संस्थानों के लिए खोलने के सुझाव दिए गए हैं, तो उसके पीछे कई मजबूरियां हैं. पहली बात तो ये है कि भारत की उच्च शिक्षा की व्यवस्था अपनी विशालता के मामले में दुनिया में दूसरे नंबर पर आती है. फिर भी, देश के 990 विश्वविद्यालयों और 40 हज़ार से अधिक कॉलेज में से एक भी ऐसा नहीं है, जो वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग में जगह बना सके. इसके अलावा, ग्लोबल टैलेंट कॉम्पिटिटिव इंडेक्स के 132 देशों की ताज़ा फ़ेहरिस्त में भारत 72वें नंबर पर आता है. ज़ाहिर है कि उच्च शिक्षा की इतनी ख़राब रैंकिंग का ही नतीजा है कि भारत न तो उच्च शिक्षा के क्षेत्र में प्रगति कर पा रहा है और न ही काबिल छात्रों और विद्वानों को अपनी ओर आकर्षित कर पा रहा है. इसकी एक बड़ी वजह ये है कि शिक्षा के क्षेत्र की अफ़सरशाही लंबे समय से पूरी व्यवस्था पर शिकंजा कस कर बैठी है. जिसके चलते उच्च शिक्षा के क्षेत्र में न तो इनोवेशन हो पा रहा है और न ही इस क्षेत्र का विस्तार हो सका है. दूसरी बात ये कि उच्च शिक्षा में एनरोलमेंट में तेज़ गति से वृद्धि देखने को मिल रही है. इस समय पढ़ाई करने वाले 26 प्रतिशत छात्र-छात्राएं उच्च शिक्षा में भी दाखिला लेते हैं. राष्ट्रीय शिक्षा नीति का अनुमान है कि वर्ष 2035 तक स्कूल में दाखिला लेने वाले आधे छात्र हायर एजुकेशन के लिए भी आगे बढ़ेंगे. इससे स्पष्ट है कि भारत में उच्च शिक्षा का व्यापक स्तर पर विस्तार होने वाला है. इसमें विकास की अपार संभावनाएं हैं. चूंकि भारत में हायर एजुकेशन सेक्टर का आकार स्वयं में इतना विशाल है. और फिर भविष्य में इसके और बढ़ने का आकलन किया जा रहा है. तो, भारत के पास ऐसी संभानाएं हैं कि वो दुनिया के बड़े शिक्षण संस्थानों और यूनिवर्सिटी को अपने यहां कैम्पस स्थापित करने के लिए आकर्षित कर सके. विदेशी विश्वविद्यालय अपने साथ पूंजी तो लाएंगे ही. वो आधुनिक शैक्षिक तकनीक, इनोवेशन के विचार और संस्थागत आदान-प्रदान जैसे गुण भी अपने साथ लाएंगे, जिसका भारत में इस समय भारी अभाव दिखता है. विदेशी विश्वविद्यालयों की उपस्थिति मात्र से ही भारत के उच्च शिक्षा के क्षेत्र में प्रतिद्वंदिता बढ़ेगी और भारतीय विश्वविद्यालय भी इनोवेशन के प्रयास करना शुरू करेंगे. चूंकि, देश में अच्छी गुणवत्ता वाले शिक्षण संस्थानों की कमी है. इसलिए, भारत के क़ाबिल छात्र अक्सर पढ़ने के लिए विदेश चले जाते हैं. जहां से वो ऊंची डिग्रियां हासिल करते हैं. अकेले वर्ष 2019 में ही, भारत के 7 लाख 50 हज़ार छात्र उच्च शिक्षा के लिए विदेश गए. हर साल भारतीय छात्र औसतन विदेशों में पढ़ाई करने और डिग्रियां हासिल करने के लिए 15 अरब डॉलर की रक़म ख़र्च करते हैं. इसीलिए, जब विदेश के बड़े विश्वविद्यालय भारत में अपने कैम्पस खोलेंगे, तो विदेश पढ़ने जाने वाले भारतीय छात्रों का एक बड़ा तबक़ा, अपने देश में ही रहकर उन यूनिवर्सिटी की डिग्रियां, विदेश की तुलना में बहुत कम पैसे ख़र्च करके हासिल कर सकेगा.

भारत न तो उच्च शिक्षा के क्षेत्र में प्रगति कर पा रहा है और न ही काबिल छात्रों और विद्वानों को अपनी ओर आकर्षित कर पा रहा है. इसकी एक बड़ी वजह ये है कि शिक्षा के क्षेत्र की अफ़सरशाही लंबे समय से पूरी व्यवस्था पर शिकंजा कस कर बैठी है. जिसके चलते उच्च शिक्षा के क्षेत्र में न तो इनोवेशन हो पा रहा है और न ही इस क्षेत्र का विस्तार हो सका है. 

भारत में उच्च शिक्षा के अंतरराष्ट्रीयकरण का अनुभव बहुत ख़राब रहा है

भारत में उच्च शिक्षा के बाज़ार को दुनिया के अन्य विश्वविद्यालयों के लिए खोलने के विचार का जन्म, सबसे पहले उदारीकरण के शुरुआती दौर में ही हुआ था. कांग्रेस के नेतृत्व वाली जिस गठबंधन सरकार ने देश में आर्थिक सुधारों और उदारीकरण के सिलसिले की शुरुआत की थी, वही सरकार वर्ष 1995 में फॉरेन एजुकेशन बिल लेकर आई थी. लेकिन, उस समय के विपक्षी दल बीजेपी और ख़ुद अपने सहयोगी दलों के कड़े विरोध के चलते सरकार को इस विधेयक को ठंडे बस्ते में डालना पड़ा था. कांग्रेस के नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (UPA) ने एक बार फिर, वर्ष 2006 में इस विधेयक को संसद से पास कराने की कोशिश की थी. इसके लिए बिल का नया ड्राफ्ट भी तैयार किया गया था. लेकिन, ये विधेयक भी केंद्रीय कैबिनेट की मंज़ूरी से आगे नहीं बढ़ सका. इस संदर्भ में सबसे हालिया प्रयास यूपीए-2 सरकार ने 2010 में किया था. जब, मनमोहन सिंह की सरकार फ़ॉरेन एजुकेशनल इंस्टीट्यूशन्स बिल लेकर आई थी. लेकिन, इस विधेयक का भी कड़ा विरोध हुआ था. बीजेपी के विरोध के चलते ये विधेयक भी संसद से पास नहीं हो सका था.

बीजेपी के इन विधेयकों का कड़ा विरोध करने की एक बड़ी वजह ये थी कि विदेशी शिक्षण संस्थान अगर भारत आए, तो देश में उच्च शिक्षा हासिल करने का ख़र्च बहुत बढ़ जाएगा. और तब, उच्च शिक्षा देश की आबादी के एक बड़े हिस्से की पहुंच से दूर हो जाएगी. बल्कि, साल 2012 में संसद की स्थायी समिति की बैठक में इन्हीं चिंताओं को उठाया गया था. तब इस विधेयक का विरोध करने वालों ने कहा था कि अगर भारत के उच्च शिक्षा के इको-सिस्टम में विदेशी संस्थानों को स्वायत्त संस्थाओं के तौर पर प्रवेश दिया जाता है, तो इससे भारत के हायर एजुकेशन सेक्टर में बहुत उथल-पुथल मच जाएगी. संसद की स्थायी समिति ने ये भी कहा था कि विदेशी यूनिवर्सिटी शायद देश में उच्च शिक्षा की वास्तविक ज़रूरतों को पूरा करने की कोशिश ही न करें. क्योंकि ये विदेशी संस्थान देश की बड़ी आबादी के लिए तो काम करेंगे नहीं. उनकी फीस ऐसी होगी जो देश के सभी छात्रों को बराबरी का अवसर दे सके. विदेशी यूनिवर्सिटी के लिए सभी छात्रों को बराबरी के दर्जे पर रखने में कोई लाभ वाला सौदा नहीं होगा. क्योंकि, इससे मुनाफे पर आधारित उनकी व्यवस्था को चोट पहुंचेगी. इसके अलावा, विदेशी यूनिवर्सिटी भारत में अपना कैंपस स्थापित करेंगी, तो भारतीय यूनिवर्सिटी में पढ़ाने वाले विद्वान, ज़्यादा पैसे के लिए उनकी ओर रुख़ करेंगे. इससे तो भारत में उच्च शिक्षा का स्तर और भी गिर जाएगा. जबकि वो पहले से ही बुरी स्थिति में है. इससे सार्वजनिक विश्वविद्यालयों के लिए रक़म जुटा पाना भी मुश्किल होगा. विडंबना देखिए कि जो बीजेपी उस वक़्त संसद की इस स्टैंडिंग कमेटी का हिस्सा थी और विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में आने देने का विरोध कर रही थी. उसी बीजेपी की सरकार आज अलग धुन गा रही है. और विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में कैम्पस स्थापित करने के लिए माहौल और राह को सुगम बनाने में जुटी है.

बड़ी चुनौतियां

उच्च शिक्षा के अंतरराष्ट्रीयकरण के लिए छात्रों और फैकल्टी के एक संस्थान से दूसरे संस्थान में आने जाने में आसानी होनी चाहिए. तमाम देशों की यूनिवर्सिटी और संस्थानों के बीच भी अपने अपने शैक्षणिक आदान-प्रदान और अन्य तत्वों के लेन-देन में सहूलियत की व्यवस्था होनी चाहिए. ऐसा होने से देश की बीमार उच्च शिक्षा व्यवस्था को क्रांतिकारी ढंग से बदला जा सकता है. लेकिन, ये बात कहने में जितनी आसान लगती है, उससे ज़्यादा मुश्किल है इसे लागू कर पाना. पहली चुनौती तो ये है कि क्या प्रस्तावित उपाय लागू किए जा सकेंगे. इनमें एक ऐसे ठोस क़ानूनी फ्रेमवर्क की स्थापना शामिल है, जिससे विदेशी संस्थाओं के भारत में आने और अपनी गतिविधियां संचालित करने के लिए सहज सुलभ व्यवस्था दी जा सकेगी. नियमों को आसान किया जा सकेगा. इन संस्थाओं के प्रशासन को सुगम बनाया जा सकेगा. और ऐसे प्रोत्साहन दिए जा सकेंगे जिससे प्रेरित होकर विदेश की मशहूर यूनिवर्सिटी भारत में अपने कैंपस खोलने का मन बना सकें?

पहली चुनौती तो ये है कि क्या प्रस्तावित उपाय लागू किए जा सकेंगे. इनमें एक ऐसे ठोस क़ानूनी फ्रेमवर्क की स्थापना शामिल है, जिससे विदेशी संस्थाओं के भारत में आने और अपनी गतिविधियां संचालित करने के लिए सहज सुलभ व्यवस्था दी जा सकेगी. 

भले ही भारत में उच्च शिक्षा के सेक्टर का विशाल आकार बहुत आकर्षक लगे. लेकिन, अमेरिका और इंग्लैंड की ज़्यादातर यूनिवर्सिटी ख़ुद अपने यहां छात्रों की संख्य़ा में कमी आने, वित्तीय संकट और बजट में कटौती जैसी चुनौतियों का सामना कर रही हैं. इसके अलावा सिंगापुर, मलेशिया और मध्य पूर्व के अनुभव बताते हैं कि विदेशी यूनिवर्सिटी जब किसी अन्य देश में कैंपस या शाखा खोलती है, तो इसके लिए वित्तीय निवेश आम तौर पर संबंधित देश या स्थानीय साझीदारों के ज़रिए होता है. इसीलिए, विदेशी यूनिवर्सिटी को भारत में कैंपस खोलने के लिए प्रेरित कर पाना बहुत बड़ी चुनौती है. ये समस्या तब और बढ़ जाती है जब हम ये देखते हैं कि भारत में विदेशी यूनिवर्सिटी के शाखाएं खोलने की इजाज़त देने के लिए तय की गई तमाम शर्तों में से एक ये भी है कि दुनिया की टॉप 100 यूनिवर्सिटी को ही इसकी मंज़ूरी दी जाएगी. ऐसे पैमाने तय करने के दौरान इस बात की अनदेखी की जाती है कि दुनिया के कई बड़े शैक्षणिक संस्थान QS विश्व यूनिवर्सिटी रैंकिंग की प्रक्रिया में शामिल नहीं होते. ऐसी यूनिवर्सिटी भी भारत में अपनी शाखाएं खोलने में दिलचस्पी दिखा सकती हैं.

विदेशी यूनिवर्सिटी को पर्याप्त अकादेमिक स्वायत्तता की ज़रूरत होगी. जिससे कि वो अपने कोर्स का कंटेंट, एडमिशन की नीतियां, फीस के पैमाने, फैकल्टी भर्ती करने की नीतियां और प्रशासन  संबंधी फ़ैसले स्वतंत्र रूप से ले सकें. सवाल ये है कि क्या प्रस्तावित उच्च शिक्षा विधेयक इन चुनौतियों से निपट पाने में सक्षम होगा? 

नई शिक्षा नीति के उच्च शिक्षा संबंधी इस मिशन की राह में दूसरी बाधा आती है, विदेशी यूनिवर्सिटी के भारत में संचालन के क़ानूनी ढांचे की. चुनौती इस बात की है कि भारत में ऐसा नियामक माहौल बनाया जाए, जिससे विदेशी संस्थानों को संतुष्ट किया जा सके. भारत की शिक्षा व्यवस्था अफ़सरशाही और निष्क्रियता के लिए बहुत बदनाम है. ऐसे में यहां अपना कैंपस संचालित करने के लिए विदेशी यूनिवर्सिटी को पर्याप्त अकादेमिक स्वायत्तता की ज़रूरत होगी. जिससे कि वो अपने कोर्स का कंटेंट, एडमिशन की नीतियां, फीस के पैमाने, फैकल्टी भर्ती करने की नीतियां और प्रशासन  संबंधी फ़ैसले स्वतंत्र रूप से ले सकें. सवाल ये है कि क्या प्रस्तावित उच्च शिक्षा विधेयक इन चुनौतियों से निपट पाने में सक्षम होगा? क्या वो ऐसा क़ानूनी ढांचा तैयार कर पाएगा, जिससे नियमों के दायरे में रहते हुए संस्थागत तरीक़े से उच्च शिक्षा को स्वतंत्र रूप से संचालित किया जा सके? क्या ये नया क़ानून बेहद कड़े और एक जैसी शैक्षणिक व्यवस्था के वर्तमान ढांचे को ढहा कर ऐसी नयी व्यवस्था का निर्माण कर सकेगा, जो एक जैसी सोच, विविधता के प्रति सहिष्णुता के अभाव और नए प्रयोग से दूरी बनाने जैसी प्रशासनिक कमियों को दूर कर पाए? ऐसे में कोई ऐसी क़ानूनी व्यवस्था चाहिए, जो उच्च शिक्षा के नियमन की व्यवस्था और प्रक्रिया में बदलाव करके, विदेशी यूनिवर्सिटी को काम करने की स्वतंत्रता दे सके. वही नई शिक्षा नीति के लक्ष्य हासिल करने में कारगर साबित होगी.

तीसरी बात ये है कि विदेश की बेहतरीन यूनिवर्सिटी भारत में कैंपस स्थापित करती हैं, तो इसका भारत के उच्च शिक्षा के सेक्टर पर बहुत गहरा असर पड़ने की उम्मीद है. क्योंकि अभी तो भारत की अधिकतर सरकारी यूनिवर्सिटी एक सफ़ेद हाथी की तरह संचालित की जा रही हैं. फिर भी संभावना इस बात की ही ज़्यादा है कि विदेशी यूनिवर्सिटी जब यहां आएंगी, तो भारत के मौजूदा विश्वविद्यालयों के फैकल्टी मेंबर को ही ज़्यादा पैसे देकर अपने यहां नौकरी पर रखने की कोशिश करेंगी. इससे, भारत के विश्वविद्यालयों में पढ़ाने वाले अच्छे विद्वानों का पलायन और तेज़ हो जाएगा. जिससे पहले से ही कम फैकल्टी की चुनौती झेल रही सरकारी यूनिवर्सिटी पर दबाव और बढ़ जाएगा. ये वास्तविक और वाजिब चिंताएं हैं जिन्हें बीजेपी ने तब संसद की स्थायी समिति में उठाया था. लेकिन, अब वही पार्टी सत्ता में है और विदेशी यूनिवर्सिटी की शाखाएं भारत में खोलने के प्रस्ताव को आगे बढ़ा रही है. और अगर ये उम्मीद की जा रही है कि इससे देश के क़ाबिल विद्यार्थियों का विदेश पढ़ने के लिए जाने वाला पलायन रोका जा सकेगा, तो शायद ये उम्मीद पूरी न हो सके. इसके लिए कई कारण ज़िम्मेदार होंगे. पहले तो विदेशी विश्वविद्यालय की प्रतिष्ठा, फिर विदेश में आसानी से मिल जाने वाली स्कॉलरशिप के मौक़े, विदेशी माहौल में रहने का अनुभव और विदेश में पढ़ाई के बाद मिलने वाले रोज़गार के बेहतर मौक़े, छात्रों के विदेश जाकर पढ़ने के इस पलायन के जारी रखने की वजह बनेंगे.

अब देखने वाली बात ये हो गी कि मौजूदा सरकार, शिक्षा के क्षेत्र में मज़बूत पकड़ बनाए रखने वाली अफसरशाही और टूटे-फूटे इकोसिस्टम से कैसे निपटती है. क्योंकि ये शैक्षणिक अफसरशाही और इसके साथ चलने वाला इको-सिस्टम ही है, जो इनोवेशन और नए विचारों की राह में सबसे बड़ा बाधक है. 

और आख़िर में सरकार के पैसे से चलने वाले विश्वविद्यालयों के पीछे बड़ा लक्ष्य ये निर्धारित किया गया था कि, देश की आम जनता को कम लागत में अच्छी उच्च शिक्षा प्रदान की जा सके. ये सोच भारत के एक कल्याणकारी देश के तहत, समाज के सभी वर्गों और ख़ास तौर पर कमज़ोर तबक़े के लोगों को शिक्षा के बराबरी के अववसर देने और ज़िंदगी में उन्हें आगे बढ़ने देने के समान अवसर देने की अवधारणा से मेल खाती है. क्योंकि, समाज के कमज़ोर तबक़ों के पास अपने इलाक़ों में मौजूद शिक्षण संस्थानों तक पहुंच बना पाना आसान नहीं हो पाता. अगर विदेशी विश्वविद्यालय भारत के उच्च शिक्षा के क्षेत्र में दिलचस्पी दिखाते हुए, यहां अपने कैंपस स्थापित करते हैं. तो, समाज के सभी वर्गों को शिक्षा और प्रगति के समान अवसर देने की इस सोच पर भी विपरीत प्रभाव पड़ने की आशंका है. न ही नई शिक्षा नीति और न ही उच्च शिक्षा संबंधी प्रस्तावित विधेयक इस बारे में कुछ कहता है कि किस तरह भारत के बड़े सरकारी विश्वविद्यालयों द्वारा दूसरे देशों में अपनी शाखाएं या कैंपस खोलने से भारत को इसका क्या लाभ मिलेगा? और ये लाभ किस क़ीमत पर हासिल किया जा सकेगा? विडंबना ये है कि पिछले कई वर्षों से शिक्षा के क्षेत्र में सरकारी व्यय की जीडीपी में हिस्सेदारी लगातार कम होती जा रही है.

इस विषय को समाप्त करते हुए ये कहना उचित होगा कि भारत में दूसरी पीढ़ी के आर्थिक सुधारों के साथ-साथ उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सुधार और इसका अंतरराष्ट्रीयकरण एक सही दिशा में उठाया गया स्वागत योग्य क़दम है. जिसकी 1990 के दशक से ही प्रतीक्षा की जा रही थी, जब देश में क्रांतिकारी आर्थिक सुधारों के सिलसिले की शुरुआत हुई थी. 1995 के बाद से कई कोशिशों के बावजूद, गठबंधन की राजनीति और राजनीतिक अवसरवाद के चलते, भारत में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सुधार भारी मांग के बावजूद नहीं हो सके. न ही सरकारी शिकंजे में फंसी उच्च शिक्षा व्यवस्था के उदारीकरण का घरेलू स्तर पर ही ठोस प्रयास हो सका. यही कारण है कि भारत आज विश्वविद्यालयों की वैश्विक रैंकिंग में बेहद ख़राब स्थिति में है. अब जबकि, बीजेपी के पास पूर्ण बहुमत है तो बीजेपी के नेतृत्व वाली मौजूदा सरकार, उच्च शिक्षा के अंतरराष्ट्रीयकरण की दिशा में आगे बढ़ने को लेकर मज़बूत इरादा रखती मालूम होती है. लेकिन, उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालयों के प्रवेश के लिए अनुकूल नीतियां और क़ानून बनाने का काम इस पूरी प्रक्रिया का सबसे आसान हिस्सा है. अब देखने वाली बात ये हो गी कि मौजूदा सरकार, शिक्षा के क्षेत्र में मज़बूत पकड़ बनाए रखने वाली अफसरशाही और टूटे-फूटे इकोसिस्टम से कैसे निपटती है. क्योंकि ये शैक्षणिक अफसरशाही और इसके साथ चलने वाला इको-सिस्टम ही है, जो इनोवेशन और नए विचारों की राह में सबसे बड़ा बाधक है. संक्षेप में कहें, तो उच्च शिक्षा के क्षेत्र के अंतरराष्ट्रीयकरण के लिए, उचित क़ानूनी ढांचा, प्रभावी नियम क़ायदे, सहयोगी सरकारी व्यवस्था, लगातार वित्तीय मदद से एक नए इको-सिस्टम का निर्माण करने से ही उच्च शिक्षा के अंतरराष्ट्रीयकरण की दिशा में आगे बढ़ा जा सकेगा. पर इसके साथ ही साथ मौजूदा सरकारी विश्वविद्यालयों में आमूल-चूल परिवर्तन लाने का भी काम करना होगा. और इसके लिए कल्पनाशीलता के साथ साथ मज़बूत राजनीतिक और प्रशासनिक नेतृत्व की भी आवश्यकता होगी.


जिब्रान खान ओआरएफ में रिसर्च इंटर्न हैं.

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