Author : Aditi Ratho

Published on Nov 13, 2019 Updated 0 Hours ago

ये मज़दूर भारत की नेशनल इनकम में 50 पर्सेंट का योगदान करते हैं. इसलिए उन्हें मुख्यधारा का हिस्सा माना जाना चाहिए.

क्या नई सोशल सिक्योरिटी स्कीम से असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों का भला होगा?

देश में इनफॉर्मल यानी असंगठित क्षेत्र में कितने लोग काम करते हैं? अलग-अलग रिपोर्ट्स में इसके आंकड़े अलग हैं. 4 जुलाई 2019 को जारी आर्थिक सर्वे 2018-19 में बताया गया था कि 93 पर्सेंट वर्कर्स इनफॉर्मल सेक्टर से जुड़े हैं. दूसरी तरफ, नीति आयोग की नवंबर 2018 में आई ‘स्ट्रैटिजी फॉर न्यू इंडिया @75’ रिपोर्ट में बताया गया है कि “देश के इनफॉर्मल सेक्टर में कुल वर्कर्स में से क़रीब 85 पर्सेंट को रोज़गार मिला हुआ है.” असंगठित या अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले मज़दूरों की संख्या भले ही इन रिपोर्ट्स में अलग-अलग हो, लेकिन इतना तो तय है कि रोज़गार के मामले में इस क्षेत्र की कितनी बड़ी भूमिका है. ये मज़दूर भारत की नेशनल इनकम में 50 पर्सेंट का योगदान करते हैं. इसलिए उन्हें मुख़्यधारा का हिस्सा माना जाना चाहिए.

इस साल मई में मिनिस्ट्री ऑफ स्टैटिस्टिक्स एंड प्रोग्राम इंप्लीमेंटेशन (MOSPI) ने पीरियॉडिक लेबर फ़ोर्स सर्वे (PLFS) 2017-18 जारी किया था, जिसे देश के इनफॉर्मल सेक्टर में काम करने वालों की संख्या का पता लगाने वाला सबसे ताज़ा आधिकारिक दस्तावेज़ माना जा सकता है. इसमें बताया गया है कि अनौपचारिक क्षेत्र के वर्कर्स की संख्या क्या है, इनमें से कितने गैर-कृषि क्षेत्रों और कितने प्रासंगिक कृषि क्षेत्रों (मसलन, पशुपालन, मछलीपालन और खेती में मददगार क्षेत्र) से संबंधित हैं. सर्वे में बताया गया है कि कुल वर्कर्स में से 68.4 पर्सेंट इनफॉर्मल सेक्टर के प्रासंगिक क्षेत्रों से जुड़े हुए हैं. कुल पुरुष मज़दूरों में से 71.1 पर्सेंट को इनफॉर्मल सेक्टर में काम मिला हुआ है. महिला मज़दूरों के मामले में यह संख्या 54.8 पर्सेंट है. इसे भी समझने की ज़रूरत है कि अगर किसी मज़दूर को बंधी हुई पगार मिलती है तो इतने से ही वह औपचारिक क्षेत्र का हिस्सा नहीं बन जाता. उसे फॉर्मल सेक्टर से तभी जुड़ा हुआ माना जाएगा, जब उसे दूसरे ज़रूरी एंप्लॉयी बेनेफिट्स मिलें और कंपनी या इकाई उसके साथ कॉन्ट्रैक्ट करे. भारत में इन फ़ायदों के बगैर काम करने वाली महिलाओं की संख्या पुरुषों की तुलना में अधिक है. 2017-18 में गैर-कृषि क्षेत्र में बंधी हुई तनख़वाह पर काम करने वालों में से 49.6 पर्सेंट वर्कर्स किसी सोशल सिक्योरिटी (सामाजिक सुरक्षा) बेनेफिट्स के योग्य नहीं थे. इनमें पुरुष मज़दूर 49 पर्सेंट और महिला वर्कर्स की संख्या 51.8 पर्सेंट थी.

अगर किसी मज़दूर को बंधी हुई पगार मिलती है तो इतने से ही वह औपचारिक क्षेत्र का हिस्सा नहीं बन जाता. उसे फॉर्मल सेक्टर से तभी जुड़ा हुआ माना जाएगा.

ग्रामीण क्षेत्रों में नियमित पगार पर काम करने वाले, लेकिन सामाजिक सुरक्षा लाभ के लिए अयोग्य माने जाने वाले पुरुष वर्कर्स की संख्या 51.9 पर्सेंट थी, जबकि महिला कर्मचारियों के लिए यह आंकड़ा 55.1 पर्सेंट था. शहरी इलाकों में नियमित सैलरी पर काम करने वाले 47 पर्सेंट पुरुष मज़दूरों को कोई सोशल सिक्योरिटी बेनेफिट नहीं मिल रहा था. ऐसे महिला मज़दूरों की संख्या 50.1 पर्सेंट थी.

सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के नफा-नुक़सान

ऊपर जो आंकड़े दिए गए हैं, उनसे पता चलता है कि बड़े पैमाने पर लोग इनफॉर्मल सेक्टर में काम कर रहे हैं. इन मज़दूरों को कानूनी और आर्थिक सुरक्षा दिलवाना बेहद चुनौतीपूर्ण काम है. भारत में शिक्षा, स्वास्थ्य, कौशल विकास, खाद्य सुरक्षा और पेंशन को लेकर कई सामाजिक सुरक्षा योजनाएं हैं, लेकिन इनमें से ज़्यादातर का फ़ायदा सिर्फ़ संगठित क्षेत्र में काम करने वालों को मिलता है. ऐसे में इनफॉर्मल सेक्टर में काम करने वाले मज़दूरों को इनका लाभ नहीं मिल पाता.

जब तक असंगठित क्षेत्र की अर्थव्यवस्था को टैक्स के दायरे में लाने का कोई कारगर तरीका नहीं ढूंढा जाता, तब तक इसमें काम करने वाले मज़दूरों की सामाजिक सुरक्षा के लिए विशेष पहल करनी होगी.

इनफॉर्मल यानी असंगठित क्षेत्र की कंपनियां और उनमें काम करने वाले मज़दूर न ही टैक्स चुकाते हैं और ना ही सरकार उनकी निगरानी करती है. हाल यह है कि देश की अर्थव्यवस्था में इस क्षेत्र का कितना योगदान है, उसका भी सही तरीके से पता नहीं लगाया गया है. जब तक असंगठित क्षेत्र की अर्थव्यवस्था को टैक्स के दायरे में लाने का कोई कारगर तरीका नहीं ढूंढा जाता, तब तक इसमें काम करने वाले मज़दूरों की सामाजिक सुरक्षा के लिए विशेष पहल करनी होगी. इधर, इस मामले में तेज़ी से कोशिशें भी हो रही हैं. सरकार ने इस साल बजट में प्रधानमंत्री श्रम योगी मान-धन (PM-SYM) योजना का ऐलान किया था. इस योजना में असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले मज़दूरों के लिए 500 करोड़ रुपये दिए गए हैं, जिन्हें सामाजिक सुरक्षा योजनाओं का लाभ नहीं मिल पा रहा था. इस स्कीम के ज़रिये ख़ासतौर पर उन मज़दूरों को सामाजिक सुरक्षा दी जाएगी जो “रिक्शा चलाने, सड़कों पर रेहड़ी-पटरी लगाने, मिड डे मील वर्कर्स, कुली, मोची, कूड़ा बीनने वाले, घरेलू मज़दूर, धोबी, कृषि मज़दूर, कंस्ट्रक्शन वर्कर्स, बीड़ी वर्कर्स, हथकरघा का काम करने वाले, ऑडियो-विजुअल वर्कर्स जैसे पेशों से जुड़े हैं.” इस लिस्ट में ऐसे कृषि मज़दूर शामिल हैं, जिन्हें PLFS के असंगठित क्षेत्र के आंकड़ों में जगह नहीं दी गई है. इसलिए इस योजना से असंगठित क्षेत्र में काम करने वालों की सामाजिक सुरक्षा का दायरा बढ़ा है. नीचे दिए गए टेबल में केंद्र सरकार के समर्थन से चलने वाली बड़ी सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के 2019-2020 के बजट आवंटन की तुलना 2018-19 के संशोधित बजट अनुमान से की गई है.

प्रोग्राम/योजना बजट 2019-20 (₹ करोड़ में) 2018-19 के संशोधित बजट अनुमान के मुकाबले बदलाव (% में)
महात्मा गांधी नेशनल रूरल एंप्लॉयमेंट गारंटी प्रोग्राम 60,000 -1.8
 इंदिरा गांधी नेशनल ओल्ड ऐज पेंशन स्कीम (IGNOAPS) 6,259 4.8
 नेशनल फैमिली बेनेफिट स्कीम 673 -0.4
 इंदिरा गांधी नेशनल विडो पेंशन स्कीम (IGNWPS) 1,939 -1.5
आंगनवाड़ी सर्विसेज (पुराना नाम ICDS) 19,834 10.9
 नेशनल क्रेच स्कीम 50 66.7
 आयुष्मान भारत- प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना (PMJAY) 6,400 166.7
PM-SYM 500 NA

इससे पता चलता है कि असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले वर्कर्स के लिए बनाई गई PM-SYM के लिए केंद्र सरकार की फ्लैगशिप योजनाओं में बदलाव किए गए. इसी तरह की एक योजना 2015 में अटल पेंशन योजना (APY) के नाम से लॉन्च की गई थी, लेकिन पिछले साल जनवरी तक इससे 80 लाख लाभार्थी ही जुड़े थे, जो देश के असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले कुल वर्कर्स के दो पर्सेंट से भी कम है. इनफॉर्मल सेक्टर में देश में करीब 42 करोड़ लोग काम करते हैं. PM-SYM की तरह अटल पेंशन योजना भई कंट्रीब्यूशन बेस्ड पेंशन प्लान है, जिसमें रिटायरमेंट के बाद वर्कर्स को हर महीने 1,000 से 5,000 रुपये के बीच पेंशन मिलती है. हालांकि, इसके लिए उन्हें कम से कम 20 वर्ष तक प्रीमियम का भुगतान करना होगा. PM-SYM में हर महीने 3,000 रुपये की न्यूनतम पेंशन का वादा किया गया है. इस लिहाज़ से यह अटल पेंशन योजना से बेहतर है. हालांकि, इसमें 18 से 40 साल की उम्र का ही कोई शख़्स जुड़ सकता है. इसी वजह से PM-SYM की आलोचना भी हुई है. इसमें इस बात का ख़्याल नहीं रखा गया है कि 40 साल की उम्र के बाद भी किसी वर्कर की 20 साल की कामकाजी जिंदगी बची रहती है. इसके बावजूद वे इस योजना का लाभ नहीं ले पाएंगे. ऐसे में इस योजना से उम्र की बंदिश हटाना बेहतर होगा. PM-SYM की एक और आलोचना इस बात को लेकर हो रही है कि सरकार इसके ज़रिये वर्कर की सामाजिक सुरक्षा की जवाबदेही का बोझ एंप्लॉयर पर घटा रही है. मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में सेल्फ-एंप्लॉयमेंट बढ़ने का मतलब यह है कि कंपनियां वर्कर्स से लंबी अवधि तक काम करवाना चाहती हैं और वे उनके जोख़िम को कम करने का बोझ भी नहीं उठाना चाहतीं. इस मामले में सेल्फ-एंप्लॉयमेंट यानी स्वरोज़गार का मतलब महिलाओं का घर से काम करना है. ऐसे काम को स्वरोज़गार कहने से एक समस्या खड़ी होती है कि रोज़गार के आंकड़ों में उन्हें शामिल नहीं किया जाता. घर पर रहकर काम करने वाले वर्कर्स को कंपनियां दिहाड़ी मज़दूर के तौर पर दिखाती हैं. असल में इन महिलाओं को काम पर रखने वाली कंपनियां इस तरह से रोज़गार सुरक्षा जैसे जोख़िम घटाती हैं और उन्हें वर्कर्स को सोशल इंश्योरेंस बेनेफिट भी नहीं देने पड़ते.

असल में जिन कंपनियों की आमदनी एक तय सीमा से अधिक हो, उन्हें अपने वर्कर्स को बुनियादी सामाजिक सुरक्षा देने को बाध्य किया जाना चाहिए. इसके लिए कड़ी शर्तें तय की जानी चाहिए.

भारत में एंप्लॉयीज प्रॉविडेंट फंड (EPF) और एंप्लॉयीज स्टेट इंश्योरेंस स्कीम (ESIC) जैसी योजनाओं के जरिये निजी और पब्लिक सेक्टर में काम करने वालों को सामाजिक सुरक्षा दी जाती है. सिद्धांत के तौर पर देखें तो इन नीतियों का लाभ संगठित के साथ असंगठित क्षेत्र में काम करने वालों को भी मिलना चाहिए. ESI कानून मुख्य रूप से उन इकाइयों पर लागू होता है, जिनमें 10 या उससे अधिक लोग काम कर रहे हों. साल 2011 के बाद से तो इसके दायरे में वैसे दुकान, होटल, रेस्टोरेंट्स, निजी मेडिकल और शैक्षिक संस्थान, सिनेमाघर और न्यूजपेपर इकाइयों को भी लाया गया, जिनमें 20 या उससे अधिक लोग काम कर रहे हों. हालांकि, सच्चाईयही है कि इस कानून का फायदा संगठित क्षेत्र में काम करने वाले वर्कर्स को ही मिल रहा है, जिनके साथ कंपनी ने लंबे समय के लिए वर्क एग्रीमेंट किया हुआ है. असल में जिन कंपनियों की आमदनी एक तय सीमा से अधिक हो, उन्हें अपने वर्कर्स को बुनियादी सामाजिक सुरक्षा देने को बाध्य किया जाना चाहिए. इसके लिए कड़ी शर्तें तय की जानी चाहिए. सामाजिक सुरक्षा के लिए कर्मचारियों की संख्या की शर्त में बदलाव करना भी बेहतर होगा.

देश में 42 करोड़ लोग असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे हैं और इस क्षेत्र का जीडीपी में 50 पर्सेंट योगदान है. इसे देखते हुए इन वर्कर्स को तब तक समर्थन की ज़रूरत है, जब तक कि रोज़गार बढ़ाने की दमदार योजनाओं के जरिये ये लोग संगठित क्षेत्र से न जुड़ जाएं. जब ये संगठित क्षेत्र का हिस्सा बन जाएंगे, तब कंपनियों को क़ानूननउन्हें सारे फायदे देने पड़ेंगे. अभी असंगठित क्षेत्र के वर्कर्स के लिए 500 करोड़ रुपये का अलग से प्रावधान करना सही दिशा में उठाया गया कदम है. इसके बाद अगला कदम सोशल सिक्योरिटी कोड को अंतिम रूप देने का होना चाहिए, जिस पर अभी संबंधित पक्षों और लोगों की राय ली जा रही है. इस प्रस्तावित कोड में न सिर्फ पेंशन देने की बात है बल्कि इसमें असंगठित क्षेत्र के वर्कर्स को हेल्थ और मैटरनिटी बेनेफिट्स देने का भी प्रावधान है. जब तक इस कोड पर मुहर नहीं लगती, तब तक मौजूदा योजनाओं का लाभ समूचे असंगठित क्षेत्र को दिलाने की कोशिश होनी चाहिए.

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