Author : Prithvi Iyer

Published on Dec 19, 2020 Updated 0 Hours ago

क्वीनिपएक के चुनाव पूर्व सर्वेक्षण में ग़लत पूर्वानुमान लगाया गया कि फ्लोरिडा और ओहायो में जो बाइडेन जीतेंगे जबकि इन दोनों प्रमुख राज्यों ने डोनाल्ड ट्रंप को जिताया.

अमेरिका की ‘राजनीति’ से भले ही ट्रंप चले गए हों लेकिन ‘ट्रंपिज़्म’ कहीं नहीं जा रहा

अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव के लिए मतदान से कुछ हफ़्ते पहले एक गृहिणी और रिपब्लिक पार्टी की समर्पित महिला समर्थक ने कहा, “मैं इसे नहीं मानती.” वो उस सर्वे के संदर्भ में बोल रही थीं जिसमें जो बाइडेन की भारी जीत का अनुमान लगाया गया था. महिला ने दावा किया कि मतदाताओं के एक बड़े हिस्से के मन में क्या है, इसका अंदाज़ा लगाने में सर्वे नाकाम हैं क्योंकि मतदाता अपनी असली तरजीह को छुपाते हैं. महिला के शक की तस्दीक भी हुई जब क्वीनिपिएक के चुनाव पूर्व सर्वेक्षण में ग़लत पूर्वानुमान लगाया गया कि फ्लोरिडा और ओहायो में जो बाइडेन जीतेंगे जबकि इन दोनों प्रमुख राज्यों ने डोनाल्ड ट्रंप को जिताया. महामारी से निपटने में पूरी तरह नाकामी और बढ़ते नस्लीय तनाव के बावजूद डोनाल्ड ट्रंप ने चुनाव सर्वेक्षकों के अनुमान से बेहतर प्रदर्शन किया और यहां तक कि फ्लोरिडा जैसे निर्णायक राज्य में जीत भी हासिल की. फिर चुनाव सर्वेक्षक इस बार ग़लत कहां साबित हुए? इसका जवाब तलाशने के लिए चुनाव प्रक्रिया में बुनियादी खोट और मतदाताओं की स्वाभाविक मनोवैज्ञानिक कमज़ोरी पर नज़र डालना होगा.

महामारी से निपटने में पूरी तरह नाकामी और बढ़ते नस्लीय तनाव के बावजूद डोनाल्ड ट्रंप ने चुनाव सर्वेक्षकों के अनुमान से बेहतर प्रदर्शन किया और यहां तक कि फ्लोरिडा जैसे निर्णायक राज्य में जीत भी हासिल की. 

सैंपलिंग की बाधाएं

किसी भी सर्वे की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि उसका सैंपल कितना अच्छा है. ये संभव नहीं है कि एक छोटे सैंपल के आधार पर किसी देश की पूरी विविधता का पता लगा लगा लिया जाए. इसलिए सर्वे में किसी ख़ास आबादी का प्रतिनिधित्व कम हो तो सर्वे करने वाले उसकी भरपाई करने के लिए डाटा में फेरबदल करते हैं.

2016 में सर्वे करने वालों ने माना कि उन्होंने अपने सर्वे में शिक्षा के स्तर को शामिल नहीं किया और दावा किया कि कॉलेज तक पढ़ाई नहीं करने वाले श्वेत मतदाताओं में ट्रंप के लिए समर्थन कम है जिसकी वजह से नतीजा ग़लत निकला. 2020 में सर्वे करने वालों ने सोचा कि शिक्षा को महत्व देने पर उनकी समस्या ख़त्म हो जाएगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ. इसके बदले एक बड़ी सैद्धांतिक समस्या खड़ी हो गई. सर्वे अपनी रिपोर्ट और हिस्सेदारों के द्वारा फ़ोन पर फ़ौरन जवाब देने पर यकीन करते हैं. दुर्भाग्यवश उस वक़्त सर्वे पर ख़राब असर पड़ता है जब जवाब देने वाला व्यक्ति उन विशेषताओं के आधार पर सवालों का जवाब नहीं देता जिसे सर्वे माप नहीं सकते. नस्ल और लिंग को तो जनगणना के आंकड़ों के आधार पर मापा जा सकता है लेकिन कुछ ऐसी चीज़ें भी हैं जिन्हें मापा नहीं जा सकता जैसे पक्षपात या चर्च के लिए समर्थन. टफ्ट यूनिवर्सिटी के एक सर्वे करने वाले ब्रियान शैफर के मुताबिक़ ट्रंप के समर्थक मीडिया और शिक्षा से जुड़े लोगों पर भरोसा नहीं करते. ऐसे में किसी भी सर्वे को उनके द्वारा गंभीरता से लेने की संभावना कम है. इस तरह अगर ये लोग सर्वे का जवाब नहीं देते तो डोनाल्ड ट्रंप के समर्थन को लेकर किसी नतीजे पर पहुंचना मुश्किल था.

सर्वे अपनी रिपोर्ट और हिस्सेदारों के द्वारा फ़ोन पर फ़ौरन जवाब देने पर यकीन करते हैं. दुर्भाग्यवश उस वक़्त सर्वे पर ख़राब असर पड़ता है जब जवाब देने वाला व्यक्ति उन विशेषताओं के आधार पर सवालों का जवाब नहीं देता जिसे सर्वे माप नहीं सकते.

इससे भी बढ़कर, अपनी रिपोर्ट को लेकर भी कई चुनौतियां हैं जो वोटर की एक निश्चित मनोवैज्ञानिक कमज़ोरी की वजह से खड़ी होती है. ये कमज़ोरी ख़ास तौर पर उस सामाजिक मंज़ूरी की ज़रूरत को लेकर है जो डोनाल्ड ट्रंप को समर्थन को लेकर कथित सामाजिक क़ीमत की वजह से वोटर को झूठ बोलने या चुनाव से परहेज करने को मजबूर करती है.

शर्मीला वोटर

सैंपलिंग की ग़लतियों के अलावा कई सर्वे करने वालों ने 2016 में ट्रंप की जीत का अनुमान लगाने में अपनी ग़लती के लिए शर्मीले वोटर को ज़िम्मेदार ठहराया है. शर्मीले वोटर वो होते हैं जो सर्वे करने वालों को वोटिंग के मामले में अपनी पसंद को लेकर झूठ बोलते हैं. ट्रंप के लिए समर्थन को छिपाना “सामाजिक पक्षपात” है. ये पक्षपात लोगों को मजबूर करता है कि वो सर्वे का जवाब इस तरह दें कि उन्हें सकारात्मक समझा जाए. इस तरह जब किसी अंजान व्यक्ति को फ़ोन पर वोटिंग के बारे में उनकी प्राथमिकता साझा करने को कहा जाता है तो इस बात की ज़्यादा संभावना है कि वो अपनी असली राय देने के बदले ऐसा जवाब देगा जो सर्वे करने वाला सुनना चाहता है. राजनीतिक ध्रुवीकरण के ज़्यादा तीखा होने और दोनों तरफ़ की राजनीति में असहिष्णुता चरम पर पहुंचने के साथ वोटर अपनी पसंद को साझा करने से हिचकता है.

लोगों की ग़लत पसंद को लेकर उन पर प्रहार करने के ख़तरनाक रुझान ने समर्थकों के बीच बंटवारे को और बढ़ा दिया है और सार्वजनिक तौर पर वोटर अपनी पसंद का ख़ुलासा करने से डरने लगे हैं. इस वजह से शर्मीले वोटर ट्रंप जैसी बांटने वाली हस्ती के मामले में समर्थन को मापने में बहुत बड़ी बाधा रहे. वोट को लेकर धारणा पर 2020 में एक रिसर्च से पता चला कि 77% कंज़र्वेटिव मतदाताओं को अपनी राजनीतिक राय को साझा करने का डर था. उन्हें लगता था कि ऐसा करने से उनपर प्रहार होगा. 2017 में ऐसा मानने वाले कंज़र्वेटिव मतदाता 70% थे. रिपब्लिक पार्टी के समर्थक एक सर्वेक्षक नील न्यूहाउस, जो पहले राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार मिट रोमनी के कैंपेन के साथ जुड़े थे, ने भी दिखाया कि जब लोगों से सवाल पूछने के बदले उन्हें बटन दबाकर अपनी प्राथमिकता बताने के लिए कहा गया तो ट्रंप को ज़्यादा समर्थन मिला. इससे भी बढ़कर, चुनाव के बाद सर्वे में भी पता लगा कि ट्रंप के 35% समर्थक सार्वजनिक रूप से उनके लिए अपना समर्थन ज़ाहिर करना नहीं चाहते.

राजनीतिक ध्रुवीकरण के ज़्यादा तीखा होने और दोनों तरफ़ की राजनीति में असहिष्णुता चरम पर पहुंचने के साथ वोटर अपनी पसंद को साझा करने से हिचकता है.

चुनावी सर्वे अपनी रिपोर्ट पर यकीन करते हैं. ऐसे में लोगों को प्रशंसा की दृष्टि से देखना ज़रूरी है. ये सोच कि डोनाल्ड ट्रंप का समर्थन करना ग़लत है, सर्वे को ग़लत साबित कर सकता है. सर्वे करने वालों ने इस समस्या से छुटकारे का एक तरीक़ा ये बताया है कि मतदाताओं से ये पूछा जाए कि उनके मुताबिक़ दूसरे लोग किसको वोट करने वाले हैं. ऐसे में मतदाता का ये डर दूर होगा कि कहीं उनके राजनीतिक विचार का पता न लग जाए. इस तरह वोटर से ये नहीं पूछा जाए कि “आप किसको वोट देंगे ?” बल्कि इसका वैकल्पिक सवाल है, “आपके मुताबिक़ आपके पड़ोसी किसको वोट देंगे”. सर्वे करने वाली एक एजेंसी ने पाया कि जब वोटर से तीसरे आदमी के बारे में सवाल पूछा गया तो बाइडेन की 10 प्वाइंट की बढ़त घटकर आधी रह गई. ये इस बात की अहमियत का संकेत देती है कि सामाजिक पक्षपात को दूर करने के लिए सवाल को दूसरे तरीक़े से पूछा जाए ताकि ट्रंप जैसे नेताओं के बारे में मतदाताओं की प्राथमिकता का बेहतर ढंग से पता लग सके.

चुनाव सर्वे की विश्वसनीयता के लिए ऐसे समाधान चाहिए जो लोगों के सामाजिक दबाव के

असर को दूर कर सकें. बहुत ज़्यादा ध्रुवीकरण ने राजनीतिक नज़रिये को सार्वजनिक शर्म का विषय बना दिया है. ऐसे में सर्वे करने वालों की अपनी रिपोर्ट से भी सही और ग़लत जवाब का पता लगाना कठिन हो गया है. सैंपलिंग में इनोवेशन और सवाल पूछने की रणनीति इन चुनौतियों का समाधान करने और सर्वे की प्रक्रिया में भरोसा बहाली के लिए ज़रूरी हैं.

ट्रंप के आकर्षण को समझने का एक तरीक़ा सिग्मंड फ्रायड की थ्योरी ऑफ आईडी है. आईडी यानी दिमाग़ का वो हिस्सा जो हमारी असली उत्तेजना को संभालकर रखता है जिसे हम सक्रिय रूप से दबाने की कोशिश करते हैं. 

ट्रंप के लिए ज़ोरदार आकर्षण: फ्रायड का दृष्टिकोण

2020 का चुनाव और उम्मीद से बेहतर ट्रंप का प्रदर्शन बताता है कि ट्रंप के लिए आकर्षण अभी भी बरकरार है और जो बाइडेन की जीत के बाद हमें इसे भूलना नहीं चाहिए. एडिसन एग्ज़िट पोल से संकेत मिलता है कि ट्रंप ने अमेरिका की आबादी के एक बड़े हिस्से के विचारों को अभी भी वशीभूत कर रखा है क्योंकि ट्रंप ने श्वेत पुरुषों को छोड़कर 2020 में सभी नस्लों और लैंगिक श्रेणी में अपना वोट बढ़ाया है. ट्रंप के आकर्षण को समझने का एक तरीक़ा सिग्मंड फ्रायड की थ्योरी ऑफ आईडी है. आईडी यानी दिमाग़ का वो हिस्सा जो हमारी असली उत्तेजना को संभालकर रखता है जिसे हम सक्रिय रूप से दबाने की कोशिश करते हैं.

ट्रंप को लेकर आकर्षण के बारे में फ्रायड की समझ हमें बताती है कि उनकी कामयाबी मतदाताओं में ख़ुद को ज़ाहिर करने में है. ट्रंप की छवि बुरी, बांटने वाले की और नैतिक तौर पर निंदा के योग्य हैं जिनकी चर्चा आम तौर पर चुपचाप ढंग से की जाती है. ट्रंप के आलोचक जिस चीज़ को लापरवाही समझते हैं, वो उनकी ताक़त का स्रोत हो सकता है क्योंकि बेकाबू इंसान की छवि सामूहिक अमेरिकी आईडी की अभिव्यक्ति हो सकती है. अभी तक इसे अमेरिका में खुलकर ज़ाहिर करने की इजाज़त नहीं थी.

राजनीति में आईडी को अभिव्यक्त करने की इच्छा ट्रंप के व्हाइट हाउस छोड़ने के साथ ख़त्म नहीं होगी. डोनाल्ड ट्रंप का बड़बोलापन उनके जाने के लंबे वक़्त के बाद भी महसूस किया जाएगा. 

अगर कोई फ्रायड के नज़रिये को डोनाल्ड ट्रंप जैसे लोकप्रिय नेता के आकर्षण को समझने में महत्व देता है तो साफ़ है कि राजनीति में आईडी को अभिव्यक्त करने की इच्छा ट्रंप के व्हाइट हाउस छोड़ने के साथ ख़त्म नहीं होगी. डोनाल्ड ट्रंप का बड़बोलापन उनके जाने के लंबे वक़्त के बाद भी महसूस किया जाएगा. जब तक हम मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से ट्रंपिज़्म के आकर्षण को समझ नहीं लेते हैं तब तक नेताओं के द्वारा मतदाताओं से लाभ उठाने का ये तरीक़ा बरकरार रहेगा और ट्रंपिज़्म ट्रंप से ज़्यादा समय तक टिके रह सकता है.

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