Published on Jul 18, 2020 Updated 0 Hours ago

हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि हमारे इंडस्ट्रीज़ दुनियाभर में कॉम्पीटेटिव गुड्स सबसे सस्ते और सबसे अच्छी गुणवत्ता वाले प्रोडक्ट बनाएं. तभी हमारे इंडस्ट्रीज़ दुनिया में प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं.

बिना अपनी मैनुफैक्चरिंग इंडस्ट्रीज़ में सुधार किए हम चीन से कोई युद्द जीत नहीं सकते

भारत के नेशनल सिक्योरिटी एडवाइजर अजीत डोभाल और चीन के विदेश मंत्री वांग यी के बीच सीमा विवाद को लेकर शांति बहाली की कोशिशें चल रही हैं. लेकिन इसके बाद भी दोनों तरफ से चौकसी बनी हुई है. तो ऐसे में यह सवाल खड़ा होता है कि क्या वास्तव में डी-स्केलेशन की प्रक्रिया हो रही है? कई लोगों का मानना है कि डिसइंगेजमेंट तो शुरू हुआ है लेकिन डी-एस्केलेशन में एक लंबा समय लगेगा और इसके लिए एक दीर्घकालीन नीति बनाने की ज़रूरत है.

दो देशों के बीच के संबंध किसी ब्रह्मवाक्य या ब्रह्मवाद के सिद्धांत पर नहीं चलते कि एक बार जो कह दिया सो कह दिया. भारत और चीन के बीच संघर्षों में उतार-चढ़ाव की प्रक्रिया लगातार चलती रहती है. भारत और चीन के बीच में जो सामरिक जटिलताएं हैं उन्हें समझते हुए हल निकालने की ज़रूरत है. आज के समय में आधुनिक युद्ध के तौर-तरीके बदल चुके हैं, रणनीति बदल चुकी है, युद्ध क्षेत्र का स्थल बदल चुका है. पारंपरिक युद्ध की संख्या में लगातार गिरावट आती जा रही है. आजकल गैर-पारंपरिक युद्ध शैली — चाहे वह आतंकवाद के माध्यम से हो, साइबर युद्ध के माध्यम से हो या दूसरे देशों की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था में हिंसात्मक अव्यवस्था उत्पन्न करके हो — पर ज्य़ादा ज़ोर दिया जा रहा है. आज के समय में सीमा पर युद्ध लड़ना नासमझी भरा कदम दिखता है. देशों के पास और भी कई सारे तरीके हैं जिनके सामने राफेल, सुखोई, टी-19 यह सब महज़ एक खिलौने मात्र बनकर रह जाते हैं. इस प्रकार हम कह सकते हैं कि युद्ध सिर्फ सैन्य शक्ति के बल पर नहीं लड़ा जा सकता हैं. यह सब राष्ट्रों के मध्य संघर्षों की तीव्रता को कम करने में अपनी सामरिक भूमिका अदा करते हैं. लेकिन अंततः इन पूरे घटनाक्रम पर नज़र रखते हुए चीन के साथ जो हमारे संबंध हैं उसके लिए एक दीर्घकालिक रणनीति की व्यवस्था की जानी चाहिए.

चीन के ख़िलाफ भारत का आर्थिक युद्ध कितना कारगर

चीन के साथ इस लड़ाई में युद्ध के जितने भी साधन है उनका बड़ा ही सोच-समझकर इस्तेमाल किया जाना चाहिए. साथ ही साथ इस बात का भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि हथियारों के इस्तेमाल में अपना नुकसान कम हो और दूसरे पक्ष का नुकसान ज्यादा हो. इसको बहुत ही जांच परख कर करने की ज़रूरत है. चीन के साथ भारत की अर्थव्यवस्था इतनी बुरी तरीके से जुड़ी हुई है कि यदि हम आवेश में आकर इसकी अनदेखी करते हैं तो इसमें अपना ही नुकसान ज्यादा कर बैठेंगे. इस प्रकार यह ज़रूरी हो जाता है कि इन सब में संतुलन बनाते हुए इस सामरिक खेल को खेलना चाहिए. आत्मनिर्भरता बहुत ज़रूरी है और इस आत्मनिर्भरता की एक कड़ी परनिर्भरता होती है. और चीन ने इसका बख़ूबी इस्तेमाल किया है. वह पूरी तरीके से पश्चिमी देशों पर निर्भर रह करके धीरे-धीरे आत्मनिर्भर बनता गया और अपने पैरों पर खड़ा हो गया. इसीलिए राष्ट्रों के संचालन में ब्रह्मावाद नहीं चलता. इसको बड़े ही जांच-परख करके, सोच-विचार करके, कई पहलुओं को देख करके आगे का रास्ता तय करना होता है. कोई भी रास्ता ना तो एकदम सही होता है और न तो एकदम ग़लत ही होता है.

हॉन्गकॉन्ग की राजनीतिक अस्थिरता हमारे हितों को कैसे प्रभावित कर सकता है?

23 जून को चीन ने हॉन्गकॉन्ग पर नेशनल सिक्योरिटी एक्ट थोप दिया जिसके तहत अब किसी भी तरह के विरोध प्रदर्शन या किसी भी मामले में वो उनपर कार्यवाही कर सकता है. तो इस तरह से चीन की वजह से हॉन्गकॉन्ग में भी राजनीतिक अस्थिरता बनी हुई है. भारत के लिए हॉन्गकॉन्ग छठवां सबसे बड़ा निर्यातक रहा है.

अमेरिका और चीन के तार इतने गहरे जुड़े हुए हैं कि सब में इस बात को लेकर अफ़रा-तफ़री मची हुई है कि अगर हॉन्गकॉन्ग में दोनों पक्ष अपने-अपने एक्ट के तहत कार्रवाई शुरू कर देती हैं, तो इस बीच में जो बड़ी-बड़ी कंपनियां और बैंक फंस जाती हैं

चीन के हॉन्गकॉन्ग में सिक्योरिटी एक्ट पारित करने के बाद से अमेरिकी कांग्रेस ने हॉन्गकॉन्ग के ख़िलाफ़ हॉन्गकॉन्ग ऑटोनोमी एक्ट (“HKAA”) पारित किया जिस पर डॉनल्ड ट्रंप ने अपनी मुहर लगा दी है. चीन का सिक्योरिटी एक्ट एक तरह से अमेरिका के हॉन्गकॉन्ग ऑटोनोमी एक्ट को काउंटर करता है. इस प्रकार कानून को भी एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है और यह दोनों ही कानून एक्सट्रैटेरिटोरियल है. चीन के एक्ट का संबंध उसकी अपनी सीमाओं से नहीं है उसने इस एक्ट में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है कि यदि चीन या हॉन्गकॉन्ग के ख़िलाफ कोई भी देश प्रतिबंध लगाता है या अवरोध पैदा करता है तो उसे शत्रुतापूर्व कार्रवाई मानी जाएगी. इसका उनपर पर असर पड़ेगा और चीन उनके ख़िलाफ़ कदम उठाएगा. अमेरिका का यूके भी यही कहता है कि हॉन्गकॉन्ग की जो वन कंट्री टू सिस्टम की नीति है यदि उसमें कोई देश ख़लल पैदा करता है तो अमेरिका ऐसे चीनी नेताओं के ख़िलाफ, चीनी संस्थाओं के ख़िलाफ अवश्य प्रतिबंधात्मक कदम उठाएगा और जो भी संस्थाएं इनका सहयोग करेंगी उनके ख़िलाफ भी कार्रवाई करेगा.

समस्या यहां पैदा होती है कि हॉन्गकॉन्गमें पिचासी हजार से ज्य़ादा अमेरिकी नागरिक है और बारह सौ से ज्य़ादा अमेरिकी कंपनियां हॉन्गकॉन्ग में है. इसी प्रकार कई सारे इंटरनेशनल बैंक वहां पर है तो अमेरिका और चीन के तार इतने गहरे जुड़े हुए हैं कि सब में इस बात को लेकर अफ़रा-तफ़री मची हुई है कि अगर हॉन्गकॉन्ग में दोनों पक्ष अपने-अपने एक्ट के तहत कार्रवाई शुरू कर देती हैं, तो इस बीच में जो बड़ी-बड़ी कंपनियां और बैंक फंस जाती हैं, उनके इन्वेस्टमेंट का क्या होगा? यह एक मंथन दोनों तरफ़ से चल रहा है. उम्मीद यही की जाती है कि दोनों देश अपने-अपने एक्ट को बहुत गंभीरता से नहीं लेंगे. यह सिर्फ़ एक दूसरे को काउंटर करने के लिए एक दूसरे की पैंतरेबाजी को सीमित करने के लिए कार्रवाई की जा रही है.

बीते तीन-चार सालों में चीन के साथ हमारे ट्रेड बैलेंस में लगातार सुधार होते जा रहा है —पहले 60 बिलियन डॉलर का था, वह घटकर 52 बिलियन डॉलर तक हुआ और अब सुनने में आ रहा है कि 48 बिलियन डॉलर का ही व्यापारिक घाटा रह गया है. लेकिन इसके साथ ही साथ हॉन्गकॉन्ग से भारत का व्यापार लगभग उतना ही बढ़ता जा रहा है और यह अंदेशा है कि चीन के रास्ते से जो हमारे सामान आते थे वह अब हॉन्गकॉन्ग सिंगापुर के साथ-साथ अन्य कई रास्तों से आ रहे हैं.

हमें यह समझना होगा कि यदि अन्य देश हमसे कम क़ीमत पर सामान बना रहा है तो वह चाहे नंबर 1 के रास्ते, नंबर 2 के रास्ते, नंबर 3 के रास्ते हो, वो घूमघाम कर भारत आ ही जाएगा. इस प्रकार हमें अपने इंडस्ट्रीज़ में सुधार लाने के अलावा अन्य कोई दूसरा रास्ता नहीं बचता

चीन के साथ इंपोर्ट के मामले में अर्थशास्त्री परेशान क्यों?

विश्व की अर्थव्यवस्था आपस में इस तरह से उलझी हुई है कि किसका तार किससे जुड़ा है इसका पहचान कर पाना और इन्हें अलग कर पाना बड़ा मुश्किल है. आज दुनिया के देश इस फिराक़ में लगे हुए हैं कि यदि चीन से आपूर्ति श्रृंखला विस्थापित हो तो कैसे उनके यहां आए और इस कोशिश में भारत भी लगा हुआ है. वास्तव में अगर भारत को आत्मनिर्भर बनना है तो पहले उसे अपनी इंडस्ट्रीज़ के अंदर सुधार करना होगा. और इन्हें प्रतिस्पर्धात्मक बनाने होंगे. क्योंकि हमें यह समझना होगा कि यदि अन्य देश हमसे कम क़ीमत पर सामान बना रहा है तो वह चाहे नंबर 1 के रास्ते, नंबर 2 के रास्ते, नंबर 3 के रास्ते हो, वो घूमघाम कर भारत आ ही जाएगा. इस प्रकार हमें अपने इंडस्ट्रीज़ में सुधार लाने के अलावा अन्य कोई दूसरा रास्ता नहीं बचता. यह भारत के सामने आगे आने वाले कुछ वर्षों तक चुनौती बनी रहेगी यदि हम वास्तव में चीन से टक्कर लेना चाहते हैं तो हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि हमारे इंडस्ट्रीज़ दुनियाभर में कंपीटेटिव गुड्स सबसे सस्ते और सबसे अच्छी गुणवत्ता वाले प्रोडक्ट बना सके तभी ये दुनिया में प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं.

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