Author : Harsha Kakar

Published on Dec 09, 2017 Updated 0 Hours ago

अमेरिका जानता है कि पाकिस्तान सरकार का आतंकी समूहों को समर्थन देने के मामले में कमोबेश कोई नियंत्रण नहीं हैं क्योंकि इस कार्य को सत्ता के कुछ बेहद प्रभावशाली लोगों, सेना और आईएसआई से निर्मित्त समूह द्वारा अंजाम दिया जाता है। उनके खिलाफ कदम उठाने की पाक सरकार को दी जाने वाली नियमित चेतावनियों को नजरअंदाज किया जाता रहा है।

अमेरिका-अफगान सफलता: पाक आतंकियों पर कार्रवाई करने के लिए मजबूर

अमेरिकी सेना पाकिस्तान के अखबार ‘डॉन’ की रिपोर्टों के अनुसार, अमेरिका के सबसे प्रमुख सैन्य अधिकारी ज्वॉयंट चीफ ऑफ स्टाफ, जनरल जोसेफ डनफोर्ड के चेयरमैन एवं रक्षा सचिव जेम्स मैटिस के निकट भविष्य में ही पाकिस्तान आने की संभावना है जहां वे अफगानिस्तान में तालिबान के खिलाफ अपनी लड़ाई में उनसे सहयोग की अपील करेंगे। उनकी यह यात्रा अमेरिका द्वारा अफगानिस्तान में अपने अतिरिक्त 3,000 टुकडि़यों की तैनाती के संपन्न होने और अफगान सैन्य बलों के साथ संयुक्त रूप से सैन्य संचालन आरंभ करने की अपनी इच्छा की घोषणा के बाद हो रही हे। नाटो देशों से अतिरिक्त 2,000 टुकडि़यों की अभी भी प्रतीक्षा की जा रही है। इस प्रकार, अफगानिस्तान में 15,000 से अधिक नाटो टुकडि़यां एकत्र हो जाएंगी।

अफगानिस्तान में अमेरिका की रणनीति तालिबान की लड़ाकू क्षमताओं को कमजोर बनाने और उनके सरगना को निशाना बनाने की है जिससे कि तालिबानों को बिना किसी पूर्व शर्तों के अफगानिस्तान सरकार के साथ बातचीत करने के लिए उस पर दबाव डाला जा सके। इस दिशा में कदम आगे बढ़ाने तथा इसका सार्थक नतीजा निकालने के लिए यह अनिवार्य है कि तालिबान एवं हक्कानी नेतृत्व, जिनके वर्तमान में पाकिस्तान में सुरक्षित सैन्य ठिकाने हैं, को अफगानिस्तान की पहाडि़यों में धकेल दिया जाए। उन्हें पाक से हटाए जाने के बाद ही अमेरिका उन्हें निशाना बनाने में सक्षम हो पाएगा और फिर बातचीत करने के लिए उन्हें सामने लाने में मजबूर कर सकेगा। इसके अतिरिक्त, अगर अफगानिस्तान आर्थिक रूप से स्थिर हो जाता है और उसकी सेना प्रशिक्षित और हथियारों से लैस हो जाती है तो उसे अतिरिक्त सहायता की आवश्यकता होगी। अमेरिका भारत से ऐसी ही भूमिका निभाए जाने की उम्मीद करता है क्योंकि अफगानिस्तान में स्थिरता आने से भारत को भी लाभ हासिल होगा।

अफगानिस्तान में अमेरिका की रणनीति तालिबान की लड़ाकू क्षमताओं को कमजोर बनाने और उनके सरगना को निशाना बनाने की है जिससे कि तालिबानों पर बिना किसी पूर्व शर्तों के अफगानिस्तान सरकार के साथ बातचीत करने के लिए दबाव डाला जा सके।

अफगानिस्तान का पड़ोसी होने तथा तालिबान और हक्कानी नेटवर्क का कट्टर समर्थक होने के कारण, पाकिस्तान इस क्षेत्र का एक महत्वपूर्ण देश है, जिसे उनके खिलाफ कदम उठाने के लिए मजबूर किए जाने की जरूरत है। निश्चित रूप से अफगानिस्तान को लेकर अमेरिका एवं पाकिस्तान के दृष्टिकोण में सुस्पष्ट असमानता है जिसे अगर दूर नहीं किया गया तो न तो इस देश में अमन बहाल हो सकेगा और न ही नाटो की सेना को वहां से सफलतापूर्वक निकलने की इजाजत दी जा सकेगी। हालांकि अफगानिस्तान में शांति पाकिस्तान के पक्ष में ही है, लेकिन शांति की प्रकृत्ति कैसी हो, इसे लेकर दोनों देशों के दृष्टिकोण में बड़ा अंतर है।

पाकिस्तान के लिए, अफगानिस्तान हमेशा से उसके सामरिक महत्व का क्षेत्र रहा है और उसकी कोशिश वहां एक पाक सरकार समर्थक व्यवस्था स्थापित करने के द्वारा उस पर नियंत्रण स्थापित करने की है। इसलिए, वह कदापि नहीं चाहेगा कि अफगानिस्तान के मामले में भारत की किसी भी प्रकार की कोई भूमिका हो।

पाकिस्तान के लिए, अफगानिस्तान हमेशा से उसके सामरिक महत्व का क्षेत्र रहा है और उसकी कोशिश वहां एक पाक सरकार समर्थक व्यवस्था स्थापित करने के द्वारा उस पर नियंत्रण स्थापित करने की है। इसलिए, वह कदापि नहीं चाहेगा कि अफगानिस्तान के मामले में भारत की किसी भी प्रकार की कोई भूमिका हो। पाकिस्तान के मन में खासकर, भारत को लेकर हमेशा से कुछ गलत धारणाएं रही हैं जिसे दूर किए जाने की आवश्यकता है।

पाकिस्तान के मन में खासकर, भारत को लेकर हमेशा से कुछ गलत धारणाएं रही हैं जिसे दूर किए जाने की आवश्यकता है। पहली गलत धारणा यह है कि भारत अफगानिस्तान के जरिये बलुचिस्तान में अराजकता को बढ़ावा दे रहा है। दूसरी गलत धारणा यह है कि भारत को पाकिस्तान विरोधी आतंकवाद एवं अराजकता को बढ़ावा देने में अफगानिस्तान की खुफिया एजेंसी, नेशनल डायरेक्टोरेट ऑफ सिक्यूरिटी (एनडीएस) का समर्थन हासिल है। तीसरी गलत धारणा यह है कि एनडीएस और अफगान सरकार पाकिस्तान विरोधी आतंकी समूहों को शरण स्थली प्रदान कर रही है जो लगातार भारत के खामोश समर्थन से पाकिस्तान को निशाना बना रहे हैं। सरल लफ्जों में कहा जाए तो उसे लगता है कि भारत पहले ही अफगानिस्तान के जरिये पाकिस्तान को अस्थिर करने की साजिश करता रहा है। इसलिए, पाकिस्तान में होने वाली हर वारदात का आरोप भारतीय खुफिया एजेंसियों पर मढ़ दिया जाता है। यहां तक कि पाकिस्तान में वर्तमान में जारी विरोध-प्रदर्शनों के दौरान भी पाकिस्तान के आंतरिक मंत्री अहसान इकबाल ने दावा किया है कि प्रदर्शनकारी भारत के संपर्क में थे।

पाकिस्तान हमेशा से कहता रहा है कि तालिबान को शरण स्थली के लिए पाकिस्तानी क्षेत्र की आवश्यकता नहीं है क्योंकि उसका अफगानिस्तान के लगभग 40 प्रतिशत हिस्से पर नियंत्रण है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान हमेशा से यह रोना रोता रहा है कि वह आतंकवाद का सबसे अधिक शिकार है और आतंकवाद के खिलाफ उसकी लड़ाई की वजह से सभी आतंकी समूह उसकी जमीन छोड़ चुके हैं। लेकिन भारत और अफगानिस्तान पर अपने आंतरिक मामलों में दखल देने के आरोपों और आतंकवाद के खिलाफ उसकी खुद की लड़ाई के दावों पर आज दुनिया में कोई यकीन नहीं करता।

अमेरिका के विचार इस मामले में थोड़े अलग हैं। उसे पूरा यकीन है कि जब तक तालिबानी और हक्कानी नेटवर्क को हथियारों और मिलने वाले बेशुमार फंडों से महरूम नहीं किया जाता और उन्हें पाकिस्तान से बाहर नहीं किया जाता, शांति प्रक्रिया में उनके शामिल होने की कोई संभावना नहीं है। इसके अतिरिक्त, अमेरिका ज्यादा दबाव डालने के लिए पाकिस्तान की सीमा में ड्रोन को तैनात करने का प्रयास कर रहा है जिससे उन आतंकियों को निशाना बनाया जा सके, जो अभी भी वहां जमे हुए हैं। इस काम को लेकर अपनी गंभीरता का परिचय देने के लिए उसने पाकिस्तान को फंड जारी किए हैं जिससे कि वह इन आतंकी समूहों के खिलाफ कार्रवाई कर सके। बहरहाल, पाकिस्तान को कुछ बचने का रास्ता मुहैया कराने के लिए उसने हक्कानी नेटवर्क से लश्करे तैयबा को अलग कर दिया है।

अमेरिका जानता है कि पाकिस्तान सरकार का आतंकी समूहों को समर्थन देने के मामले में कमोबेश कोई नियंत्रण नहीं हैं क्योंकि इस कार्य को सत्ता के कुछ बेहद प्रभावशाली लोगों, सेना और आईएसआई से निर्मित्त समूह द्वारा अंजाम दिया जाता है।

अमेरिका जानता है कि पाकिस्तान सरकार का आतंकी समूहों को समर्थन देने के मामले में कमोबेश कोई नियंत्रण नहीं हैं क्योंकि इस कार्य को सत्ता के कुछ बेहद प्रभावशाली लोगों, सेना और आईएसआई से निर्मित्त समूह द्वारा अंजाम दिया जाता है। उनके खिलाफ कदम उठाने की पाक सरकार को दी जाने वाली नियमित चेतावनियों को नजरअंदाज किया जाता रहा है। अतिरिक्त तैनाती के संपन्न हो जाने के बाद, अब समय आ गया है कि पाकिस्तान को कदम उठाने के लिए विवश करने के लिए दबाव का इस्तेमाल किया जाए अन्यथा नाटो को विफल करार दिया जाएगा। इसी के मद्देनजर अमेरिका के शीर्ष सैन्य अधिकारियों की आगामी पाकिस्तान यात्रा बेहद महत्वपूर्ण है।

अमेरिका जानता है कि पाकिस्तान सरकार का आतंकी समूहों को समर्थन देने के मामले में कमोबेश कोई नियंत्रण नहीं हैं क्योंकि इस कार्य को सत्ता के कुछ बेहद प्रभावशाली लोगों, सेना और आईएसआई से निर्मित्त समूह द्वारा अंजाम दिया जाता है।

अमेरिका के पास पाकिस्तान को इसके लिए मजबूर करने से संबंधित सीमित विकल्प और समय है। जैसे ही जाड़े का मौसम शुरु होता है, तालिबान शीतनिद्रा में चले जाते हैं अर्थात गर्मियों में अपनी कारगुजारियों को अंजाम देने के लिए खुद को फिर से एकजुट करने और तालमेल बनाने में मशगूल हो जाते हैं। तालिबान और हक्कानी नेटवर्क के सरगने को जाड़े के मौसम में पाकिस्तान में घुसने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए। उन्हें पाक-अफगान सीमा की पहाडि़यों में घुसे रहने को मजबूर किया जाना चाहिए जिससे कि वे अमेरिकी ड्रोन हमलों के निशाने की जद मे आ जाएं।

पाकिस्तान को फंडो की आपूर्ति बाधित करना एक विकल्प हो सकता है, लेकिन चीन द्वारा पाकिस्तान की मदद को देखते हुए यह योजना कामयाब नहीं हो सकती है। इसके लिए पाकिस्तान को आतंकी समूहों के प्रायोजक के रूप में प्रचारित किए जाने की आवश्यकता है। साथ ही, गैर-नाटो सहायक देशों की फेहरिस्त से इसे हटाए जाने की मांग की जानी चाहिए। यह पाकिस्तान के लिए एक राजनयिक झटका साबित होगा जो खुद को आतंकवाद से पीडि़त कहलाने में गौरवान्वित महसूस करता रहा है। इसके साथ साथ, अमेरिका की पाकिस्तानी सीमा के आरपार ड्रोन हमलों को तेज करने की आवश्यकता है, भले ही इससे जान माल का कितना बड़ा नुकसान क्यों न हो। ऐसी कार्रवाई पाकिस्तानी सेना के रुख एवं प्रतिष्ठा को हानि पहुंचाएगी क्योंकि तब उससे अपनी आबादी की रक्षा करने में विफलता पर सवाल पूछे जाएंगे।

आंतरिक रूप से, अमेरिका अफगानिस्तान से गुजारिश कर सकता है कि अपने निर्यात आधार के रूप में वह कराची का उपयोग करना बंद कर दे और भारत की सहायता से चाबाहार बंदरगाह के जरिये अपने निर्यातों को वहां स्थानांतरित कर दे। इससे अफगान व्यापार पर पाकिस्तान के कथित नियंत्रण पर प्रभाव पड़ेगा जिसका इस्तेमाल वह अंतरराष्ट्रीय सीमा को अवरुद्ध करने के लिए करता है।

बहरहाल, अफगानिस्तान में भारतीय भूमिका अमेरिका के हाथों में सबसे बड़ा हथियार है। अफगानिस्तान में भारतीय भूमिका में बढोतरी का संकेत मात्र पाकिस्तान की आंखों में कांटे की तरह चुभने लगता है। पाकिस्तान आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई करने पर सहमति जता सकता है, अगर उसे यह भरोसा दिला दिया जाए कि भारत की भूमिका में अफगानिस्तान में अपना प्रभाव बढ़ाना या सेना की उपस्थिति में बढोतरी करना शामिल नहीं हे। पाकिस्तान दुनिया को भारतीय नजरिये से देखता है, इसलिए ऐसा कदम उसके लिए भारत को लेकर अपनी धारणा को बदलने में सहायक साबित हो सकता है। पाकिस्तान को फुसलाने के लिए एक दूसरा उपाय पाक विरोधी तालिबानों को निशाना बनाने का वादा हो सकता है।

अमेरिका के लिए जरुरी है कि पाकिस्तान आतंकियों पर कार्रवाई करे लेकिन वह उसे इसके लिए मजबूर कर पाने में सक्षम नहीं हो पाया है। सीमा के आरपार ड्रोन हमलों में तेजी लाने, भारतीय प्रभाव एवं उपस्थिति बढ़ाने तथा आतंकियों पर कार्रवाई करने के लिए अंतरराष्ट्रीय फोरमों में पाक को जलील करने के अतिरिक्त, उसे उस तिकड़ी (प्रभावशाली लोगों, सेना और आईएसआई) पर भी दबाव डालने की आवश्यकता है। अगर अमेरिका ऐसा नहीं करता तो उसे अफगानिस्तान में अगले कुछ दशकों तक बना रहना पड़ सकता है, या फिर सावियत संघ की तरह नाकाम होकर वहां से वापसी करनी होगी।

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