Author : Seema Sirohi

Published on Apr 16, 2018 Updated 0 Hours ago

अगर ट्रम्प अपने इरादों पर अटल रहे और अगर एक व्यापार युद्ध शुरू होता है तो ये ज़रूरी नहीं की अमेरिका की हार हो ख़ास तौर पर तब अगर यूरोप एक साझा नीति पर काम करने को तैयार हो।

अंकल सैम को आई चाइना की सुध

कुछ ऐसा इत्तिफाक है की भारत और अमेरिका कई मुद्दों पर एक समय पर एक जैसे फैसले नहीं ले पा रहे। जब भारत जागता है तो अमेरिका सो जाता है और अब जब अमेरिका जागा है तब भारत सो गया है। ये नीतिगत फैसलों से लेकर से लेकर चुनावों में भी दिखता है। इसलिए एक साथ किसी मुद्दे पर मिल कर काम करना मुश्किल होता है।

ये हाल में चाइना के मामले में साफ़ नज़र आ रहा है। बहुत लम्बे समय से अमेरिका चीन को एक ईमानदार दावेदार मान रहा था। अमेरिका जब इस ख्वाब से जागा तो अब भारत चीन के साथ एक परस्पर सम्मान और समझौते के रिश्ते का सपना देखने लगा है।

शायद नई दिल्ली ने चीन के साथ एक सामरिक विश्वास कायम करने की उम्मीद में ये वादा किया है की वो मालदीव के मामले में दखल नहीं देगा। इसके पहले भारत सरकार ने चीनियों को खुश करने के लिए दलाई लामा और तिबत्तियों को अपना कार्यक्रम दिल्ली से धरमशाला ले जाने को कहा। साथ ही एक आधीकारिक नोट भी जारी किया गया जिसमें सरकारी अफसरों को तिबत्तियों के कार्यक्रम में हिस्सा लेने से मना किया गया। ये बात सार्वजनिक करने को नहीं थी लेकिन नोट लीक हो गया और बात पब्लिक के सामने आ गयी। तिब्बतियों के साथ भारत का ये बर्ताव एक फुहड़ क़दम के तौर पर याद रखा जायेगा।

हो सकता है कि ये अभी के लिए उठाया गया क़दम है और कुछ समय बाद एक चाणक्य नीति सामने आए। भारत को अपने पड़ोस में क्या करना है और कैसे करना है, ये चीन को बताने की ज़रूरत नहीं वो भी सिर्फ इसलिए की भारत चीन के संबंध वापस पटरी पर आयें वो भी असमानता की शर्तों पर और कितने दिनों तक ये टिका रहेगा इसकी कोई गारंटी नहीं। इस का मतलब ये भी नहीं कि हम चीन को उकसाना चाहते हैं लेकिन नहीं उकसाने का ये मतलब भी नहीं कि अपने हितों को ताक पर रख कर उनके लिए झुकते जाएँ।

चीन ने भारत के पड़ोस पर पूरी तरह से अपना दबदबा बना लिया है और वो बिना किसी झिझक के अब भारत पर दबाव बनाता है। हाल ही में भारत और चीन के कॉमर्स मिनिस्टर की मुलाक़ात में चीन ने कुछ भी ठोस नहीं कहा बल्कि पूरी बात पर एक तरह से पर्दा डालने और बात को हल्का बनाने की कोशिश की गयी। चीन के साथ भारत का व्यापर घाटा 51 बिलियन डॉलर का है। दुसरे देशों के साथ भारत के कुल कारोबारी घाटे का आधा। साथ ही अंतराष्ट्रीय सीमा पर लगातार दबाव बनाए रखना और सभी अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भारत की कोशिश को रोकना।

चीन अब अपना रुतबा और भारत के पड़ोसियों पर अपना दबदबा छुपाता नहीं है। वो खुल कर दिखा रहा है की वो भारत के आसपास अपना असर बढ़ा रहा है। हाल ही में चीनी अकादमी ऑफ़ साइंस की वेबसाइट पर चीन ने ये ऐलान किया कि उसने पाकिस्तान को अत्याधुनिक ऑप्टिकल ट्रैकिंग और मेज़रमेंट सिस्टम बेचा है। यानी अब चीन भारत के खिलाफ पाकिस्तान को खुल कर मज़बूत कर रहा है, ढके छुए नहीं।

लेकिन वाशिंगटन ने अब आखिरकार चाइना को गुलाबी चश्मे से देखना बंद किया है। अमेरिका के लोग अब चीन से किसी रियायत या इमानदारी की उम्मीद छोड़ चुके हैं। अब सरकार के अलग अलग विभागों में, कारोबारी क्षेत्रों में धीरे धीरे एक संगठित राय बन रही है कि चीन अब एक चुनौती है और एक मज़बूत प्रतिद्वंदी।

ये अलग बात है कि अनगिनत विवादों में उलझे डोनाल्ड ट्रम्प और एक ऐसा अमेरिका जिसकी सोंच पर रूस की साज़िश और नीतियां हावी हैं वो चीन पर अपनी बदली हुई सोंच ठोस नीति में बदल पायेगा या नहीं इस पर शक है। अमेरिका की प्राथमिकता अभी भी रूस और उसकी नीतियां हैं। लेकिन ये सच है की तीन दशकों की बेखबरी जो बिल क्लिंटन के कार्यकाल से शुरू हुई थी वो ख़त्म हो रही है। चीन को लेकर अब अमेरिका को सुध आ रही है। क्लिंटन ने चीन को WTO, World Bank और IMF में शामिल होने की स्वीकृति दी। ऐसा माना जा रहा था की एक खुली मार्केट अर्थव्यवस्था उदार नीतियों के लिए जगह बनाएगी।

कमाल ये है की अब ऐसे जानकारों की संख्या बढ़ रही है जो चीन के खिलाफ अपनी आवाज़ उठा रहे हैं ख़ास तौर पे ओबामा प्रशासन के दौर के अहम् जानकार। ये इसलिए भी हुआ है कि २०१६ में अपने चुनावी कैंपेन के दौरान ट्रम्प ने लगातार चीन की नियत और नीति पर ध्यान केन्द्रित किया।

WTO में अमेरिका के कारोबारी प्रतिनिधी की नयी रिपोर्ट में कहा गया है की “ऐसा लगता है की अमेरिका ने चीन को WTO में प्रवेश देकर भूल की है ख़ास तौर पर जिन शर्तों पर चीन को प्रवेश दिया गया वो आर्थिक उदारवाद की नीति अपनाने के लिए सक्षम साबित नहीं हो पाई हैं।” WTO के जो नियम है वो ऐसी अर्थव्यवस्था के लिए काफी नहीं जिस पर सरकार का क़ब्ज़ा हो। और चीन की अर्थव्यवस्था में सरकार का रोल घटने की जगह बढ़ रहा है।

बराक ओबामा के ८ साल का कार्यकाल चीन के लिए बहुत अहम रहा। इस दौरान चीन ने अपना सैनिक सशक्तिकरण किया, कई क्षेत्रों पर अपने दावे को मज़बूत किया। यानी ओबामा के दौर में चीन और मज़बूत हुआ। और ओबामा प्रशासन की तरफ से एक ही कोशिश हुई चीन के फैलाव को रोकने की , वो है Trans-Pacific Partnership। लेकिन इस पार्टनर्शिप को भी ज्यादा गति नहीं मिली।

ट्रम्प ने अपना पहला निशाना लगाया एल्युमीनियम और स्टील के आयात मूल्य में वृद्धि करके कई देशों को इसमें छूट मिली लेकिन चीन को नहीं। फिर ऐलान किया कि चीन के आयात पर ६० बिलियन डॉलर की ड्यूटी लगेगी। चीन पर अमेरिकी कंपनियों से इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी चुराने का आरोप लगाया। जो प्रशुल्क लगाया गया उसका निशाना चीन कि टेक्नोलॉजी, मशीन और एयरोस्पेस उद्योग थे।

चीन ने इसका जवाब दिया और बदले में अमेरिका के १२८ उत्पादों पर ड्यूटी लगा दी जो ३ बिलियन डॉलर थी। इसमें पोर्क, फल, वाइन और कुछ दूसरी चीज़ें शामिल थीं, इसका मकसद था इशारा करना और ट्रम्प के इरादों का इम्तिहान लेना। अब वाइट हाउस में लम्बे समय से चीन के कठोर आलोचक रहे पीटर नवार्रो का दबदबा है जिस से चीन पर लगाम लगाने के ट्रम्प के इरादों को बल मिलेगा। लेकिन असल इम्तिहान इस बात का है कि अंत में थोड़े से फायदे के लिए अमेरिका कितना नुकसान उठाने की हैसियत में हैं।

चीन के साथ अमेरिका का कारोबारी घाटा बहुत ज्यादा है। 375 बिलियन डॉलर का ये विशाल घाटा पीटर नवार्रो की नज़र में राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा है। पीटर नवार्रो इस आर्थिक समर्पण के दौर को ख़त्म करना चाहते हैं। इसके लिए उन्हों ने शब्द का इस्तेमाल किया है” इकॉनोमिक सरेंडर। ट्रम्प को ये विश्वास है कि वो अब देश के लिए वो सब कुछ कर रहे हैं जो सालों पहले होना चाहिए था।

ये सच है की चीन अपने बाज़ार को बचाते हुए पूरी दुनिया के खिलाफ एक ट्रेड युद्ध जीत रहा है। चीन के नेता ली केचिआंग जब ये कहते हैं की इस व्यापार युद्ध में दूसरा कोई नहीं जीत सकता तो दरअसल इसका मतलब ये है की चीन अपनी इस विजय यात्रा में कोई रुकावट नहीं चाहता। किसी तरह की बाधा चीन की इस जीत कि पारी को बिगाड़ सकती है।

जैसे ही अमेरिका ने चीन पर प्रतिबन्ध लगाए चीन ने अपने निर्माण क्षेत्र को विदेशी I कंपनियों के लिए खोल दिए। लेकिन चीन की मानसिकता को अगर आप आप समझें तो इसका साफ़ मतलब था की चीन किसी भारी संकट को भांपते हुए ये क़दम उठा रहा है। चीन के विदेश मंत्री ने एक बार कहा था की अगर ड्रैगन और हाथी साथ नाचें तो क्या एक और एक ग्यारह बन सकते हैं? मतलब था चीन और भारत.. हाँ चीन के लिए ज़रूर।

अगर ट्रम्प अपने इरादों पर अटल रहे और अगर एक व्यापार युद्ध शुरू होता है तो ये ज़रूरी नहीं की अमेरिका की हार हो ख़ास तौर पर तब अगर यूरोप एक साझा नीति पर काम करने को तैयार हो। कुछ अर्थशास्त्री ये मानते हैं की अमेरिका चाइना पर कैपिटल कंट्रोल कर सकता है जिसका चीन पर बुरा असर होगा।

ट्रम्प ने हाल ही मैं सिंगापुर की एक कंपनी की अमेरिकी चिप बनाने वाली कंपनी Qualcom को खरीदने की कोशिश को नकाम किया। क्यूंकि इस तरह चीन कोशिश कर रहा है की वो अहम् कंपनियों को खरीद ले, तकनीक ट्रान्सफर और क्रिटिकल तकनीक को कंट्रोल कर ले। इसके लिए वो साइबर चोरी भी करता है, वो चाहता है की रोबोटिक्स, कृत्रिम इंटेलिजेंस और एरोनॉटिक्स की दुनिया पर उसका क़ब्ज़ा हो। अमेरिका की नीति का दूसरा फोकस है कि चीन के इन इरादों में बाधा डालना।

अब ये एक ऐसा राज़ है जो सबको पता है की कैसे अमेरिकी सेना कि लैब से वैज्ञानिक सहयोग के नाम पर तकनीक लीक की गयी है। अमेरिका में हथियार विशेषज्ञ ये मानते हैं कि चीन की नए हथियार बनाने कि रफ़्तार बहुत तेज़ है और बहुत सारे चीनी सिस्टम अमेरिकी डिजाईन की नक़ल हैं। इसलिए हो सकता है की वो चीनी छात्र जो साइंस, गणित या इंजीनियरिंग के क्षेत्र से अमेरिका आते हैं, आने वाले सालों में उनके वीजा और मुश्किल हो सकता हैं।

अमेरिकी सीनेट एक बिल पर भी विचार के रही है, The Foreign Investment Risk Review Modernisation Act of 2017। ये चीन को ही ध्यान में रख कर बनाया गया है, इस के पीछे वजह है अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा को विदेशी निवेश के खतरे से सुरक्षित रखना। इस के तहत किसी भी विदेशी कंपनी के द्वारा किसी अमेरिकी कंपनी के ख़रीदे जाने, जिस में विदेशी निवेश २५ फीसदी से ज्यादा होगा, पर नज़र होगी।

हालांकि जानकारी काफी तेज़ी से बढ़ी है। लेकिन इस पर दुसरे देशों के साथ मिल कर क्या साझा कार्यवाई होगी। अगर कोई फर्क पैदा करना है तो, इसे कई गुना बढ़ाना होगा।

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