Published on Mar 11, 2022 Updated 0 Hours ago

महामारी के चलते आई रुकावटों के बीच यूक्रेन संकट से भारतीय अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकते हैं. 

यूक्रेन संकट और भारत में विकास की सुस्त होती रफ़्तार: कुछ बुनियादी बातें

ये लेख द यूक्रेन क्राइसिस: कॉज़ एंड कोर्स ऑफ़ द कन्फ्लिक्ट का हिस्सा है.


वित्त वर्ष 2021-22 की तीसरी तिमाही (अक्टूबर से दिसंबर) में वास्तविक विकास दर के मंद नतीजों को लेकर बेकार में ही भारी उदासी का माहौल दिख रहा है. दरअसल इनमें अगर कोई परेशानी भरी बात है तो वो ये है कि विकास दरों के तिमाही से तिमाही के आंकड़ों में तीसरी तिमाही के नतीजे गिरावट का रुझान दिखा रहे हैं. ग़ौरतलब है कि पहली तिमाही में ये आंकड़ा 20.1 प्रतिशत, दूसरी में 8.4 प्रतिशत और अब तीसरी में 5.4 प्रतिशत रहा है.

मुमकिन है कि मौजूदा तिमाही (चौथी तिमाही- जनवरी से मार्च 2022) में विकास दर और भी लुढ़ककर 4 से 4.5 प्रतिशत के बीच आ जाए. इससे 2021-22 में सालाना वास्तविक जीडीपी विकास दर का औसत 8 से 8.5 प्रतिशत रह सकता है. वैसे 28 फ़रवरी को नेशनल स्टैटिस्टिकल ऑफ़िस (NSO) ने विकास दर के 8.95 प्रतिशत रहने का अनुमान जताया था.

2020-21 की पहली से दूसरी तिमाही के आंकड़ों में जीडीपी का नुक़सान घटकर 7 प्रतिशत रह गया. इसके बाद की दोनों तिमाहियों में विकास की मंद मगर सकारात्मक रफ़्तार देखने को मिली. इसी की बुनियाद पर तत्कालीन मुख्य आर्थिक सलाहकार ने अर्थव्यवस्था में V  आकार का सुधार दिखने का एलान कर दिया. 

ये कितना नुक़सानदेह हो सकता है? NSO ने 2021-22 में वास्तविक जीडीपी के 147.72 खरब रुपये रहने का आकलन किया था. अब इसमें तक़रीबन 1.2 खरब रुपये की कटौती होती दिखती है. पिछले वित्त  वर्ष (2020-21) के आंकड़ों से तुलना करें तो हम पाते हैं कि तब भारत को 10.11 खरब रुपये का नुक़सान उठाना पड़ा था (महामारी से ठीक पहले के साल 2019-20 की 147.9 खरब रु की जीडीपी के मुक़ाबले जीडीपी के नुक़सान के आकलन से). बहरहाल चालू वित्त वर्ष में ‘सुस्त विकास’ को लेकर बेसब्री और भावनात्मक उबाल सांख्यिकीय दृष्टिकोण से इस गिरावट की प्रासंगिकता पर भारी पड़ रहे हैं.

नीचे के टेबल से स्पष्ट है कि 2020-21 की पहली तिमाही में भारत की वास्तविक जीडीपी में नाटकीय तौर पर 24 प्रतिशत की गिरावट आई थी. ये महामारी के चलते हुई उथलपुथल का नतीजा था. हालांकि उसी वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही के आंकड़ों में तत्काल सुधार देखने को मिला. 2020-21 की पहली से दूसरी तिमाही के आंकड़ों में जीडीपी का नुक़सान घटकर 7 प्रतिशत रह गया. इसके बाद की दोनों तिमाहियों में विकास की मंद मगर सकारात्मक रफ़्तार देखने को मिली. इसी की बुनियाद पर तत्कालीन मुख्य आर्थिक सलाहकार ने अर्थव्यवस्था में V  आकार का सुधार दिखने का एलान कर दिया. बहरहाल चंद सांख्यिकीय और गणितीय आकलनों के आधार पर की गई ये घोषणा बेवक़्त की क़वायद साबित हुई.

चालू वित्त वर्ष (2021-22) के शुरुआती आंकड़ों पर ग़ौर करें तो पहली तिमाही में जीडीपी का स्तर 2020-21 के मुक़ाबले ऊंचा रहा था. हालांकि ये आंकड़ा 2019-20 की पहली तिमाही के “प्रचलित सामान्य” स्तर से 9.2 प्रतिशत नीचे था. 2019-20 से तुलना कर देखें तो चालू वित्त वर्ष में विकास के सुस्त स्तर के साथ सकारात्मक रुझान का दौर जारी है. इस वित्त वर्ष के अंत तक हम वहीं पहुंच जाएंगे जहां हम 2019-20 की समाप्ति के वक़्त थे. दरअसल असल समस्या विकासहीनता की धारणा को लेकर है. इसकी एक वजह “तेज़ी से बढ़ती” भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर असाधारण और ऊंची उम्मीदों में छिपी है.

इस वित्त वर्ष के अंत तक हम वहीं पहुंच जाएंगे जहां हम 2019-20 की समाप्ति के वक़्त थे. दरअसल असल समस्या विकासहीनता की धारणा को लेकर है. इसकी एक वजह “तेज़ी से बढ़ती” भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर असाधारण और ऊंची उम्मीदों में छिपी है.

जल्द ही हम नए वित्त वर्ष (2022-23) में प्रवेश करने जा रहे हैं. ऐसे में हमारा असलियत से सामना होने की संभावना है. दरअसल हमें अब भी “तेज़ी से बढ़ती” अर्थव्यवस्था का तमगा हासिल करना बाक़ी है. बेशक़ देश में सालाना 8 फ़ीसदी से ज़्यादा विकास दर की तमाम संभावनाएं मौजूद हैं. ऐसे में लाख टके का सवाल ये है कि इस संभावना को तेज़ी से कैसे साकार किया जा सकता है.

राजकोषीय ढांचे पर सुस्त विकास का असर

विकास में सुस्ती का एक कुप्रभाव राजकोषीय तंगी के तौर पर सामने आता है. इससे सार्वजनिक निवेश के ज़रिए सुधार को आगे बढ़ाने और बेरोज़गारों की आय बढ़ाकर उनकी मदद करने की क़वायद में रुकावट आ जाती है. मौजूदा वित्त वर्ष के पहले दस महीनों (अप्रैल 2021 से जनवरी 2022) में राजस्व प्राप्तियों और ग़ैर-कर्ज़ पूंजी प्राप्तियों में 16 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई. निरपेक्ष रूप से देखने पर ये रफ़्तार प्रभावी लगती है. हालांकि पूरे सालभर की आभासी जीडीपी के हिसाब से बढ़ोतरी की ये दर पीछे छूटती नज़र आती है. ग़ौरतलब है कि NSO ने इस दर के 19 प्रतिशत रहने का अनुमान जताया था.

पिछले वित्त वर्ष की तुलना में चालू वित्त वर्ष में ब्याज़ अदायगियों का बोझ 19.7 प्रतिशत बढ़ गया. हालांकि अगले वित्त वर्ष (2022-23) के बजट में इसमें थोड़ी नरमी आने और 15.6 प्रतिशत  रहने का अनुमान है. अगर यूक्रेन संकट के बादल छंट जाते हैं तो वैश्विक ब्याज़ दरों में सख़्ती आने की आशंका है. ऐसे में बजट में ब्याज़ के बोझ में नरमी से जुड़ा आकलन कुंद पड़ जाएगा. इसके विपरीत यूक्रेन संकट के जारी रहने और वैश्विक झटकों के विकास और नौकरियों पर नकारात्मक प्रभावों की सूरत में अमेरिकी फ़ेडरल रिज़र्व ब्याज़ दरों में सामान्य स्थिति बहाल करने की क़वायद को टाल सकता है. इस संभावना से भारत का फ़ायदा होगा. इसकी वजह ये है कि ब्याज़ दरों को सामान्य स्थिति में लाने की प्रक्रिया में हम अमेरिका के मुक़ाबले पीछे हैं. सुनने में ये बात भले ही अजीब लगती है लेकिन यूक्रेन की तकलीफ़ों से हमारा फ़ायदा होने वाला है.

भूराजनीतिक कलह को और हवा देता यूक्रेन संकट

​यूक्रेन संकट ने महामारी के चलते पैदा वैश्विक अनिश्चितताओं और रुकावटों को और गहरा कर दिया है. हालांकि ये आपदा अपने साथ अवसर भी लेकर आई है.

​एक लंबे अर्से से नेटो के क्रियाकलापों में धीरे-धीरे विस्तार को लेकर रूस की चिंताओं के प्रति उदासीनता भरे रवैये से ये संकट और गहरा गया है. रूसी “साम्राज्य” के प्रति अपने मज़बूत नेतृत्व की केंद्रीय भूमिका जताने को लेकर राष्ट्रपति पुतिन के पक्के इरादों को कम करके आंका गया. दिलचस्प बात ये है कि इसी साल राष्ट्रपति शी भी चीनी “साम्राज्य” पर अपनी पकड़ और मज़बूत बनाने जा रहे हैं.

महंगे आयातित तेल का बोझ सीधे उपभोक्ताओं पर डालने से उन पर महंगाई की बड़ी मार पड़ना तय है. लिहाज़ा तेल की ख़ुदरा बिक्री पर वसूले जाने वाले भारी-भरकम टैक्स में कमी लाकर इस दबाव को हल्का किया जा सकता है. 

​लोकतांत्रिक ढंग से चुने गए यूक्रेनी राष्ट्रपति ने बहादुराना, मगर बेहद जोख़िम भरा विकल्प चुना. ये रणनीति थी घरेलू मैदान पर कमर तोड़ने वाली जंग छेड़ देना. इसके ठीक उलट 2020 में चीन के साथ सीमा पर छिड़े संघर्ष के दौरान भारत ने यथार्थवादी और समझदारी  भरा रुख़ अपनाया था. दोनों देशों के बीच मौजूद अल्पकालिक विषमताओं और चीन के आक्रामक तेवरों के पीछे उसकी घरेलू सियासी मजबूरियों को समझते हुए भारत ने डटे रहकर तनाव कम करने के उपायों पर ज़ोर दिया.

​यूक्रेन में “सम्मानजनक समझौता” सभी किरदारों के हित में होगा. इससे राष्ट्रपति पुतिन का ग़ुस्सा शांत हो जाएगा. साथ ही पश्चिम यूरोप के समृद्ध और तेज़ी से बुज़ुर्ग होती आबादी वाले देश अपने रोज़मर्रा के कामकाज पर ध्यान दे सकेंगे. ग़ौरतलब है कि ये तमाम देश सामाजिक रूप से जागरूक, दिखावे के लिए उपभोग करने वाले, वक़्त से पहले पेंशन देने वाले, काम और निजी जीवन में आरामदायक संतुलन बिठाने वाले और संरक्षक राज्यसत्ता की परंपरा वाले हैं. यहां जीडीपी के मुक़ाबले सैन्य ख़र्चों का अनुपात बेहद नीचा है (भारत सरीखे निम्न-मध्यम आय वाले देश से भी कम).

ये राष्ट्रपति शी के लिए भी अनुकूल है. रूस गंभीरता से नहीं लिए जाने पर ग़ुस्सैल फ़ौजी कार्रवाई पर आमादा हो गया. नेटो अक्सर पारस्परिक फ़ायदे वाले बचाव तंत्र का दावा करता है. बहरहाल रूसी कार्रवाइयों के ख़िलाफ़ ठोस प्रतिक्रिया जताने को लेकर बुजदिली भरे रवैये (कुछ हद तक 1994 के रवांडा नरसंहार की तरह) से उसके दावों का खोखलापन उभरकर सामने आ गया है. इसके साथ ही विश्व के मुखिया के तौर पर पेश आने और उसके लिए ज़रूरी वित्तीय और मानवीय लागत वहन करने को लेकर अमेरिका की घटती दिलचस्पी भी रेखांकित हुई है. यूक्रेन संकट के तजुर्बे साफ़ करते हैं कि आगे चलकर ताइवान को भी पूरे अदब के साथ चीनी “साम्राज्य” से सुलह करनी ही होगा.

​​चीन और भारत पहले ही संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में रूस की निंदा करने से जुड़े अमेरिकी प्रस्ताव का समर्थन न करके रूसी सुरक्षा चिंताओं के प्रति संजीदगी का संकेत दे चुके हैं. बहरहाल यूक्रेन में संभावित नरसंहार की ओर लगातार आंखें मूंदे रखने से यूरोप और बाक़ी जगहों में चीनी और भारतीय कारोबार और व्यापारिक रिश्तों के लिए नकारात्मक नतीजों का जोख़िम बढ़ सकता है. ज़ाहिर है इस संकट को ठंडा करने में ही नेटो की तरह चीन और भारत की भी भलाई है.

भारत के लिहाज़ से यूक्रेन का संकट बेवक़्त आया है. इस समय भारत का पूरा ध्यान घरेलू विकास दर को हवा देने पर होना चाहिए. 2017 से ही भारतीय अर्थव्यवस्था की ढांचागत कमज़ोरियां सबके सामने हैं. इनमें सार्वजनिक और निजी पूंजी का बेतरतीब आवंटन, वित्तीय और बुनियादी ढांचों से जुड़े अहम सेक्टरों में निम्न स्तरों की प्रतिस्पर्धा, सार्वजनिक सेवाओं की डिलिवरी में शासन-प्रशासन के कमज़ोर मानक और मानव विकास की लड़खड़ाती रणनीतियां शामिल हैं. इन तमाम क्षेत्रों में भारी-भरकम सुधारों की दरकार है.

वैश्विक आर्थिक नेतृत्व को अवसर मुहैया कराता यूक्रेन संकट

भारत साझा वैश्विक प्रतिबद्धताओं की भावनाओं से ख़ुद को जोड़ने से पीछे नहीं हटता है. प्रधानमंत्री मोदी ने 2020 में निम्न आय वाले देशों को कोविड-19 टीकों की आपूर्ति से जुड़े विश्व स्वास्थ्य संगठन के वैश्विक कार्यक्रम (COVAX) का खुले दिल से समर्थन किया. 2021 में ग्लासगो में हुए COP26 में उन्होंने 2070 तक भारत को नेट ज़ीरो उत्सर्जन वाला देश बनाने की प्रतिबद्धता जताई. ग़ौरतलब है कि भारत में प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन का स्तर वैश्विक स्तर के आधे से भी कम है.

भारत अब विकास को आगे बढ़ाने से जुड़ी वैश्विक कार्रवाई के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखा सकता है. इसके लिए वो विश्व में अनाज और तेल की क़ीमतों को स्थिर बनाने के लिए संयुक्त राष्ट्र की देखरेख में पहल शुरू करने का प्रस्ताव सामने रख सकता है. तमाम तरह की पाबंदियों के चलते इन ज़रूरी सामानों की आपूर्ति में रुकावट आई है. इससे वैश्विक क़ीमतों में उछाल देखा जा रहा है.

भारत के पास खाद्यान्नों का भारी-भरकम बफ़र स्टॉक मौजूद है. केंद्रीय पूल में गेहूं (2.8 करोड़ टन) और चावल (2.6 करोड़ टन) का भंडार भरा है. भारत इन खाद्यान्नों को विश्व स्तर पर निर्धारित क़ीमतों पर बेचने की पेशकश कर सकता है. इसी तरह अमेरिका और आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (OECD ) के बाक़ी देशों के पास तेल का भरपूर सामरिक भंडार मौजूद है. तेल की क़ीमतों में नरमी लाने के लिए इन भंडारों का इस्तेमाल किया जा सकता है. यूक्रेन संकट के चलते कच्चे तेल का भाव 14 साल के उच्चतम स्तर (139 अमेरिकी डॉलर प्रति बैरल) को छू चुका है. “खाद्यान्न और ईंधन” जैसी अनिवार्य वस्तुओं की वैश्विक क़ीमतों में स्थिरता लाने की पहल से दुनिया के निर्धन देशों को महंगाई की मार से बचाया जा सकता है.

घरेलू मोर्चे पर महंगाई से दो-दो हाथ

​घरेलू तौर पर भारत के पास आयातित महंगाई को कुंद करने के लिए टैक्स का रक्षा कवच मौजूद है. इस दुष्चक्र से निपटने के मकसद में भारत मौद्रिक उपायों की बजाए राजकोषीय नीतियों का इस्तेमाल कर सकता है. महामारी की मार से उबर रही भारतीय अर्थव्यवस्था ने अभी पूरी तरह से विकास की रफ़्तार नहीं पकड़ी है. ऐसे में ब्याज़ दरों में एहतियात के तौर पर लाई गई सख़्ती से विकास की संभावनाओं पर बुरा असर पड़ सकता है. महंगे आयातित तेल का बोझ सीधे उपभोक्ताओं पर डालने से उन पर महंगाई की बड़ी मार पड़ना तय है. लिहाज़ा तेल की ख़ुदरा बिक्री पर वसूले जाने वाले भारी-भरकम टैक्स में कमी लाकर इस दबाव को हल्का किया जा सकता है. ये तरीक़ा अपनाए जाने से सार्वजनिक क्षेत्र की तेल कंपनियों के बैलेंस शीट पर भी कोई बुरा असर नहीं पड़ेगा. महंगे तेल क़ीमतों को अब तक ये कंपनियां बर्दाश्त करती आ रही हैं. केंद्र सरकार द्वारा लगाए गए टैक्स को आधा करने से महंगाई दर में 0.6 प्रतिशत या 60 बेसिस प्वाइंट (एक प्रतिशत 100 बेसिस प्वाइंट के बराबर होता है) की कमी लाई जा सकती है. इससे उपभोक्ता वस्तुओं की महंगाई को जनवरी 2022 के 6.1 प्रतिशत के स्तर से काफ़ी नीचे लाया जा सकता है. ये तरीक़ा महंगाई दर को 4.9 प्रतिशत के आसपास लाने में मददगार साबित हो सकता है. ग़ौरतलब है कि रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया की मौद्रिक नीति समिति ने वित्त वर्ष 2022-23 की पहली तिमाही (अप्रैल से जून) में महंगाई दर के 4.9 फ़ीसदी रहने का आकलन किया है.

ये वक़्त गहराई से सोच-विचार करने का है? दूरी बनाते हुए हालात की समीक्षा के साथ-साथ हिंद-प्रशांत क्षेत्र में उभरती व्यवस्थाओं की हिफ़ाज़त की अहमियत समझनी होगी.

अनिश्चित वैश्विक वातावरण ने जोख़िम बढ़ा दिए हैं. इनसे निपटने के लिए भारत को घरेलू तौर पर बेहद होशियारी से कार्यक्रम तय करने होंगे और उस पर सियासी सहमति बनानी होगी. आर्थिक सुस्ती से निपटने के लिए आम तौर पर अब तक बुनियादी ढांचों की बड़ी परियोजनाओं का सहारा लिया जाता रहा है. इस बार चुनौती कहीं ज़्यादा बड़ी है. विकास के मोर्चे पर निराशावादी रुख़ को बेमन से स्वीकाराने का रुझान देखा गया है. इन तौर-तरीक़ों में बदलाव के लिए और ज़्यादा प्रतिस्पर्धी अर्थव्यवस्था का लक्ष्य हासिल करना अहम हो जाता है.

वैश्विक अर्थव्यवस्था में दरार से सरकारों का बढ़ता दायरा

यूक्रेन में रूसी आक्रामकता के ख़िलाफ़ अमेरिका ने उसपर प्रतिबंध लगाए हैं. कनाडा, यूनाइटेड किंगडम, ऑस्ट्रेलिया, यूरोपीय संघ और जापान ने इन पाबंदियों का समर्थन किया है. नतीजतन वैश्विक अर्थव्यवस्था में दरार साफ़ देखी जा सकती है. इससे व्यापार और विकास पर प्रतिकूल असर पड़ने की आशंका है. पहले से ही भूराजनीतिक पटल पर गठजोड़ की बजाए टकरावों के वाक़ये बढ़ते जा रहे हैं. विश्व में खुलेपन के विकल्प सीमित होते जा रहे हैं. क़िताबी तौर पर मुक्त अर्थव्यवस्था से जुड़ी क़वायद अब बीते दिनों की बात हो गई है. अब अंतरराष्ट्रीय पटल पर भागीदारियों के लिए दुनिया के देश संप्रभुता के साथ अपने मित्र चुनकर आगे बढ़ने लगे हैं. हालांकि दुनिया की साधन-संपन्न सरकारें भी इस क़वायद को कुशलता से अंजाम देने में कठिनाई का अनुभव कर रही हैं.

तो क्या ये वक़्त गहराई से सोच-विचार करने का है? दूरी बनाते हुए हालात की समीक्षा के साथ-साथ हिंद-प्रशांत क्षेत्र में उभरती व्यवस्थाओं की हिफ़ाज़त की अहमियत समझनी होगी. इसके मुताबिक रणनीतिक गठजोड़ बनाने होंगे. भारत, चीन और दूसरे क्षेत्रीय किरदारों की आर्थिक क्षमताओं को हासिल करने के लिहाज़ से ये क़वायद बेहद अहम हैं.

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