Author : Jaibal Naduvath

Published on Mar 07, 2022 Updated 0 Hours ago

यूक्रेन के युद्ध ने इस सच को उधेड़कर रख दिया है कि संशोधनवादी देशों के ख़िलाफ़ अंतरराष्ट्रीय समुदाय की किसी मज़बूत प्रतिरोध का अभाव है.

यूक्रेन संकट: खोख़ले वादों का पर्दाफ़ाश!

ये लेख हमारी सीरीज़, द यूक्रेन क्राइसिस: कॉज़ ऐंड कोर्स ऑफ़ कॉनफ्लिक्ट का एक हिस्सा है.


कभी दबाए न जा सकने वाले हेनरी किसिंजर ने एक बार कहा था कि, ‘अमेरिका का दुश्मन होना ख़तरनाक हो सकता है, लेकिन अमेरिका का दोस्त होना घातक साबित हो सकता है’. हो सकता है कि यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदोमीर ज़ेलेंस्की इस वक़्त ऐसा ही महसूस कर रहे हों. क्योंकि ज़ेलेंस्की अपने देश की भौगोलिक स्थिति, सांस्कृतिक ख़ूबियों और इतिहास की अनदेखी करते हुए यूक्रेन को लगातार पश्चिमी देशों के पाले की ओर धकेल रहे थे. अब रूस ने उनके देश पर हमला बोल दिया है. रूस-यूक्रेन के मोर्चे पर जो हालात हैं, वो बड़ी ताक़तों के दांव-पेंच में ऐतिहासिक मकाम पर खड़े होने वाले हैं और इन हालात से अटलांटिक संगठन को ज़बरदस्त झटका लगा है. यूक्रेन के राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की जब पश्चिमी देशों से बार बार बेक़रारी से ये गुहार लगा रहे थे कि वो बुडापेस्ट मेमोरैंडम के तहत किए गए यूक्रेन की सुरक्षा के अपने वादों पर आगे बढ़ें, तो अटलांटिक के आर-पार के नीतिगत गलियारों में उनकी गुहार के प्रति भावहीन प्रतिक्रिया देखने को मिल रही थी. इससे ज़ाहिर होता है कि अटलांटिक के आर-पार का ये गठबंधन, अंतरराष्ट्रीय नियमों के ख़िलाफ़ जाकर क़दम उठाने पर आमादा किसी देश को रोकने के मामले में किस क़दर कमज़ोर है. इस प्रतिक्रिया के दौरान दुनिया ने इस बात पर भी ग़ौर किया है कि पश्चिमी देश युद्ध के मोर्चे पर अपने सैनिक उतारने को लेकर किस क़दर हिचकने लगे हैं. भले ही उन्होंने इसका वादा ही क्यों न किया हो. मगर अब वो उन वादों की जगह प्रतीकात्मक क़दम और खोखली तड़क-भड़क ही दिखा रहे हैं.

यूक्रेन के राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की जब पश्चिमी देशों से बार बार बेक़रारी से ये गुहार लगा रहे थे कि वो बुडापेस्ट मेमोरैंडम के तहत किए गए यूक्रेन की सुरक्षा के अपने वादों पर आगे बढ़ें, तो अटलांटिक के आर-पार के नीतिगत गलियारों में उनकी गुहार के प्रति भावहीन प्रतिक्रिया देखने को मिल रही थी.

1994 के बुडापेस्ट मेमोरैंडम पर अमेरिका, ब्रिटेन और रूस ने दस्तख़त किए थे. इसमें सोवियत संघ के पूर् यूक्रेन, बेलारूस और कज़ाख़िस्तान गणराज्यों को परमाणु हथियारों के अपने ज़ख़ीरे ख़त्म करने और परमाणु अप्रसार संधि पर दस्तख़त करने के बदले में सुरक्षा की साफ़ तौर पर गारंटी दी गई थी. सोवियत संघ के विघटन के बाद, यूक्रेन के पास परमाणु हथियारों का दुनिया में तीसरा सबसे बड़ा ज़खीरा था. मगर उसने 1996 का साल आते आते, लिस्बन प्रोटोकॉल के तहत अपने आख़िरी परमाणु हथियार रूस के हवाले कर दिए थे. इसके खुले वादों ने गोर्बाचेव प्रशासन की तथाकथित गुप्त ‘सिनात्रा डॉक्ट्रिन’ के तहत दिए गए उस वचन को और मज़बूती दी थी, जिसके तहत उन्होंने पूर्व सोवियत गणराज्यों को इस बात का अख़्तियार दिया था कि वो बाहरी दबाव के बग़ैर अपनी नीतियों और आकांक्षाओं पर स्वतंत्र रूप से चल सकते हैं. हालांकि, सियासी ज़रूरतों और ऊर्जा संबंधी चिंताओं के चलते इस पर दस्तख़त करने वालों के बीच इन वादों की क़ानूनी वैधता को लेकर ख़ींच-तान होने लगी. फिर 2014 रूस ने यूक्रेन के क्राइमिया प्रायद्वीप पर क़ब्ज़ा कर लिया तो पश्चिमी देशों ने इसके ख़िलाफ़ कोई ठोस क़दम नहीं उठाया. 

यूक्रेन को उसी घटना से जाग जाना चाहिए था. फिर भी यूक्रेन को इस बात का एहसास होने में आठ साल और लग गए, और तब राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की ने कहा कि यूक्रेन को ‘उसके हाल पर छोड़ दिया गया’ है. एसॉप की कहानियों के उस टिड्डे की तरह जिसने गर्मियां गाते हुए बिताईं और फिर सर्दियों भर इसका अफ़सोस किया, उसी तरह ज़ेलेंस्की और उनके राजदूतों की जज़्बाती अपीलें, ख़ुद उनकी अपनी लापरवाहियों और जियोपॉलिटिक्स को न समझने के बचकानेपन पर पर्दा नहीं डाल सकतीं, कि उन्होंने क्राइमिया के तजुर्बे और पूर्वी यूक्रेन में आठ साल तक अलगाववादी आंदोलन झेलने से भी कोई सबक़ नहीं सीखा, जबकि यूक्रेन को इसकी भारी मानवीय क़ीमत चुकानी पड़ी.

ज़िम्मेदारी से भागते पश्चिमी देश

अटलांटिक के आर-पार के नीति निर्माताओं की संकुचित सोच और फ़ौरी नफ़ा-नुक़सान वाले नज़रिए ने दुनिया भर में संघर्ष के कई नए मोर्चों को जन्म दिया है. मज़बूत इरादे और बेहद हौसले वाले किरदारों की तरफ़ से उठाए गए भड़काऊ क़दमों के जवाब में पश्चिमी देशों की प्रतिक्रिया बिना तालमेल वाली और लड़खड़ाती हुई ही रही है. इससे पश्चिमी देशों के पारंपरिक सहयोगी देशों को उनके वादों पर ऐतबार कर पाना मुश्किल लगने लगा है, और अब वो दुश्मन के साथ सहयोग करने के विकल्प को भी आज़माने की कोशिशों में जुटने को मजबूर हो गए हैं, जिससे कि उनका जोखिम कम हो सके. व्यापार के रिश्तों को नए सिरे से परिभाषित करने, अप्रत्यक्ष रूप से आधिपत्य स्वीकार करने और राष्ट्रीय हितों से समझौता करने के साथ साथ दबाव में क़दम उठाने जैसे रास्ते पर चलने से इन असंतुलित रिश्तों से न केवल सहयोगी देश मुश्किल में पड़े हैं बल्कि इससे मजबूर होकर वो बहुत सोच-समझकर क़दम उठाने को भी मजबूर हुए हैं, जिससे विश्व समुदाय द्वारा एकजुट होकर आपसी तालमेल से प्रतिक्रिया देने की संभावनाएं भी कमज़ोर हो गई हैं. इससे तानाशाहों के हौसले बुलंद हो गए हैं और वो देशों को क़र्ज़, निराशा और निर्भरता के ज़हरीले दुष्चक्र में फंसाकर उन पर अपना संकुचित नज़रिया थोप रहे हैं, और अपनी बात न मानने पर उसकी गंभीर सज़ा तक दे रहे हैं.

आज पश्चिमी देश और ख़ास तौर से अमेरिका बाक़ी दुनिया से ज़्यादा अलग-थलग पड़ गए हैं, तो नए और अक्सर लड़ाकू किरदार उनकी जगह लेने के लिए तेज़ी से आगे बढ़ रहे हैं. नेतृत्व और बड़प्पन के अपने ख़ास विचारों के चलते अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने की इन देशों की कोशिशें, उनके मुक़ाबले वाले इलाक़ों के लिए काफ़ी नुक़सानदेह साबित हो रही हैं. 

आज पश्चिमी देश और ख़ास तौर से अमेरिका बाक़ी दुनिया से ज़्यादा अलग-थलग पड़ गए हैं, तो नए और अक्सर लड़ाकू किरदार उनकी जगह लेने के लिए तेज़ी से आगे बढ़ रहे हैं. नेतृत्व और बड़प्पन के अपने ख़ास विचारों के चलते अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने की इन देशों की कोशिशें, उनके मुक़ाबले वाले इलाक़ों के लिए काफ़ी नुक़सानदेह साबित हो रही हैं. पश्चिमी देशों के अपनी ज़िम्मेदारी से भागने के चलते आने वाले समय में विवादित क्षेत्रों पर और भी गंभीर असर डालने वाले नतीजे देखने को मिल सकते हैं. यूक्रेन संकट के बाद चीन के सोशल मीडिया पर जिस तरह ज़ोर-शोर से और शायद बनावटी तरीक़े से अभियान चलाया गया कि चीन को भी ताइवान के साथ ऐसे ही करना चाहिए, उससे पश्चिमी देशों में ख़तरे की घंटी बज जानी चाहिए, क्योंकि इन देशों ने विरोध के औपचारिक बयानों की रस्म निभाने के अलावा विवादित मुद्दों पर चीन को खुली छूट दे रखी है.

पश्चिमी देशों की दूरदर्शिता की इस कमी ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय के हाथ से एक नियमों पर आधारित कामचलाउ अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था बनाने के लिए आम सहमति बनाने के उस मौक़े को भी निकल जाने दिया, जो सोवियत व्यवस्था के विघटन से हासिल हुआ था. दुनिया के बदल जाने की बात को अप्रत्यक्ष रूप से मंज़ूर करने के बाद भी पश्चिमी देशों के नीति निर्माण के उस तरीक़े में कोई अर्थपूर्ण बदलाव नहीं आया, जो शीत युद्ध से प्रेरित थी, क्योंकि वो विजेता होने के नशे में चूर हो गए थे. सोवियत संघ के विघटन के बाद भयंकर आर्थिक और राजनीतिक संकट और उससे भी ज़्यादा अंग-भंग होने और दग़ाबाज़ी के दर्द से जूझ रहे रूस को ख़ुद को नए सिरे से खड़ा करने के लिए मार्शल प्लान जैसा कोई प्रस्ताव दिया जाना चाहिए था, जिससे कि उसके उदारवादी विश्व में शामिल होने की राह हमवार होती. सोवियत संघ के विघटन के बाद रूस में पश्चिम समर्थक जैसे जज़्बात थे, उन्हें देखते हुए ऐसा होना बहुत हद तक मुमकिन दिख रहा था.

पश्चिम को अपने इस नज़रिए के लिए ताक़त इस सोच से मिली कि ताक़त में बेहद कमज़ोर हो चुका और क्षेत्रफल में बहुत सिमट चुका रूस पश्चिम के प्रभाव क्षेत्र के विस्तार के लिए कोई ख़ास ख़तरा नहीं है.

इसके बजाय, लेनिनवादी उसूल, ‘जितना बुरा हो उतना ही बेहतर’ पर चलते हुए पश्चिमी देशों ने अपना सामरिक क्षेत्र बढ़ाने के लिए रूस को अपने दुश्मन के तौर पर तैयार कर लिया. पश्चिम को अपने इस नज़रिए के लिए ताक़त इस सोच से मिली कि ताक़त में बेहद कमज़ोर हो चुका और क्षेत्रफल में बहुत सिमट चुका रूस पश्चिम के प्रभाव क्षेत्र के विस्तार के लिए कोई ख़ास ख़तरा नहीं है. जबकि बहुत से समझदार मगर कम जाने माने जानकारों ने इसके उलट चेतावनी दी थी. इसके बाद जो हुआ, उसके तहत रूस को हमेशा ही कमतर ठहराने के क़िस्से गाए गए और रूस की दहलीज़ पर मौजूद पूर्व सोवियत गणराज्यों को पश्चिमी तरक़्क़ी, वादों और राजनीतिक आदर्शों वाले ख़्वाब दिखाकर उनके साथ गठबंधन करके रूस की असुरक्षा को और बढ़ाया गया. रूस की तरफ़ से इसका जवाब तो दिया गया, मगर वो पश्चिम की ताक़त की तुलना में अपर्याप्त था. रूस ने ख़ुद को सुरक्षित बनाने और अपना खोया हुआ प्रभाव हासिल करने की पुरज़ोर कोशिश की. ये विडम्बना ही है कि ये पश्चिमी की एकाधिकारवादी सोच ही थी, जिसने रूस में पुतिन की लोकप्रियता को बढ़ाने का काम किया, क्योंकि पुतिन ने अपनी पूरी राजनीति कट्टर पश्चिम विरोधी धुरी पर क़ायम कर रखी है. रूस के भीतर पुतिन के इस मर्दाना रवैये की गूंज अच्छी सुनाई देती है.  इससे उनकी राजनीतिक लोकप्रियता बढ़ती जाती है और फिर बातचीत के ज़रिए सुलह के रास्ते में उनकी दिलचस्पी लगातार घटती जाती है.

दुनिया की राजनीति में अराजकता

राष्ट्रों के रिश्तों में उलट-पलट होना तो आम है, मगर यूक्रेन का संकट ऐसा है, जो शायद पश्चिमी देशों ने अपनी हालिया याददाश्त में कभी नहीं देखा. पहली बात तो ये कि ये संकट युद्ध की त्रासदी को उनके दरवाज़े तक ले आया है. इस बार युद्ध कहीं दूर किन्हीं अनजान लोगों के बीच नहीं हो रहा है, जिसे प्राइम टाइम के टीवी में राष्ट्रवादी भावना से ओत-प्रोत होकर देखा जा सके. पूर्व सोवियत संघ और उसका वारिस रूस लंबे समय से पश्चिमी देशों का प्रमुख हौव्वा रहा है, जो उनके राजनीतिक संवाद और नीतिगत फैसलों पर हावी रहा है. यूरोप महाद्वीप में जंग की तस्वीरें अटलांटिक के आर-पार के सुरक्षा ढांचे के लिए बुरा ख़्वाब बनकर आई हैं. हालांकि, सबसे अहम बात तो लंबे समय से चली आ रही संधियों और परंपराओं का संबंधित पक्षों द्वारा खुला उल्लंघन है, जिसका असर अटलांटिक से दूर स्थित इलाक़ों पर भी देखने को मिलेगा. इससे एक ज़लज़ला पैदा होगा, जिससे ताक़तवर लोगों का हौसला बढ़ेगा, जो मामूली विवादों को वजह बनाकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर किए गए वादे तोड़कर अपनी मनमानी करने को तैयार होंगे, क्योंकि उन्हें किसी तगड़े पलटवार का ख़ौफ़ नहीं होगा. इससे वैश्विक राजनीतिक में अराजकता पैदा होगी, नए नए संघर्ष पैदा होंगे जिनकी चपेट में पूरे देश आ जाएंगे और फिर इससे वो विश्व व्यवस्था विघटन की ओर तेज़ी से बढ़ सकती है, जिसे हम अब तक देखते आए हैं.

यूरोप महाद्वीप में जंग की तस्वीरें अटलांटिक के आर-पार के सुरक्षा ढांचे के लिए बुरा ख़्वाब बनकर आई हैं. हालांकि, सबसे अहम बात तो लंबे समय से चली आ रही संधियों और परंपराओं का संबंधित पक्षों द्वारा खुला उल्लंघन है, जिसका असर अटलांटिक से दूर स्थित इलाक़ों पर भी देखने को मिलेगा. 

आज जब दुनिया में स्वनामधन्य ज़ारों, ख़लीफ़ाओं और आक्रमणकारी योद्धाओं ने ज़मीनों पर क़ब्ज़ा करके राष्ट्रीय गौरव की अपनी संकुचित सोच को दूसरों पर थोपने का सफ़र शुरू कर दिया है, तो उन्हें ताक़त इसी बात से मिल रही है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय पलटवार करने की इच्छाशक्ति नहीं रखता है. उनकी असरदार सलामी स्लाइसिंग की रणनीति अंतरराष्ट्रीय समुदाय को बांटने और सीमित प्रतिक्रिया के मुक़ाबले ज़्यादा दिलकश दिखाई देती है. उनके इस अभियान को रोकने के लिए नई सोच और तौर तरीक़ों की ज़रूरत है, जिसके लिए खोखले वादों और मोलोतोव कॉकटेल जैसे नुस्खों से आगे बढ़कर देखना होगा.

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