16 अक्टूबर को फ्रांस की राजधानी पेरिस में सैमुअल पैटी नाम के एक अध्यापक की बड़ी बर्बरता से हत्या कर दी गई थी. चेचेन्या से आकर फ्रांस में शरण लेने वाले 18 बरस के युवक अब्दुल्लाख एंजोरोव ने 47 वर्ष के सैमुअल पैटी का सिर क़लम कर दिया था. अब्दुल्लाख़ ने पैटी को इसलिए मारा था क्योंकि उन्होंने अभिव्यक्ति की आज़ादी की पर चल रही बहस को समझाने के लिए अपने छात्रों को शार्ली हेब्दो द्वारा प्रकाशित किए गए मुसलमानों के पैग़म्बर मुहम्मद के कार्टून दिखाए थे. पेरिस में फ्रांसीसी अध्यापक की हत्या को अपने लिए एक अवसर की तरह देखते हुए, तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैयप अर्दोआन ने ख़ुद को दुनिया भर में इस्लाम के इकलौते संरक्षक के तौर पर प्रस्तुत करने की कोशिश की.
तुर्की और फ्रांस के बीच शार्ली हेब्दो के कार्टून को लेकर ये ताज़ा टकराव, तुर्की की क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर टकराव बढ़ाने की व्यापक रणनीति का ही हिस्सा है. तुर्की के राष्ट्रपति अर्दोआन को पेरिस में हुए आतंकी हमले ने एक ऐसा मौक़ा मुहैया करा दिया, जिसके बहाने, अर्दोआन ने मैक्रो को ‘सांप्रदायिक तरीक़ों’ से नीचा दिखाने की कोशिश की.
अर्दोआन की इस रणनीति को कुछ लोग व्यंग में ‘नयी उस्मानिया सल्तनत या ओटोमान 2.0’ कहकर भी बुलाते हैं. तुर्की के राष्ट्रपति अर्दोआन ने फ्रांस के प्रेसिडेंट इमैन्युअल मैक्रों पर इस्लाम विरोधी बयान देने का आरोप लगाकर उनकी आलोचना की. इसके अलावा, अर्दोआन ने दुनिया भर के मुसलमानों से ये अपील की कि वो फ्रांस को सबक़ सिखाने के लिए उसके उत्पादों और उसकी अर्थव्यवस्था का बहिष्कार करें. जब अर्दोआन मुस्लिम देशों से ये आह्वान कर रहे थे, उसी दौरान उनकी पत्नी की कुछ पुरानी तस्वीरें ऑनलाइन दुनिया में सामने आईं थीं, जिसमें अर्दोआन की पत्नी और तुर्की की प्रथम महिला इमीन अर्दोआन, फ्रांस के लग्ज़री ब्रांड हर्मीस का हैंडबैग लिए हुए दिखाई दी थीं.
अर्दोआन के बयान की कड़ी आलोचना क्यों?
अर्दोआन ख़ुद को काफ़ी समय से दुनिया में इस्लाम की ताक़त, उसकी छवि और वैश्विक सदाचार के संरक्षक के तौर पर प्रस्तुत करवे की कोशिश करते रहे हैं. इसके ज़रिए अर्दोआन मुस्लिम देशों के नाम पर, एक राष्ट्र के तौर पर तुर्की के हितों और भौगोलिक सामरिक समीकरणों को साधने की कोशिश करते आए हैं. मु्स्लिम देशों का समर्थन जुटाने के लिए वो धर्म का सहारा लेते रहे हैं. इसीलिए, उन्होंने फ्रांस के बहिष्कार का एलान करने के लिए अपने देश के टीवी चैनलों पर राष्ट्र के नाम संदेश जारी किया.
अर्दोआन की इस घोषणा से फ्रांस और तुर्की के बीच पहले से चला आ रहा तनाव और बढ़ गया. लेकिन, अर्दोआन के इस एलान के कुछ घंटों के भीतर ही, यूरोपीय संघ के अन्य देशों व दुनिया के तमाम राष्ट्रों के साथ भी तुर्की के संबंध में खटास पैदा हो गई. दुनिया के तमाम राष्ट्रों, जिनमें भारत भी शामिल है, उन्होंने फ्रांस के राष्ट्रपति मैक्रों के ख़िलाफ़ अर्दोआन के बयान की कड़ी आलोचना की.
‘क्या है शार्ली हेब्दो के कार्टून को लेकर विवाद’
तुर्की और फ्रांस के बीच शार्ली हेब्दो के कार्टून को लेकर ये ताज़ा टकराव, तुर्की की क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर टकराव बढ़ाने की व्यापक रणनीति का ही हिस्सा है. तुर्की के राष्ट्रपति अर्दोआन को पेरिस में हुए आतंकी हमले ने एक ऐसा मौक़ा मुहैया करा दिया, जिसके बहाने, अर्दोआन ने मैक्रो को ‘सांप्रदायिक तरीक़ों’ से नीचा दिखाने की कोशिश की. इसका मतलब ये कि अर्दोआन ने इस्लाम के नाम पर फ्रांसीसी समाज में मतभेद पैदा करने की कोशिश की. क्योंकि फ्रांस में लंबे समय से बाहर से आए लोगों के फ्रांसीसी समाज में सामाजिक और सांस्कृतिक तौर पर एकीकरण को लेकर लंबे समय से बहस चली आ रही है. परंतु, अंतत: शार्ली हेब्दो हो या कोई और संकट, इसकी जड़ में जो विवाद है, उसका सीधा संबंध दुनिया के बदलते भौगोलिक राजनीतिक समीकरणों से है.
हाल के वर्षों में तुर्की ने अपने आस-पास के सभी भौगोलिक क्षेत्रों के साथ तनाव बढ़ाने का काम किया है. इसी साल अगस्त में जब पूर्वी भूमध्य सागर में तेल और गैस की खोज को लेकर तुर्की और ग्रीस के बीच तनाव अपने चरम पर था, तो फ्रांस ने ग्रीस की मदद के लिए अपनी वायु सेना और नौसेना को तैनात किया था. तब यूरोपीय संघ के दोनों देशों ने मिलकर, भूमध्य सागर से तुर्की के झंडे में रंगे पुते उसके अन्वेषण करने वाले जहाज़ों को विवादित समुद्री क्षेत्र खदेड़ने में सफलता हासिल की थी. तुर्की की धमकियों से निपटने के लिए फ्रांस ने ग्रीस को अब दसॉ कंपनी के बनाए रफ़ाल लड़ाकू जहाज़ बेचने का भी प्रस्ताव दिया है.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि विश्व के बदले भौगोलिक सामरिक समीकरणों में भूमध्य सागर भी एक मोर्चा है. यूरोपीय ताक़तों को चुनौती देने के साथ-साथ, तुर्की पूरे ज़ोर शोर से ख़ुद को मध्य पूर्व की एक शक्ति बनाने की कोशिश भी कर रहा है. इसके लिए तुर्की सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात की जोड़ी को चुनौती देने और नीचा दिखाने से भी नहीं हिचक रहा है. इसकी सबसे अच्छी मिसाल, लीबिया में चल रहा गृह युद्ध है, जहां लीबिया की मौजूदा अस्थायी सरकार को तुर्की के राष्ट्रपति अर्दोआन खुलकर समर्थन दे रहे हैं. वहीं, इस सरकार को चुनौती देने वाले जनरल ख़लीफ़ा हफ़्तार को संयुक्त अरब अमीरात (रूस और एक हद तक फ्रांस से भी) बढ़ावा दे रहा है. इसी वजह से लीबिया में लंबे समय से गृह युद्ध छिड़ा हुआ है, जिसका कोई अंत अभी नज़दीक नहीं दिख रहा है.
इसे देखते हुए ही फ्रांस ने संयुक्त अरब अमीरात के साथ अपनी नज़दीकी बढ़ा ली है. भूमध्य सागर में तनातनी के दौरान, संयुक्त अरब अमीरात ने भी ग्रीस के क्रेट द्वीप पर अपनी वायुसेना के F-16 लड़ाकू विमानों का एक बेड़ा, ग्रीस की सेना के साथ युद्धाभ्यास के लिए भेजा था. संयुक्त अरब और फ्रांस ने अपना बारहवां सामरिक संवाद भी जून महीने में आयोजित किया था. फ्रांस और संयुक्त अरब अमीरात के बीच रक्षा क्षेत्र में सहयोग, दोनों देशों के रिश्तों में अग्रणी भूमिका निभा रहा है.
‘दूसरे मुल्कों में तुर्की का बढ़ता सैन्य विस्तारीकरण’
मध्य पूर्व में अर्दोआन ने खाड़ी सहयोग परिषद (GCC) में क़तर को लेकर पड़ी फूट का भरपूर लाभ उठाया है. जब सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात ने मिलकर, इस क्षेत्र में क़तर के अपनी औक़ात से ज़्यादा कूदने को लेकर, उसके ख़िलाफ़ आर्थिक नाकेबंद की शुरुआत की थी (जो अभी भी जारी हैं), तब तुर्की ने बड़ी तेज़ी से इस मामले में दखल देते हुए ईरान के साथ मिलकर इस छोटे से अरब देश क़तर की मदद की थी. तुर्की ने क़तर में अपनी सेनाएं भेजी थीं, जो संयुक्त अरब अमीरात की सीमा से अस्सी किलोमीटर से भी कम दूरी पर तैनात की गई थीं. खाड़ी क्षेत्र के बाहर भी तुर्की ने अपनी सैन्य ताक़त को बढ़ाने का काम किया है. सीरिया में तुर्की बाग़ियों के एक गुट का समर्थन कर रहा है (इनमें वो संगठन भी शामिल हैं, जो कभी अल क़ायदा से ताल्लुक़ रखा करते थे).
कुल मिलाकर कहें तो इस समय तुर्की की सेनाएं जितने देशों में सैन्य अभियान संचालित कर रही हैं, वो 1923 में ओटोमान साम्राज्य के ख़ात्मे के बाद तुर्की द्वारा संचालित अब तक के सबसे व्यापक युद्ध अभियान हैं.
इसके अलावा तुर्की की सेनाओं ने उत्तरी इराक़ में घुसकर कुर्दिश विद्रोही संगठन PKK के ख़िलाफ़ कार्रवाई की है. सोमालिया में भी तुर्की ने सैन्य कार्रवाई की है और नैटो का सदस्य देश होने के नाते तुर्की ने अफ़ग़ानिस्तान में भी अपनी सेनाएं भेजी हैं. हाल ही में तुर्की ने नागोर्नो काराबाख़ में आर्मेनिया और अज़रबैजान के बीच युद्ध के दौरान सीरिया से आतंकवादियों को भाड़े पर लेकर अज़रबैजान की ओर से लड़ने के लिए भेजा था. इसके अलावा तुर्की ने अज़रबैजान को हवाई युद्ध के लिए भी अपनी वायुसेना की ओर से मदद की थी.
कुल मिलाकर कहें तो इस समय तुर्की की सेनाएं जितने देशों में सैन्य अभियान संचालित कर रही हैं, वो 1923 में ओटोमान साम्राज्य के ख़ात्मे के बाद तुर्की द्वारा संचालित अब तक के सबसे व्यापक युद्ध अभियान हैं.
ओटोमान साम्राज्य की तर्ज पर इस समय तुर्की अपनी सैनिक ताक़त के विस्तारवाद को अंजाम दे रहा है, उससे तुर्की के साथी देशों की संख्या कम से कमतर होती जा रही है. मैक्रों का नाम लेकर उनके ख़िलाफ़ बयानबाज़ी करने के मसले पर तुर्की को अपने केवल दो पुराने साथी देशों पाकिस्तान और ईरान का ही खुलकर समर्थन मिला है. तुर्की और ईरान के बीच सहयोग का ये समीकरण, इस बात की सबसे शानदार मिसाल है कि तुर्की अपने हितों और ताक़त के बूते पर किस तरह की विदेश नीति को अंजाम दे रहा है और जिसके लिए वो इस्लाम को बुनियाद बनाकर अपनी मोर्चेबंदी को और मज़बूत कर रहा है.
ईरान इस्लाम धर्म के शिया फ़िरक़े का केंद्र है, तो अर्दोआन ईरान के धार्मिक नेता अयातुल्लाह से प्रेरणा लेकर ‘सुन्नी मुसलमानों के अयातुल्ला’ बनना चाहते हैं. तुर्की और ईरान के सामरिक हित और भौगोलिक राजनीतिक मक़सद एक ही हैं.
ऐसा करके तुर्की के राष्ट्रपति अर्दोआन अपनी छवि एक ऐसे नेता के तौर पर बना रहे हैं, जो इस्लाम धर्म की रक्षा के लिए, मुस्लिम समुदाय के हितों के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं. ऐसा करके अर्दोआन, दुनिया भर के मुसलमानों को ये संदेश भी देने में जुटे हैं कि मुस्लिम देशों के बीच पारंपरिक सत्ता के केंद्र रहे सऊदी अरब की छवि एक ऐसे देश की बना रहे हैं, जो इस्लाम धर्म और मुसलमानों की हिफ़ाज़त कर पाने में नाकाम साबित हुआ है.
अर्दोआन को जिस तरह ईरान का समर्थन मिलता रहा है और वो ख़ुद तमाम मसलों पर ईरान के साथ खड़े होते रहे हैं, वो इस क्षेत्र की सांप्रदायिक दरार का मुहाना कहा जाता है. ईरान इस्लाम धर्म के शिया फ़िरक़े का केंद्र है, तो अर्दोआन ईरान के धार्मिक नेता अयातुल्लाह से प्रेरणा लेकर ‘सुन्नी मुसलमानों के अयातुल्ला’ बनना चाहते हैं. तुर्की और ईरान के सामरिक हित और भौगोलिक राजनीतिक मक़सद एक ही हैं. पर, इसके अलावा दोनों देशों के बीच कोई भी समानता नहीं है. ईरान के धार्मिक नेता अयातुल्ला खमेनेई ने आश्चर्यजनक तरीक़े से फ्रांस के ख़िलाफ़ अर्दोआन का समर्थन करते हुए ट्विटर पर फ्रांस के युवाओं से सीधे सवाल किया था कि, ‘क्या अभिव्यक्ति की आज़ादी का मतलब अपमान करना है, वो भी इस्लाम में आला दर्ज़ा रखने वाले पैग़म्बर मुहम्मद का?’
तुर्की, ईरान और पाकिस्तान, तीनों ही देश चीन के साथ ये ताल्लुक़ात अपने सामरिक हितों को ध्यान में रखते हुए ही आगे बढ़ा रहे हैं. इन समझौतों में इस्लाम धर्म की हिफ़ाज़त या इस्लाम को लेकर कोई शर्त रखने जैसी बात नहीं दिखाई देती.
ईरान की सरकार ने तेहरान में फ्रांस के राजदूत को तलब करके मैक्रों के बयान के ख़िलाफ़ अपना कड़ा ऐतराज़ दर्ज कराया था. इस बीच पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने मुस्लिम देशों के नेताओं को चिट्ठी लिखी थी. इस ख़त में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने पश्चिमी देशों में बढ़ रहे इस्लामोफोबिया की ओर मुस्लिम देशों का ध्यान आकर्षित करते हुए इस पर फौरन कार्रवाई करने की ज़रूरत जताई थी.
‘तुर्की-ईरान-पाकिस्तान का चीन के साथ सांठगांठ’
तुर्की, ईरान और पाकिस्तान के इस पश्चिम विरोधी इस्लामिक गठबंधन की एक हैरान करने वाली समानता ये है कि इनमें से कोई भी देश चीन के विरोध में बोलने का साहस नहीं दिखा पाता है. जबकि चीन ने हज़ारों वीगर मुसलमानों को अपने शिन्जियांग प्रांत में बने नज़रबंदी शिविरों में क़ैद कर रखा है, जिससे कि उनकी सांस्कृतिक पहचान को मिटाया जा सके. इस बात की आशंकाएं जताई जाती हैं कि शिन्जियांग के रहने वाले वीगर मुसलमान आज अपने सबसे बुरे दौर से गुज़र रहे हैं, क्योंकि चीन न केवल उन्हें अपने वतन में निशाना बनाता है, बल्कि विदेश में भी वीगरों को अपने निशाने पर रखता है.
पूरी दुनिया के मुसलमानों के लिए फ़िक्रमंद पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान मुस्लिम नेताओं को ख़त ज़रूर लिखते हैं. लेकिन वो, चीन में नज़रबंदी शिविरों में क़ैद हज़ारों वीगर मुसलमानों का अपनी इस चिट्ठी में क़तई ज़िक्र नहीं करते हैं. वहीं, तुर्की के राष्ट्रपति अर्दोआन ने तो अपने यहां आकर पनाह लेने वाले वीगर मुसलमानों को तीसरे देशों के माध्यम से वापस चीन भेज दिया. वहीं, मुसलमानों के लिए फ़िक्रमंद ईरान तो चीन के साथ 400 अरब डॉलर के एक ऐसे समझौते पर हस्ताक्षर करने की तैयारी कर रहा है, जिसके तहत दोनों देश 25 वर्ष के लिए एक दूसरे के सामरिक, आर्थिक और सैन्य साझीदार बन जाएंगे. तुर्की, ईरान और पाकिस्तान, तीनों ही देश चीन के साथ ये ताल्लुक़ात अपने सामरिक हितों को ध्यान में रखते हुए ही आगे बढ़ा रहे हैं. इन समझौतों में इस्लाम धर्म की हिफ़ाज़त या इस्लाम को लेकर कोई शर्त रखने जैसी बात नहीं दिखाई देती.
ज़ाहिर है कि यहां तीनों ही देश अपने हितों को ध्यान में रखकर और उनकी रक्षा के लिए ही ये सामरिक दांव चल रहे हैं. जहां तुर्की और ईरान मिलकर खाड़ी क्षेत्र में सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के गठबंधन को नीचा दिखाने की कोशिश कर रहे हैं. वहीं, इस्लामाबाद की कोशिश ये है कि अगर वो कश्मीर मसले पर खाड़ी देशों को अपने साथ ला पाने में असफल रहता है, या फिर ऑर्गेनाइज़ेशन ऑफ़ इस्लामिक को-ऑपरेशन (OIC) जैसे संगठनों को अपने कश्मीर राग का समर्थन करने के लिए राज़ी कर पाने में असफल रहता है, तो वो भी इस गठबंधन का हिस्सा बन जाए. इस बीच, तुर्की के राष्ट्रपति अर्दोआन और ईरान के धार्मिक नेता अयातुल्लाह खमेनेई दोनों ही ने कश्मीर मसले पर भारत की नीतियों की आलोचना की है. इन देशों की आलोचना की तुलना अगर हम पाकिस्तान के राजनीतिक और फौजी नेतृत्व में भारत को लेकर जुनून से करें, तो ये आलोचना पचा पाना भारत के लिए अधिक आसान लगता है.
वैराग्यवाद के मशहूर रोमन विचारक लूशियस एनियस सेनेका (जिन्हें सेनेका द यंगर के नाम से भी जाना जाता है) ने धर्म के बारे में बड़ी सटीक बात कही थी. सेनेका ने कहा था कि, ‘आम जनता धर्म को हक़ीक़त समझती है, बुद्धिमान लोग मज़हब को झूठा मानते हैं वहीं शासक वर्ग के लिए धर्म बहुत उपयोगी वस्तु है.’ अर्दोआन जिस तरह से ख़ुद को सुन्नी इस्लाम के असली अगुवा जताते फिरते हैं और जिस तरह वो दुनिया भर के मुसलमानों के धार्मिक नेता होने का दिखावा करते हैं, वो धर्म के बारे में सेनेका द्वारा बताए गए सिद्धांत का बिल्कुल व्यावहारिक रूप दिखता है.
इस्लामिक लीडरशिप पर दावा करने के पीछे, अर्दोआन के असल इरादे क्या हैं, उन्हें समझना हो तो देखिए कि किस तरह वो तुर्की की सामरिक शक्ति का विकास कर रहे हैं और मध्य पूर्व से लेकर उत्तरी अफ्रीका तक तुर्की की सैन्य शक्ति का प्रदर्शन कर रहे हैं. अपनी सामरिक ताक़त की ऐसी नुमाइश करके अर्दोआन सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात द्वारा सुन्नी मुस्लिम देशों के नेतृत्व के दावे पर तो चोट पहुंचा ही रहे हैं. इसके साथ-साथ अर्दोआन, इस क्षेत्र में पश्चिमी देशों के हितों पर भी निशाना साध रहे हैं. इसीलिए इस्लाम को लेकर अर्दोआन की बयानबाज़ी और उनके तीखे तेवर असल में तुर्की के भौगोलिक सामरिक हितों को साधने का ज़रिया भर हैं.
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