Author : Harsh V. Pant

Published on Dec 18, 2018 Updated 0 Hours ago

पिछले कुछ वर्षों से, जहां यूरोपीय संघ के सदस्य देशों के साथ भारत के रिश्तों में व्यापक प्रगति हुई है और यूरोपीय संघ ने भी भारत पर ज्यादा ध्यान देना शुरु किया है, ऐसे में दोनों पक्षों के लिए यह आवश्यक हो गया है कि वे एक दूसरे को गम्भीरता से लें।

अनिश्चितताओं से भरपूर विश्व में साथ-साथ

यूरोपीय संघ ने 14 साल के अंतराल बाद हाल ही में भारत के बारे में अपनी रणनीति जारी की। इस दस्तावेज को जारी करते हुए भारत में यूरोपीय संघ के राजदूत तोमास्ज कोजलोवस्की ने इस बात पर बल दिया कि अन्य देशों के साथ संबंधों के क्षेत्र में भारत, यूरोपीय संघ के एजेंडे में शीर्ष पर है… रणनीति सम्बन्धी यह दस्तावेज दर्शाता है कि यूरोपीय संघ ने भारत की प्राथमिकताओं को बहुत गम्भीरता से लिया है। हम मिलकर आगे बढ़ने के लिए तैयार हैं।” आपसी सामरिक साझेदारी कायम करने के संबंध में 2004 की यूरोपीय संघ-भारत घोषणा, सम्बन्धों को अपेक्षा के मुताबिक नए सिरे से आकार देने में विफल रही है। यह योजना उसी घोषणा का स्थान लेने जा रही है।

महत्‍वपूर्ण बदलाव

नए दस्तावेज में अपार संभावनाएं हैं और यह यूरोपीय संघ-भारत साझेदारी को मजबूती देने के लिए विस्तृत योजना का खाका प्रस्तुत करता है, जो स्पष्ट रणनीति के अभाव के कारण कुछ अरसे तक दिशाहीन बनी रही। नई रणनीति भारत के विषय में ब्रसेल्स के रुख में आए महत्वपूर्ण बदलाव पर बल देती है और व्यापक सामरिक साझेदारी समझौते को अंतिम रूप देने, अफगानिस्तान और मध्य एशिया के बारे में संवाद में तेजी लाने, आतंकवाद से लड़ने के लिए तकनीकी सहयोग को मजबूत बनाने और कट्टरपंथ, हिंसक उग्रवाद तथा आतंकवादियों को वित्तीय सहायता जैसे प्रमुख क्षेत्रों की चर्चा करती है। परम्परागत रूप से सख़्त उपाय करने से परहेज करने वाले यूरोपीय संघ के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण बात यह है कि वह भारत के साथ रक्षा और सुरक्षा सहयोग विकसित करने की जरूरत स्वीकार कर रहा है।

 मूल्‍यों और लोकतांत्रिक आदर्शों में समानता होने के बावजूद भारत और यूरोपीय संघ, दोनों को ऐसी साझेदारी कायम करने के लिए जद्दोजहद करनी पड़ी है, जो 21वीं सदी की भूराजनीति और भूअर्थशास्त्र को आकार देने का माध्यम सिद्ध हो सके। दोनों ही एक दूसरे की अज्ञानता और अक्सर अहंकार की शिकायत करते हैं और दोनों के पास ही शिकायतों की अपनी फेहरिस्त है।

पिछले कुछ वर्षों से, जहां यूरोपीय संघ के सदस्य देशों के साथ भारत के रिश्तों में व्यापक प्रगति हुई है और यूरोपीय संघ ने भी भारत पर ज्यादा ध्यान देना शुरु किया है, ऐसे में दोनों पक्षों के लिए यह आवश्यक हो गया है कि वे एक दूसरे को गम्भीरता से लें। इस दौर में, जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप उदार वैश्विक व्यवस्था को खत्म कर रहे हैं, जिसे यूरोपीय पसंद करते हैं तथा चीन का उदय उन सभी मूल्यों को चुनौती दे रहा है, जिन्हें ब्रसेल्स वैश्विक स्थायित्व के नया आधार के तौर पर प्रदर्शित करना चाहता है, ऐसे में भारत के साथ ठोस सम्बन्ध कायम करना बिल्कुल स्वाभाविक है।

भारत के संकेत

नरेन्द्र मोदी सरकार ने भी पश्चिम से सम्बंध बनाने के बारे में अतीत की झिझक को त्याग दिया है। भारत ने ब्रसेल्स की प्रशासनिक भूल भुलैया के मुताबिक चलने में काफी कठिनाई महसूस की और इसी प्रक्रिया में यूरोपीय संघ को एक संगठन के तौर पर नजरन्दाज करता गया। कभी-कभी, भारत ने ब्रसेल्स के अति नैतिकतावादी स्वरों पर भी आपत्ति जताई। जहां एक ओर, यूरोपीय संघ के सदस्य देशों ने भारत के साथ सम्बन्ध बनाने के लिए ज्यादा व्यावहारिक रुख अपनाना शुरू कर दिया है, वहीं दूसरी ओर ब्रसेल्स राजनीतिक मामलों पर लगातार भारत के साथ बड़े भाई जैसा व्यवहार करता रहा है और भारत की विदेश नीति और सुरक्षा सम्बन्धी नीति की भू सामरिक आवश्यकताओं से बेखबर रहा है।

इसकी परिणति सीमित साझेदारी में हुई, जो मोटे तौर पर अर्थशास्त्र और व्यापार तक ही सिमट कर रह गई। यहां तक कि यूरोपीय संघ के भारत के सबसे बड़े व्यापारिक साझेदार और विशालतम विदेशी निवेशक के तौर पर उभरने के बावजूद, दोनों के रिश्ते किसी भी सामरिक तत्व का नामोनिशां तक नहीं था। वैसे तो, मोदी सरकार ने शुरूआत में यूरोपीय संघ-भारत के द्विपक्षीय व्यापार और निवेश समझौते के संबंध में बातचीत फिर से चालू करने पर बल दिया था, लेकिन द्विपक्षीय स्तर पर कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं हो सका।

ब्रेक्जिट के बाद यूरोपीय संघ में विकसित हुए व्यापक राजनीतिक परिदृश्य तथा यूरेशिया और हिंद-प्रशांत की हलचल भरी भूराजनीति को व्यवस्थित करने के भारत के प्रयासों के चलते दोनों ने एक-दूसरे से संबंध कायम करने के महत्व को पहचाना। ब्रसेल्स के भीतर महत्वपूर्ण भूराजनीतिक पक्षकार के रूप में उभरने को बल दिया जा रहा है और भारत कई मायनों में स्वाभाविक साझेदार है। चीन के विकास के पथ को लेकर व्यापक निराशा है और अपने पश्चिमी सहयोगियों के प्रति ट्रम्प प्रशासन की उपेक्षा बेहद हानिकारक है। ऐसे समय में, जब भारत अपनी संभावनाओं का विस्तार दक्षिण एशिया और हिंद महासागर क्षेत्र से बाहर कर रहा है, तो ब्रसेल्स को भी अपने दायरे से बाहर की संभावनाओं पर गौर करने के लिए विवश होना पड़ रहा है। यूरोपीय संघ अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन का भाग होगा और उसने भारत को सोमालिया तक खाद्यान्न पहुंचाने में जुटे विश्व खाद्य कार्यक्रम के पोतों की हिफाजत करने के लिए आमंत्रित किया है। दोनों क्षेत्रीय मसलों पर व्यापक ताल-मेल के साथ काम कर रहे हैं।

भविष्य की राह

अत: भारत के बारे में यूरोपीय संघ की नई रणनीति से संबंधित दस्तावेज ऐसे उपयुक्त समय पर जारी किया गया है, जब दोनों को ही अपनी साझेदारी के बारे में नए सिरे से गंभीरतापूर्वक विचार करने की जरूरत है। भारत और यूरोपीय संघ “स्वाभाविक साझेदार” हैं महज इस बात को दोहराते जाना ही काफी नहीं होगा तथा इस दस्तावेज में रेखांकित किए गए क्षेत्रों जैसे सुरक्षा के क्षेत्र में सहयोग से लेकर आतंकवाद का मुकाबला करने और क्षेत्रीय सुरक्षा पर गौर करने की जरूरत है। भारत को साइबर सुरक्षा, शहरीकरण, पर्यावरणीय सुधार और कौशल विकास जैसे अपने प्राथमिकता वाले विविध क्षेत्रों के लिए यूरोपीय संघ के संसाधनों और विशेषज्ञता की आवश्यकता है।

ऐसे में जब, यूरोपीय संघ अपना ध्यान भारत पर लगा रहा है, भारत को भी उत्साह के साथ जवाब में ऐसा ही रुख अपनाना चाहिए। अतीत में भारत को शिकायत थी कि ब्रसेल्स उसे गंभीरता से नहीं लेता है और दोनों पक्षों के बीच सैद्धांतिक समानता न होने के बावजूद, यूरोपीय संघ-चीन मजबूत पकड़ बनाए हुए हैं। अब यह सब बदल सकता है।


ये आलेख मूल रूप से द हिन्दू में प्रकाशित हुआ था।

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