Author : Amita Bhide

Published on Dec 02, 2021 Updated 0 Hours ago

शहरों में जो लोग अपार्टमेंट में रहते हैं उन्हें लेकर इलाज की सुविधाओं और कोविड प्रोटोकॉल के मामले में काफी असमानता है यही वजह है कि धारावी मॉडल विकसित देशों के लिए बेहद अहम है.

कोरोना महामारी की असमानताओं को दूर भगाने के लिए शहरों की संपूर्ण व्यवस्था में बदलाव करना होगा.

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ये लेख कोलाबा एडिट सीरीज़ का हिस्सा है.


कोरोना महामारी को जल्द फैलने से रोकने के लिए लगाए गए अचानक और सख़्त लॉकडाउन ने ऐसी छवि बनाई कि शहरी अर्थव्यवस्था में अपना योगदान दे रहे सैकड़ों प्रवासी मजदूर इससे बचने के लिए जल्द से जल्द अपने घर लौटना चाहते थे. यह छवि इस बात को याद दिलाता है कि कैसे शहरों में समाज के वर्गों के बीच अंतर है. यह कहना कि कोरोना महामारी ने शहरों की दिक्कतों और परेशानियों को सामने ला दिया इसकी पूरी व्याख्या नहीं है, इसने शहरों में असमानता को पूरी तरह सामने ला दिया जिसका अतीत साम्यवादी सोच से प्रभावित है और जहां वैश्वीकरण का मतलब सिर्फ़ कुछ लोगों के हाथों में धन का केंद्रीयकरण है. यहां विकासशील देश जिनकी पहचान संरक्षणवादी व्यवस्था से है, जिसका मतलब उद्योगों को एक सीमा तक बढ़ावा देना और ज़्यादातर लोगों को झुग्गियों में रह कर ऐसे वातावरण में काम करने के लिए मज़बूर करना जो जोख़िम भरा है. ज़्यादातर जगहों पर सार्वजनिक संसाधन पहले से ही कम हैं, उदारीकरण ने इस सार्वजनिक संसाधन को और असमान बनाया और असमानता को पहले से ज़्यादा बढ़ाया.

कोरोना महामारी ने शहरों की दिक्कतों और परेशानियों को सामने ला दिया इसकी पूरी व्याख्या नहीं है, इसने शहरों में असमानता को पूरी तरह सामने ला दिया जिसका अतीत साम्यवादी सोच से प्रभावित है और जहां वैश्वीकरण का मतलब सिर्फ़ कुछ लोगों के हाथों में धन का केंद्रीयकरण है. 

कोरोना महामारी में आई कमी के साथ ही शहरों में व्यवस्थाओं को फिर से व्यवस्थित करने और उन पर फिर से विचार करने को लेकर चर्चा जोरों पर है. हालांकि कोरोना महामारी को लेकर सुधारों और उपाय अतीत की विरासत से बंधे हैं. हालांकि कुछ हद तक कोरोना महामारी को लेकर हुए दर्द और दिक्कतों की असमानता की पहचान की गई है लेकिन कोरोना ने जो अवसरों में कमी है उसके ख़तरे को लेकर गंभीर होना सबसे ज़्यादा ज़रूरी है, ये तब भी मौजूद है जबकि वर्तमान और भविष्य पर कोरोना का काला साया मंडरा रहा है. इसलिए कोरोना महामारी को लेकर बुनियादी कमियों को समझ कर ही भविष्य में इससे जुड़ी नीतियां शहरों के लिए बनाई जा सकती हैं.

लगातार इस कोशिश में कि ज़्यादा से ज़्यादा उत्पादन हो, कारोबार ज़्यादा और कमाई बढ़ाने को लेकर, शहर लगातार कॉर्पोरेट और वित्तीय पूंजीवाद के केंद्र बनते जा रहे हैं, जो राष्ट्रीय और स्थानीय सीमाओं को लांघ रही है और सामान्य लोगों की बेहतरी के लिए जो ऐतिहासिक व्यवस्था तैयार की गई थी उसमें दाखिल होने की कोशिश में जुटी है. इन परिस्थितियों में हमें कई तरह के विरोधाभास देखने को मिलते हैं, जैसे घरों की मौजूदगी के साथ बेघरों की बढ़ती संख्या और झुग्गियों में रहने वाले लोग, या फिर दुनिया भर के विविध व्यंजन होने के बावजूद हमारे आसपास बच्चों और उनकी माताओं में बढती भुखमरी और ग़रीबी. दुनिया के तमाम चमचमाते शहर जो सत्ता और शक्ति के केंद्र हैं – उन जगहों से इस तरह के दृश्य थोड़ी दूरी पर दिखते हैं. लेकिन यह विरोधाभास उस जगह की ग़रीबी को कम बल्कि व्यवस्था और संस्थानों में आई गिरावट को प्रदर्शित करती हैं. इस तरह शहरों में कई तरह की अप्रत्यक्ष और बुनियादी व्यवस्था से संबंधित असमानताएं मौजूद हैं जो यह बताने के लिए काफी हैं कि कहां, कैसे और क्यों कोरोना महामारी ने अपना पैर पसार लिया. यह समाज, सरकार, इलाकों में इसे लेकर किए गए प्रयासों के असर का भी आकलन करता है कि आख़िर कैसे दनिया भर के शहरों में कोरोना महामारी ने पांव पसारा.

रूपकों के तौर पर शहर

वास्तविकता के रूप में रूपकों की काफी अहमियत है ख़ास कर किसी चीज को लेकर हम क्या सोचते हैं और क्या करते हैं. कोरोना महामारी को लेकर बोआवेंटुरा डी सैंटोस ने लिखा कि ‘वायरस के ख़िलाफ़ जंग’ जैसे रूपक इसके लिए बेकार हैं बल्कि ‘वायरस के साथ रहना’ जैसे रूपक ज़्यादा प्रासंगिक हैं. यह वायरस मानव जनित विचार के रूप में ज़्यादा स्वीकृत है, वैसे ही जैसे कि हमारे अंदर एक राक्षस सोया हुआ है जो तर्क के सो जाने के बाद जाग जाता है. मैं इसी तरह शहरों को देखता हूं.

इस तरह शहरों में कई तरह की अप्रत्यक्ष और बुनियादी व्यवस्था से संबंधित असमानताएं मौजूद हैं जो यह बताने के लिए काफी हैं कि कहां, कैसे और क्यों कोरोना महामारी ने अपना पैर पसार लिया. 

शहर कुदरत और बीमारियों के ख़िलाफ़ परंपरागत जंग में डूबे हुए हैं जो अर्थव्यवस्था, लोग और उनकी गतिविधियों को एक साथ जोड़ते हैं और भूगोल और समय को चकमा देने की कोशिश करते हैं. यह लोगों के उत्पादक और उनकी क्षमताओं, जो वैश्विक नेटवर्क का हिस्सा हैं, उसे भी अपने में शामिल किए हुए हैं. पुराने शहरों की व्यवस्था में कमी आज शहरों की भूखमरी और जंग के हालात में परिलक्षित होती है. औद्योगिक शहरों में कोलेरा, प्लेग और तमाम तरह की बीमारियों का ख़तरा होता है, यहां तक कि आगजनी जैसी समस्याओं को लेकर भी यहां तकनीक की नवीनता को बढ़ावा देना होता है. मानव शरीर में जो वायरस रेप्लिकेट करते हैं, मानवों द्वारा निर्मित वातावरण में इन्हें फैलने का मौका मिलता है. यह हमारे मानव समाज की ग़लतियों और मुश्किलों को दिखाता है. क्या रॉबर्ट पार्क इसी व्यवस्था की ओर इशारा कर रहे थे जब उन्होंने कहा कि “अगर शहर इंसानों का सबसे बड़ा निर्माण था तो यह ऐसी दुनिया है जहां इंसान तमाम मज़बूरियों के बीच रहने को विवश भी हैं ” ?

मुंबई और महामारी

ऐतिहासिक तौर पर मुंबई एक औपनिवेशक शहर रहा है जो अपनी विविधताओं से घिरा हुआ है. कई प्रभावों से जूझते हुए इस शहर ने अपनी पहचान पाई है – वैश्विक अर्थव्यवस्था से वित्तीयकरण, स्थानीय भूगोल, एकाधिकार और बहुत ज़्यादा ग़रीबी का स्तर जिससे दुनिया में सबसे ज़्यादा कीमती घरों के साथ प्रॉपर्टी बाज़ार के साथ इसकी आधी आबादी झुग्गियों में रहने को मज़बूर है. उद्योगों का सामान्यीकरण और स्थानीय और राष्ट्रीय राजनीति जो घोर सांप्रदायिक सियासत को जन्म देती है.

दूसरे कई देशों में शहरों की सरकार की तरह मुंबई में वित्तीय रूप से मज़बूत एक नगरपालिका मौजूद है लेकिन इसमें बिखराव है क्यंकि बहुआयामी, एक दूसरे की सीमा को लांघती संस्थाएं और प्रतिस्पर्द्धात्मक सियासत और राज्य सरकारों के अधिक केंद्रीयकरण के चलते यह कमजोर पड़ती जा रही है. शहर में संसाधन कम हैं और बेहद ज़्यादा बिखरी हुई सरकारी व्यवस्था है जिसके तहत दो तरह के लोग रहते हैं – नागरिक और औपचारिक. पहले वर्ग के लोग कानून को अपने हक के लिए इस्तेमाल करते हैं, दूसरे लोग नीतियों और स्कीम  की तरफ देखते हैं. ये दोनों ही प्रभाव ये तय करते हैं कि कोई शहर कैसे काम करता है. शहरों में जुगाड़ की सियासत और गतिविधियां जो औपचारिक वर्ग के लोग हैं उन्हें उनका हक लेने से रोकती हैं. जैसा कि शहाना चट्टराज ने अपनी किताब शंघाई ड्रीम्स अर्बन रिस्ट्रक्चरिंग इन ग्लोबलाइजिंग मुंबई में तर्क दिया है कि एक विश्व स्तरीय शहर की अवधारणा को प्राप्त कर पाना नामुमकिन है. शहर की राजनीतिक अर्यव्यवस्था रियल इस्टेट की भारी कीमतों पर निर्भर है लिहाजा झुग्गी वालों को यह घर की सुविधा तो देती है लेकिन स्वास्थ्य, ज़रूरी सेवाएं और इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश को लेकर भारी असमानता है. सरकार के हस्तक्षेप में कमी आने से कल्याणकारी सेवाओं में भी कमी आती है और शहरी गरीबों में इसका विस्तार नहीं हो पाता है जहां सिर्फ वित्त आधारित कल्याणकारी योजनाएं और इंश्योरेंस की तरफ ज़्यादा झुकाव देखने को मिलता है.

दूसरे कई देशों में शहरों की सरकार की तरह मुंबई में वित्तीय रूप से मज़बूत एक नगरपालिका मौजूद है लेकिन इसमें बिखराव है क्यंकि बहुआयामी, एक दूसरे की सीमा को लांघती संस्थाएं और प्रतिस्पर्द्धात्मक सियासत और राज्य सरकारों के अधिक केंद्रीयकरण के चलते यह कमजोर पड़ती जा रही है

उपरोक्त वास्तविकताओं को अच्छी तरह से जाना जाता है और रेखांकित भी किया गया है, बावजूद इसके, महामारी का मुकाबला करने के लिए सार्वजनिक नीतियां घर पर डिज़िटल प्रौद्योगिकी, पर्याप्त स्थान और सुविधाओं तक पहुंच के साथ अपार्टमेंट में रहने वाले नागरिक के आसपास ही केंद्रित हैं, जिनके पास पर्याप्त बैंक बैलेंस है. कोरोना महामारी के दौरान लंबे समय तक राष्ट्रीय लॉकडाउन से प्रवासी कामगारों और दैनिक मज़दूरों में दहशत फैल गई थी. उनकी आवाजाही को लेकर जो दुश्वारियां पैदा हो गई थी उससे प्रवासी मज़दूर हताश हो गए और तमाम जोख़िमों के साथ घर वापसी करने लगे. कल्याणकारी योजनाएं देर से शुरू की गईं और यह कम भी थी और बेहद कम लोगों तक पहुंच पाई. स्थानीय स्तर पर लॉकडाउन के चलते लोगों को घरों से निकलने पर पाबंदी लगा दी गई, सड़क पर लोगों का निकलना बंद हो गया और सार्वजनिक यातायात के साधन अनिश्चितकाल के लिए बंद कर दिए गए. अपार्टमेंट में रहने वाले लोगों के बीच अपनी सुरक्षा का एक लेयर बना लिया गया जिसमें दाख़िल होने और बाहर निकलने पर रोक लगा दी गई. इसका नतीजा यह हुआ कि जो अनौपचारिक सेक्टर में कामगर लोग थे उनकी जीविका का साधन ख़त्म हो गया. वृहत स्तर पर सरकार और कॉर्पोरेट द्वारा प्रवासी मज़दूरों को मदद करने के दृष्टिकोण से बांटे जा रहे भोजन की व्यवस्था ने भी घटिया आवंटन प्रबंधन के चलते दम तोड़ दिया. सामाजिक ढांचा में कमी, चेकिंग, टेस्टिंग और कटेंनमेंट ज़ोन को ज़्यादा से ज़्यादा प्रभाव में लाया गया लेकिन यह सब असमान थे क्योंकि स्वास्थ्य क्षेत्र में निवेश की भारी कमी थी और स्थानीय समाज से यह कटा हुआ था.

इस वायरस का जैसा स्वरूप है उससे तो यही लगता है कि इसका पूरी तरह ख़ात्मा होना संभव नहीं है. इसलिए असल सवाल पूछे जाने चाहिए जिससे व्यवस्था की असमानताओं को दूर किया जा सके और शहरी व्यवस्था को दुरूस्त बनाने के लिए कदम उठाए जा सकें. 

जो लोग अपार्टमेंट में रह रहे थे उन्हें लेकर स्वास्थ्य सेवाओं में भारी असमानता थी. इसलिए एक ओर जहां अस्पताओं में बेड के आवंटन को सुनिश्चित किया जा रहा था, ज़रूरी दवाओं, परीक्षण सुविधाओं, वैक्सीनेशन और ज़रूरी उपायों को अमल में लाने के बावजूद शहरों में ग़रीब लोग इससे अलग रहे, लिहाजा एक वक़्त यहां तक कहा जाने लगा कि यह बीमारी अमीरों की बीमारी है. हालांकि इस व्यवस्था से धारावी में अच्छे नतीजे निकले, जो कि शहर में सबसे बड़ी झुग्गी का इलाका है, जहां वायरस के विस्तार को तुरंत रोका गया और इस काम में राज्य सरकार, नगर निगम, निजी क्षेत्र और सिविल सोसाइटी सभी ने मिलकर साथ दिया. लेकिन असल सवाल यही है कि ऐसी ही व्यवस्था दूसरी जगहों पर क्यों नहीं अमल में लाई गई.

 अपार्टमेंट में रहने वाले लोगों के बीच अपनी सुरक्षा का एक लेयर बना लिया गया जिसमें दाख़िल होने और बाहर निकलने पर रोक लगा दी गई. इसका नतीजा यह हुआ कि जो अनौपचारिक सेक्टर में कामगर लोग थे उनकी जीविका का साधन ख़त्म हो गया. 

निष्कर्ष

सभी संकट एक तरह से अवसर होते हैं जिससे सीखा जा सकता है लेकिन यह जानना बेहद अहम है कि आख़िर संकट पैदा कैसे होता है. मुमकिन है महामारी को वायरस के ख़िलाफ़ जंग कह कर इसे दूर करने के लिए कोशिशें की जाए लेकिन इस वायरस का जैसा स्वरूप है उससे तो यही लगता है कि इसका पूरी तरह ख़ात्मा होना संभव नहीं है. इसलिए असल सवाल पूछे जाने चाहिए जिससे व्यवस्था की असमानताओं को दूर किया जा सके और शहरी व्यवस्था को दुरूस्त बनाने के लिए कदम उठाए जा सकें. व्यवस्था में असमानता ने पहले ही यह साबित कर दिया है कि यह वायरस अपने में बदलाव लाकर तरह-तरह की मुश्किलों को पैदा कर सकता है और जिसकी वजह से मौतें हो सकती हैं. लिहाजा यह हमलोगों पर है कि इससे हम सबक सीखें और इसके साथ रहते हुए हम कैसे अपने अस्तित्व को बरकरार रख सकते हैं यह जानें.

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