Author : Tobias Scholz

Published on Nov 30, 2020 Updated 16 Days ago

सुरक्षा परिषद के पांचों स्थायी सदस्य, परिषद के भीतर स्थायी सीटें बढ़ाए जाने के मुद्दे पर बातचीत से लाभान्वित होंगे, क्योंकि सुरक्षा परिषद का कोई भी सदस्य, विश्व में फैली अव्यवस्था और अराजकता के बीच दीर्घकालिक रूप से आर्थिक या राजनीतिक लाभ हासिल नहीं कर सकता.

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के समक्ष निर्मित आवास और खोया विश्वास हासिल करने की चुनौती!

फिर कभी नहीं’ के मुद्दे पर एकजुट विश्वास

यह मुमकिन है कि संयुक्त राष्ट्र ने अपनी खास वर्षगांठ का जश्न मनाने के लिए कुछ अलग परिस्थितियों की उम्मीद की हो, लेकिन सच ये है कि संयुक्त राष्ट्र की 75वीं वर्षगांठ एक ऐसे समय में मनाई जा रही है, जब पूरी दुनिया पिछले सौ सालों में सामने आई सबसे गंभीर महामारी का सामना कर रही है और विश्व की बड़ी शक्तियां व्यापार-युद्ध (trade-war) की दहलीज़ पर खड़ी हैं. इस तरह के वैश्विक परिदृश्यों ने उन समस्याओं को पहले से कहीं अधिक उजागर किया है, जिनका सामना संयुक्त राष्ट्र और उसकी सुरक्षा परिषद लंबे समय से कर रही है. फिर भी, सुरक्षा परिषद में गहरे तक मौजूद संरचनात्मक समस्याओं की पहचान करने और उनका पता लगाने के लिए इस संगठन को अपने इतिहास और अपने अस्तित्व को टटोलना होगा और साथ ही इस संगठन को अपने निर्णयों से भविष्य पर पड़ने वाले प्रभावों और उससे संबंधित जोखिम पर सावधानी से विचार करना होगा. द्वितीय विश्व युद्ध में 85 मिलियन से अधिक लोगों की मौत के बाद, जीतने वाली शक्तियों ने एकजुट होकर इस बात पर सहमति व्यक्त की कि एक और वैश्विक युद्ध और मानवता के ख़िलाफ़ इस तरह का अपराध फिर कभी नहीं होना चाहिए. पूरी दुनिया में स्थायी रूप से शांति बहाल करने और स्थिरता लाने के लिए, संयुक्त राष्ट्र (UN) का गठन हुआ, जिसके केंद्र में विश्व में एक नई सुरक्षा नीति का संचार करना था. संयुक्त राष्ट्र के गठन से पहले बनाए, ‘लीग ऑफ नेशन’ यानी राष्ट्र-संघ के विपरीत, संयुक्त राष्ट्र का संस्थागत लचीलापन और उसका महत्व बहुत हद तक संयुक्त राज्य अमेरिका के समर्थन और इस संस्था के उदार नियमों में निहित था और यही संयुक्त राष्ट्र को राष्ट्र-संघ से बुनियादी रूप से अलग बनाता था. यह बात स्पष्ट थी कि विश्व की प्रमुख शक्तियां केवल इस कारण इस संगठन की सदस्यता लेंगी कि 51 राज्यों की निरंतर चर्चा के बीच, उनकी बात का वज़न होगा और उन्हें ध्यान पूर्वक सुना जाएगा. इसलिए नई सुरक्षा परिषद को इन प्रमुख शक्तियों के हितों को भी पहचानना था और उनका ध्यान रखना था. संयुक्त राष्ट्र की महासभा द्वारा लागू किए गए- ‘एक देश एक वोट’ के ढांचे के विपरीत, संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद, अंतरराष्ट्रीय असुरक्षा के मसलों पर तेज़ी से प्रतिक्रिया देने वाली और तेज़ी से काम करने वाली एक इकाई बनी. यही वजह है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के 15 सदस्यों में से कोई भी एक प्रस्ताव पारित कर, वैश्विक सुरक्षा से जुड़ी चिंताओं पर त्वरित और प्रभावी प्रतिक्रिया दिखा सकता था.

पूरी दुनिया में स्थायी रूप से शांति बहाल करने और स्थिरता लाने के लिए, संयुक्त राष्ट्र (UN) का गठन हुआ, जिसके केंद्र में विश्व में एक नई सुरक्षा नीति का संचार करना था.

अपने समय की राजनीति और यथार्थ के प्रतिबिंब के रूप में, संयुक्त राष्ट्र चार्टर के निर्माताओं ने चीन, फ्रांस, ग्रेट-ब्रिटेन, अमेरिका और सोवियत संघ को विश्व की इस सबसे महत्वपूर्ण और ताक़तवर इकाई में स्थाई सदस्यता दी. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के अन्य दस सदस्य महासभा द्वारा चुने जाने थे. साल 1945 में स्थापित हुई इस व्यवस्था में दो महत्वपूर्ण बदलाव हुए- चीनी गृह युद्ध के कारण चीन गणराज्य के बजाय पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना को सदस्यता का हस्तांतरण हुआ और सोवियत संघ के टूटने के साथ ही रूसी संघ को स्थाई सदस्यता मिली. हालांकि स्थायी सदस्यता वाले पांच देशों को वीटो का अधिकार हासिल था, लेकिन निर्वाचित सदस्यों के ज़रिए ही बहुमत बनाया जा सकता था और इसके ज़रिए शक्ति का संतुलन पैदा किया गया. यही वजह है कि, पी-5 और ई-10 यदि प्रभावी रूप से सहयोग करते हैं, तो वे केवल प्रस्तावों को स्वीकार कर सकते हैं. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की दुनिया में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद सामान्य रूप से संघर्षों को रोकने में विफल रही, लेकिन इसने कई मायनों में, विश्व की बड़ी ताक़तों के सामने ऐसी लक्ष्मण रेखा खींची जिसका अनादर करना, उनके लिए मुमकिन नहीं था.

बदलाव और संस्थागत दृढ़ता

दुनियाभर में फैली कोविड-19 की महामारी ने भले ही सुरक्षा परिषद के भीतर, संरचनात्मक स्तर पर पैदा हुए मतभेद और दरारों को उजागर किया है, लेकिन विभाजन के कुछ अंश, 1950 के दशक में ही पैदा हो चुके थे. उस समय, शीत युद्ध ने दुनिया को गुटों में विभाजित होने के लिए मजबूर कर दिया था. यहां तक कि भारत, मिस्र, और यूगोस्लाविया जैसे राज्य, जो किसी गुट या गठबंधन के साथ नहीं जाना चाहते थे, उन्हें गुटों की इस राजनीति से बाहर निकलने के लिए अपना खुद का एक ‘गुट’ यानी गुट-निरपेक्ष राष्ट्रों का समूह बनाना पड़ा. शीत युद्ध के प्रणालीगत प्रतिद्वंद्वियों में पारस्परिक विश्वास की कमी थी और उनका सहयोग अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दों और चुनौतियों तक सीमित था. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद, जिन कानूनी मानदंडों और सिद्धांतों से बंधी थी, उन्होंने सदस्य देशों के आपसी मतभेदों और महात्वकांक्षाओं को साधा और संगठन के संचालन को सुगम बनाया. लेकिन अब स्थिति बदल रही है. चीन अब कई तरह के अंतरराष्ट्रीय समझौतों जैसे- लिमिटेड टेस्ट बैन ट्रीटी (LTBT) का हिस्सा नहीं है, और रूस व संयुक्त राज्य अमेरिका लगातार, हथियारों की कमी और हथियार प्रबंधन को बढ़ावा देने वाले संस्थानों की आलोचना करने या उन्हें खारिज करने पर तुले हैं, और ऐसे में सुरक्षा परिषद ने विश्व के सबसे शक्तिशाली देशों के व्यवहार को नियंत्रण करने और सर्वहित में, वो क्या करें और क्या न करें, यह बताने की अपनी क्षमता खो दी है. दुनिया भर में राष्ट्रवादी राजनीति के उदय के साथ, सुरक्षा परिषद को अब निजी हितों को साधने के मंच के रूप में देखा जा रहा है. विश्व भर में राष्ट्रवाद का उदय, उदारवादी लोकतांत्रिक मूल्यों का एकमुश्त पतन है, और लेन-देन की राजनीति को बढ़ावा मिलने से सभी देशों के बीच, हथियारों के ज़रिए एक दूसरे से संबंध बनाने की होड़ लगी है. विशेष रूप से यह अपेक्षाकृत नए नीतिगत क्षेत्रों में अधिक दिखाई देता है, उदाहरण के लिए साइबर और अंतरिक्ष क्षेत्र जो अभी तक अनियंत्रित रहे हैं. संयुक्त राष्ट्र के व्यापक लक्ष्य और उसकी अर्थपूर्णता पर सवाल उठाकर, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने सुरक्षा परिषद को अर्थहीन बनाने और उसकी वैधता को ललकारने का काम भी किया है.

दुनिया भर में राष्ट्रवादी राजनीति के उदय के साथ, सुरक्षा परिषद को अब निजी हितों को साधने के मंच के रूप में देखा जा रहा है. विश्व भर में राष्ट्रवाद का उदय, उदारवादी लोकतांत्रिक मूल्यों का एकमुश्त पतन है, और लेन-देन की राजनीति को बढ़ावा मिलने से सभी देशों के बीच, हथियारों के ज़रिए एक दूसरे से संबंध बनाने की होड़ लगी है.

ऐसे में, न केवल डोनाल्ड ट्रंप, बल्कि सभी देशों के नेताओं को मौजूदा दौर में अपनी स्थिति को फिर से समझना होगा और इस बात का आकलन करना होगा कि कोविड-19 की महामारी से निकलने के बाद उनकी क्या स्थिति है. पिछले तीस सालों में, फ्रांसिस फुकुयामा द्वारा की गई, इतिहास के अंत की घोषणा कई पश्चिमी सरकारी अधिकारियों के कानों में गूंजती रही है, क्योंकि उनके राजनीतिक नेताओं ने महसूस किया कि वैश्विक रूप से मज़बूत प्रशासन स्थापित करने और मानवाधिकारों के प्रति प्रतिबद्ध होने का समय आखिरकार आ गया है. साल 1990 में कुवैत पर हमला करने के लिए इराक़ को मंजूरी देने के सुरक्षा परिषद के फैसले के साथ, सुरक्षा परिषद ने मानवीयता की राह पर चलने की नीति को अपनाने का संकेत दिया और यह जताने की कोशिश की कि वो अब इसी राह पर चलना चाहता है. रवांडा व सर्बिया में हुए नरसंहारों के प्रति एक समन्वित प्रतिक्रिया सामने रखने की संयुक्त राष्ट्र की अक्षमता को देखते हुए, सुरक्षा परिषद ने कुछ नए मानदंड बनाए जैसे ‘रिस्पॉन्सबिलिटी टू प्रोटेक्ट’ (R2P). यह नई नीति उन सभी की दृष्टि में एक सफलता थी, जिन्होंने एक ऐसे संगठन और परिदृश्य की परिकल्पना की थी जहां अंतरराष्ट्रीय समुदाय, मानवाधिकारों के उल्लंघन के लिए एक वैश्विक प्रहरी के रूप में सामने आए. हालांकि कुछ लोगों ने इसे, सुरक्षा परिषद द्वारा अपने दायरे से बाहर निकल कर लिए जाने वाले फ़ैसलों और उसके क्षेत्राधिकार से बाहर की गतिविधि के रूप में भी देखा. यह तब और भी स्पष्ट हो गया, जब चीन ने जलवायु परिवर्तन को सुरक्षा परिषद के अधिकारक्षेत्र का हिस्सा बनाने का विरोध किया. भले ही यह मामला सुरक्षा आयाम से जुड़ा था, लेकिन चीन की इस आपत्ति के बाद इसे सुरक्षा के मुद्दे के रूप में देखने और सुरक्षा को एक व्यापक समग्र रूप में परिभाषित करने के प्रयास ठहर गए. चीन जैसे देशों ने तर्क दिया कि ऐसे विषयों से निपटने के लिए विशिष्ट समितियां बनाई जाएंगी. इस संबंध में संयुक्त राष्ट्र जिस ऊहापोह की स्थिति में है वह और भी अधिक प्रबल हो जाती है जब: मानवाधिकार और मानवता के मद्दों को सुरक्षा नीतियों की नज़र से देखने, या कोविड-19 की महामारी से समग्र रूप से निपटने या फिर सीरिया में हो रहे संघर्ष के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने या प्रतिक्रिया देने में संयुक्त राष्ट्र खुद को अक्षम पाता है. ठीक इसी तरह, संयुक्त राष्ट्र में मानवाधिकार मामलों की उपसचिव मिशेल बैकलेट को बेलारूस में वर्तमान में हो रहे अन्याय पर बयान जारी करने में लगभग एक महीने का समय लग गया. सुरक्षा परिषद और मानवाधिकार उप-समिति द्वारा, मौजूदा दौर की सबसे गंभीर सुरक्षा चिंताओं को संबोधित करने और उनके पक्ष में कुछ कहने की विफलता यह दिखाती है, कि हमारे बहुपक्षीय संस्थानों की क्षमता अब अभूतपूर्व रूप से क्षरित हो चुकी है. साल 2030 के लिए तय किए गए ‘एजेंडा फॉर सस्टेनेबल डेवलपमेंट’ ने जहां यह उम्मीद जगाई थी कि संयुक्त राष्ट्र अब अपनी सार्थकता को नए सिरे से परिभाषित करने और अपने कलेवर को बदलने की दिशा में काम कर सकता है, वहीं इस संगठन में संरचनात्मक सुधार किए जाने का विचार समय के कमज़ोर पड़ता गया है.

संयुक्त राष्ट्र जिस ऊहापोह की स्थिति में है वह और भी अधिक प्रबल हो जाती है जब: मानवाधिकार और मानवता के मद्दों को सुरक्षा नीतियों की नज़र से देखने, या कोविड-19 की महामारी से समग्र रूप से निपटने या फिर सीरिया में हो रहे संघर्ष के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने या प्रतिक्रिया देने में संयुक्त राष्ट्र खुद को अक्षम पाता है.

सुधारों की ज़िम्मेदारी

सुरक्षा परिषद, पिछले दौर में हुए सुधारों में सफलतापूर्वक शामिल नहीं हुई है. हां, यह तर्क दिया जा सकता है, कि 2250 और 2419 जैसे प्रस्ताव यह दिखाते हैं कि संयुक्त राष्ट्र के सुरक्षा एजेंडे के अनुसार सुरक्षा परिषद में शांति और सुरक्षा को लेकर, एक नई समझ पैदा हो रही है. हालाँकि, शीत युद्ध की समाप्ति के बाद लगी प्रस्तावों की झड़ी ने सुरक्षा परिषद के नए उद्देश्यों को निर्धारित नहीं किया, बल्कि वैश्विक और स्थानीय मुद्दों के बारे में सुरक्षा परिषद की नई संकरता को दर्शाया है. कुलमिलाकर आम सहमति से विश्व की समस्याओं के समाधान खोजना आसान नहीं हुआ है. सीरिया में जारी युद्ध जैसे गतिरोध और संघर्ष यह दिखाते हैं कि सुरक्षा परिषद का नाकाम होना किस तरह के परिणाम सामने रख सकता है. संयुक्त राष्ट्र के संस्थानों के बीच, कामकाज को लेकर एक स्पष्ट विभाजन रखते हुए, सुरक्षा परिषद को संयुक्त राष्ट्र के समग्र लक्ष्यों के अनुरूप ही काम करना चाहिए, लेकिन इसकी एक मुख्य भूमिका, सुरक्षा संबंधी बुनियादी ज़िम्मेदारियों के लिए मज़बूत जनादेश तैयार करना भी है. इस तरह की चीज़ों को लागू करने का एक तरीका यह हो सकता है कि संयुक्त राष्ट्र के भीतर एक स्वचालित रेफरल प्रक्रिया की स्थापना की जाए, जिसके तहत वीटो किए गए प्रस्तावों को एक बार फिर विचार के लिए लाया जा सके, ताकि कानूनी प्रक्रिया में उनकी वापसी हो.

आम धारणा के विपरीत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी सदस्य, अगर परिषद के भीतर अतिरिक्त स्थायी सीटें बनाए जाने के संबंध में सहमति बनाते हैं तो इससे वो लाभान्वित ही होंगे क्योंकि सुरक्षा परिषद का कोई भी सदस्य, विश्व में फैली अव्यवस्था और अराजकता के बीच दीर्घकालिक रूप से आर्थिक या राजनीतिक लाभ हासिल नहीं कर सकता. 

आम धारणा के विपरीत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी सदस्य, अगर परिषद के भीतर अतिरिक्त स्थायी सीटें बनाए जाने के संबंध में सहमति बनाते हैं तो इससे वो लाभान्वित ही होंगे क्योंकि सुरक्षा परिषद का कोई भी सदस्य, विश्व में फैली अव्यवस्था और अराजकता के बीच दीर्घकालिक रूप से आर्थिक या राजनीतिक लाभ हासिल नहीं कर सकता. सुरक्षा परिषद में लैटिन अमेरिका और एशिया से नए व मज़बूत स्थाई सदस्यों को शामिल करने से, संगठन का प्रतिनिधित्व बढ़ेगा और दो ध्रुवीय दुनिया की धारणा का प्रभावी ढंग से मुकाबला किया जा सकेगा. जैसे चीन और रूस ने हाल के कुछ सालों में खुद को अंतरराष्ट्रीय कानूनों से ऊपर मानते हुए ऐसी कई गतिविधियों को अंजाम दिया है जो वैश्विक निंदा की वजह बन सकती हैं, और पूरे विश्व को उनकी कीमत चुकानी पड़ सकती है. क्राईमियाई प्रायद्वीप में रूस की गतिविधियों और हांगकांग में चीन के व्यवहार ने, अंतरराष्ट्रीय कानूनों के उल्लंघनों की स्थिति में सुरक्षा परिषद के सीमित अधिकारों और इस तरह की गतिविधियों की निंदा करने की अक्षमता को उजागर किया है.

मौजूदा दौर में सुरक्षा परिषद जिन चुनौतियों का सामना कर रही है, उन पर नियंत्रण पाने के लिए, वर्तमान में हो रही लेन-देन की राजनीति पर काबू पाने की आवश्यकता है. यहां उल्लिखित सुझाव केवल एक बड़े सुधार के एजेंडे के भीतर ही सफल हो सकते हैं, और यदि सभी राष्ट्र लेन-देन की प्रवृत्ति को अस्वीकार कर मानवता को सर्वोपरि मानें तभी इस दिशा में सकारात्मक नतीजे सामने आ सकते हैं. इन सुधारों को अंतरराष्ट्रीय राजनीति और अंतरराष्ट्रीय संबंधों में सुरक्षा बहाल करने के लिए एक दीर्घकालिक निवेश के रूप में समझा जाना चाहिए और सुरक्षा परिषद को इसके व्यापक संस्थागत ढांचे के तौर पर देखा जाना चाहिए. तभी, सुरक्षा परिषद अपने ऐतिहासिक स्वरूप में एक अपरिहार्य संगठन के रूप में काम कर सकती है, और आने वाले 75 सालों तक अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा के संरक्षक के रूप में विश्वसनीयता हासिल कर सकती है.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.