Author : Sushant Sareen

Published on Feb 22, 2019 Updated 0 Hours ago

यह वक्त ऐसी तमाम गलतफहमियों को दूर करने का मौका है। जब वहां की रियासत की नीतियां कट्टरपंथी तय करते हों, तो हमें भी उसी हिसाब से अपने कदम आगे बढ़ाने चाहिए।

जो सोच पाकिस्तान पर गालिब है

पुलवामा हमले का विरोध करती पाकिस्तान की कुछ तस्वीरें इन दिनों सोशल मीडिया पर वायरल हो रही हैं। जब वहां का निजाम इस हमले में अपने आतंकियों के शामिल होने के सुबूत मांग रहा हो, तब इन तस्वीरों को भारत में सुकून की नजरों से देखा जा रहा है। यह उम्मीद जताई जा रही है कि यही ‘डिफरेंट ओपिनियन’ (अलहदा राय) पाकिस्तानी हुकूमत पर दबाव बनाएगी, और उसे आतंकवाद की अपनी रीति छोड़ने को मजबूर कर देगी। लेकिन क्या वाकई यह इतना आसान है?

इस सवाल का जवाब ढूंढ़ने से पहले हमें पाकिस्तान का चरित्र समझ लेना चाहिए। हमारा यह पड़ोसी कोई सामान्य देश नहीं है। वहां कोई भारत जैसा माहौल नहीं है कि समाज के हरेक तबके से अलग-अलग राय सामने आए और उन सबको मिलाकर कोई राष्ट्रीय नीति तय की जाए। वहां उचित बात कहने वाले लोगों की संख्या मुट्ठी भर है। ये गिने-चुने लोग न सिर्फ अपने मुल्क की गलतियों को मानते हैं, बल्कि उन्हें दुरुस्त करने की नसीहतें भी देते हैं। मगर इनका पाकिस्तानी रियासत और हुकूमत की नीतियों में कोई दखल नहीं है।

हमारा यह पड़ोसी कोई सामान्य देश नहीं है। वहां कोई भारत जैसा माहौल नहीं है कि समाज के हरेक तबके से अलग-अलग राय सामने आए और उन सबको मिलाकर कोई राष्ट्रीय नीति तय की जाए।

सच यह है कि पाकिस्तान के भीतर वहां के सत्ता-प्रतिष्ठान से असहमति दिखाने वालों की स्थिति दिनोंदिन बिगड़ रही है। आज से दस साल पहले तक वहां के अंग्रेजी अखबारों में ऐसे लेख दिख जाते थे, जो सरकारी नीतियों की न सिर्फ मुखालफत, बल्कि उनका पर्दाफाश किया करते थे। यहां मैं उर्दू अखबारों का जिक्र नहीं कर रहा, क्योंकि उन पर शुरू से ऐसी अघोषित बंदिशें आयद रही हैं कि वे हुकूमत से अलग राय नहीं रख सकते। इसकी बड़ी वजह यह है कि समाज में उर्दू अखबारों की पहुंच काफी अंदर तक है। ये न सिर्फ अंग्रेजी अखबारों की तुलना में काफी ज्यादा पढ़े जाते रहे हैं, बल्कि आम लोगों पर इनका असर भी काफी ज्यादा रहा है। इसीलिए ‘मास सर्कुलेशन’ वाले इन अखबारों पर वहां के सत्ता-प्रतिष्ठान अपनी पकड़ बनाए रखते हैं। मगर हाल के वर्षों में अंग्रेजी अखबार (जिनकी पाठक संख्या लाख तक शायद ही पहुंच पाई है) भी उर्दू अखबारों के नक्शे-कदम पर बढ़ चले हैं। अगर उनमें ‘डीप स्टेट’ (पाकिस्तानी सत्ता पर पकड़ रखने वाले सियासतदां व सैन्य कमांडर) के खिलाफ कुछ खबरें या लेख प्रकाशित भी हुए हैं, तो वे गिनती भर हैं।

टीवी पर भी पिछले चंद वर्षों में ऐसा दबाव बन गया है कि वह सरकार की जुबान बोलने लगा है। वहां हुकूमत के खिलाफ चलने वाले आंदोलनों का जिक्र तक नहीं किया जाता। जैसे, पश्तून-तहफ्फुज आंदोलन। बादशाह खान के बाद इतना बड़ा पख्तून आंदोलन नजर नहीं आया, लेकिन यह खबर टीवी से ‘ब्लैक आउट’ कर दी गई है। पाकिस्तान की गड़बड़ियां उजागर करती खबरें तो टीवी पर बिल्कुल नहीं आतीं।

जाहिर है, पाकिस्तान के अंदर जो कट्टरपंथी सोच है, वही प्रभावी है। यह तबका न सिर्फ सरकार की नीतियां तय करता है, बल्कि उसको आगे भी बढ़ाता है। यही तबका सरकार का प्रवक्ता होता है और जो यह बोलता है, सरकार वही नीति तय भी करती है। इस सूरतेहाल में ऐसी उम्मीद ही बेमानी है कि पाकिस्तान में तरह-तरह की राय कायम है और उनसे रिश्ते सुधारने में मदद मिलेगी। असलियत में वहां वही सोच गालिब है, जो फौज व सैन्य प्रतिष्ठान की है। हमें उसे ही महत्व देना चाहिए, और उसी आधार पर अपनी नीतियां तय करनी चाहिए। लेकिन हम इसका ठीक उल्टा करते हैं।

पाकिस्तान की गड़बड़ियां उजागर करती खबरें तो टीवी पर बिल्कुल नहीं आतीं।

हमारी मुश्किल यह है कि हम वहां के अंग्रेजी अखबारों में कभी-कभार छपने वाली उस मुट्ठी भर लोगों की राय को आम-राय मानकर अपनी नीतियां बनाते हैं। भारत का उदारवादी धड़ा इसी के तहत अपनी हुकूमत पर पाकिस्तान से हाथ मिलाने का दबाव बनाता है। हालांकि पुलवामा हमले के बाद उम्मीद है कि यह उदार तबका अब नींद से जग गया होगा। ऐसा इसलिए, क्योंकि पाकिस्तान की जिस छोटी जमात में वह रिश्तों का भविष्य ढूंढ़ता रहा है, वही आज पुलवामा के दहशतगर्दों का समर्थन कर रही है और भारत में इस तरह के अन्य हमले की धमकी भी दे रही है।

साफ है कि पाकिस्तान से आती तस्वीरें न तो वहां के समाज में बदलाव का संकेत देती हैं, और न वहां की नीतियों में। इसलिए हमें उत्साहित नहीं होना चाहिए। अलबत्ता, इस वक्त हमें अपने गिरेबान में जरूर झांक लेना चाहिए, क्योंकि हम अब तक पाकिस्तान को लेकर कोई समग्र नीति नहीं बना पाए हैं। हमारी तरफ से ऐसी उद्देश्यपरक नीतियों का अभाव रहा है, जिन पर मजबूती से हम आगे बढ़ सकें। दोनों देशों के बीच ‘पीपुल टु पीपुल कॉन्टेक्ट’ की बात भी खूब की जाती है और यह भरोसा जताया जाता है कि अगर दोनों देशों के आम नागरिक एक-दूसरे के करीब आएंगे, तो हुकूमतें भी एक-दूसरे को गले लगाएंगी। इसी सोच के तहत हम पाकिस्तानी नागरिक को भारत में इलाज कराने सहित तमाम तरह की सुविधाएं देते आए हैं। मगर क्या ऐसी कोई पड़ताल अब तक हुई है कि इस नीति से हमें क्या हासिल हुआ है? इसका फायदा और नुकसान क्या है? फिर, हमारे पास ऐसा कोई प्रमाण भी नहीं, जिससे यह साबित हो सके कि पाकिस्तान की आम जनता हमसे अच्छे संबंध की हिमायती है? आज तक हमने वहां के अवाम की ऐसी कोई आवाज भी नहीं सुनी है, जो पाकिस्तान की जेहादी नीतियों का विरोध करती हो।

जाहिर है, यह वक्त ऐसी तमाम गलतफहमियों को दूर करने का मौका है। जब वहां की रियासत की नीतियां कट्टरपंथी तय करते हों, तो हमें भी उसी हिसाब से अपने कदम आगे बढ़ाने चाहिए। हमें पाकिस्तान की आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, सैन्य जैसी तमाम समस्याओं का गंभीर अध्ययन करना चाहिए। हमें यह भी पड़ताल करनी चाहिए कि उस पर कहां-कहां वार करने से उसे गंभीर चोट लगेगी? अगर पाकिस्तान हमारा दुश्मन देश है, तो हमें उसकी पूरी खबर होनी ही चाहिए। उससे दोस्ती संभव नहीं, तो दुश्मनी शिद्दत से निभाई जानी चाहिए। हमारी बेख्याली ही हमें बार-बार उस कगार पर ले आती है कि हम पर आतंकी हमला होता है और हम महज कठोर निंदा करके चुप हो जाते हैं।


यह लेख मूल रूप से हिन्दुस्तान अखबार में प्रकाशित हो चुका है।

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