यह लेख जर्नल रायसीना फाइल्स 2023 का एक अध्याय है.
चीन ने जिस पूर्वी एशिया क्षेत्र से अपनी 'गुड नेबर अर्थात अच्छे पड़ोसी' की नीति और चार्म ऑफेंसिव अर्थात सहयोगियों को लुभाने के इरादे से ताबड़तोड़ प्रयासों की शुरुआत की थी, उसी पूर्वी एशियाई क्षेत्र को अब चीन शक्ति का उदय होने की वज़ह से शुरू हुए भू-राजनीतिक विवादों का सबसे ज़्यादा सामना करना पड़ रहा है. शी जिनपिंग की ओर से पेश की गई विभिन्न सुरक्षा अवधारणाएं, जैसे ‘‘मानवता के लिए एक साझा भविष्य वाला समुदाय’’[1]और ‘‘सामान्य, व्यापक, सहकारी और स्थायी सुरक्षा,’’[2] पड़ोसी क्षेत्रों, विशेषत: पूर्वी एशिया के अपने सहयोगियों को ध्यान में रखकर बनाई गई दिखाई देती हैं. ऐसा होने के बावजूद यह पहले भी गुज़रे वक़्त के साथ देखा गया है कि चीन अपने उदय और पूर्वी एशिया स्थित अपने सहयोगियों के साथ संबंधों के बीच संतुलन बनाए रखने में विफ़ल साबित हुआ है.
चीन ने लगातार इस क्षेत्र को अपनी छवि में ढालने के की कोशिशों के साथ ही यहां के सहयोगियों को उसकी ‘‘एशिया फॉर एशियन्स’’ अर्थात ‘‘एशिया वासियों के लिए एशिया’’ की अवधारणा को अपनाने के लिए राजनयिक दबाव बनाया है.
चीन ने लगातार इस क्षेत्र को अपनी छवि में ढालने के की कोशिशों के साथ ही यहां के सहयोगियों को उसकी ‘‘एशिया फॉर एशियन्स’’ अर्थात ‘‘एशिया वासियों के लिए एशिया’’ की अवधारणा को अपनाने के लिए राजनयिक दबाव बनाया है. उसका यह प्रयास वर्तमान वैश्वीकृत और एकीकृत दुनिया में बीते हुए वक़्त की बात हो गई है. अब यह केवल ‘बाहरी’ कहे जाने वाले अमेरिका के ख़िलाफ़ एक उग्र राष्ट्रवादी रुख बनकर रह गया है. पूर्वी एशिया में चीन की ओर से ज़मीनी स्तर पर यथास्थिति को बदलने के लिए एकतरफा और आक्रामक कार्रवाइयां भी देखी जा रही हैं. इस संबंध में चीन की ओर से दक्षिण चीन सागर (एससीएस) में अन्य देशों के समुद्री दावों को ख़ारिज करते हुए सैन्य बुनियादी ढांचा स्थापित करने की कोशिश को उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है. इस क्षेत्र में दक्षिण कोरिया,[3] फिलीपींस,[4] वियतनाम,[5] मलेशिया[6] और इंडोनेशिया[7] जैसे देशों को चीन की आक्रामक कार्रवाइयों का मुकाबला करना पड़ रहा है.
पूर्वी एशिया में, चीन और क्षेत्र के अन्य देशों के बीच विवाद के मुद्दे आमतौर पर संप्रभुता, सुरक्षा और सामरिक व्यवस्था के इर्द-गिर्द मंडराता रहते है. चीन को अक्सर इस क्षेत्र में अपनी विदेश और सुरक्षा नीतियों में ख़ुद के द्वारा तय किए गए मानदंडों और सार्वभौमिकतावादी सहभागिता वाली नीति का उल्लंघन करते देखा जा सकता है. चीन की ओर से एससीएस में आक्रामक बुनियादी ढांचे को स्थापित करने की कोशिश इस क्षेत्र में आने वाले दूसरे देशों के दावों को ख़ारिज करने वाला एक तीव्र और विशिष्ट एकतरफा दृष्टिकोण प्रदर्शित करती है. दूसरी ओर चीन बातचीत और परामर्श के माध्यम से विवादों के शांतिपूर्ण समाधान के समर्थक के रूप में ख़ुद को प्रस्तुत करता आया है. एससीएस में बहुदलीय समुद्री विवाद को हल करने के लिए द्विपक्षीय वार्ता और बहुपक्षीय दृष्टिकोण अपनाने की चीन की अनिच्छा इस बात की गवाह है कि चीन भले ही यह दावा करें कि वह बहुपक्षवाद को प्राथमिकता देता है, लेकिन हकीकत में वह इसके विपरीत ही काम करता है.[8] वियतनाम ने जब यह कहा कि वह ‘‘चीन के ख़िलाफ़ दो संभावित उपायों के रूप में मध्यस्थता और मुकदमेबाजी’’ का विचार कर रहा है. तो वियतनाम को अंतर्राष्ट्रीय अदालत का रुख़ करने से रोकने के लिए चीन ने वियतनाम को ‘‘चेतावनी’’ देने के इरादे से एक जहाज भेज दिया था. ऐसे में यह सवाल उठना लाज़िमी है कि जब चीन अंतर्राष्ट्रीय न्यायिक संगठनों के निर्णय का पालन ही नहीं करना चाहता तो आखिरकार वह किस प्रकार के अंतर्राष्ट्रीय बहुपक्षवाद की परिकल्पना करता है.[9] इतना ही नहीं आर्थिक साधनों को भी चीन ने अपनी जोर-जबरदस्ती करने वाली कूटनीति में शामिल कर लिया है. भले ही आधिकारिक रूप से वह यह कहता रहा है कि वह एक मुक्त और अबाधित वैश्वीकरण अर्थव्यवस्था का समर्थक है.[10] चीन के आधिपत्य पूर्ण इरादों या इसके उत्थान के निहितार्थों को लेकर उठने वाली आशंकाएं उसकी आम छवि और भव्य घोषणाओं पर हावी हो जाती हैं. 1997 के एशियाई वित्तीय संकट के दौरान दिखाई देने वाला ‘‘सौम्य’ चीन अब सपनों की बात बनकर रह गया है. वर्तमान में, चीन के लिए, पूर्वी एशिया ऐसा क्षेत्र प्रतीत होता है, जो उसके वैश्विक नेतृत्व के प्रक्षेपण को रेखांकित करता है.
ताइवान जलडमरूमध्य में हलचल
चीन-ताइवान या क्रॉस-स्ट्रेट के बीच संबंधों को हम सामान्य तौर पर दो देशों के बीच ‘‘साधारण’’ संबंध नहीं कह सकते हैं. वे इस बात का जटिल उदाहरण पेश करते हैं कि कैसे संप्रभुता, सुरक्षा और रणनीतिक व्यवस्था के मुद्दे आपस में एक-दूसरे से जुड़े हुए हो सकते हैं.[11] चीन के उदय की वज़ह से इस क्षेत्र पर होने वाले परिणामों को उजागर करने के लिए ताइवान को सबसे अधिक अहम संदर्भ बिंदु के रूप में देखा जा सकता है. इसे हमें इस दृष्टि से देखना होगा ताकि हम चीन और अमेरिका के बीच भू-राजनीतिक प्रतिस्पर्धा का परीक्षण करते हुए अपने सहयोगियों और दोस्तों के लिए अमेरिका की निर्भरता को समझ सकें. 1979 में ताइवान रिलेशन्स एक्ट पारित होने के बाद से ही अमेरिका ताइवान का ‘सुरक्षा गारंटर’ बन बैठा है. ऐसे में ताइवान का मुद्दा अमेरिका को यह याद दिलाता है कि अगर उसने गारंटी को गंभीरता से नहीं लिया तो कैसे उसकी प्रतिष्ठा दांव पर लग सकती है.
1979 में ताइवान रिलेशन्स एक्ट पारित होने के बाद से ही अमेरिका ताइवान का ‘सुरक्षा गारंटर’ बन बैठा है. ऐसे में ताइवान का मुद्दा अमेरिका को यह याद दिलाता है कि अगर उसने गारंटी को गंभीरता से नहीं लिया तो कैसे उसकी प्रतिष्ठा दांव पर लग सकती है.
2016 में एक मर्तबा पुन: ताइवान स्ट्रेट रणनीतिक विवाद का केंद्र बन गया था. उस वक़्त वन-चाइना सिद्धांत को ख़ारिज करने वाली डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (डीपीपी) सत्ता में थीं. इसी अवधि में अमेरिका की चीन संबंधी नीति का पुनर्निधारण करते हुए उसे रणनीतिक प्रतिद्वंद्वी के रूप में मान्यता देने वाले डोनाल्ड ट्रम्प ने अमेरिकी राष्ट्रपति का पद संभाला था. इन दिनों चल रहे यूक्रेन युद्ध की वज़ह से दुनिया में एक बार फिर रूस-अमेरिका आमने-सामने खड़े दिखाई दे रहे हैं. इस कारण से भले ही चीन और अमेरिका के बीच चल रहे भू-राजनीतिक गतिरोध पर लोगों का ध्यान कुछ देर के लिए हट गया है, लेकिन यह गतिरोध आज भी दुनिया में पहले नंबर का रणनीतिक मुकाबला बना हुआ है. इन दोनों ताक़तों के बीच उनके रणनीतिक तर्क में सबसे अहम संदर्भ ताइवान जलडमरूमध्य की नाजुक, बहुस्तरीय सुरक्षा-रणनीतिक स्थिति बनी हुई है.
2016 में ताइपे में सत्ताधारी पार्टी डीपीपी के सत्ता में आने और 2020 में उसे ही सत्ता सौंपे जाने के बाद से क्रॉस-स्ट्रेट संबंधों में गिरावट देखी गई है. इसे लेकर चीन में निराशा का माहौल देखा जा रहा है. लेकिन जब केएमटी - जो वन-चाइना सिद्धांत को अपनी व्याख्या के तहत चीन के साथ साझा करता है - के पास ताइपे की सत्ता थी तो उस अवधि में 2008 से 2016 तक क्रॉस-स्ट्रेट संबंधों में अभूतपूर्व स्थिरता देखी गई थी. 2016 में क्रॉस-स्ट्रेट वार्ता इसलिए टूट गई, क्योंकि चीन इस बात से नाराज था कि सत्तारूढ़ डीपीपी स्पष्ट रूप से वन-चाइना सिद्धांत का पालन नहीं कर रहा था.[12] इसके विपरीत 2008 और 2016 के बीच हुए संवाद के दौरान आर्थिक और सांस्कृतिक स्पेक्ट्रम अर्थात क्षेत्रों में संस्थागत क्रॉस-स्ट्रेट सहयोग तंत्र स्थापित करने में चीन को सफ़लता मिली थी. चीन की नाराजगी की वज़ह से भी ताइवान और चीन के बीच स्थापित मौन राजनयिक संघर्ष का पतन हुआ. इसी कारण अब ताइवान के राजनयिक सहयोगियों की संख्या जो 2016 में 23 थी से घटकर वर्तमान में 14 हो गई है.[13]
चीन ने अपनी वन-चाइना नीति को लागू करने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर और सीधे तौर पर भी ताइवान को झुकाने के लिए विभिन्न तरीकों को अपनाया है. चीनी आपत्तियों के कारण ही वर्ल्ड हेल्थ असेंबली अर्थात विश्व स्वास्थ्य सभा (डब्ल्यूएचए) और इंटरनेशनल सिविल एविएशन ऑर्गनाइजेशन अर्थात अंतरराष्ट्रीय नागरिक उड्डयन संगठन (आईसीएओ) ने ताइवान के लिए अपने दरवाजे बंद कर दिए गए हैं. ताइवान ने 2009 से 2016 तक बतौर पर्यवेक्षक डब्ल्यूएचए की वार्षिक बैठकों में शिरक़त की,[14] और 2013 में आईसीएओ की त्रैवार्षिक सभा में चीन की ओर से आपत्ति नहीं उठाए जाने की वज़ह से उसके अध्यक्ष के अतिथि के रूप में भाग लिया था. [a],[15] लेकिन अब चीनी आपत्तियों को देखते हुए यह संभावना ख़त्म ही हो गई दिखती है कि ताइवान को किसी भी अंतरराष्ट्रीय संगठन में शामिल होने का मौका दिया जाएगा. सरकार के ख़िलाफ़ आवाज उठाने का जिन ताइवानी नागरिकों पर आरोप लगाया गया है - चाहे वह आरोप साबित हुआ हो अथवा नहीं - उन ताइवानी नागरिकों को केन्या, कंबोडिया, आर्मीनिया और और स्पेन जैसे विभिन्न देशों से निर्वासित कर चीन भेज दिया गया है. इन देशों ने चीन के साथ उनकी संबंधित प्रत्यर्पण संधियों के तहत ताइवानी नागरिकों को चीनी नागरिकों के रूप में मान्यता दी है, क्योंकि ये देश ताइवान को एक संप्रभु राज्य के रूप में नहीं बल्कि चीन के एक प्रांत के रूप में ही मान्यता देते हैं.[16]अपनी वन-चाइना नीति को चीन ने अक्सर वाणिज्यिक कंपनियों[17] के साथ-साथ गैर-सरकारी संगठनों पर लागू किया है. ज़रूरत पड़ी तो वह निजी व्यक्तियों पर भी इसे लागू करने लग जाएगा. कभी-कभी चीन ने ताइवान के ख़िलाफ़ लो-ग्रेड अर्थात निम्न-श्रेणी के आर्थिक प्रतिबंध लगाकर उसे दंडित भी किया है.[18]
ताइवान द्वारा एडीआईजेड के उल्लंघनों की लगातार बढ़ती संख्या के कारण चीन ने भी उसे धमकाने के लिए दिखावे के लिए सेना का जमावड़ा करते हुए इसे हथियार के रूप में इस्तेमाल किया है.[19] ताइवान के ख़िलाफ़ चीन लगातार 'ग्रे जोन' युद्ध[20] और साइबर युद्ध[21] को तेज कर रहा है. उसने अब तक सम्मानित रहीं अनौपचारिक मध्य रेखा का भी बार-बार उल्लंघन करते हुए इसे ताइवान स्ट्रेट की एक नई सामान्य स्थिति बनाकर रख दिया है.[22] अगस्त 2022 में जब यूएस की हाउस स्पीकर नैंसी पेलोसी ने ताइवान की यात्रा की तो चीन ने सैन्य अभ्यास करते हुए अपनी नाराज़गी का इजहार किया था, जिसके चलते क्रॉस-स्ट्रेट तनाव में बढ़ गया था.[23]
अपनी वन-चाइना नीति को चीन ने अक्सर वाणिज्यिक कंपनियों के साथ-साथ गैर-सरकारी संगठनों पर लागू किया है. ज़रूरत पड़ी तो वह निजी व्यक्तियों पर भी इसे लागू करने लग जाएगा. कभी-कभी चीन ने ताइवान के ख़िलाफ़ लो-ग्रेड अर्थात निम्न-श्रेणी के आर्थिक प्रतिबंध लगाकर उसे दंडित भी किया है.
ताइपे की डीपीपी सरकार, क्रॉस-स्ट्रेट संबंधों के मूल सवालों - यानी ताइवान की पहचान और ताइवान के भविष्य को लेकर चीनी दबाव के आगे न झुकते हुए अपने ही रुख पर कायम है. डीपीपी सरकार लंबे वक़्त से यह कहती आ रही है कि किसी भी स्थिति में ताइवान का भविष्य उसके नागरिक ही तय करेंगे. इसके साथ ही उसका मानना है कि बातचीत की नौबत आने पर वह बातचीत की मेज पर किसी भी मुद्दे पर अपना पक्ष रखने से परहेज नहीं करेगी. प्रत्येक मुद्दे पर बातचीत करने की डीपीपी सरकार की तैयारी का अर्थ यह है कि वक़्त आने पर वह ताइवान के लिए कानूनी तौर पर मिलने वाली आज़ादी को भी स्वीकार कर लेगी. लेकिन उसकी यह सोच चीन की दृष्टि से अभिशप्त सोच है. वर्तमान में भले ही ताइवान के लोगों में डीपीपी सरकार की चीन के साथ ताइवान के संबंधों को लेकर उसकी नीति के बारे में मतभिन्नता हो सकती है. लेकिन यह भी सच है कि डीपीपी सरकार ने क्रॉस-स्ट्रेट संबंधों पर जो रुख़ अपनाया है उसे तेजी से मुख्यधारा में स्थान मिलने लगा है.[24] चीन के लिए ताइवान के समाज की सोच में आ रहे इस परिवर्तन को लेकर चिंता देखी जानी चाहिए. 2020 के राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत हांगकांग का जो हश्र हुआ, उसे देखकर अब ताइवान में चीन की ‘‘एक देश, दो सिस्टम’’ के प्रस्ताव को लेकर संदेह बढ़ा है. इसी वज़ह से वह अब चीन की इस नीति को अस्वीकार करने के बारे में दृढ़संकल्पित दिखाई दे रहा है.
बीजिंग-ताइपे-वाशिंगटन त्रिकोण की पुन: वापसी
अमेरिका ने क्रॉस-स्ट्रेट संबंधों में नाजुक स्थिति के बीच ताइवान का न केवल राजनीतिक और कूटनीतिक रूप से समर्थन किया है, बल्कि उसने ताइवान के साथ अपने संबंधों को भी और मज़बूती प्रदान की है. ऐसे में इसे चीन से उपजने वाले ख़तरे को देखते हुए ताइवान को दिया गया अमेरिकी समर्थन में वृद्धि ही माना जा रहा है. अमेरिका ने ताइवान को हथियारों की आपूर्ति की मात्रा और रफ्तार में इज़ाफ़ा किया है. 2017 से, अमेरिका ने ताइवान को 20 बिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक के हथियारों की बिक्री को मंजूरी दी है. इसके अलावा अमेरिका और ताइवान मिलकर हथियारों के संयुक्त उत्पादन पर भी विचार कर रहे हैं.[25] इतना ही नहीं अमेरिका ने ताइवान के साथ अपने सैन्य संबंधों को अब खुलकर स्वीकार करना शुरू कर दिया है. इसके तहत ही अमेरिका ने अब यह माना है कि ताइवान में अमेरिकी सैन्य अधिकारियों की मौजूदगी है.[26] अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा और रक्षा से जुड़े सामरिक दस्तावेज़ों के साथ-साथ उच्च-स्तरीय अधिकारी भी अब ताइवान का बार-बार उल्लेख करते दिखाई देते हैं.
एक ओर जहां ताइवान जलडमरूमध्य में चीन एक नया सैन्य सामान्य बनाने की कोशिश कर रहा है, वहीं हो सकता है कि ताइवान के लिए अमेरिका पहले ही अपने हक में नई स्थिति का निर्माण करने में सफ़ल हो गया है.
अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी जे. ब्लिंकन ने ताइवान पर स्पष्टोक्ती की है जिसे शायद हाल के दशकों में अमेरिका की ओर से अब तक की सबसे व्यापक अभिव्यक्ति कहा जाएगा.[27] राष्ट्रपति जो बाइडेन यह बार-बार कहते आए हैं कि चीनी हमले की स्थिति में अमेरिका ताइवान का बचाव करेगा. लेकिन अब इस मसले पर अमेरिका से उनके प्रशासन से उठने वाले बयानों में उसमें जरा सा फ़र्क करना शुरू कर दिया है.[28] जनवरी से सितंबर 2022 की शुरुआत तक अमेरिकी कांग्रेस के 28 सदस्यों ने ताइवान का दौरा किया है. ऐसे में यह साफ़ है कि अब अमेरिकी कांग्रेस के सदस्यों की ताइवान यात्राओं की संख्या भी बढ़ने लगी हैं.[29] कुल मिलाकर, अमेरिकी उपाय, जैसे 2018 का ताइवान यात्रा अधिनियम, 2019 का ताइपे अधिनियम, और राष्ट्रीय रक्षा प्राधिकरण अधिनियम (एनडीएए) में ताइवान संवर्धित लचीलापन अधिनियम (टीईआरए) को शामिल करने के साथ ही ताइवान के लिए अनुदान और ऋण के लिए प्रावधान करना कुछ ऐसे कदम कहे जा सकते है[30] जो अपरिवर्तनीय प्रभाव छोड़ने हैं. अत: एक ओर जहां ताइवान जलडमरूमध्य में चीन एक नया सैन्य सामान्य बनाने की कोशिश कर रहा है, वहीं हो सकता है कि ताइवान के लिए अमेरिका पहले ही अपने हक में नई स्थिति का निर्माण करने में सफ़ल हो गया है.
कुछ लोगों का यह तर्क हो सकता है कि ताइवान का मसला, जितना चीन और ताइवान के बीच जितना है, उतना ही यह चीन और अमेरिका के बीच का भी मसला है. ऐसे में इस बात की संभावना ज़्यादा ही है कि इस मसले का हल चीन और अमेरिका के बीच ही निकल जाएगा. लेकिन यह भी सच है कि अमेरिका और चीन के बीच जो मौजूदा रणनीतिक गतिरोध है वह विशुद्ध रूप से केवल ताइवान की वज़ह से नहीं है. बहरहाल, बीजिंग-ताइपे-वाशिंगटन के ऐतिहासिक लेकिन लंबे समय से सुप्त रहे रणनीतिक त्रिकोण के पुन: सक्रिय अथवा पुन: वापसी को सिरे से ख़ारिज करना मुश्किल है. चीन को लगता है कि डीपीपी सरकार में उसकी वन-चाइना सिद्धांत को चुनौती देने की क्षमता के पीछे दरअसल ‘‘अमेरिका का काला हाथ’’ उसकी हिम्मत बढ़ा रहा है. चीन का मानना है कि अमेरिका ताइवान को ‘‘उकसाता’’ है, हांगकांग में ‘‘फसाद’’ की जड़ है और शिनजियांग में मानवाधिकारों के मुद्दे की आड़ लेकर चीन को ‘‘बदनाम’’ करता है. बकौल चीन ये सभी एक ही कहानी का हिस्सा है, जिसके पीछे अमेरिका का उद्देश्य चीन को ‘‘नियंत्रित’’ करना है. संक्षेप में, ताइवान का मुद्दा, किसी भी चीन-अमेरिका वार्ता के लिए केंद्र में है. ठीक वैसी ही वार्ता जैसी ही में बाइडेन और शी के बीच बाली में हुई थी. उस वार्ता में भी चीन ने अमेरिका को याद दिलाया था कि ताइवान ‘‘चीन के मूल हितों के केंद्र में है.’’[31]
विपरीत परिस्थितियों के लिए तैयार
ताइवान में उपजी औचक स्थिति केवल चीन और अमेरिका के बीच रणनीतिक और सुरक्षा का मुद्दा नहीं है; बल्कि इसका प्रभाव क्षेत्र पर भी पड़ता है. ताइवान की उपजी इस औचक स्थिति को देखकर अमेरिका और उसके सहयोगियों, जापान और ऑस्ट्रेलिया के बीच से संवाद और सहयोग बढ़ाने के स्वर मुखर हो रहे है.[32]
जहां तक क्षेत्रीय संदर्भ की बात आती है तो वहां जापान और ताइवान के बीच संबंधों का अपना इतिहास रहा है. 1972 के बाद, जब जापान ने पीआरसी मान्यता को बदलकर आरओसी कर दिया था, तब से ही अनेक दशकों से ताइवान के मुद्दे पर जापान ने मौन साध रखा है. ताइवान हालांकि हमेशा से ही सुरक्षा को लेकर जापान की सोच में शामिल था. जब-जब जापान ने जापान-यूएस के बीच रक्षा सहयोग के लिए जारी होने वाले दिशानिदेर्शों में ‘‘जापान के आसपास के क्षेत्रों में स्थिति’’ के वाक्यांश का प्रयोग किया तो इसका सीधा अर्थ ताइवान से ही जोड़ा गया था.[33] पिछले एक दशक और उसके आसपास के वक़्त में जापान के भीतर ही चीनी शक्ति को लेकर किए जाने वाले आकलन और अपनी सुरक्षा के लिए इसके निहितार्थों को लेकर आंतरिक मंथन होने लगा है. इसी अवधि में चीन-अमेरिका संबंधों में रणनीतिक गतिरोध पैदा हुआ है. ऐसे में ताइवान जलडमरूमध्य में स्थिति उथल पुथल वाली होने के कारण ताइवान को अमेरिका की ओर से चीनी आक्रामकता के ख़िलाफ़ दिया जा रहा समर्थन सही साबित होता है. अमेरिका ने अब धीरे-धीरे चीन को अपनी सुरक्षा के लिए एक चुनौती के रूप में स्वीकार करना शुरू कर दिया है.
इस पृष्ठभूमि को देखकर ही अब हालिया वर्षों में ताइवान के लिए चिंता व्यक्त करने वाले बयानों की झड़ी लगती दिखाई दे रही है. इसके साथ ही ताइवान जलडमरूमध्य में बिगड़ती सुरक्षा-रणनीतिक स्थिति की वज़ह से जापान की सुरक्षा के लिए संभावित निहितार्थ पर नज़र जाने लगी है. चार दशकों के अंतराल के बाद यूएस-जापान के संयुक्त बयान में ताइवान को शामिल किया गया था. जापान के प्रधानमंत्री योशिहिदे सुगा की अप्रैल 2021[34] में अमेरिकी यात्रा के दौरान जारी इस बयान ने ताइवान स्ट्रेट में शांति और स्थिरता के महत्व को उजागर करते हुए क्रॉस-स्ट्रेट के सभी मुद्दों के शांतिपूर्ण समाधान ख़ोजने के प्रयासों को बढ़ावा देने पर ‘‘बल’’ दिया था. 2021 में एमओएफए की ओर से प्रकाशित अपनी डिप्लोमैटिक ब्लू बुक में जापान ने ताइवान को ‘‘एक अत्यंत महत्वपूर्ण भागीदार और एक महत्वपूर्ण मित्र वर्णित किया था, जिसके साथ [जापान] मौलिक मूल्यों को साझा करता है.’’[35] जापान बिना किसी हिचकिचाहट के डब्ल्यूएचए में ताइवान को शामिल किए जाने के प्रस्ताव का समर्थन करता है.[36]
यदि ताइवान को लेकर कोई बड़ी घटना हुई, तो यह कहना सुरक्षित होगा कि यह (जापान के) अस्तित्व को ख़तरे में डालने वाली स्थिति से जुड़ी घटना ही होगी. ऐसी स्थिति में जापान और अमेरिका को मिलकर ताइवान की रक्षा करनी चाहिए.
जुलाई 2021 की शुरूआत में, तत्कालीन उप प्रधानमंत्री, तारा एसो ने यह कहते हुए इस बात की ओर ध्यान आकर्षित किया था कि : ‘‘यदि ताइवान को लेकर कोई बड़ी घटना हुई, तो यह कहना सुरक्षित होगा कि यह (जापान के) अस्तित्व को ख़तरे में डालने वाली स्थिति से जुड़ी घटना ही होगी. ऐसी स्थिति में जापान और अमेरिका को मिलकर ताइवान की रक्षा करनी चाहिए.’’[37] 2022 में जारी जापानी राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति ने ताइवान स्ट्रेट की स्थिति को स्पष्ट रूप से जापान और अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लिए तत्काल सुरक्षा चिंता निरूपित किया था. इसमें कहा गया था कि, ‘‘ताइवान जलडमरूमध्य में शांति और स्थिरता को लेकर चिंताएं तेजी से उभरी हैं, वे न केवल जापान सहित हिंद-प्रशांत क्षेत्र के लिए बल्कि पूरे अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के लिए भी चिंता का विषय है.’’[38] ताइवान के मुद्दे को लेकर चीन-जापान संबंधों में एक नई कटुता पैदा हुई है. चीन का मानना है कि जी 7 ने ताइवान को लेकर जो बयान जारी किया था, उसके पीछे जापान का ही हाथ था.[39]
चीन के साथ अपने संबंधों में गिरावट के बाद अमेरिका का एक अन्य सहयोगी ऑस्ट्रेलिया भी ताइवान मुद्दे को लेकर विशेष रूप से मुखर हो गया है. अब जापान की तरह चीन को लेकर ऑस्ट्रेलिया की सोच भी बदली है. ताइवान दक्षिण प्रशांत क्षेत्र में विभिन्न देशों से राजनयिक संबंध बनाए रखता है. ऐसे में चीनी गतिविधियां ऑस्ट्रेलिया के लिए एक रणनीतिक चुनौती पेश करती हैं.[40]
दक्षिण कोरिया को व्यापक रूप से चीन के प्रति सम्मानपूर्ण और उदार माना जाता है. ऐसे में जब उसने 2021 की शुरूआत में ताइवान मुद्दे पर अपनी चुप्पी तोड़ी तो इस बात को लेकर अनेक विश्लेषकों को आश्चर्य हुआ. यूएस-आरओके की ओर से जारी संयुक्त बयान में पहली बार ताइवान का उल्लेख किया गया था. यह संयुक्त बयान मई 2021 में वाशिंगटन में दक्षिण कोरिया के नेताओं राष्ट्रपति बाइडेन और राष्ट्रपति मून जे-इन के बीच हुई शिखर बैठक के बाद जारी किया गया था.[41] उसके बाद से ही दक्षिण कोरिया ‘‘ताइवान जलडमरूमध्य में शांति और स्थिरता के महत्व’’ पर बल दिए जाने की बात दोहराता रहा है.[42]
यह पूरी स्थिति, जहां ताइवानी ‘द मेनलैंड अर्थात मुख्य भूमि' से दूर होते जा रहे हैं और अंतरराष्ट्रीय समुदाय का रसूखदार वर्ग ताइवान को लेकर मुखर होने लगा हैं, यह स्थिति चीन की वन-चाइना संबंधी उसके दावे की दृष्टि से ठीक स्थिति नहीं कही जा सकती. ताइवान को लेकर बढ़ती अंतरराष्ट्रीय रुचि और इस मसले पर होने वाली अभिव्यक्ति को चीन की आक्रामक विदेश नीति और रणनीतिक दुस्साहस को लेकर एक अस्थायी प्रतिक्रिया कहा जा सकता है. लेकिन यह अमेरिका और उसके सहयोगियों की उस सोच में परिवर्तन का परिणाम भी हो सकता है, जिसमें यह माना जाता था कि अगर चीन, लोकतांत्रिक दुनिया के करीब आएगा तो वह प्रक्रिया चीन को राजनीतिक रूप से अधिक खुला बनाने में सहायक साबित होगी. संभवत: अब अमेरिका और उसके सहयोगियों को लगता है कि उनकी यह सोच निराधार थीं. ऐसी स्थिति में ताइवान को लेकर दिखाई दे रही रुचि और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय का समर्थन अधिक टिकाऊ और स्थायी हो सकता है. इसका कारण यह है कि ऐसा करने वाले देश अब न केवल ताइवान को चीन के ख़िलाफ़ एक रणनीतिक लीवर यानी औज़ार के रूप में देख रहे हैं, बल्कि वे यह भी जानते हैं कि एक लोकतांत्रिक देश के रूप में ताइवान कितना अहम है. अतः उसे चीन जैसी निरंकुशतावादी अथवा तानाशाही शासन व्यवस्था के ख़िलाफ़ समर्थन दिया जाना आवश्यक है.
अगर ताइवान के मसले पर चीन को अपने पैर पीछे खिंचने के लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय मजबूर कर सकता है तो इस वज़ह से चीन के पुन: एकीकरण का उसका कारण निरर्थक और समाप्त हो जाएगा, जो ‘‘चीनी सपने’’ को ख़त्म करने जैसा ही होगा. चीन भी इस बात को जानता है. लेकिन यह ज़रूरी नहीं है कि रूस के ख़िलाफ़ जारी युद्ध में यूक्रेन को मिल रहे पश्चिमी समर्थन की वज़ह से रूस को लगने वाले झटकों को देखकर ताइवान को पुन: अपने साथ मिलाने की प्रतिबद्धता और सपने को चीन त्याग देगा. यह सच है कि ताइवान पर चीन द्वारा सैन्य आक्रमण किए जाने की अत्यधिक संभावना अब भी दिखाई नहीं देती, लेकिन चीन ताइवान को अपनी भूमि में ‘‘सम्मिलित’’ करने की प्रतिबद्धता पर अडिग है. यूक्रेन में रूस की असफ़लताओं ने चीन को बेहतर तैयारी और प्रशिक्षण के महत्व के बारे में सबक सिखाया होगा. इसके साथ ही इस संकट ने चीन को रणनीतिक रूप से लाभप्रद क्षणों की प्रतीक्षा करने की भी सीख दी होगी. यह संयोग ही नहीं कहा जाएगा कि केवल अमेरिका के सहयोगी और साझेदार ही ताइवान के साथ एकजुटता व्यक्त नहीं कर रहे हैं. चीन का ‘‘नो लिमिट्स अर्थात कोई सीमा नहीं’’ भागीदार रूस भी अब ताइवान के पास के जल क्षेत्र में सक्रिय हो गया है.[43] अंत में, किसी भी युद्ध की स्थिति में ताइवान के लिए अमेरिका और उसके सहयोगियों के समर्थन को हल्के में नहीं लिया जा सकता है. उनका समर्थन रणनीतिक गणनाओं, राष्ट्रीय हितों की समझ और मौजूदा निर्णयकर्ताओं के व्यक्तित्व पर निर्भर करेगा. ऐसे में, ताइवान जलडमरूमध्य में दीर्घकालिक सुरक्षा-रणनीतिक परिदृश्य के नाजुक और अनिश्चित बने रहने की संभावना है.
कुल मिलाकर पूर्वी एशिया में और विशेषत: ताइवान जलडमरूमध्य में उठ रहे तूफान के बीच में एक प्रकाशस्तंभ की ख़ोज करने की चुनौती दुनिया के सामने है. इस प्रकाशस्तंभ को ख़ोजना एक चुनौती हो सकती है, लेकिन यह असंभव नहीं है. अमेरिका के लिए चीन के साथ संबंधों में सुधार करने के उसके अपने शक्तिशाली वाणिज्यिक और भू-राजनीतिक तर्क है. अमेरिका के लिए यही तर्क यूक्रेन में रूस के साथ गतिरोध में मौजूद नहीं है. इसी प्रकार अमेरिका के साथ अपने संबंधों को बचाना चीन की प्राथमिकता है. यही बात इस क्षेत्र में अन्य अमेरिकी सहयोगियों के साथ चीन के संबंधों पर भी लागू होती है. वन-चाइना नीति के संदर्भ में चीन के साथ संबंधों के मौलिक पुनर्लेखन के बारे में कोई भी धारणा केवल महत्वाकांक्षी सोच साबित हो सकती है.
कुल मिलाकर पूर्वी एशिया में और विशेषत: ताइवान जलडमरूमध्य में उठ रहे तूफान के बीच में एक प्रकाशस्तंभ की ख़ोज करने की चुनौती दुनिया के सामने है. इस प्रकाशस्तंभ को ख़ोजना एक चुनौती हो सकती है, लेकिन यह असंभव नहीं है.
इसके बावजूद क्रॉस-स्ट्रेट में संबंधों को स्थिर करना असंभव बात भी नहीं है. क्रॉस-स्ट्रेट संबंधों में वर्तमान गिरावट मूल रूप से ताइवान में एक विशेष प्रकार की घरेलू राजनीति के उत्थान के प्रति चीनी प्रतिक्रिया है. इसी प्रकार क्रॉस-स्ट्रेट संबंधों में इस महत्वपूर्ण पड़ाव पर गिरावट का दूसरा महत्वपूर्ण कारण यह है कि चीन इस क्षेत्र को लेकर हमेशा से अतिसंवेदनशील रहा है. अत: इस वक़्त यहां ताइवानी मुद्दे को लेकर दिखाई दे रही भू-राजनीतिक रुचि भी चीन के साथ अन्य देशों में इस क्षेत्र को लेकर संबंधों में गिरावट का अहम कारण बनी हुई है. इस स्थिति को अच्छी तरह से बदला जा सकता है. इसके अलावा - और यह महत्वपूर्ण बात भी है - इस बात का कोई पक्का सबूत नहीं है कि ताइवान को फिर से चीन से जोड़ना चीनी राष्ट्रपति शी की प्राथमिकताओं में शामिल है. फिलहाल शी के लिए सबसे अहम बात यह है कि वह अमेरिका के साथ अपने संबंधों को दोबारा पटरी पर कैसे लाते हैं.
एक बात तो तय है कि भड़काने का काम अक्सर जानबूझकर किया जाता है. लेकिन यह भी सच है कि मैक्सिमालिस्ट अर्थात अधिकतमवादी रुख़ अपनाना नासमझी होती है. इस सोच को पीछे छोड़कर ही अनिश्चितताओं को कम किया जा सकता है. पूर्वी एशिया को इस वक़्त द्विपक्षीय के साथ-साथ बहुपक्षीय वार्ता में विश्वास की पुष्टि करने की आवश्यकता है. दरअसल, नियम-आधारित व्यवस्था के प्रति प्रतिबद्धता के साथ कूटनीति और भू-अर्थशास्त्र में समावेशी बहुपक्षीय पहल ही आगे का रास्ता है.
[1]Endnotes
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