Author : Vikram Sood

Published on Aug 21, 2020 Updated 0 Hours ago

हमें अपनी सिद्धांतवादी विदेश नीति और रणनीतिक स्वायत्ता की इच्छा को मानने पर फिर से विचार करना होगा. एकमात्र सिद्धांत राष्ट्र हित है और बिना किसी जज़्बात के हमारी पूरी सोच इसी के इर्द-गिर्द रखनी होगी.

गलवान घाटी के आगे की कहानी!

व्यक्तिगत कूटनीति से रिश्तों में नरमी लाई जा सकती है और ये आगे के लिए मिसाल बन सकती है. लेकिन दीर्घकालीन तौर पर इसे हासिल करने के लिए दोनों पक्षों के पास कामयाबी की वजह होनी चाहिए और सही ढंग से काम करने वाली व्यवस्था. भारत और चीन के मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विपरीत चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के लिए कामयाबी का इरादा नहीं था. शी की दिलचस्पी सिर्फ़ और सिर्फ़ पूर्ण सत्ता हासिल करने में थी और अभी भी है. पिछले कुछ हफ़्तों के दौरान लद्दाख में जो हुआ उसकी कोई और वजह नहीं है. शी पहले जब अहमदाबाद आए थे तो एक तरफ़ भारतीय प्रधानमंत्री के साथ झूले पर बैठकर दोस्ती का दिखावा किया वहीं अपने सैनिकों को चुमार भेजकर मेजबान को शर्मिंदा किया. चीन के घुसपैठिए शी के दौरे और उसके बाद भी वहां मौजूद रहे. इस घटना ने मोदी को जितना भी ग़ुस्सा दिलाया हो और सरकार को शर्मिंदा किया हो लेकिन उन्होंने शिकन का एहसास नहीं होने दिया. भारत ने ऐसे व्यक्ति के सामने अतिथि देवो भव का परिचय दिया जो इन बातों में यकीन नहीं रखता. उस वक़्त भारत के चुप रहने से शायद चीन ये मानने लगा कि भारत आगे भी दब्बू बना रहेगा. उस घटना के बाद 2017 में डोकलाम की घटना हुई. लेकिन इस बार मोदी पीछे नहीं हटे. इसके बावजूद भारत ने वुहान और माम्मलापुरम में चीन के साथ बातचीत को जारी रखा. इन बातचीतों के ज़रिए भारत ने अपना इरादा जता दिया कि वो एशिया महाद्वीप में सामान्य संबंध बनाए रखना चाहता है.

2017 में डोकलाम की घटना हुई. लेकिन इस बार मोदी पीछे नहीं हटे. इसके बावजूद भारत ने वुहान और माम्मलापुरम में चीन के साथ बातचीत को जारी रखा. इन बातचीतों के ज़रिए भारत ने अपना इरादा जता दिया कि वो एशिया महाद्वीप में सामान्य संबंध बनाए रखना चाहता है.

लेकिन चीन ने इस साल मई में साफ़ तौर पर भड़काऊ गतिविधि को और बढ़ा दिया. पहले की घटनाओं की तरह गलवान में भी हमारे रणनीतिकारों और बुद्धिजीवियों के एक वर्ग ने जिस तरह तत्परता और ख़ुशी के साथ भारत के बारे में सबसे बुरी बातों पर यकीन किया वो चिंताजनक है. दुश्मन की तरफ़ से फैलाई जा रही नकारात्मकता को स्वीकार करने में इतना उत्साह नुक़सानदायक है क्योंकि ये रवैया देश की सत्ता में बैठे लोगों के लिए तर्कहीन आलोचना को दिखाता है. ये चिंताजनक है क्योंकि ये दुश्मन के साथ शांति कायम करने की इच्छा का संकेत देता है. ऐसे में दूसरे देश को महत्वपूर्ण राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर हमारी सार्वजनिक सोच में हावी होने का मौक़ा मिल सकता है. सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी को छोड़कर ज़्यादातर विपक्ष कम-से-कम सरकार के साथ खड़ा रहा.

गलवान और पूरे LAC में क्या हुआ उसके कुछ पहलू सामने आए हैं. साथ ही नेपाल और बांग्लादेश में चीन की गतिविधियों का पता भी चला है. यहां स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स का सिद्धांत लागू होता है. इसके तहत इस सोच का कोई आधार नहीं है कि एशिया में चीन भारत को जगह देगा. हमें अपनी सिद्धांतवादी विदेश नीति और रणनीतिक स्वायत्ता की इच्छा को मानने पर फिर से विचार करना होगा. एकमात्र सिद्धांत राष्ट्र हित है और बिना किसी जज़्बात के हमारी पूरी सोच इसी के इर्द-गिर्द रखनी होगी.

चीन ने कोविड-19 (वुहान वायरस) के ख़तरे को दुनिया से छिपाकर डर को फैलाया. चीन भारत को संभावित प्रतिद्वंदी के तौर पर देखता है. साथ ही भारत के भौगोलिक इलाक़े से गुज़रने वाले BRI और CPEC को लेकर भारत के रवैये को देखते हुए वो इस क्षेत्र में उसे एक अड़चन मानता है. ये पता करने में कोई समझदारी नहीं है कि चीन ने अभी ऐसा क्यों किया. इसकी असली वजह है कि भारत को लेकर चीन के रुख़ में 1949 से अभी तक कोई बदलाव नहीं आया है और कुछ अज्ञात वजहों से हमारी ये उम्मीद भी कम नहीं हुई है कि वो अपना हाव-भाव बदलेगा. शांति में विश्वास रखकर उसके आधार पर सुरक्षा और मानसिक तैयारी को सीमित कर देना एक चीज़ है. दूसरी चीज़ है शांति की इच्छा रखना और इसके साथ-साथ किसी अचानक के हालात के लिए भी तैयार रहना. चीन ने वुहान वायरस को खुला छोड़ दिया. रिकॉर्ड के मुताबिक़ यात्रा पर रोक से पहले क़रीब 70 लाख यात्री जनवरी में इस इलाक़े से चीन के भीतर और बाहर गए. चीन ने जापान को भड़काया, ताइवान पर दबाव डाला, दक्षिणी चीन सागर में घुसपैठ की. इन क़दमों से चीन ने गैर-ज़िम्मेदार अंतर्राष्ट्रीय व्यवहार का नया स्तर प्रदर्शित किया.

ताज़ा जानकारी ये है कि सैन्य स्तर की बातचीत आगे बढ़ी है. सीधी राजनीतिक बातचीत में अभी भी काफ़ी समय है. ऐसे में अल्पकालिक और दीर्घकालिक भविष्य के आकलन का समय मिलता है. अल्पकाल में इस बात को लेकर सावधान रहना चाहिए कि पाकिस्तान हालात का फ़ायदा उठाने की कोशिश करेगा और आने वाले दिनों में कश्मीर में आतंकवाद में बढ़ोतरी हो सकती है. गलवान चीन का आख़िरी आक्रमण नहीं होगा. झटका लगने के बाद चीन किसी और जगह हमले की कोशिश करेगा क्योंकि 2020 और 1967 में बहुत अंतर है. उस वक़्त ज़्यादातर दुनिया को ये पता नहीं चल पाया कि नाथु ला में चीन की हार हुई है. आज पूरी दुनिया को पता है कि लद्दाख में क्या हुआ और चीन अपना चेहरा बचाना चाहेगा.

ये स्वीकार ज़्यादा वास्तविक है कि हम दो मोर्चों पर लड़ाई की हालत में हैं और इसी के मुताबिक़ हमें तैयार रहना चाहिए. दो मोर्चों पर लड़ाई की ये हालत 1963 में ही बन गई थी जब पाकिस्तान ने साक्शगाम चीन को सौंप दिया था

दीर्घकाल में हमें ये स्वीकार करने की ज़रूरत है कि पाकिस्तान और चीन नहीं बदलेंगे. लंबी लड़ाई के लिए अपने विकल्पों और क्षमता का आकलन कीजिए, अपने फ़ैसले को एक या दो सैन्य लड़ाई पर आधारित नहीं कीजिए. ये लड़ाई और ज़्यादा लंबे वक़्त की है और हमें इसका ध्यान रखते हुए भविष्य के लिए तैयार रहना चाहिए. मीठी-मीठी बात या ट्रैक-2 बातचीत से इसका नतीजा नहीं निकलेगा. बातचीत में पाकिस्तान की सेना की कोई दिलचस्पी नहीं है और ऐसी चाल सिर्फ़ समय काटने के लिए और आसानी से उल्लू बनाने के लिए है. ये स्वीकार ज़्यादा वास्तविक है कि हम दो मोर्चों पर लड़ाई की हालत में हैं और इसी के मुताबिक़ हमें तैयार रहना चाहिए. दो मोर्चों पर लड़ाई की ये हालत 1963 में ही बन गई थी जब पाकिस्तान ने साक्शगाम चीन को सौंप दिया था. ये इलाक़ा जम्मू-कश्मीर का हिस्सा था जिस पर पाकिस्तान ने अवैध रूप से कब्ज़ा जमा रखा था. इस मायने में दो मोर्चों की ये लड़ाई क़रीब 60 वर्षों से चल रही है. इसके बाद पाकिस्तान ने चीन की मदद से गिलगिट और बाल्तिस्तान से गुज़रने वाले पाकिस्तान-चीन हाईवे का निर्णाण किया. फिर जानबूझकर इसका नाम काराकोरम हाईवे रखा जबकि ये खुंजेराब दर्रा था और काराकोरम दर्रा पहले के उत्तरी जम्मू-कश्मीर में था (अब केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख में). भारत ने विरोध जताया लेकिन किसी ने परवाह नहीं की.

सैन्य, आर्थिक और मानसिक तौर पर तैयारी सबसे महत्वपूर्ण है. किसी भी तरह का सन्नाटा धोखा देने के लिए हो सकता है और ये जान-बूझकर दुश्मन ख़ुद को तैयार करने के लिए पैदा कर सकता है. संख्या बल और हथियारों की मात्रा के मामले में चीन की सेना ख़ुद को तैयार करेगी लेकिन हिमालय के इलाक़े में ये तैयारी पूरी तरह काम नहीं आएगी और वास्तव में भारतीय वायुसेना फ़ायदे की हालत में रहेगी. चीन की सेना की तैयारी के बारे में बहुत कुछ कहा जाता है लेकिन उसने आख़िरी लड़ाई वियतनाम में लड़ी थी. वियतनाम को सबक़ सिखाने की वो कोशिश कामयाब नहीं हो पाई थी. वियतनाम के सैनिकों ने चीन पर पलटवार किया और PLA को लौटना पड़ा. वियतनाम को सबक़ सिखाने के बदले चीन को सबक़ सीखना पड़ा. ऐतिहासिक तौर पर देखें तो 19वीं शताब्दी में चीन एक बार भी युद्ध में जापान को हरा नहीं पाया और जापान के ख़िलाफ़ चीन की ये सबसे बड़ी शिकायत है. अपने सहयोगियों की सेना के दम पर द्वितीय विश्व युद्ध में च्यांग काई-शेक चीन में जापान को हराने में कामयाब हो पाए. PLA का शौर्य सिर्फ़ तिब्बतियों और उईगुर के आंदोलन को निर्दयता से दबाने में नज़र आया. इसके लिए चीन की सेना ने वहां धार्मिक आबादी को बदलने का भी सहारा लिया. 1962 में जब भारत की सेना युद्ध के लिए तैयार नहीं थी, को छोड़ दें तो पाकिस्तान के ख़िलाफ़ भारतीय सेना का रिकॉर्ड अच्छा रहा है. साथ ही आतंक के ख़िलाफ़ अभियान में भी भारतीय सेना ज़्यादातर पेशेवर सेनाओं से अधिक सक्षम है. ये समझदारी होगी कि राजनीतिक विरोधी सैन्य और राजनीतिक मुद्दों को आपस में मिलाएं नहीं.

इसमें कोई शक नहीं कि भारत का सुरक्षा तंत्र भविष्य के लिए विश्लेषण करेगा. वो चीन के छुपे हुए हथियारों पर भी गौर करेगा. चाहे वो जैविक युद्ध हो जिसे लोग वुहान वायरस से जोड़ते हैं या साइबर युद्ध जिसमें वो अपने हैकर को भारतीय सिस्टम को बेकार करने के लिए छोड़ सकता है.

इसमें कोई शक नहीं कि भारत का सुरक्षा तंत्र भविष्य के लिए विश्लेषण करेगा. वो चीन के छुपे हुए हथियारों पर भी गौर करेगा. चाहे वो जैविक युद्ध हो जिसे लोग वुहान वायरस से जोड़ते हैं या साइबर युद्ध जिसमें वो अपने हैकर को भारतीय सिस्टम को बेकार करने के लिए छोड़ सकता है. ये दो गतिविधियां ऐसी हैं जिसके ज़रिए चीन व्यापक नुक़सान पहुंचा सकता है और अपने उस सिद्धांत का भी पालन कर सकता है जिसके तहत वो बिना युद्ध के जीत पाने की कोशिश करता है. इन नई वास्तविकताओं को ध्यान में रखते हुए हमें अपने इरादों और क्षमताओं में बढ़ोतरी करनी चाहिए. ये ऐसी कोशिश है जो छिटपुट या लापरवाह ढंग से नहीं हो सकती है. इस पर भी विचार किया जा सकता है कि अगर चीन कश्मीर या लद्दाख में हमें चोट पहुंचाने की कोशिश करे तो क्या हम इसका जवाब तिब्बत में चीन को चोट पहुंचाकर दे सकते हैं. पाकिस्तान को चीन तलवार की तरह इस्तेमाल करने की उम्मीद नहीं कर सकता है और भारत के पास इसके जवाब में कोई दूसरी तलवार नहीं है. भारत को ऐतिहासिक हिचकिचाहट छोड़ देनी चाहिए.

खुफ़िया और सैन्य क्षमताओं में निश्चित तौर पर तालमेल होना चाहिए. हालांकि, आधुनिक खुफ़िया ज़रूरतें सामान्य सैन्य गिनती से आगे बढ़ गई हैं. आज सुरक्षा एक बेहद व्यापक शब्द है. हमारी क्षमताएं और इरादें ख़ुद के लिए एक नई सोच का निर्माण करने में मदद करेंगी और इससे ज़्यादा संतुलित राजनीतिक प्रणाली बनेगी. ये वैसी स्थिति होगी जब राजनीतिक विरोधी सीखेंगे कि अधिकार की राजनीति के दिन ख़त्म हो गए हैं और राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे मुद्दों पर ये नज़रिया भारत के लिए बेहतर है. भारत को इसकी योजना बनानी चाहिए और पीछे नही हटना चाहिए.

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