Author : Ayjaz Wani

Published on Oct 04, 2019 Updated 0 Hours ago

ऐसे वक़्त में जब कश्मीरियों को अपना भविष्य अनिश्चित दिख रहा है, तो घाटी के बच्चों की तालीम के लिए मोहल्ला स्कूल ही उम्मीद की लौ जलाए हुए हैं.

कश्मीर घाटी के बदनसीब बच्चों की ज़िंदगी में वरदान बनकर आया है मोहल्ला स्कूल!

दूर बर्फीली चोटियों के उस पार सूरज उग रहा था, वो कोई सुबह के 6.15 बजे का वक़्त था, जब मैं श्रीनगर के सौरा इलाक़े में स्थित शेर-ए-कश्मीर इंस्टीट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंस की तरफ़ जा रहा था. मैं वहां अपने पांच दिन के बच्चे को देखने जा रहा था. उस वक़्त सूरज, दूर बर्फ़ीले पहाड़ों के ऊपर से निकल रहा था. मेरा बेटा पैदा होने के साथ ही सांस लेने में तकलीफ़ के इलाज के लिए शेर-ए-कश्मीर इंस्टीट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंस अस्पताल में भर्ती था. पुलवामा के मेरे घर से 55 किलोमीटर लंबे इस सफ़र के दौरान मैंने देखा कि छह और नौ बरस के दो बच्चे ईदगाह-और शेर-ए-कश्मीर इंस्टीट्यूट के रास्ते की वीरान सड़क से गुज़र रहे थे. उनके हाथों में कुछ किताबें थीं. हिंसक संघर्ष से ज़ख़्मी कश्मीर घाटी की एक सुनसान सड़क पर बच्चों को किताबें लेकर मोहल्ला स्कूल की तरफ़ जाते देखना कोई अजूबा मंज़र नहीं है. हालांकि, पिछले क़रीब दो महीनों से कश्मीर घाटी बहुत परेशान करने वाली ख़ामोशी की क़ैद में है. यहां ज़िंदगी मानो ठहर सी गई है. ऐसे में एक ख़ाली सड़क पर दो बच्चों को देखना निराशाजनक भी है, और साथ-साथ एक उम्मीद भी जगाता है.

5 अगस्त को जम्मू-कश्मीर से संविधान का अनुच्छेद 370 हटाने और फिर राज्य का दो केंद्र शासित क्षेत्रों में बंटवारा होने के बाद से पूरी घाटी कर्फ़्यू के शिकंजे में है. एक तो वो कर्फ्यू है जिसे हुक़ूमत ने लगाया है. और दूसरा कर्फ़्यू वो जो जनता ने विरोध के लिए ख़ुद पर लगा रखा है. कश्मीर के शहर हों या ग्रामीण इलाक़े, हर जगह आम नागरिकों ने हर सड़क यहां तक कि मुहल्लों की गलियों की बैरीकेडिंग कर रखी है. उनके किनारे हथियारों से लैस सुरक्षाकर्मियों के बंकर हैं. घाटी में एक भी दुकान नहीं खुली है. न ही सरकारी और निजी दफ़्तर काम कर रहे हैं. स्कूल और कॉलेज भी नहीं खुले हैं. इंटरनेट पर रोक लगी है. मोबाइल टेलीफ़ोन सेवाएं भी ठप हैं. कई दिनों तक तो लैंडलाइन फ़ोन भी बंद रहे थे. कुल मिलाकर, कश्मीर के लोगों से उनके सभी नागरिक अधिकार छीन लिए गए हैं. पिछले 45 दिनों से उनकी आवाज़ दबाई जा रही है. उनके कारोबार बंद कर दिए गए हैं. कश्मीरियों को बाहरी दुनिया से पूरी तरह से काट दिया गया है.

अनुच्छेद 370 हटाने और फिर राज्य का दो केंद्र शासित क्षेत्रों में बंटवारा होने के बाद से पूरी घाटी कर्फ़्यू के शिकंजे में है. एक तो वो कर्फ्यू है जिसे हुक़ूमत ने लगाया है.

बार-बार स्कूल और कॉलेज बंद होने से राज्य में पढ़ाई-लिखाई पर बहुत बुरा असर पड़ा है. पहले भी कर्फ्यू लगने की वजह से बच्चों को पूरा सबक़ नहीं पढ़ाया जाता था. लेकिन, अब लगातार स्कूल-कॉलेज बंद रहने से कश्मीर में शिक्षा का स्तर और भी गिर गया है. इसका एक नतीजा ये भी हुआ है कि शिक्षा का स्तर अच्छा बनाए रखने की अध्यापकों की जवाबदेही भी ख़त्म हो गई है. बार-बार लंबे समय के लिए स्कूल-कॉलेज बंद होने से बच्चों और युवाओं के सामाजिक बर्ताव पर भी बहुत बुरा असर पड़ा है. जुलाई 2016 से मई 2017 के बीच कश्मीर घाटी में बंद, हड़ताल, कर्फ्यू और हिंसा की वजह से बच्चों के 60 फ़ीसद स्कूली दिन बर्बाद हुए थे.

मौजूदा संकट के दौरान, सरकार ने 19 अगस्त को सरकार ने 190 स्कूल दोबारा खोलने की पहल की. लेकिन, इन स्कूलों में 5 अगस्त के बाद से एक भी दिन पढ़ाई नहीं हुई है. अफ़वाहों, ग़लत ख़बरों और संचार पर पाबंदी की वजह से लगाई जा रही अटकलों का नतीजा ये हुआ है बच्चों के मां-बाप उन्हें स्कूल-कॉलेज भेजने के बजाय घर पर ही रखने को तरज़ीह दे रहे हैं. आज कश्मीर घाटी की शिक्षा व्यवस्था की स्थिति ये है कि आगे कुआं है और पीछे खाई. हालात सामान्य होने का दिखावा करने के लिए सरकार ने घाटी के स्कूल खोलने की कोशिश की. लेकिन, लोगों को इस बात का यक़ीन नहीं है कि अगर उनके बच्चे स्कूल गए, तो वो हिफ़ाज़त से रहेंगे या नहीं. समाज का दबाव भी मां-बाप पर है कि वो आम जनता की तरफ़ से विरोध स्वरूप लगाए गए कर्फ़्यू का पालन करें. फिर अक्सर होने वाली पत्थरबाज़ी से पैदा होने वाली अनिश्चितता ने अभिभावकों की मुश्किलें और भी बढ़ा दी हैं. इन हालात में, मां-बाप को लगता है कि उनके बच्चे मोहल्ला स्कूल ही जाएं तो बेहतर होगा. या फिर अध्यापक घर आ कर उनके बच्चों को पढ़ा दें. या किसी एक जगह बच्चे इकट्ठे हों और मुहल्ले में आकर ही अध्यापक उन्हें पढ़ा दें, ताकि बच्चों की तालीम का सिलसिला न टूटे.fकश्मीर के मोहल्ला स्कूल घाटी के बच्चों के लिए वरदान बन गए हैं. इससे बच्चों को ही नहीं,
उनके अभिभावकों को भी राहत मिलती है. वो ख़ुद को आज़ाद और मज़बूत महसूस करते हैं. ये मोहल्ला
स्कूल, हिंसक और तनाव भरे हालात में उम्मीद की एक लौ जगाते हैं.

आज कश्मीर घाटी की शिक्षा व्यवस्था की स्थिति ये है कि आगे कुआं है और पीछे खाई. हालात सामान्य होने का दिखावा करने के लिए सरकार ने घाटी के स्कूल खोलने की कोशिश की. लेकिन, लोगों को इस बात का यक़ीन नहीं है कि अगर उनके बच्चे स्कूल गए, तो वो हिफ़ाज़त से रहेंगे या नहीं.

उथल-पुथल और हिंसा का ये कभी न ख़त्म होने वाला सिलसिला और सुरक्षा बलों का हथियारों से पलटवार, हिंसा की नियमित घटनाएं, कम-ओ-बेश हर रोज़ होने वाले एनकाउंटर से होने वाले ख़ून-ख़राबे ने समाज के विकास पर बहुत बुरा असर डाला है. कश्मीर घाटी हिंसक संघर्ष का केंद्र बन चुकी है. ऐसे हालात में कश्मीर के मोहल्ला स्कूल घाटी के बच्चों के लिए वरदान बन गए हैं. इससे बच्चों को ही नहीं, उनके अभिभावकों को भी राहत मिलती है. वो ख़ुद को आज़ाद और मज़बूत महसूस करते हैं. ये मोहल्ला स्कूल, हिंसक और तनाव भरे हालात में उम्मीद की एक लौ जगाते हैं. 2010 के हिंसक विरोध-प्रदर्शनों के बाद मोहल्ला स्कूल और आबादी के आस-पास स्थित स्कूलों ने कश्मीर घाटी के सामाजिक बदलाव में बहुत बड़ा रोल निभाया है. इन के ज़रिए आम कश्मीरियों ने अपने बच्चों को आधुनिक शिक्षा देने का एक नया तरीक़ा ढूंढ़ निकाला है. इस से समाज की सोच में सकारात्मक बदलाव आया है. इसका नतीजा ये हुआ है कि इन मोहल्ला स्कूलों में बच्चों को पढ़ाने की सुविधाओं का विस्तार हुआ है. हालांकि ये स्कूल अनौपचारिक शिक्षा का माध्यम हैं. लेकिन, सियासी संकट के इस दौर में इनकी भूमिका अहम हो गई है.

पूरी कश्मीर घाटी में जहां भी जगह और मौक़ा मिला है, वहां मोहल्ला स्कूल खोल दिए गए हैं. ऐसे कई स्कूल घरों में चल रहे हैं. या फिर सामुदायिक केंद्रों में चलाए जा रहे हैं. कई मोहल्ला स्कूल तो किराए की इमारतों में चलाए जा रहे हैं. कुछ मकानों को ही स्कूल में तब्दील कर दिया गया है. इन मोहल्ला स्कूलों के आस-पास रहने वाले अध्यापक खुद से यहां बच्चों को पढ़ाने के लिए आ जाते हैं. इसके अलावा मोहल्ले के पढ़े-लिखे युवा जो ग्रैजुएट या पोस्ट ग्रैजुएट हैं, ख़ाली बैठे अध्यापक और बंद संस्थानों के लेक्चरर, रिसर्चर भी इन स्कूलों में बच्चों को तालीम दे रहे हैं. ये लोग निजी संस्थानों से भी जुड़े हैं और सरकारी संस्थानों में काम करने वाले लोग भी हैं. शिक्षा की इस समानांतर व्यवस्था ने हिंसा भरे माहौल में एक समानांतर शिक्षा व्यवस्था की तामीर कर ली है और बच्चों को शिक्षा देने का काम कर रहे हैं. क्योंकि स्कूल और कॉलेज तो बंद हैं. कश्मीर के इन मोहल्ला स्कूलों ने एक और काम भी किया है. ये स्कूल लोगों को जोड़ने और एकजुटता का माध्यम भी बन गए हैं. इन से कश्मीरी समाज की दूरियां भी पाटी जा रही हैं. मौजूदा सियासी संकट के दौरान ज़्यादातर मोहल्ला स्कूलों में आठवीं कक्षा तक के क़रीब 30 बच्चे पढ़ने आते हैं. ये स्कूल सुबह आठ बजे से 11.30 बजे तक चलते हैं. वहीं उच्चर माध्यमिक कक्षा के विद्यार्थियों को इन्हीं स्कूलों में दोपहर बाद 3.30 बजे से 6.30 बजे तक बढ़ाया जाता है. पुलवामा के एक मुहल्ला स्कूल में गणित पढ़ाने वाले एक युवक ने मुझे बताया कि, ‘सियासी संकट और संघर्ष तो आते-जाते रहेंगे. लेकिन हम बच्चों और छात्रों के भविष्य से खिलवाड़ नहीं कर सकते. कश्मीर घाटी पहले ही हिंसक संघर्ष का सामाजिक-मनोवैज्ञिनक असर झेल रही है. ऐसे में तालीम ही एक ज़रिया है, जिसके माध्यम से बच्चों का तार्रुफ़ सकारात्मक सोच से कराया जा सकता है.

कश्मीर के मोहल्ला स्कूल घाटी के बच्चों के लिए वरदान बन गए हैं. इससे बच्चों को ही नहीं, उनके अभिभावकों को भी राहत मिलती है. वो ख़ुद को आज़ाद और मज़बूत महसूस करते हैं. ये मोहल्ला स्कूल, हिंसक और तनाव भरे हालात में उम्मीद की एक लौ जगाते हैं.

ज़्यादातर किशोर बच्चे, जो नेशनल एलिजिबिलिटी कम एंट्रेंस टेस्ट यानी NEET , सिविल सेवाओं और दूसरे पेशेवर इम्तिहानों की तैयारी कर रहे हैं, वो पढ़ने के लिए किसी विषय के पढ़ाने वालों के घर पर जाकर पढ़ाई करते हैं. पुलवामा ज़िले में, NEET और दूसरी प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे छात्र समूह में पढ़ते हैं. और वो आम तौर पर अपने उन सीनियर्स की मदद लेते हैं, जिन्होंने ये इम्तिहान पास कर लिए हैं.

ऐसे अनौपचारिक शैक्षिक माध्यमों की वजह से ही, कश्मीर का समाज 2010 की हिंसा से उबर सका. इसी वजह से विरोध-प्रदर्शनों और बंद के दौरान बच्चों की पढ़ाई पर असर होने से रोका जा सका है. अभी जो माहौल है उस में कश्मीर में हालात सामान्य होने का ख़्वाब पूरा होना तो दूर की कौड़ी है. इस से राहत देने का सब से आसान तरीक़ा तो ये है कि संचार के माध्यमों पर लगाई रोक हटा ली जाए. हर जगह सुरक्षाकर्मियों की भारी मौजूदगी को कम किया जाए. क्योंकि इन्हीं वजहों से मां-बाप को अपने बच्चों की सुरक्षा की फ़िक्र होती है और वो उन्हें स्कूल नहीं भेज पाते. संचार के माध्यम न होने की वजह से अफ़वाहों का बाज़ार गर्म रहता है. लोगों को ग़लत जानकारी मिलती है. वो किसी भी बात के लिए अटकलों पर निर्भर होते हैं. जब तक संचार के माध्यम पूरी तरह से बहाल नहीं होते हैं, तब तक सरकार स्कूल भले ही खोल ले. लेकिन, वो तो मां-बाप को बच्चों की सुरक्षा का भरोसा दे पाएगी और न ही उन्हें अपने बच्चों को स्कूल भेजने का हौसला दे पाएगी.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.