Published on Jul 30, 2023 Updated 0 Hours ago

आज जब भारत तेज़ी से तकनीकी तरक़्क़ी कर रहा है, तो क्या भारत को सरकारी निगरानी व्यवस्था के लिए नियमों के ढांचे के बारे में नए सिरे से विचार करना चाहिए?

भारत में सरकारी निगरानी व्यवस्था की स्थिति: निजता की क़ीमत पर राष्ट्रीय सुरक्षा?
भारत में सरकारी निगरानी व्यवस्था की स्थिति: निजता की क़ीमत पर राष्ट्रीय सुरक्षा?

अपने नागरिकों पर हुकूमत द्वारा नज़र रखने का इतिहास बहुत पुराना है. सामाजिक विज्ञान के विशेषज्ञों ने तयशुदा और ग़ैर तयशुदा मक़सदों के लिए देश के नागरिकों और उनकी गतिविधियों पर नज़र रखने के लिए कई तरह की संस्थागत परिकल्पनाएं ईजाद की हैं. आम लोगों पर नज़र रखने की एक परिभाषित आवश्यकता राष्ट्रीय सुरक्षा की रक्षा करना है. लेकिन भारत में नागरिकों की निगरानी की व्यवस्था में सुधार की बुनियादें, राष्ट्रीय सुरक्षा और निजता के बीच असमान संतुलन पर टिकी हैं. इसके साथ-साथ, तकनीक के क्षेत्र में हालिया प्रगति ने निगरानी के ढांचे को बिल्कुल ही बदल डाला है. अब निगरानी के औज़ार निजता में और दखल देने वाले हो गए हैं, जो हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था की सुरक्षा करने वाले ढांचे में सेंध लगाते हैं. मिसाल के तौर पर हाल ही में चर्चा में आए पेगासस ‘जासूसी कांड’ को ही लीजिए- जहां एक क्लिक पर एक सॉफ्टवेयर आपके पूरे फ़ोन के डेटा को हैक कर लेता है. इससे पता चलता है कि आज निगरानी की व्यवस्था में कितना बदलाव आ चुका है. आज ऐसे वायरस से संक्रमित लोगों के फ़ोन पर दूर बैठकर पूरी तरह नियंत्रण कर लिया जाता है और उन्हें पता भी नहीं चलता. ऐसे में, निगरानी व्यवस्था में आ रहे इन बदलावों से एक सवाल उठता है कि क्या अब भारत को निगरानी करने के अपने ढांचे के नियम क़ायदों में बदलाव के बारे में नए सिरे से सोचना चाहिए?

निगरानी व्यवस्था में आ रहे इन बदलावों से एक सवाल उठता है कि क्या अब भारत को निगरानी करने के अपने ढांचे के नियम क़ायदों में बदलाव के बारे में नए सिरे से सोचना चाहिए?

भारत में निगरानी के तौर तरीक़े

ऐतिहासिक रूप से भारत में सरकार के पास निगरानी का अधिकार इस तरह से रहा है कि वो न्यूनतम रोक-टोक के साथ अपने नागरिकों की ज़िंदगी में ताक-झांक और दख़लंदाज़ी कर सके. 19वीं सदी में ब्रिटेन की उपनिवेशवादी सरकार ने कुछ क़ानून बनाकर, ब्रिटिश हुकूमत को डाक और टेलीग्राफ के संवाद पर नज़र रखने का अधिकार दिया था. ब्रिटिश राज के ये क़ानून 1996 तक बेधड़क इस्तेमाल होते रहे थे, जब सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में दख़ल दिया था (PUCL बनाम केंद्र सरकार SCC 1997). सर्वोच्च अदालत ने अपने आदेश में कुछ निर्देश जारी किए थे, जिससे सरकार द्वारा अवैध रूप से नागरिकों की निगरानी या ज़रूरत से ज़्यादा ताक-झांक करने पर क़ाबू पाया जा सके. उसके बाद से तो दुनिया काफ़ी बदल चुकी है. तकनीक भी बदल चुकी है और भारत में नागरिकों की निगरानी में इस्तेमाल होने वाली तकनीकें भी. इसीलिए, बदलते हुए वक़्त के हिसाब से निगरानी को नियमित करने वाले क़ानूनी ढांचे में भी आमूल-चूल बदलाव करने की ज़रूरत मालूम हुई. 

अगर हम बड़े स्तर की बात करें, तो हुकूमत सीसीटीवी और फेशियल रिकॉग्निशन कैमरों जैसे निगरानी के डिजिटल औज़ार इस्तेमाल करती है, ताकि आबादी के एक बड़े हिस्से पर एक साथ नज़र रखी जा सके. हाल ही में फ़ोर्ब्स की सबसे ज़्यादा निगरानी वाले शहरों की सूची में भारत ने कई ऊंची पायदानें हासिल की थीं. इनमें भी दिल्ली पहले नंबर पर थी, जहां, प्रति वर्ग मील पर 1826.6 कैमरे लगे हुए हैं, जो चीन के बीजिंग, वुहान, शियामेन और लंदन जैसे शहरों से भी ज़्यादा है; चेन्नई तीसरे नंबर पर है, जहां पर प्रति वर्ग मील 609.9 कैमरे लगे हैं, जबकि हर वर्ग मील में 157.4 कैमरों के साथ मुंबई 18वें नंबर पर है. दिल्ली सरकार ने राजधानी में 1 लाख 40 हज़ार सीसीटीवी कैमरे लगाने के लिए अपनी योजना का दूसरा चरण भी शुरू कर दिया है.

भारत के गृह मंत्रालय के साइबर क्राइम को-ऑर्डिनेशन सेंटर ने ‘साइबर स्वयंसेवकों की योजना’ शुरू की है, इस योजना का मक़सद नागरिकों द्वारा इंटरनेट और सोशल मीडिया पर ग़ैरक़ानूनी गतिविधियों की जानकारी संबंधित अधिकारियों को देना है

इसके अलावा सरकारें, पहले भी नागरिकों द्वारा ग़ैर सरकारी तरीक़े से दूसरे नागरिकों की निगरानी को बढ़ावा देती रही हैं, जिससे कि आम लोग किसी ग़ैरक़ानूनी गतिविधि की जानकारी अधिकारियों को दें. मिसाल के तौर पर हाल ही में भारत के गृह मंत्रालय के साइबर क्राइम को-ऑर्डिनेशन सेंटर ने ‘साइबर स्वयंसेवकों की योजना’ शुरू की है, इस योजना का मक़सद नागरिकों द्वारा इंटरनेट और सोशल मीडिया पर ग़ैरक़ानूनी गतिविधियों की जानकारी संबंधित अधिकारियों को देना हैमहामारी के दौरान तो ये प्रवृत्ति और भी देखी गई थी, जब सरकार ने वायरस का प्रकोप रोकने के लिए आरोग्य सेतु, क्वारंटीन वाच और टीका लगाने के लिए तमाम तकनीकी तरीक़े अपनाए थे.

निचले स्तर की निगरानी की बात करें, तो सरकार के पास नागरिकों की निशानदेही करके उनकी बातचीत सुनकर निगरानी का अधिकार है. भारत के बाज़ार में ऐसी क़ानूनी निगरानी के लिए बातचीत सुनने वाले तमाम सिस्टम उपलब्ध हैं. सरकार इन्हें लाइसेंसिंग के समझौते के तहत दूरसंचार और इंटरनेट सेवाएं देने वाली कंपनियों के नेटवर्क में स्थापित करती है. कुछ ख़ास क़ानूनों के दायरे में ऐसा इंटरसेप्शन वैध है. लेकिन, सूचना प्रौद्योगिकी (संशोधन) क़ानून 2008 की धारा 43 और 66 के तहत हैकिंग करना दंड के क़ाबिल अपराध है.

हालांकि पेगासस ‘जासूसी कांड’ से अब ये ज़ाहिर हो गया है कि लोगों की ज़िंदगी में दखलंदाज़ी और हैकिंग उनकी जानकारी के बग़ैर भी हो सकती है. अंतरराष्ट्रीय मीडिया के एक गठबंधन (पेगासस प्रोजेक्ट) की जांच में पता चला कि दुनिया भर में क़रीब पचास हज़ार फ़ोन नंबर और उनसे जुड़ी अन्य डिवाइस पेगासस के जासूसी वायरस की शिकार बनीं. इस तफ़्तीश में बताया गया था कि इस जासूसी कांड के निशाने पर ज़्यादातर उन देशों के लोग थे, जहां पर ग़ैरक़ानूनी तरीक़े से निगरानी और सरकारी निगरानी से बचाने के कमज़ोर वैधानिक सुरक्षा उपाय लागू थे. पेगासस स्पाईवेयर के शिकार भारत के लगभग 300 लोगों में से कुछ फ़ोन नंबर ऐसे थे, जो मंत्रियों, पत्रकारों, विपक्षी नेताओं और जजों, कारोबारियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के थे. 

हालांकि, ऐसी आला दर्ज़े की तकनीक का इस्तेमाल सरकारें राष्ट्रीय सुरक्षा और क़ानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए करती हैं. लेकिन इस समय भारत में इन तकनीकों का विकास और इस्तेमाल ऐसे हालात में हो रहा है, जब देश में डेटा की हिफ़ाज़त की व्यवस्था और निगरानी से जुड़े मज़बूत सुधारों का अभाव है. इन दख़लंदाज़ी वाली तकनीकों के ज़रिए जो आंकड़े जुटाए जाते हैं, उनके दुरुपयोग के ख़तरे से बचाने के उपाय नहीं हैं; कौन कौन ये आंकड़े देख सकता है और क्या ये आंकड़े सिर्फ़ पहले से तय मक़सद के लिए इस्तेमाल होते हैं, ये भी पता नहीं है. इसके अलावा डेटा में सेंधमारी और इसका दुरुपयोग रोकने की व्यवस्था भी स्पष्ट नहीं है. ऐसे में कुछ ख़ास लोगों पर अलग अलग एजेंसियों द्वारा अलग अलग मक़सद से निगाह रखी जा रही है और इसके लिए संदिग्ध या संदिग्ध गतिविधियों वग़ैरह को भी परिभाषित नहीं किया गया है. मिसाल के तौर पर नीरा राडिया फोन टैपिंग मामले से पता चला था कि सरकार, निगरानी के दौरान सुनी गई बातों की फ़ाइलों को लेकर हमेशा ही तय प्रक्रिया का पालन नहीं करती है, जिससे निगरानी किए जाने वाले की निजता का हनन न हो. जहां पर ज़रूरत के अलावा लोगों की निजी बातचीत भी रिकॉर्ड की गई थी, क्योंकि ये बातचीत सुनना राष्ट्रीय सुरक्षा से ताल्लुक़ नहीं रखता था.

भारत में इन तकनीकों का विकास और इस्तेमाल ऐसे हालात में हो रहा है, जब देश में डेटा की हिफ़ाज़त की व्यवस्था और निगरानी से जुड़े मज़बूत सुधारों का अभाव है

वैसे तो व्यापक स्तर पर ग़ैर सरकारी तरीक़ों से निगरानी से भी अभिव्यक्ति की आज़ादी और निजता के अधिकारों का हनन होता है. लेकिन, लक्ष्य करके की जाने वाली ये निगरानी छुपकर और अस्थायी व्यवस्था के ज़रिए होती है, जिनके लिए नियामक व्यवस्था में दरारें बनाकर जुगाड़ किया जाता है. तकनीक में आए हालिया बदलावों ने निगरानी की गोपनीयता बनाए रखने में और मदद की है. कई बार ये गोपनीयता ग़ैरक़ानूनी भी हो सकती है. इसीलिए हम इस लेख में तयशुदा सरकारी निगरानी व्यवस्था के मौजूदा नियामक ढांचे की समीक्षा करेंगे, जो आज की ज़रूरतों के हिसाब से पुराना पड़ चुका है और हमारे लोकतांत्रिक ढांचे के लिए ख़तरा बन गया है.

तयशुदा निगरानी की व्यवस्था के नियामक ढांचे की दरारें

इंडियन टेलीग्राफ़ एक्ट 1885 की धारा 5 (2) और सूचना प्रौद्योगिकी (संशोधन) क़ानून 2008 की धारा 69 के तहत सरकार ‘देश की संप्रभुता, राष्ट्रीय सुरक्षा, अन्य देशों से दोस्ताना ताल्लुक़ात और क़ानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए किसी भी तरह की सूचना को सुन सकती है, उस पर निगरानी रख सकती है और ख़ुफिया संदेशों को डिकोड कर सकती है.’ हालांकि निगरानी का ये नियामक ढांचा कई मामलों में बेहद कमज़ोर है जिससे नागरिकों के अधिकारों का सवाल उठता है और उन चिंताओं को उजागर करता है कि निगरानी के इतने व्यापक अधिकार से देश के लोकतांत्रिक ढांचे को ख़तरा हो सकता है. इस वक़्त के क़ानूनों में ऐसी दरारें हैं जिससे सरकारी एजेंसियां अपनी मनमानी करते हुए बिना किसी रोक-टोक के, तयशुदा लोगों की निगरानी कर सकती हैं.

एक बार तो सरकार ने पेगासस जांच के लिए विस्तार से हलफ़नामा देने से ही ये कहते हुए इंकार कर दिया था कि ये राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा है. बाद में ख़ुद कोर्ट ने भी इस पर सवाल उठाया था. 

हमने ऊपर जिन दोनों क़ानूनों का ज़िक्र किया, वो न सिर्फ़ बेहद पुराने पड़ चुके हैं और सरकार को निगरानी के व्यापक अधिकार, जैसे कि ‘जनता के बीच व्यवस्था बनाने, और राष्ट्रीय सुरक्षा और जनता की हिफ़ाज़त’ के नाम पर नज़र रखने का हक़ देते हैं. इसमें कोई दो राय नहीं कि ये किसी भी सरकार की वाजिब चिंताएं हैं. लेकिन, इन बातों को परिभाषित नहीं किया गया है कि आख़िर जन व्यवस्था या राष्ट्रीय सुरक्षा क्या है, तो इनका दायरा भी स्पष्ट नहीं है और न ही क़ानून में इनके नाम पर निगरानी की कोई ठोस प्रक्रिया (SoPs) बताई गई हैं. नतीजा ये हुआ है कि इनके नाम पर इतने व्यापक स्तर पर निगरानी हो रही है, जो इन क़ानूनों को बनाने के मक़सद से बहुत आगे चली गई है. इसके अलावा जिन हवालों से निगरानी की सरकार को इजाज़त है, उनको परिभाषित न किए जाने से सरकारी एजेंसियां पर्दे के पीछे रहकर मनमर्ज़ी करती हैं. चूंकि इन पर निगरानी की व्यवस्था संबंधित विभाग के दायरे से बाहर की नहीं होती, तो कई बार इनके बेलग़ाम होने का डर होता है. मिसाल के तौर पर एक बार तो सरकार ने पेगासस जांच के लिए विस्तार से हलफ़नामा देने से ही ये कहते हुए इंकार कर दिया था कि ये राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा है. बाद में ख़ुद कोर्ट ने भी इस पर सवाल उठाया था. इसके उलट, अमेरिका, फ्रांस और मेक्सिको जैसे देशों ने इस जासूसी कांड पर आधिकारिक प्रतिक्रियाएं भी जारी कीं, और पेगासस मामले के पर्दाफ़ाश के बाद ख़ुद से इसकी जांच भी शुरू की है.

तयशुदा लोगों की निगरानी के मामले में नियम क़ायदों की मौजूदा व्यवस्था केंद्र और राज्यों की सरकारों को ये इजाज़त देती है कि वो सीधे या अपनी संस्थाओं के ज़रिए किसी के संचार को छुपकर सुन सकती है. इससे हुकूमत को ऐसी एजेंसियां तय करने का खुला अधिकार हो जाता है, जो किसी जांच पड़ताल या संसदीय और न्यायिक जांच के डर के बिना मनमर्ज़ी से निगरानी का काम करें.

सूचना प्रौद्योगिकी (इंटरसेप्शन, मॉनिटरिंग और डिस्क्रिप्शन ऑफ़ इन्फॉर्मेशन की प्रक्रिया और सुरक्षा के उपाय) के नियम 2009 के तहत कोई भी एजेंसी या व्यक्ति सक्षम अधिकारी के निर्देश और उसकी इजाज़त के बग़ैर किसी की निगरानी नहीं कर सकती हैं. लेकिन, सक्षम अधिकारी की परिभाषा विभागों के स्तर पर ही तय हो जाती है. इस वक़्त गृह सचिव या फिर संयुक्त सचिव (आपातकाल या गृह सचिव की अनुपस्थिति में) को निगरानी की इजाज़त देने का अधिकार है. सरकारी ढांचे के अंदर निगरानी और छुपकर सुनने की इजाज़त देने की ये व्यवस्था किसी संसदीय या न्यायिक भागीदारी या जवाबदेही के दायरे में नहीं आती है. ये बात तो ख़ास तौर से चिंताजनक है. क्योंकि मूल अधिकारों के हनन के अधिकतर मामले सरकार के ख़िलाफ़ ही होते हैं. वहीं कार्यकारी अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए ज़रूरत से ज़्यादा निगरानी की इस व्यवस्था में न्यायपालिका से भी दूरी बनाकर रखा गया है.

अब समय आ गया है कि भारत में निगरानी के लिए एजेंसियों को व्यापक अधिकार देकर निजता का हनन करने के बजाय, नज़र रखने वाले ढांचे का पुनर्गठन किया जाए.

वहीं दूसरी तरफ़, संसद द्वारा बनाई गई लोक लेखा समिति (PAC) सरकार की आमदनी और ख़र्च की पड़ताल करती है. लेकिन, नेशनल टेक्निकल रिसर्च ऑर्गेनाइज़ेशन के बजट जैसे ख़र्च को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए विशेष फंड के खांचे में डालकर रखा गया है, जो संसद की लोक लेखा समिति की समीक्षा के दायरे में नहीं आता है.

आगे का रास्ता

दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के तौर पर राष्ट्रीय सुरक्षा की हिफ़ाज़त के साथ साथ, नागरिकों को उनके अधिकारों को लेकर और सशक्त बनाना भी हमारी बराबर की ज़िम्मेदारी है. आम तौर पर राष्ट्रीय सुरक्षा और निजता के अधिकार को एक दूसरे का प्रतिद्वंदी माना जाता रहा है; लेकिन तकनीक के नए अवतार और डिजिटल निगरानी के तौर तरीक़ों के आ जाने के बाद नागरिकों की जानकारी की रक्षा करना भी महत्वपूर्ण हो गया है. शायद ये सबसे अच्छा समय है जब निजता और नागरिक की सूचनाओं को भी राष्ट्रीय सुरक्षा का एक पहलू मानकर उसकी हिफ़ाज़त की जाए. इस समय IT क़ानून 2000 में IT Rules 2021 के ज़रिए जो क़ानूनी बदलाव किए गए हैं, और सरकार और उसकी एजेंसियों को 2021 के प्रस्तावित डेटा प्रोटेक्शन बिल में जो व्यापक छूट दी गई है, उनसे ज़ाहिर होता है कि निगरानी के नए क़ानून बनाने में वही तरीक़ा अपनाया जा रहा है, जहां पर नागरिकों की निजता की रक्षा के प्रति जवाबदेही को कमज़ोर किया जा रहा है, जबकि होना ये चाहिए कि निजता की हिफ़ाज़त करने वाले तौर-तरीक़ों को बढ़ावा दिया जाता. ऐसे तरीक़े अपनाने का एक दुर्भाग्यपूर्ण नतीजा ये निकला है कि क़ानून का सम्मान करने वाले नागरिकों की निजता और सुरक्षा पर बुरा असर पड़ता है. मिसाल के तौर पर IT Rules के तहत क़ानून व्यवस्था के लिए ज़िम्मेदार एजेंसियां किसी मैसेज को सबसे पहले भेजने वाले का पता लगा सकती हैं. इससे उन्हें दो लोगों के बीच की गोपनीय बातचीत सुनने का अधिकार मिल जाता है, जो अन्य सेवाओं को कमज़ोर बनाता है और जिसका अनैतिक संस्थाओं और व्यक्तियों द्वारा दुरुपयोग किया जा सकता है.

ऐसी चुनौतियों से निपटने के लिए अब समय आ गया है कि भारत में निगरानी के लिए एजेंसियों को व्यापक अधिकार देकर निजता का हनन करने के बजाय, नज़र रखने वाले ढांचे का पुनर्गठन किया जाए. इस समय हमारे सामने मुख्य मुद्दा यही है कि निगरानी के लिए जो बुनियादी वैधानिक ढांचा इस्तेमाल किया जाता है, वही बहुत पुराना पड़ चुका है; ऐसे में हमारे लिए निजता और अधिकारों के सिद्धांतों को अपनाना और उन्हें लागू करना मुश्किल होता जा रहा है. ख़ास तौर से सुरक्षा के ज़्यादा जटिल मसलों और डिजिटल निगरानी के आधुनिक तौर तरीक़ों के मामले में. इस क्षेत्र में निगरानी को नियमित करने के किसी भी ढांचे में निगरानी करने की एक व्यापक, सटीक, मक़सद पर आधारित और ज़रूरत के मुताबिक़ व्यवस्था बनाए जाने की ज़रूरत है. साथ ही साथ निजता का सम्मान करने वाले तरीक़ों को नियम बनाए जाने की ज़रूरत है.

इस वक़्त हमारी व्यवस्था रोड़ों से भरी पड़ी है. इसके केंद्र में वो शब्दावली है जिसका इस्तेमाल हमारे यहां के क़ानून बनाने के दौरान किया जाता है. ये वो शब्दावली है जो क़ानून का दायरा तय करती है और निगरानी के तर्क़ों को अस्पष्ट तरीक़े से गढ़ देती है. व्यवस्था को जवाबदेही के तरीक़े मज़बूत बनाने पर भी ज़ोर देना चाहिए. इसके अलावा, निगरानी व्यवस्था की न्यायिक या संसदीय निगरानी के संस्थागत उपाय किए जाने चाहिए. इन क़दमों को उठाने से सरकार के व्यापक और इकतरफ़ा अधिकारों पर क़ाबू पाने में काफ़ी मदद मिलेगी. क्योंकि इस वक़्त सरकार के पास ये तय करने का अधिकार बहुत व्यापक है कि वो निगरानी के अपने अधिकारों का इस्तेमाल किस तरह से करे.

आज जब हम नई नई तकनीकों जैसे कि वेब 3.0 को अपना रहे हैं और भारत में डिजिटल पहुंच का दायरा बढ़ा रहे हैं, तो हम यही उम्मीद कर सकते हैं कि निगरानी के ढांचे का नियमन करने वाली व्यवस्था में आमूल-चूल बदलाव लाना, सरकार की तमाम नियामक प्राथमिकताओं में सबसे अहम है.

भारत सरकार बनाम के. एस. पुट्टुस्वामी के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने नागरिकों के निजता के अधिकार और ख़ास तौर से निजी जानकारी के अधिकार, पर मुहर लगाई थी. अपने उसी फ़ैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि इस अधिकार में किसी भी तरह की ख़यानत केवल तय अनुपात, ज़रूरत और वैधानिकता के दायरे में ही हो सकती है. इस फ़ैसले के बाद सरकारी एजेंसियों को नागरिकों की निगरानी के दौरान इन शर्तों को मानना ज़रूरी हो गया था. हाल ही में मनोहर लाल शर्मा बनाम केंद्र सरकार (पेगासस मामले के तौर पर चर्चित) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने निगरानी के मौजूदा क़ानूनों के बीच निजता के अधिकार के संरक्षण के लिए ज़रूरी सुझाव देने के लिए विशेषज्ञों की एक कमेटी बनाई है. ऐसे में निगरानी के अधिकारों के नियमन और ख़ास तौर से निजता के अधिकार की रौशनी में नियंत्रित करने को न्यायपालिका से भी समर्थन मिल रहा है. पेगासस जासूसी मामले और चेहरे से पहचान और कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग जैसी तकनीकों का बिना पर्याप्त सुरक्षा उपायों या क़ानूनों की ग़ैरमौजूदगी में इस्तेमाल ने नागरिकों को भी चिंता में डाल दिया है. हम भविष्य में निगरानी के नियम क़ायदों को लेकर कौन सा रुख़ अपनाते हैं इसका असर डिजिटल व्यापार पर भी पड़ेगा. क्योंकि डेटा की आवाजाही पर किसी व्यवस्था पर सहमति बनाने से पहले, किसी भी क्षेत्र में डेटा और निजता के संरक्षण के अधिकार की तुलना अन्य देशों में मिलने वाले ऐसे अधिकारों से की जाती है.

आज जब हम नई नई तकनीकों जैसे कि वेब 3.0 को अपना रहे हैं और भारत में डिजिटल पहुंच का दायरा बढ़ा रहे हैं, तो हम यही उम्मीद कर सकते हैं कि निगरानी के ढांचे का नियमन करने वाली व्यवस्था में आमूल-चूल बदलाव लाना, सरकार की तमाम नियामक प्राथमिकताओं में सबसे अहम है.

हमने ज़मीनी स्तर पर लोगों की निगरानी करने वाली व्यवस्था के नियामक ढांचे में व्यापक फेरबदल की ज़रूरत की गहराई से पड़ताल की है. लेकिन, भविष्य में होने वाले रिसर्च में व्यापक स्तर पर ग़ैर सरकारी निगरानी की भी समीक्षा की जानी चाहिए. आज की तारीख़ में ऐसी निगरानी पर निगाह रखने के लिए कोई ठोस क़ानूनी व्यवस्था नहीं है. मिसाल के तौर पर ऐसी ख़बरें आई हैं कि निगरानी के लिए कैमरों वाले ड्रोन इस्तेमाल किए जा रहे हैं. लेकिन, अभी ये साफ़ नहीं है कि इस वीडियो फुटेज का बाद में कैसे इस्तेमाल होगा. इन वीडियो टेप का इस्तेमाल करके लोगों के किरदार गढ़ने का काम अलग अलग स्तर पर हो रहा है, और बिना संदिग्ध या संदिग्ध गतिविधियों जैसी बातों को परिभाषित किए ही हो रहा है. ये क़ुदरती इंसाफ़ के नियमों के ख़िलाफ़ जाने वाली बात है. इसके अलावा, ज़्यादातर मामलों में लोगों को पता ही नहीं चलता कि इन औज़ारों के माध्यम से उनके बारे में जानकारी जुटाई जा रही है, या आंकड़े जमा किए जा रहे हैं और इस तरह उनकी निजता का उल्लंघन हो रहा है.

इसीलिए हमें लगता है कि तयशुदा निगरानी के लिए, निगहबानी की मौजूदा व्यवस्था में मज़बूती से सुधार पर ज़ोर देने से, अन्य तरह की निगरानी के लिए नए क़ानूनी सुधारों की बुनियाद तय होगी और नई राह पर चला जा सकेगा, जिससे कि निजता और राष्ट्रीय सुरक्षा के बीच एक संतुलन हासिल किया जा सके.

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Authors

Kamesh Shekar

Kamesh Shekar

Kamesh Shekar is a Senior Research Associate at The DialogueTM and Fellow at The Internet Society. His area of research covers informational privacy surveillance technology ...

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Shefali Mehta

Shefali Mehta

Shefali Mehta is Programme Manager at The DialogueTM. Her responsibilities include policy analysis and outreach. Her interests lie at the intersection of law society and ...

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