Author : Ayjaz Wani

Published on Sep 10, 2020 Updated 0 Hours ago

साउथ चाइना सी में चीन के आक्रामक रवैये से उठी लहरें अभी चक्रवात का रूप ले ही रही हैं. इस बीच. चीन ने अपने उत्तर पश्चिम में स्थित पड़ोसी देश ताजिकिस्तान से कुछ इलाक़ों पर भी वैसा ही ‘ऐतिहासिक दावा’ ठोक दिया है.

चीन के साम्राज्यवाद का साया साउथ चाइना सी से लेकर पामीर के पठार तक फैला हुआ है

हाल ही में चीन के सरकारी मीडिया ने पड़ोसी देश ताजिकिस्तान के पामीर पर्वत के कुछ इलाक़ों पर दावा किया था. ये चीन की उसी उर्वर विस्तारवाद और आक्रामक रणनीति का हिस्सा है, जिसका एक रूप हम साउथ चाइना सी में देख रहे हैं. चीन, अपने आस-पास के इलाक़ों पर नक़्शे की ग़लत व्याख्या करते हुए दावा करता है. इसे चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की बेशर्म साम्राज्यवादी नीति के एक और उदाहरण के सिवा कुछ और नहीं कहा जा सकता है.

साउथ चाइना सी के एक बड़े इलाक़े पर चीन अपना दावा उस नाइन डैश लाइन के आधार पर करता है, जिसकी कल्पना चीन के भूगोल विशेषज्ञ यैंग हुआइरेन ने दूसरे विश्व युद्ध के पहले उस इलाक़े के नक़्शे पर की थी. U के आकार की ये नाइन डैश लाइन, साउथ चाइना सी पर चीन के दावे को कई गुना बढ़ाकर बताती है. और इसके आधार पर चीन, साउथ चाइना सी के समृद्ध तेल और गैसे भंडारों और सामरिक रूप से महत्वपूर्ण उस इलाक़े के सभी देशों को धमकाता रहा है. इसीलिए, चीन ने 2016 में एक अंतरराष्ट्रीय पंचाट के उस फ़ैसले को भी ख़ारिज कर दिया था, जिसने साउथ चाइना सी पर चीन के नाइन डैश लाइन पर आधारित दावे को ख़ारिज कर दिया था. उसके बाद से चीन इस क्षेत्र में और आक्रामक रुख़ अख़्तियार किए हुए है. जबकि, चीन के इस अड़ियल रवैये से प्रभावित कई देशों-ब्रुनेई, मलेशिया, फिलीपींस, ताइवान और वियतनाम ने उसके दावे पर ऐतराज़ जताया है. साउथ चाइना सी पर चीन के दावे के ख़िलाफ़ अमेरिका ने भी बहुत सख़्त ऐतराज़ जताया था. चीन के विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो ने कहा था कि साउथ चाइना सी पर चीन का दावा, ‘बिल्कुल ही ग़ैरक़ानूनी’ है. लेकिन, अमेरिका का ये चेतावनी भरा बयान भी चीन के रवैये को बदलने में नाकाम रहा. इसके उलट, चीन ने साउथ चाइना सी में और भी आक्रामक रुख़ अख़्तियार कर लिया है.

साउथ चाइना सी के एक बड़े इलाक़े पर चीन अपना दावा उस नाइन डैश लाइन के आधार पर करता है, जिसकी कल्पना चीन के भूगोल विशेषज्ञ यैंग हुआइरेन ने दूसरे विश्व युद्ध के पहले उस इलाक़े के नक़्शे पर की थी. U के आकार की ये नाइन डैश लाइन, साउथ चाइना सी पर चीन के दावे को कई गुना बढ़ाकर बताती है.

एक तरफ़, साउथ चाइना सी में चीन के आक्रामक रवैये से उठी लहरें अभी चक्रवात का रूप ले ही रही हैं. इसी दौरान, चीन ने अपने उत्तर पश्चिम में स्थित पड़ोसी देश ताजिकिस्तान से कुछ इलाक़ों पर भी वैसा ही ‘ऐतिहासिक दावा’ ठोक दिया है. चीन ने इस पूर्व सोवियत गणराज्य के पामीर इलाक़े पर अपना दावा जताया है. ताजिकिस्तान का ये इलाक़ा अपनी सोने, चांदी, तांबे, टंगस्टन, माइका, क़ीमती पत्थरों और तेल व गैस के भंडारों के लिए जाना जाता है. इस इलाक़े में रेडियोएक्टिव तत्व यूरेनियम के भी भंडार हैं.

चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (CCP) की दो मशहूर वेबसाइट्स ने बार बार एक ऐसे लेख को प्रकाशित किया है, जिसे चीन के इतिहासकार और पत्रकार चो याओ लू ने लिखा है. इस लेख में दावा किया गया है कि ‘ताजिकिस्तान का पूरा पामीर के इलाक़े पर चीन का हक़ है. और ताजिकिस्तान को चाहिए कि वो इस इलाक़े को चीन को वापस कर दे.’ इस लेख में दावा किया गया है कि चीन में क़्विंग राजवंश (1644-1911) के पतन के बाद, जब चीन में गणराज्य काल (1911-1949) चल रहा था, तब उसके कुछ हिस्सों को ज़बरदस्ती छीन लिया गया था. हालांकि, इनमें से कई क्षेत्रों पर चीन ने दोबारा क़ब्ज़ा कर लिया था. लेकिन, विश्व की बड़ी ताक़तों के दबाव के चलते, चीन पामीर का प्राचीन चीनी हिस्सा तब भी वापस नहीं ले सका था. इस लेख के प्रकाशित होने के बाद ताजिकिस्तान की सरकार ने चीन के प्रति सख़्त नाराज़गी ज़ाहिर की थी. ताजिकिस्तान में चीन के राजदूत लियू बिंग के साथ मुलाक़ात में वहां के पहले उप विदेश मंत्री खुसराव नोज़िरी ने चीन की वेबसाइट में छपे इस लेख को अपने देश के लिए अस्वीकार्य क़रार दिया था. ताजिकिस्तान के उप विदेश मंत्री ने चीन के राजदूत से कहा था कि, ‘दोनों ही देशों को चाहिए कि वो मीडिया में ऐसे सनसनीख़ेज़ लेख प्रकाशित होने से रोकने के लिए ज़रूरी क़दम उठाएं.’

अपने लेख में चीन के इतिहासकार और पत्रकार चो याओ आगे कहते हैं कि पूर्व सोवियत संघ के पतन के बाद, ताजिकिस्तान की सरकार ने चीन से ‘ईमानदार’ आर्थिक मदद सहायता और मदद बदले में कुछ इलाक़े वापस भी कर दिए थे. इस लेख के लिए चो याओ ने न केवल पक्षपातपूर्ण स्रोतों का इस्तेमाल किया है. बल्कि, उन्होंने ताजिकिस्तान की ओर से चीन को वापस की गई ज़मीन को लेकर भी तथ्यों से छेड़खानी की है. ताजिकिस्तान ने 2011 में चीन के साथ बातचीत के बाद कुछ हिस्से उसे वापस किए थे. चो याओ लिखते हैं कि ताजिकिस्तान ने वर्ष 2011 की वार्ता के बाद चीन को अपने पामीर क्षेत्र से 1158 वर्ग किलोमीटर ज़मीन वापस की थी. जबकि ख़ुद चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के आधिकारिक प्रवक्ता का काम करने वाले ग्लोबल टाइम्स के मुताबिक़, चीन को ताजिकिस्तान से केवल एक हज़ार वर्ग किलोमीटर ज़मीन वापस मिली थी. इसका अर्थ ये है कि चीन और ताजिकिस्तान के बीच विवादित लगभग 28 हज़ार 500 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में से चीन को केवल 3.5 प्रतिशत ज़मीन ही ताजिकिस्तान ने वापस की थी.

वर्ष 2018 में चो याओ ने पामीर इलाक़े का दौरा किया था. वो नए व्यापारिक मार्ग विकसित करने की योजना के तहत, पामीर क्षेत्र के दौरे पर गए थे. जिसके बाद चो याओ के विचार राष्ट्रपति शी जिनपिंग की ‘वन बेल्ट, वन रोड प्रोजेक्ट’ से संबंधित वेबसाइट पर प्रकाशित किए गए थे.

फिर भी, मध्य एशियाई देशों को चाहिए कि वो चो याओ के इस लेख को गंभीरता से लें. ख़बरों के अनुसार, वर्ष 2018 में चो याओ ने पामीर इलाक़े का दौरा किया था. वो नए व्यापारिक मार्ग विकसित करने की योजना के तहत, पामीर क्षेत्र के दौरे पर गए थे. जिसके बाद चो याओ के विचार राष्ट्रपति शी जिनपिंग की ‘वन बेल्ट, वन रोड प्रोजेक्ट’ से संबंधित वेबसाइट पर प्रकाशित किए गए थे. ये विवादित लेख इस साल प्रकाशित हुआ ऐसा दूसरा आर्टिकल है, जिसके ज़रिए चीन ने मध्य एशियाई देशों के इलाक़ों पर अपना दावा ठोका है. चीन की साम्राज्यवादी नीति और दादागीरी वाली प्रवृत्ति दर्शाने वाला एक ऐसा ही लेख इसी साल अप्रैल में प्रकाशित किया गया था. इसका शीर्षक था-आख़िर कजाख़िस्तान चीन में वापस विलय क्यों करना चाहता है? इस लेख को एक न्यूज़ वेबसाइट द पेपर (thepaper.cn) पर प्रकाशित किया गया था. और बाद में इसे सोहू डॉट कॉम पर भी प्रकाशित किया गया था. इस लेख में भी दावा ये किया गया था कि कज़ाख़िस्तान, ऐतिहासिक रूप से चीन का अभिन्न अंग रहा था. और क़ज़ाख लोगों को इस बात से कोई ख़ास शिकायत भी नहीं है. ये लेख प्रकाशित होने के बाद कज़ाख़िस्तान के विदेश मंत्रालय ने अपने यहां चीन के राजदूत को तलब करके इस लेख पर ऐतराज़ ज़ाहिर किया था.

1991 के बाद चीन लगातार मध्य एशियाई देशों में अपने साम्यवादी साम्राज्य के विस्तार की वकालत कर रहा है. इसके तहत वो अपनी आर्थिक शक्ति का इस्तेमाल करते हुए, इस इलाक़े के देशों में साम्यवादी तानाशाही शासकों को बढ़ावा दे रहा है. पूर्व सोवियत संघ के विघटन के बाद सभी मध्य एशियाई देशों को भयंकर आर्थिक और राजनीतिक संकट का सामना करना पड़ा था. ताजिकिस्तान में 1992 से 1997 तक गृह युद्ध चलता रहा था. वहीं, किर्गिज़िस्तान में वर्ष 2005 में जनता ने प्रशासनिक अव्यवस्था, महंगाई, कम जीडीपी विकास दर और बढ़ती बेरोज़गारी से तंग आकर क्रांति का बिगुल फूंक दिया था. यहां तक कि हिज़्ब उत तहरीर और इस्लामिक मूवमेंट ऑफ़ उज़्बेकिस्तान (IMU) जैसे कट्टर इस्लामिक संगठन भी मध्य एशियाई देशों में सोवियत संघ के विघटन के बाद पैदा हुई इसी उथल-पुथल के दौर में उभरे.

मध्य एशियाई देशों की लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था और छीजती राजनीतिक व्यवस्था का चीन ने अपने हित साधने में जमकर लाभ उठाया. और इन हालात के ज़रिए अपनी दादागीरी और साम्राज्यवादी नीतियों को बढ़ावा देने का काम किया. इसका एक मक़सद अपने उथल पुथल वाले शिन्जियांग सूबे की सुरक्षा सुनिश्चित करना था. तो, दूसरा लक्ष्य इन देशों में मौजूद तेल और गैस के भंडारों पर पकड़ भी बनाना था. और इसके साथ साथ अपने यहां के तैयार माल के लिए चीन को मध्य एशियाई देशों का बड़ा बाज़ार भी मिल गया. ये लक्ष्य साधने के लिए चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (CCP) ने मध्य एशियाई देशों को सस्ती दरों पर क़र्ज़ दिया और उनकी आर्थिक राजनीतिक अराजकता का फ़ायदा उठाकर एक के बाद एक कई देशों से सीमा संबंधी समझौते किए. चीन ने कज़ाख़िस्तान के साथ 1994 में, किर्गिज़िस्तान के साथ 1996 में और ताजिकिस्तान के साथ 2011 में सीमा समझौते किए थे.

चीन और ताजिकिस्तान के बीच सीमा के निर्धारण की शुरुआत वर्ष 1999 में हुई थी. इस दौरान तीन सीमा खंडों में से दो में सीमाओं का निर्धारण हो गया था. अगले कुछ वर्षों में ताजिकिस्तान ने अपनी क़रीब 200 वर्ग किलोमीटर ज़मीन चीन को सौंप दी थी. हालांकि, सबसे बड़े विवादित क्षेत्र को लेकर दोनों देशों में वर्ष 2002 में समझौता हुआ था. जिस पर ताजिकिस्तान की सरकार ने 2011 में मुहर लगाई थी. इसी समझौते के तहत ताजिकिस्तान ने अपनी लगभग एक हज़ार वर्ग किलोमीटर ज़मीन चीन को सौंप दी थी.

चीन और ताजिकिस्तान के बीच सीमा के निर्धारण की शुरुआत वर्ष 1999 में हुई थी. इस दौरान तीन सीमा खंडों में से दो में सीमाओं का निर्धारण हो गया था. अगले कुछ वर्षों में ताजिकिस्तान ने अपनी क़रीब 200 वर्ग किलोमीटर ज़मीन चीन को सौंप दी थी.

चीन और मध्य एशियाई देशों के बीच सीमा विवाद उन्नीसवीं सदी के आख़िरी दौर का है. 1884 में ज़ार शाही वाले रूस और क़्विंग राजवंश वाले चीन ने पामीर क्षेत्र के अधिकतर इलाक़ों में सीमाओं का स्पष्ट रूप से निर्धारण करने के बजाय उन्हें अस्पष्ट रहने दिया था. इसकी बड़ी वजह ये थी कि इन इलाक़ों में ज़्यादा लोग आबाद नहीं थे. इसकी एक और वजह भी थी. और वो थी कि रूस की ज़ार शाही हो या चीन का क़्विंग राजवंश, दोनों ही साम्राज्यवादी नीतियों पर चलने वाली सल्तनतें थीं. और दोनों को ही अपने मध्य एशियाई इलाक़ों में विद्रोह का सामना करना पड़ रहा था. मध्य एशिया से जुड़े चीन के शिन्जियांग सूबे का इतिहास काफ़ी विवदित रहा है. क़्विंग राजवंश के दौरान भी शिन्जियांग पर चीन के दावे को चुनौती मिलती रही थी. वर्ष 1877 तक चीन, शिन्जियांग सूबे पर अपना नियंत्रण स्थापित नहीं कर सका था. याकूब बेग (1867-1877) ने कोक़ंद के ख़ान की मदद से शिन्जियांग में अपना स्वतंत्र साम्राज्य स्थापित कर लिया था. यहां तक कि याकूब बेग ने रूस के ज़ार शासकों और ब्रिटिश भारत के साम्राज्य के साथ भी संधियां कर ली थीं. चीन के क्विंग बादशाह, शिन्जियांग पर तब जाकर क़ब्ज़ा कर सके थे, जब रूस के ज़ार शासकों ने खिवा और कोक़ंद की रियासतों और बुखारा की अमीरात पर क़ब्ज़ा कर लिया था. और इसके बाद मध्य एशिया में विवाद के मसले ख़त्म हो गए थे. जिसके बाद, 1877 से लेकर 1911 तक शिन्जियांग पर चीन के क्विंग राजवंश ने शासन किया था. लेकिन, इस दौरान भी रूस की ज़ार शाही के नियंत्रण वाले मध्य एशिया और चीन के क़ब्ज़े वाले शिन्जियांग के बीच बहुत नज़दीकी सांस्कृतिक और कारोबारी संबंध रहे थे.

1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद चीन ने मध्य एशियाई देशों में भारी मात्रा में निवेश किया. ख़ास तौर से शी जिनपिंग के मशहूर प्रोजेक्ट बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव (BRI) के एलान के बाद तो इस क्षेत्र में चीन का निवेश काफ़ी बढ़ गया है. यहां तक कि चीन ने किर्गिज़िस्तान और ताजिकिस्तान पर अपना नियंत्रण बढ़ाने के लिए क़र्ज़ वाली कूटनीति का भी प्रयोग किया है. इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि, वर्ष 2016 तक किर्गिज़िस्तान के 1.4 अरब डॉलर और ताजिकिस्तान के 1.1 अरब डॉलर के विदेशी क़र्ज़ में आधा हिस्सा चीन के आयात निर्यात बैंक (EXIM Bank) का था. चीन ने मध्य एशियाई देशों की कमज़ोर अर्थव्यवस्थाों और ऋण लौटा पाने में उनकी अक्षमता का फ़ायदा उठाकर दोनों ही देशों को अपने यहां की अच्छी खदानों और खेती लायक़ ज़मीन ख़ुद को सौंपने को मजबूर किया है. साफ़ है कि ताजिकिस्तान के पामीर इलाक़े पर चीन के इस ताज़ा दावे के ज़रिए चीन साउथ चाइना सी वाली अपनी रणनीति को यहां भी लागू करना चाहता है. जिससे वो मध्य एशिया में अपने साम्राज्य का और विस्तार कर सके.

मध्य एशियाई देशों को चाहिए कि वो चीन को लेकर अपनी नीतियों पर नए सिरे से विचार करें. और चीन के अलग अलग दौर के शासकों द्वारा शिन्जियांग प्रांत को अपना उपनिवेश बनाने की मिसाल से सबक़ लें. साउथ चाइना सी के देशों के उलट, मध्य एशियाई देशों को चाहिए कि वो एकजुट होकर चीन के दादागीरी वाले एजेंडे का विरोध करें. आज अमेरिका, यूरोपीय संघ और रूस को इस क्षेत्र में कोई दिलचस्पी नहीं है. ऐसे में चीन के विस्तारवाद का मुक़ाबला करने के लिए मध्य एशियाई देशों द्वारा एकजुटता से काम लेना ही एकमात्र विकल्प है. तभी वो अपनी साझा आर्थिक शक्ति से इस क्षेत्र में चीन के साम्राज्य विस्तार की महत्वाकांक्षाओं को ख़त्म कर सकेंगे.

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