Published on Nov 20, 2020 Updated 0 Hours ago

स्वच्छ ऊर्जा पर चलने वाली भविष्य की कम कार्बन उत्सर्जन वाली तकनीक आधारित अर्थव्यवस्था के निर्माण के लिए भारत को महत्वपूर्ण खनिजों की ज़रूरत होगी.

खनन में हो रहे सुधार, हरे-भरे और तकनीक आधारित भविष्य की दिशा में पहला क़दम

जिस वक़्त कोविड-19 महामारी के बीच अपना रास्ता बनाने के लिए दुनिया संघर्ष कर रही है, तब अर्थव्यवस्था और पृथ्वी की निरंतरता एक बार फिर चर्चा में है जहां सामान्य हालात में लौटना साफ़ तौर पर बहुत मुश्किल है. भारत के सामने तो दो तरफ़ा चुनौती है- एक तरफ़ तकनीक और आविष्कार के सहारे उच्च विकास दर को बनाए रखना है तो दूसरी तरफ़ अपने लोगों के लिए हरा-भरा भविष्य बनाना है. इसके लिए देश की आर्थिक प्राथमिकता और उस रास्ते पर फिर से विचार करने की ज़रूरत है जिसके सहारे सामानों और पर्यावरणीय संपन्नता के मामले में हम भविष्य को समृद्ध बनाना चाहते हैं. शायद इसकी शुरुआत का एक अच्छा रास्ता ये हो सकता है कि हम इसकी योजना बनाएं कि देश के प्रचुर खनिज संसाधनों का सर्वश्रेष्ठ इस्तेमाल कैसे करें और उन्हें तकनीक आधारित पर्यावरणीय गतिविधियों से कैसे जोड़ें. ये ऐसी चीज़ है जहां खनन में दीर्घकालीन योजना और प्रगतिशील सुधार की ज़रूरत है.

गौर से नहीं पढ़ने वालों को लगेगा कि पर्यावरण को बेहतर करते वक़्त खनन पर ध्यान देने की ज़रूरत विरोधाभासी चीज़ है क्योंकि पृथ्वी पर खनन उद्योग का खराब असर होता है. लेकिन स्वच्छ ऊर्जा पर चलने वाली भविष्य की कम कार्बन उत्सर्जन वाली तकनीक आधारित अर्थव्यवस्था के निर्माण के लिए भारत को महत्वपूर्ण खनिजों की ज़रूरत होगी. 

गौर से नहीं पढ़ने वालों को लगेगा कि पर्यावरण को बेहतर करते वक़्त खनन पर ध्यान देने की ज़रूरत विरोधाभासी चीज़ है क्योंकि पृथ्वी पर खनन उद्योग का खराब असर होता है. लेकिन स्वच्छ ऊर्जा पर चलने वाली भविष्य की कम कार्बन उत्सर्जन वाली तकनीक आधारित अर्थव्यवस्था के निर्माण के लिए भारत को महत्वपूर्ण खनिजों की ज़रूरत होगी. दुनिया में स्वच्छ ऊर्जा की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए ग्रेफाइट, लिथियम और कोबाल्ट जैसे खनिजों का उत्पादन 2050 तक 500% तक बढ़ सकता है (विश्व बैंक, मई 2020). ऐसे में भारत जिस सवाल का सामना कर रहा है वो है: मौजूदा खनन नीति में किसी बदलाव के बिना क्या खनिजों की खोज का मौजूदा स्तर स्वच्छ तकनीक, नवीकरणीय ऊर्जा, ऊर्जा भंडारण और इलेक्ट्रिक गाड़ी के महत्वाकांक्षी लक्ष्य को पूरा करने में देश की मदद करने के लिए पर्याप्त है? मौजूदा खनन नीति वैज्ञानिक खनन को प्रोत्साहित नहीं करती है.

भारत में खनन- दशकों से इंतज़ार करती कामयाब कहानी

भारतीय खान ब्यूरो के मुताबिक़ भारत वर्तमान समय में 95 अलग-अलग तरह की खनिज कमॉडिटी का उत्पादन करता है (ब्रुकिंग्स इंडिया, अप्रैल 2020). भारतीय भूगर्भ सर्वेक्षण ने 5 लाख 20 हज़ार वर्ग किलोमीटर इलाक़े की पहचान की है जो खनन संभावना के लिए ठीक हैं. ब्रुकिंग्स की रिपोर्ट में इस बात का भी ज़िक्र है कि भारत में कई तकनीकी खनिज हैं लेकिन उनकी खोजबीन या तो की नहीं गई है या फिर संभावना से बहुत कम की गई है. इन खनिजों की भविष्य में बहुत ज़्यादा मांग होने की संभावना है क्योंकि भारत की ज़मीन के नीचे सबसे उम्दा खनिजों की खोज-बीन की संभवाना बहुत ज़्यादा है.

खनिजों की खोज-बीन पर भारत का खर्च क़रीब 17 डॉलर प्रति वर्ग किलोमीटर होने का अनुमान है (ORF, मार्च 2018). खनिज संपदा से भरपूर दूसरे देशों जैसे कनाडा और ऑस्ट्रेलिया के मुक़ाबले भारत का खोज-बीन पर खर्च काफ़ी कम है. हालांकि भारत का भूगर्भ व्यापक तौर पर पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया की तरह ही है. वर्ष 2019 में गैर-लौह धातुओं के वैश्विक खोज-बीन पर हुए 9.3 अरब अमेरिकी डॉलर के खर्च में कनाडा और ऑस्ट्रेलिया का योगदान 50% रहा (S&P ग्लोबल, मार्च 2020). मौजूदा खोज-बीन के स्तर और नीति के प्रकार को देखते हुए भारत तकनीक से जुड़े उत्पादों के लिए खनिज की स्थायी सप्लाई को सुनिश्चित करने से काफ़ी दूर है. ऐसे खनिजों की मांग आने वाले वक़्त में बढ़ने वाली है.

क्या प्रस्तावित सुधार दूरी पाटते हैं?

खनन से जुड़ी योजनाओं में लंबे वक़्त के मुताबिक़ सोचने की ज़रूरत है चाहे वो खदान के दृष्टिकोण से हो, समुदाय के हिसाब से या सरकार के मुताबिक़. अल्पकालीन बाधाओं को दूर करने की तरफ़ एक नीतिगत निर्देश हमेशा दीर्घकालीन दृष्टिकोण के अनुकूल होना चाहिए. 2015 से संसाधन के क्षेत्र में ठोस नीतिगत निर्देश की तरफ़ तरक़्क़ी के मामले में महत्वपूर्ण तेज़ी दिखी है. लेकिन देश की खनिज संभावनाओं को खोलने के रास्ते में खोज-बीन को अभी ठीक ढंग से समझा नहीं गया है.

2015 में खदान और खनिज विकास नियमन (MMDR) एक्ट में संशोधन से खनिजों के आवंटन में पारदर्शिता भले ही आ गई हो लेकिन व्यापक खोज-बीन के वादे पर काम पूरा करने में नाकामी मिली है. और विदेशी निवेशकों को न्योता देना भी काफ़ी फ़ायदेमंद नहीं रहा है- पिछले एक दशक में भारत में 299.4 अरब अमेरिकी डॉलर के कुल निवेश में खनिज सेक्टर सिर्फ़ 0.7% (2.2 अरब अमेरिकी डॉलर) निवेश आकर्षित कर पाया. वो भी तब जब खनन सेक्टर में 100% विदेशी निवेश की मंज़ूरी मिल चुकी है. ऐसी हालत में खनन नीति में सामान्य तौर पर फिर से विचार भी ताज़ा हवा के झोंके तरह लगता है. उदाहरण के लिए, खनन लीज़ का ठेका देते वक़्त स्टांप ड्यूटी को तर्कसंगत करने के साथ ही अलग-अलग तरह के खदानों में अंतर दूर करने के लिए सरकारी प्रस्ताव दिया गया है. सरकार का इरादा 2015 के MMDR एक्ट में संशोधन करने का भी है ताकि खदान को नीलामी के लिए मुक्त कर दिया जाए और अवैध खनन की परिभाषा में स्पष्टता लाई जा सके.

सरकार का इरादा 2015 के MMDR एक्ट में संशोधन करने का भी है ताकि खदान को नीलामी के लिए मुक्त कर दिया जाए और अवैध खनन की परिभाषा में स्पष्टता लाई जा सके.

सवाल है कि क्या ये उपाय लंबे वक़्त के लिए हैं, ख़ास तौर पर भारत के दीर्घकालीन आर्थिक और पर्यावरणीय लक्ष्यों को देखते हुए? अफ़सोस की बात है नहीं. प्रस्तावित सुधार भारत के खनिज संसाधन की संभावना को खोलने वाली कमोडिटी की पूरी प्रक्रिया- खोज-बीन, निकालने और उत्पाद के विकास- की संकल्पना पर खरा नहीं उतरता.

खनन सुधार में ज़रूरी है स्पष्टता, साझेदारी और प्रतियोगिता

खनन के फलने-फूलने के लिए पर्यावरण नीति में समय की निश्चितता, भविष्य सूचक, प्रतिस्पर्धी और निरंतर टैक्स व्यवस्था, मंज़ूरी के लिए पहले से तय समय सीमा और एक जगह सारी सुविधा और खदान से निकाले गए उत्पाद को स्थानीय या वैश्विक स्तर पर बेचने की आज़ादी होनी चाहिए. मिसाल के तौर पर- ज़्यादातर खनन के मामलों में खनिज संसाधनों के आवंटन के लिए पहले आओ, पहले पाओ की पद्धति अपनाई जाती है (मैकिंज़ी, दिसंबर 2014). इसलिए विशेष सर्वेक्षण परमिट को खोज-बीन के औज़ार के तौर पर खारिज नहीं किया जा सकता.

खनिज की खोज-बीन बेहद विशेष काम है जिसमें अलग-अलग कमॉडिटी में अलग-अलग तकनीक का इस्तेमाल होता है. ऐसे में भारत के लिए ज़रूरी है कि वो कमॉडिटी के पावर हाउस माने जाने वाले देशों जैसों ऑस्ट्रेलिया और कनाडा के साथ अपने खनन के रिश्तों को मज़बूत करने के लिए क़दम उठाए. इससे खनन सेक्टर में बेहद ज़रूरी इनोवेशन और तकनीक की समझ आएगी. खोज-बीन में प्राइवेट निवेश को प्रोत्साहन देना अच्छा क़दम हो सकता है लेकिन इससे भी बढ़कर काफ़ी कुछ करने की ज़रूरत है ताकि ऐसे निवेश लागू हो सकें. उसके लिए ऐसे क़दम उठाना ज़रूरी है जो किसी भी खोज-बीन और इससे जुड़ी बौद्धिक पूंजी से कंपनी को फ़ायदा पहुंचाएं. ऐसे सुधार प्राइवेट तौर पर जोखिम उठाने वाली कंपनियों के लिए बड़े फ़ायदे का सौदा साबित होंगे. ऐसी कंपनियों ने पिछले एक दशक में 63% खोज-बीन की है (MinEx कंसल्टिंग, अक्टूबर 2019).

भारत के लिए ज़रूरी है कि वो कमॉडिटी के पावर हाउस माने जाने वाले देशों जैसों ऑस्ट्रेलिया और कनाडा के साथ अपने खनन के रिश्तों को मज़बूत करने के लिए क़दम उठाए. इससे खनन सेक्टर में बेहद ज़रूरी इनोवेशन और तकनीक की समझ आएगी.

खनन एक दीर्घकालीन कारोबार है जिसमें कम वक़्त में काफ़ी ज़्यादा जोख़िम है जबकि  संभावित फ़ायदा कई सालों के बाद ही मिल सकता है. ऐसे में आज मदद करने वाली खनन नीति की कमी न सिर्फ़ इस सेक्टर के मौजूदा काम-काज पर असर डालती है बल्कि दीर्घकाल में संभावनाओं का पूरा फ़ायदा भी नहीं मिल जाएगा. और अगर वाकई भारत का लक्ष्य है कि वो तकनीक पर आधारित कम कार्बन वाली अर्थव्यवस्था में जाना चाहता है तो ये ज़रूरी है कि देश इस मामले में कामयाबी के लिए पहला क़दम उठाए- खनिज संसाधनों की उपलब्धता अर्थव्यवस्था के लिए सुनिश्चित की जाए. उसके लिए संसाधन के क्षेत्र में पर्यावरणीय नीति की ज़रूरत है जो निरंतरता और स्थायित्व की पेशकश करे और वैज्ञानिक खोजबीन को लिए प्रोत्साहन के ढांचे को पूरी तरह बदला जाए.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.