Author : Tanya Rana

Published on Feb 03, 2020 Updated 0 Hours ago

केंद्रीय बैंकों के साथ सहयोग कर के, जलवायु परिवर्तन से निपटने की ऐसी वाजिब नीतियां बनाएं, जो भारत की अर्थव्यवस्था की सेहत को बेहतर बनाए रखने में मददगार साबित हों.

जलवायु परिवर्तन का संकट और इस से निपटने में केंद्रीय बैंकों का हस्तक्षेप

दुनिया पर छाए जलवायु परिवर्तन के संकट पर चर्चा के लिए हाल ही में स्पेन की राजधानी मैड्रिड में संयुक्त राष्ट्र का जलवायु संकट पर सम्मेलन COP25 हुआ था. इस सम्मेलन में चर्चा का एक महत्वपूर्ण विषय ये था कि विश्व की अर्थव्यवस्था और पृथ्वी के क़ुदरती संसाधनों के बीच गहरा ताल्लुक़ है. और इस संबंध का सीधा असर जलवायु परिवर्तन पर भी पड़ रहा है. इस सम्मेलन से जो आम सहमति बन कर उभरी, उस के मुताबिक़ दीर्घकालिक आर्थिक विकास तब तक संभव नहीं है, जब तक हमारा पर्यावरण स्वस्थ न हो. अगर हम पर्यावरण के क्षेत्र में अतिक्रमण करते रहेंगे, तो इस से विकास की हमारी क्षमता पर भी बुरा असर पड़ता है. विश्व अर्थशास्त्र के संदर्भ में ये एक महत्वपूर्ण परिचर्चा है. आम तौर पर अर्थव्यवस्था का ज़ोर लागत घटाने और बर्बादी कम कर के उत्पादकता बढ़ाने पर रहता है. ऐसे में जलवायु परिवर्तन की बढ़ती चुनौती को देखते हुए, क्या तमाम देशों के केंद्रीय बैंक टिकाऊ आर्थिक विकास सुनिश्चित करने में कोई रोल अदा कर सकते हैं? अब तक तमाम देशों के केंद्रीय बैंकों का ज़ोर, दुनिया की आर्थिक और वित्तीय स्थिरता को बनाए रखने पर रहा है. पर, क्या अब केंद्रीय बैंक, दुनिया को जलवायु परिवर्तन के सामने खड़े संकट से बचाने में कोई समाधान सुझा सकते हैं? क्या जलवायु परिवर्तन से निपटने में केंद्रीय बैंकों का कोई हस्तक्षेप हो सकता है? अपनी मौजूदा संस्थागत शक्ति की मदद से क्या केंद्रीय बैंक जलवायु परिवर्तन के संकट से निपटने को भी अपने लक्ष्य में शामिल कर सकते हैं?

अगर केंद्रीय बैंक जलवायु परिवर्तन को ध्यान में रख कर आर्थिक और वित्तीय नीतियां तय करते हैं, तो इसे ग्रीन क्लाइमेट बैंकिंग कहा जाएगा. इस का मतलब ये होगा कि केंद्रीय बैंक, पर्यावरण के जोखिमों और जलवायु परिवर्तन के ख़तरों को ध्यान में रख कर नीतियां तय करेंगे. ताकि, जलवायु परिवर्तन के ख़तरों के लंबे दौर के स्थायित्व और वित्तीय क्षेत्र के विकास के साथ-साथ इस के व्यापक आर्थिक संरचना पर असर को भी ध्यान में रखे. बैंक ऑफ़ इंग्लैंड के गवर्नर मार्क कार्ने इस विचार के अगुवा हैं. वो ये चाहते हैं कि बैंकिंग संस्थान इस बात का आकलन करें कि जलवायु परिवर्तन का दुनिया की वित्तीय स्थिरत पर आने वाले वक़्त में क्या असर पड़ सकता है. दूसरे देशों के केंद्रीय बैंकों ने भी मार्क कार्ने की चिंताओं पर सहमति जताई है. अब कई केंद्रीय बैंक दुनिया के सामने आने वाले इस भयंकर संकट का आकलन करने में जुट गए हैं.

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष समेत कई पर्यवेक्षकों ने जलवायु परिवर्तन के असर को कम करने की ज़िम्मेदारी उठानी शुरू कर दी है. इन संगठनों ने पर्यावरण के लिए दोस्ताना वित्तीय गतिविधियों को बढ़ावा देने को अपने मक़सद का हिस्सा बना लिया है. फिलहाल, 54 केंद्रीय बैंकों और 12 पर्यवेक्षकों का एक संगठन-द नेटवर्क फॉर ग्रीनिंग द फ़िनांशियल सिस्टम (NGFS) इस दिशा में ख़ुद से काम कर रहा है. एजीएफएस का मक़सद, पर्यावरण प्रबंधन के सब से बेहतर उपायों को बढ़ावा देना और अर्थव्यवस्थाओं के भीतर जलवायु परिवर्तन के ख़तरों को कम करना है. इस चुनौती से संबंधित कई गतिविधियां, पूरी दुनिया के अलग-अलग केंद्रीय बैंक अपने स्तर पर भी चला रहे हैं. बैंक ऑफ़ इंग्लैंड ने सभी बैंकों, बीमा कंपनियों और क़र्ज़ देने वाली अन्य संस्थाओं से कहा है कि वो जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों को ध्यान में रख कर योजनाएं बनाएं. कई विकासशील देशों के केंद्रीय बैंक, जैसे बांग्लादेश बैंक, सेंट्रल बैंक ऑफ़ ब्राज़ील और पीपुल्स बैंक ऑफ़ चाइना पर्यावरण संरक्षण और टिकाऊ विकास के दूरगामी नतीजों वाले लक्ष्य सामने रख कर काम कर रहे हैं.

जलवायु परिवर्तन के संकट की वजह से वैश्विक स्तर पर वित्तीय स्थिरता के लिए कई तरह के जोख़िम खड़े हो सकते हैं. इन  की पहचान हो चुकी है. पहली बात तो ये कि जलवायु परिवर्तन से आने वाली तबाही का सीधा असर बीमा उद्योग पर पड़ेगा. बीमा उद्योग इस तबाही का बीमा करने में कारोबारी रूप से अक्षम होगा. बीमा उद्योग मुनाफ़े के मॉडल पर आधारित है. और, ये तभी काम करता है, जब कोई बीमा करने वाली कंपनी, बीमा से जुड़े जोखिमों का सटीक अंदाज़ा लगा ले. और ये जोखिम आम तौर पर क़ुदरत से ताल्लुक़ नहीं रखते. जलवायु परिवर्तन ने बीमा क्षेत्र की इस क्षमता पर बहुत ही बुरा असर डाला है. अब अगर बीमा कंपनियों के पास किसी तबाही के जोखिमों का बीमा करने की क्षमता नहीं होगी, तो इस का विश्व की क़र्ज़ व्यवस्था पर न केवल बहुत बुरा असर पड़ेगा. बल्कि ये उस के अस्तित्व का संघर्ष होगा.

दूसरी बात ये है कि दुनिया ऐसे बिंदु पर पहुंच गई है, जब केवल कार्बन उत्सर्जन घटाने पर विचार ही नहीं हो रहा है. अब तो हालात ऐसे हैं कि इस से जुड़े क़दमों को लागू करने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं बचा है. फिर भी, आज तमाम देश शून्य कार्बन उत्सर्जन वाली अर्थव्यवस्था के प्रति अपनी वचनबद्धता को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं. इस बात की आशंका है कि अर्थव्यवस्था में ये बदलाव, जो बेहद आसानी से हो जाना चाहिए था, वो अब कार्बन उत्सर्जन कम करने के दबाव वाले हालात में तब्दील हो गया है. इस की वजह से 2008 के विश्व आर्थिक संकट जैसी कोई नई चुनौती खड़ी हो सकती है. अगर ऐसा संकट खड़ा हुआ, तो इस की वजह से कार्बन उत्सर्जन को शून्य के स्तर तक ले जाने की राह में बाधाएं खड़ी हो जाएंगी.

और, जलवायु परिवर्तन से जो तीसरी तरह का संकट खड़ा होगा, उस का ताल्लुक़ उन जोखिमों से है, जिन के एवज़ में जलवायु संकट के ज़िम्मेदार लोगों को इस के पीड़ितों को हर्ज़ाना देना होगा. जलवायु संकट के ज़िम्मेदार लोग ये हर्जाना देने को अपने लिए चुनौती मानते हैं. क़ुदरती आपदाओं के ख़तरे और भयंकर जलवायु संकट की वजह से क़ुदरती संसाधनों की उपलब्धता पर भी बुरा असर होगा. इस से कृषि क्षेत्र का उत्पादन कम होगा. और, सामाजिक व्यवस्था के विकास की राह में चुनौतियां खड़ी होंगी. और इस की वजह से मांग कम होगी, रोज़गार घटेंगे और अर्थव्यस्था में क़ीमतों की स्थिरता क़ायम नहीं रह पाएगी. किसी भी इलाक़े में क़ुदरती आपदा की वजह से वहां की अर्थव्यवस्था पूरी तरह तबाह हो जाने का डर होता है.

ऐसे में अगला सवाल एकदम स्पष्ट हो जाता है कि आख़िर ‘ग्रीन बैंकिंग’ का मतलब क्या है? और, ये उपरोक्त ख़तरों को कम करने में किस तरह से मददगार साबित होगी? दुनिया के तमाम केंद्रीय बैंकों के बीच इस बात को लेकर आम सहमति है कि वित्तीय स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए केंद्रीय बैंकों को व्यापक नियामक व्यवस्था क़ायम करने यानी वित्तीय नीतियां तय करने की अपनी ज़िम्मेदारी से आगे बढ़ना होगा. केंद्रीय बैंकों को कुछ ऐसे क़दम उठाने होंगे, ताकि विश्व अर्थव्यवस्था के विकास की रफ़्तार बनी रहे. और साथ ही साथ वो जलवायु परिवर्तन वाली तबाही से होने वाले वित्तीय संकट को रोक सकें. एनजीएफ़एस ग्रीन बॉन्ड मार्केट का बाज़ार विकसित करने पर ध्यान केंद्रित कर रहा है. इस से जुड़े केंद्रीय बैंकों की कोशिश ये है कि वो ग्रीन फ़ाइनेंस की एक परिभाषा और उस का वर्गीकरण तय कर लें, ताकि उन्हें क़ानूनी जामा पहनाया जा सके. केंद्रीय बैंकों के पास अभी अधिकारों की जो पारंपरिक व्यवस्था है, उस के दायरे में रहते हुए, वो यही कर सकते हैं. और अलग-अलग अपने स्तर पर ही कर सकते हैं. इसीलिए, आज ज़रूरत इस बात की है कि तमाम देशों के केंद्रीय बैंक एकजुट हो कर, अन्य संस्थागत भागीदारों के साथ मिलकर एक व्यापक और आपसी सामंजस्य वाली योजना पर काम करें. हमारे सामने खड़े जलवायु संकट से निपटने के लिए ऐसी ही योजना की सख़्त आवश्यकता महसूस की जा रही है.

भारत इस वक़्त कृषि क्षेत्र के भयंकर संकट का सामना कर रहा है. इस का ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर बहुत बुरा असर पड़ा है. जैसा कि 2017-18 के आर्थिक सर्वे ने इशारा किया था कि जलवायु परिवर्तन की वजह से भारत के किसानों की आमदनी में औसतन 15 से 18 प्रतिशत की गिरावट आने की आशंका है. असिंचित क्षेत्रों के किसानों की आमदनी में ये गिरावट 20 से 25 फ़ीसद तक जा सकती है. भारत के कृषि क्षेत्र के संकट ने ही देश की मौजूदा आर्थिक सुस्ती में बड़ा योगदान दिया है. अब इस बात की अनदेखी नहीं की जा सकती है कि, भविष्य में जलवायु परिवर्तन से होने वाली तबाही का कृषि आधारित अर्थव्यवस्था की सेहत पर कितना बुरा असर पड़ेगा.

हालांकि, भारत में जलवायु परिवर्तन से पैदा हो रही तमाम चिंताओं में से ये महज़ एक है.

नेशनल ब्यूरो ऑफ़ इकोनॉमिक रिसर्च द्वारा प्रकाशित एक अध्ययन में दावा किया गया है कि, अगर भारत पेरिस समझौते के तहत तय लक्ष्यों को सही समय पर हासिल करने में नाकाम रहता है, तो इस सदी के अंत तक भारत की जीडीपी 10 फ़ीसद तक घट सकती है. मुंबई शहर के साल 2050 तक समंदर में समा जाने जैसी भविष्यवाणियों की अनदेखी करने का मतलब ये है कि हम संभावित तबाही के ख़तरों की अनदेखी कर रहे हैं. और इस की वजह से देश के सामने आने वाले समय में खड़े होने वाले वित्तीय संकट से भी आंखें चुरा रहे हैं. कार्बन उत्सर्जन की वजह से प्रति व्यक्ति होने वाले नुक़सान के मामले में भारत काफ़ी ऊंची पायदान पर है. एक अनुमान के मुताबिक़, भारत को कार्बन उत्सर्जन की वजह से प्रति टन 86 डॉलर की सामाजिक क्षति उठानी पड़ेगी. जब रिज़र्व बैंक ब्याज दरें तय करता है, तो इस क्षति को अपने आकलन में ध्यान में नहीं रखता है. भारत इस वक़्त दुनिया की सब से तेज़ी से विकसित हो रही अर्थव्यवस्थाओं में से एक है. लेकिन, जलवायु परिवर्तन से संबंधित क़ुदरती आपदाओं की वजह से भारत में आर्थिक विकास के अवसरों को क़रीब 7.95 करोड़ डॉलर का नुक़सान होता है.

अन्य देशों के केंद्रीय बैंकों से सीखते हुए, भारतीय रिज़र्व बैंक को भी ये समझना होगा कि आज, आरबीआई को जलवायु परिवर्तन की चुनौती के प्रबंधन को अपनी ज़िम्मेदारियों में शामिल करने की सख़्त ज़रूरत है. हालांकि, ऐसी कोई कोशिश अपने साथ नई चुनौतियां भी लाती है. सवाल ये खड़ा होता है कि अगर भारतीय रिज़र्व बैंक अपनी ज़िम्मेदारियों का दायरा बढ़ाएगा, तो इस का उस की कुल लागत पर कितना व्यापक असर पड़ेगा? इस परिवर्तन की राह में कौन सी चुनौतियां खड़ी होंगी? भारतीय रिज़र्व बैंक जलवायु परिवर्तन से वित्तीय और क़ीमतों की स्थिरता पर होने वाले प्रभाव से कितने असरदार तरीक़े से निपट सकेगा? रिज़र्व बैंक के लिए इन सवालों के जवाब तलाशने बहुत महत्वपूर्ण हैं. तभी वो जलवायु परिवर्तन की चुनौती से निपटने में कामयाब हो सकेगा.

आम तौर पर इस संदर्भ में केंद्रीय बैंकों ने जो रोल निभाया है, वो बचाव का रास्ता ही रहा है. भले ही वो व्यापक आर्थिक नीतियां बना कर हो. या फिर कार्बन उत्सर्जन मुक्त आर्थिक विकास को बढ़ावा देने वाले क़दम उठाना हो. रिज़र्व बैंक भी इसी दिशा में आगे बढ़ने से शुरुआत कर सकता है.

आज ये बेहद महत्वपूर्ण हो गया है कि भारतीय रिज़र्व बैंक, देश की अर्थव्यवस्था के सामने खड़े दूरगामी संकट को पहचाने. साथ ही साथ वो अपने समकक्ष अन्य केंद्रीय बैंकों के साथ सहयोग कर के, जलवायु परिवर्तन से निपटने की ऐसी वाजिब नीतियां बनाएं, जो भारत की अर्थव्यवस्था की सेहत को बेहतर बनाए रखने में मददगार साबित हों.

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