Author : Ramanath Jha

Published on Jun 07, 2018 Updated 0 Hours ago

क्या भारत को भी चीन की तरहं अपने यहां प्रमुख शहरों में अधिकतम जनसंख्या की सीमा तय कर देनी चाहिए?

विकेंद्रीकृत शहरीकरण से ही बेहतरीन शहरी विकास संभव

चीन से प्राप्‍त रिपोर्टों से यह संकेत मिला है कि चीनी सरकार ने अपने सबसे बड़े शहरों यथा बीजिंग और शंघाई पर ‘शहरी बेरिएट्रिक्स’ को आजमाने का मन बना लिया है। चीनी सरकार ने संभवत: इस अवधारणा को स्वीकार कर लिया है कि उसके सबसे बड़े शहरों की अनियंत्रित या बेरोकटोक जनसांख्यिकीय वृद्धि एक अधिकतम सीमा तक ही स्‍वीकार्य है और उससे ज्‍यादा होना सरासर अवांछनीय है। उसकी राय में यह एक बीमारी है, जिसे चीन ने ‘चेंग्शी बिंग’ नाम दिया है, जिसका शाब्दिक अर्थ ‘बड़े शहर वाली बीमारी’ है। चीन का यह मानना है कि इस नामुनासिब ‘शहरी मोटापे’ का इलाज ‘शहरी बेरिएट्रिक सर्जरी’ के जरिए करने की जरूरत है।

ऐसा प्रतीत होता है कि मध्य बीजिंग में भयावह आग लगने की उस त्रासदीपूर्ण घटना के बाद ही चीनी सरकार इस निष्कर्ष पर पहुंची है जिसमें कई लोगों की जलकर मौत हो गई थी। तदनुसार, इन दोनों शहरों के प्रशासन को निर्देश देकर बीजिंग से अपनी आबादी को वर्ष 2020 तक अधिकतम 23 मिलियन तक और शंघाई से अपनी जनसंख्या को वर्ष 2035 तक अधिकतम 25 मिलियन तक सीमित रखने’ को कहा गया है। इन निर्देशों के परिणामस्वरूप दोनों ही शहरों ने आवासीय इकाइयों के साथ-साथ वाणिज्यिक ढांचों को भी ढहाने का व्‍यापक ‘तोड़-फोड़’ अभियान शुरू कर दिया है। इसका मुख्‍य उद्देश्‍य इन दोनों शहरों से कुछ विशेष तबकों के लोगों को बेदखल करना और बीजिंग एवं शंघाई की शहरी सीमा से परे अन्य स्थानों पर उनका पुनर्वितरण या पुनर्वास करना अथवा बसाना है। वैसे तो हम भारतीय इस तरह की कार्रवाई के मानवीय पहलू पर संभवत: बहस करना शुरू कर देंगे, लेकिन चीन की सरकार इस बात को लेकर आश्वस्त प्रतीत होती है कि इन शहरों में बढि़या ढंग से रहन-सहन सुनिश्चित करने के साथ-साथ इन शहरों का अस्तित्व बचाए रखने के लिए भी कुछ विशेष तबकों के लोगों के खिलाफ कुछ साहसिक कदम उठाना आवश्‍यक है।

भारत के शहरों में जनसंख्‍या विस्फोट ने शहरी प्रशासन के लिए महत्वपूर्ण राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और नैतिक दुविधाओं का रूप ले लिया है। भारत की शहरी आबादी कुल संख्‍या की दृष्टि से एकमात्र चीन से ही पीछे है और यह अब भी बढ़ रही है। अत: हमें भी कुछ हद तक इसी तरह की शहरी चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है जिनसे पार पाना आवश्यक होगा। हालांकि, भारत की लोकतांत्रिक राजनीति कुछ ऐसी बाधाएं खड़ी कर सकती है जिससे उन कदमों को लागू करना संभव नहीं होगा जिन पर अमल करने का विकल्प गैर-लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं या प्रणालियां चुन सकती हैं। इसका स्पष्ट अर्थ यही है कि भारत में उन विकल्‍पों को अपनाने की आवश्यकता पड़ सकती है जो अत्‍यंत विशिष्ट और समावेशी हैं।

जैसा कि चीन के मामले में देखा जा रहा है, ठीक उसी तरह से बहुत बड़े शहरों में किसी बाधा के बगैर ही जनसंख्‍या के कई गुना निरंतर बढ़ते चले जाने की प्रवृत्ति भारत के सबसे बड़े शहरों में भी देखी जा रही है। नीचे दी गई तालिका पिछले ग्यारह दशकों के दौरान भारत के आठ सबसे बड़े शहरों की आबादी में दर्ज की गई भारी वृद्धि को दर्शाती है। वैसे तो ये शहर तुलनात्मक रूप से अलग-अलग वृद्धि दरों को दर्शाते हैं जिसके परिणामस्वरूप उनकी परस्‍पर जनसांख्यिकीय रैंकिंग बढ़ या घट गई है, लेकिन दशक-दर-दशक इनमें से किसी भी शहर की आबादी में वृद्धि का सिलसिला बंद नहीं हुआ है। पिछली शताब्दी की शुरुआत में दिल्ली सातवीं सर्वाधिक आबादी वाला भारतीय शहर था जिसकी जनसंख्‍या दो लाख से कुछ ही अधिक थी। अब यह सबसे बड़ा भारतीय शहर बनने के पथ पर अग्रसर है। दिल्ली की आबादी वर्ष 1901 की तुलना में अब 76 गुना बढ़ चुकी है। बेंगलुरू, जिसकी गिनती वर्ष 1901 में आबादी की दृष्टि से प्रथम 12 शहरों में नहीं होती थी, की जनसंख्‍या वर्ष 1901 की तुलना में अब 52 गुना बढ़ गई है। यह अब भारत का पांचवां सबसे बड़ा शहर है और वह कुल आबादी के मामले में वर्ष 2021 में चेन्नई को भी पीछे छोड़ देगा।

शहर की जनसंख्या वृद्धि (1901-2011)

क्र.सं. शहर 1951 (1901 की तुलना में) 2011 (1901 की तुलना में)
1. मुंबई 3.8 गुना 22 गुना
2. दिल्‍ली 6.7 गुना 76 गुना
3. कोलकाता 3 गुना 9 गुना
4. चेन्‍नई 2.6 गुना 14.5 गुना
5. बेंगलुरू 4.8 गुना 52 गुना
6. हैदराबाद 2.5 गुना 17 गुना
7. अहमदाबाद 4.5 गुना 31 गुना
8. पुणे 3.7 गुना 31 गुना

आबादी में इतनी ज्‍यादा वृद्धि के परिणामस्वरूप एक महत्वपूर्ण बदलाव यह हुआ है कि शहर में प्रति वर्ग किमी जनसंख्या घनत्व भी काफी बढ़ गया है। किसी भी शहर का जनसंख्‍या घनत्व उस शहर में प्रति वर्ग किमी क्षेत्र में रहने वाले लोगों की संख्या को दर्शाता है। उदाहरण के लिए, मुंबई में वर्ष 1901 में प्रति वर्ग किमी क्षेत्र में लगभग 2,000 लोग रहते थे। यह संख्‍या वर्ष 1961 में बढ़कर लगभग 9,000, वर्ष 1991 में बढ़कर 20,000 से भी ज्‍यादा और आज बढ़कर लगभग 28,000 हो गई है, जिस वजह से मुंबई दुनिया के सर्वाधिक जनसंख्‍या घनत्‍व वाले शहरों यानी सबसे घने शहरों में से एक हो गया है। अब ज्‍यादा से ज्‍यादा लोगों द्वारा मुंबई के समान शहरी क्षेत्र का उपयोग करने के कारण यहां की जन सुविधाओं के टिकाऊ रहने के मामले में अब इसके मुख्‍यत: नकारात्‍मक नतीजे सामने आने लगे हैं। यह निश्चित रूप से अच्‍छा प्रतीत होगा यदि हम यह मानकर चलें कि मुंबई में वर्ष 1901 में अपनी सभी गतिविधियों की योजना बनाने के लिए प्रति व्यक्ति 500 वर्ग मीटर का शहरी स्‍थल उपलब्‍ध था। यह आकार वर्ष 1961 में घटकर 111 वर्ग मीटर, वर्ष 1991 में घटकर 50 वर्ग मीटर और वर्ष 2011 में घटकर महज 36 वर्ग मीटर रह गया।

इसके आधार पर हम किसी भी शहर के संदर्भ में समग्र टिकाऊपन और रहन-सहन की स्थिति का विश्लेषण कर सकते हैं। यह व्यापक रूप से माना जाता है कि किसी भी शहर के जनसंख्‍या घनत्व का सीधा संबंध उसकी आर्थिक ताकत और शहर की उत्पादकता से होता है। किसी भी शहर को अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए वहां रहने वाले लोगों की कुल संख्‍या काफी मायने रखती है। यही कारण है कि कम जनसंख्‍या घनत्व वाले शहरों की तुलना में ‘ज्‍यादा घने’ शहर आर्थिक दृष्टि से अधिक टिकाऊ साबित होते हैं। किसी भी शहर में जनसंख्‍या घनत्व ज्‍यादा रहने पर वहां सार्वजनिक परिवहन लाभप्रद साबित होता है और ऊर्जा उपयोग, आवास एवं विभिन्‍न सेवाएं अधिक दक्ष रहती हैं तथा गतिविधियों की बहुतायत होने की बदौलत शहर काफी जीवंत रहता है। हालांकि, ये शहर आम तौर पर अत्‍यधिक प्रदूषण, ज्‍यादा महंगी अचल संपत्ति और अधिक भीड़-भाड़ से त्रस्‍त रहते हैं। वहीं, दूसरी ओर कम जनसंख्‍या घनत्व वाले शहर आर्थिक दृष्टि से कमजोर रहते हैं, परिवहन मुख्‍यत: ऑटोमोबाइल आश्रित होता है और शहर कुल मिलाकर कम जीवंत रहता है। हालांकि, इन शहरों में आम तौर पर प्रदूषण अत्‍यंत कम रहता है, अधिक खुली जगहें रहती हैं और स्वास्थ्य सेवाएं बेहतरीन होती हैं।

किसी भी शहर के जनसंख्या घनत्व पर गौर करने पर आपस में संबंधित तीन पहलू नजर आते हैं जिन पर एक साथ विचार करने की आवश्यकता है। पहला, आर्थिक स्‍थायित्‍व है। इस संबंध में यह पहले ही कहा जा चुका है कि जनसंख्या घनत्व अधिक रहने पर आर्थिक गतिविधियां भी अधिक रहती हैं। दूसरा, आर्थिक स्‍थायित्‍व से जुड़े पर्यावरणीय स्‍थायित्‍व का सवाल है। यहां पर्यावरणीय स्‍थायित्‍व को शहर के निवासियों को मुहैया कराए जा रहे गुणवत्तापूर्ण पानी, वायु, परिवहन, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं, बाजारों और मनोरंजन इत्‍यादि सहित समग्र जीवन स्‍तर के रूप में समझा जा सकता है। तीसरा, सामाजिक स्‍थायित्‍व है। इसे समता या समानता के साथ रोजगार और जीवन स्‍तर मुहैया कराए जाने के रूप में समझा जा सकता है, ताकि समृद्ध और गरीब दोनों ही तरह के शहरी निवासी अपने शहर में कामकाज एवं रहने के लिए किफायती जगह पा सकें और इसके साथ ही आराम से रह सकें।

इन तीनों के बीच उचित संतुलन बैठाने के लिए जनसंख्या घनत्व पर करीबी नजर रखने की आवश्यकता है। आखिरकार वह कौन-सा बिंदु या स्‍तर है जिस पर अत्‍यधिक जनसंख्‍या घनत्व ‘प्रतिकूल’ साबित होने लगता है और इन तीनों ‘स्थायित्व’ के बीच आवश्यक समझे जाने वाले संतुलन को ‘बिगाड़’ देता है। यह हमें ‘स्वीकार्य’ जनसंख्‍या घनत्व को मापने की दिशा में प्रेरित करता है। यहां पर आशय जनसंख्या घनत्व के उस स्‍वीकार्य स्तर से है जिससे ज्‍यादा होने पर उपरोक्त उद्धृत तीनों महत्वपूर्ण ‘स्थायित्व’ में से किसी एक या उससे अधिक के मामलों में संबंधित शहर कमजोर पड़ जाता है।

यह विश्वास करने का अच्छा आधार है कि जनसंख्या घनत्व को एक अंतहीन पद्धति या मानक नहीं होना चाहिए। वैसे तो पश्चिमी विचारक इस बात को लेकर आश्वस्त हैं कि शहरों को ‘अधिक घना’ करने की आवश्यकता है और वे जनसंख्‍या घनत्व में वृद्धि की वकालत करते रहे हैं, लेकिन भारत में हमें इस मुद्दे पर कुछ अलग नजरिए से विचार करने की जरूरत है। प्रति वर्ग किमी क्षेत्र में 1,000 लोगों का (पश्चिमी देशों के कई शहरों में कुछ ऐसा ही आंकड़ा दर्शाया जाता है) जनसंख्‍या घनत्व हो जाना संभव नजर नहीं आता है क्‍योंकि वहां जनसंख्या घनत्व बेहद कम है। वहीं, दूसरी ओर प्रति वर्ग किमी क्षेत्र में 30,000 लोगों का जनसंख्‍या घनत्व हो जाने पर भी संशय है क्‍योंकि बड़ी संख्‍या में लोग एक ही जगह पर केंद्रित हो गए हैं। इस विषय पर और अधिक गहन विश्लेषण करने की जरूरत है। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में चीनी तौर-तरीकों को अपनाना अत्यधिक विवादास्पद और समान रूप से अव्यावहारिक प्रतीत हो सकता है। हालांकि, इस आइडिया में काफी दम है और इसके साथ ही एक ऐसा सवाल है जिसका जवाब शहरी योजनाकारों और शहरी मामलों से निपट रहे लोगों को देना होगा। भारत में इस सवाल का जवाब ‘विकास उपरांत काट-छांट’ के बजाय ‘पूर्व-निर्धारित नियोजन रणनीतियों’ में निहित होगा।

अभी तक इस तरह की पूर्व-निर्धारित नियोजन रणनीतियां विकसित नहीं हुई हैं, क्योंकि इस तरह का सवाल पूछा ही नहीं गया है। इस समस्‍या का समाधान विकसित देशों की ओर से आने की संभावना कतई नहीं है क्योंकि वे पूरी तरह से विरोधाभासी स्थिति का सामना कर रहे हैं। अत: इस सवाल का जवाब आंतरिक ही होना चाहिए और यह शहरीकरण के बारे में भारत के स्वयं के अनुभवों पर आधारित होना चाहिए।

सबसे महत्वपूर्ण रणनीतियों में से एक रणनीति यह हो सकती है कि जनसांख्यिकीय अध्ययन के आधार पर 20-वर्ष की अवधि में आबादी का अनुमान लगाने और फिर उस वर्ष के आखिर में अनुमानित आबादी के लिए योजना बनाने की वर्तमान पद्धति को त्‍याग दिया जाए। ऐसी स्थिति में जहां शहरी आबादी प्रथम 20 वर्षों की योजनावधि से परे भी कई दशकों तक निरंतर बढ़ने जा रही है, इस तरह की योजना हमें लगभग समान मूल भूमि पर ही बड़ी आबादी को समायोजित करने के लिए विवश करती है। यह लोगों के जीवन स्‍तर में निरंतर गिरावट सुनिश्चित करने का नुस्खा है। इसके बजाय, हमारे भारतीय परिवेश के अनुरूप एक इष्टतम आबादी का अनुमान लगाया जा सकता है और तदनुसार योजना में क्षेत्रों का सीमांकन किया जा सकता है। एक बार बाकायदा विकसित हो जाने के बाद कुछ सार्वजनिक सुविधाओं और बुनियादी ढांचे को बड़ी आबादी के काम आने की दृष्टि से बेहतर करना या कामचलाऊ व्यवस्था करना मुश्किल होता है। सड़कें और सार्वजनिक खुली जगहें इसके प्रमुख उदाहरण हैं। इस तरह के बुनियादी ढांचे और सुविधाओं हेतु इष्टतम भूमि को एक इष्टतम आबादी के लिए नए सिरे से प्रदान किया जाना चाहिए।

यह स्पष्ट है कि भारत के इस शहरी परिदृश्‍य में विकेन्द्रीकृत शहरीकरण ही बेहतरीन शहरी विकास की कुंजी है। इस तरह की रणनीति कई व्यवहार्य या समर्थ शहरों को स्‍वयं को और ज्‍यादा विकसित करने तथा इसके साथ ही आज के गिने-चुने प्रमुख शहरी केंद्रों पर केंद्रित शहरीकरण दबावों को साझा करने में मदद कर सकती है। हालांकि, इस तरह के विकास को प्रोत्साहित करने के लिए समेकित औद्योगिक, आर्थिक और बुनियादी ढांचागत संसाधनों की आवश्यकता होगी। भारत सरकार की एकीकृत लघु एवं मध्यम शहर विकास (आईडीएसएमटी) योजना में इस आवश्यकता को स्वीकार किया गया था। हालांकि, इतनी बड़ी जिम्‍मेदारी को पूरा करने के लिहाज से यह योजना बेहद कमजोर और आधी-अधूरी थी। अत: इसे ध्‍यान में रखते हुए समान उद्देश्यों वाले एक नए कार्यक्रम को अत्‍यंत ज्‍यादा वित्तीय परिव्‍यय के साथ लांच करना होगा।

इसके अलावा, इस रणनीति के तहत विभिन्‍न राज्यों और शहरों में अपनाए गए कई मानकों को ही समाहित करने के बजाय विभिन्‍न शहरों में समुचित सुविधाएं सुनिश्चित करने के लिए यथार्थवादी राष्ट्रीय मानकों की सिफारिश करने की आवश्यकता होगी, ताकि उन पर ठीक से अमल किया जा सके। इसके तहत सरकार के शहरी एवं क्षेत्रीय विकास योजना निरूपण और कार्यान्वयन (यूआरडीपीएफआई) दिशा-निर्देशों पर गहराई से गौर करना होगा जिनमें भारत के सामाजिक-आर्थिक परिवेश के साथ-साथ देश के मौजूदा शहरीकरण परिवेश में भी तरह-तरह के उपयोगों के लिए विभिन्‍न स्‍थलों के संभावित वितरण या उपलब्‍धता को ध्यान में रखा जाता है। इसके बाद ही उस इष्टतम जनसंख्‍या घनत्व को तय करना संभव हो पाएगा जिसे संबंधित शहर निरंतर समुचित सेवाएं उपलब्‍ध कराने में पूरी तरह से समर्थ होंगे।


डॉ. रामनाथ झा ORF मुंबई में प्रतिष्ठित फेलो हैं। एक पूर्व आईएएस अधिकारी डॉ. रामनाथ झा वर्तमान में मुंबई विरासत संरक्षण समिति के अध्‍यक्ष हैं और इसके साथ ही विशेष ड्यूटी पर कार्यरत अधिकारी हैं जो मुंबई विकास योजना 2034 में संशोधन पर करीबी नजर रख रहे हैं।

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