आधुनिक अंतर्राष्ट्रीय संबंध, पहले की सदियों की तरह, अभी भी मानवीय पहलू से बहुत ज़्यादा प्रभावित होते हैं. इस बात को कहने के लिए अगर एक ऐतिहासिक अभिव्यक्ति का इस्तेमाल करें तो आधुनिक अंतर्राष्ट्रीय संबंध इतिहास में एक व्यक्ति के काम-काज से प्रभावित होते हैं. रूस और भारत- दोनों देशों के प्रमुख अब ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने दुनिया भर में प्रतिष्ठा हासिल की है और उन्हें एक सक्षम राजनेता के रूप में माना जाता है. निस्संदेह आपसी समीकरण द्विपक्षीय संबंधों को बेहतर बनाने में योगदान देते हैं. इसके अलावा, अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के सिद्धांत नियोरियलिज़्म की संरचनात्मक परिकल्पना हमें बताती है कि संरचनात्मक तत्व, जैसे कि पृथ्वी में शक्तियों के तैयार किए गए गठबंधन के बदले वास्तविकता, अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में सबसे महत्वपूर्ण हैं.
भारत, जो कि वैश्विक राजनीतिक नक्शे पर एक स्वतंत्र देश के रूप में 1947 से मौजूद है, ने पिछले कुछ वर्षों के दौरान उल्लेखनीय सफलता हासिल की है. भारत अब एक विश्व स्तर की शक्ति और दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है.
अंतर्राष्ट्रीय संबधों के सिद्धांत के प्रिज़्म के ज़रिए संबंध
भारत, जो कि वैश्विक राजनीतिक नक्शे पर एक स्वतंत्र देश के रूप में 1947 से मौजूद है, ने पिछले कुछ वर्षों के दौरान उल्लेखनीय सफलता हासिल की है. भारत अब एक विश्व स्तर की शक्ति और दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है. भारत की प्रतिष्ठा और भूमिका लगातार बढ़ रही है और इसका असर दक्षिण और मध्य एशिया के साथ-साथ मध्य-पूर्व और उसके आसपास भी देखा जा सकता है. इसके अलावा कुछ वैज्ञानिक भारत को दुनिया की गिनी-चुनी महाशक्तियों में से एक मानते हैं. दूसरी तरफ़ रूस एक अच्छी तरह से स्थापित सैन्य ताक़त है जिसके पास सामरिक संस्कृति के साथ-साथ सैन्य और कूटनीतिक परंपराएं भी हैं. लोग सोवियत युग के बाद अभी भी खुली आंखों से मध्य-पूर्व और उसके आसपास, और एशिया में रूस के प्रभाव और उसकी स्थिति को देख सकते हैं. आर्थिक और जनसांख्यिकीय चुनौतियों के बावजूद अंतर्राष्ट्रीय मामलों में रूस की एक महत्वपूर्ण भूमिका बनी हुई है.
हालांकि रूस और भारत की प्रतिष्ठा के बावजूद दोनों देश अभी भी पूरी तरह से महाशक्ति नहीं हैं. अभी सिर्फ़ अमेरिका और चीन को महाशक्ति के रूप में माना जाता है. लेकिन तब भी रूस और भारत महाशक्ति के दर्जे के क़रीब हैं जिसका अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के लिए ज़बरदस्त निहितार्थ है. ये मानने का कारण है कि क्षेत्रीय महाशक्तियों की स्थिति में इस समय सुधार हो रहा है. अमेरिका और चीन के बीच आने वाले समय में कई मोर्चों पर होने वाली टक्कर को देखते हुए अंतत: कुछ देशों को इस संघर्ष का पूरा झटका बर्दाश्त करना पड़ेगा. इससे न तो भारत, न ही रूस बचता हुआ दिख रहा है. आने वाले दशकों में चीन और अमेरिका के बीच संघर्ष अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में रहेगा और इसके परिणामस्वरूप बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ेगी. कुछ अन्य देशों को राहत मिल सकती है जिसका इस्तेमाल विकास और आधुनिकीकरण में निवेश के लिए किया जा सकता है.
रूस और भारत की प्रतिष्ठा के बावजूद दोनों देश अभी भी पूरी तरह से महाशक्ति नहीं हैं. अभी सिर्फ़ अमेरिका और चीन को महाशक्ति के रूप में माना जाता है. लेकिन तब भी रूस और भारत महाशक्ति के दर्जे के क़रीब हैं जिसका अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के लिए ज़बरदस्त निहितार्थ है.
विदेश नीति के मामले में रूस और भारत की ऐतिहासिक स्वतंत्रता, जो कि तेज़ी से बढ़ रहे मौजूदा समय और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों की प्रणाली में असाधारण है, संबंधों को विशेष रूप से महत्वपूर्ण बनाती है. एक देश की विदेश नीति की स्वतंत्रता का नुक़सान आत्मविश्वास को कम करने का सबसे कमज़ोर संभावित कारण हो सकता है. लेकिन दोनों देशों के वर्तमान विकास की राह के आधार पर निकट भविष्य में ऐसा होने की संभावना नहीं है. हम अंतर्राष्ट्रीय मामलों में तुलनात्मक रूप से मज़बूत भागीदारों का सामना कर रहे हैं और उन्हें आज की महाशक्तियों पर निर्भर होने की अनुमति देना असंभव है. इसके अलावा, अमेरिका-चीन के बीच संघर्ष के परिदृश्यों और पहलुओं से अलग रूस-भारत संबंध एक ताक़त बन सकता है जो यूरेशिया और संभवत: पूरे अंतर्राष्ट्रीय संबंधों की प्रणाली को स्थायित्व दे सकता है.
भारत-रूस संबंध: पृष्ठभूमि
रूस और भारत का संपर्क 17वीं शताब्दी से है और इन वर्षों के दौरान हमने देखा है कि ये संबंध किस तरह आगे बढ़ा है. सोवियत संघ और भारत के बीच 1947 में कूटनीतिक संबंध स्थापित हुए. सोवियत संघ के पतन और विघटन के बाद रूस और भारत के बीच 250 से ज़्यादा द्विपक्षीय संधियों पर हस्ताक्षर हुए हैं जिनमें से मैत्री और सहयोग संधि, जिस पर 28 जनवरी 1993 को हस्ताक्षर हुए, और भारत-रूस सामरिक साझेदारी, जिस पर अक्टूबर 2000 में राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की भारत यात्रा के दौरान हस्ताक्षर हुए, संबंधों के आधार के रूप में काम करती हैं. द्विपक्षीय बातचीत को सामरिक साझेदारी के रूप में परिभाषित किया जा सकता है और बाद में विश्लेषकों ने इस स्थिति के लिए विशेषाधिकार प्राप्त शब्द का इस्तेमाल करना शुरू किया.
दोनों पक्ष व्लादिवोस्तोक-चेन्नई समुद्री कॉरिडोर को बढ़ावा देने पर काम कर रहे हैं जिसके लिए उत्तर-दक्षिण इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं और पहल को शुरू किया गया है. 2025 तक व्यापार और निवेश सहयोग को 30 अरब अमेरिकी डॉलर तक बढ़ाने का लक्ष्य है.
इसके परिणामस्वरूप दोनों देशों के बीच संबंध मज़बूत हैं और पारस्परिक तौर पर स्वाभाविक हित और सहयोग पर आधारित हैं. ये साझेदारी मज़बूत न्यायसंगत आधार पर निर्मित है. इन परिस्थितियों में कोई भी देश वंचित महसूस नहीं करता है और सहयोग को बोझ की तरह नहीं देखा जाता है. सामान्य तौर पर सहयोग एक स्वाभाविक की जगह निर्मित पहलू है. अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के सिद्धांत, संरचनात्मक यथार्थवाद के समर्थक इन धारणाओं और कारणों को ज़्यादा प्राथमिकता देते हैं. आधुनिक विश्व की रूप-रेखा की वजह से साझेदारी आत्मनिर्भर है. अगर सामान्य परिस्थितियों में हमें दो अलग-अलग देशों, जहां अलग-अलग तरह के लोग, संस्कृति, राजनीतिक प्रणाली और इतिहास है, पर विचार करना हो तो वो अंतर्राष्ट्रीय संबंधों की रूप-रेखा के दृष्टिकोण से सहयोग चाहेंगे. ये संरचनात्मक परिकल्पना का भाव है. बड़ी संख्या में अंतर्राष्ट्रीय किरदारों को अक्सर फ़र्ज़ी सामाजिक निर्माण को स्थापित करने की ज़रूरत है जो कि विस्तारित बातचीत, सामरिक सहयोग और घनिष्ठ साझेदारी के लिए बुनियाद के रूप में काम करते हैं. दूसरी तरफ़ रूस और भारत को इसकी ज़रूरत नहीं है क्योंकि इनके बीच के संबंध को नेताओं के बीच घनिष्ठता और समीकरण से मज़बूती मिलती है.
अलग-अलग क्षेत्रों में सहयोग
राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने अतीत में बहुत कम अंतर्राष्ट्रीय दौरे किए हैं. इसके अलावा, दोनों पक्षों ने 2+2 रूप-रेखा के गठन की घोषणा की जिसके तहत दोनों देशों के रक्षा और विदेश मंत्रियों के बीच नज़दीकी और निरंतर सहयोग आवश्यक है. विश्वव्यापी महामारी के ख़िलाफ़ साझा लड़ाई से लेकर आर्थिक सहयोग और सैन्य-तकनीकी सहयोग तक रूस-भारत संबंध उच्च स्तर पर हैं और इसमें अभी भी प्रगति की संभावनाएं हैं. इसके परिणामस्वरूप दोनों पक्षों ने भारतीय ज़मीन पर स्पुतनिक V वैक्सीन के उत्पादन का निर्णय लिया जिसको दूसरी बातों के अलावा आधिकारिक मान्यता हासिल है. इसके अतिरिक्त भारत उन गिने-चुने देशों में से एक है जिसके पास एक ही समय में दो-दो वैक्सीन हैं: कोविशील्ड और कोवैक्सीन.
बीते वर्षों के दौरान आर्थिक और व्यापार सहयोग में विस्तार हुआ है लेकिन ये अभी भी वास्तविक संभावना से काफ़ी कम है. दोनों देशों के बीच व्यापारिक टर्नओवर प्रति वर्ष 10 अरब अमेरिकी डॉलर के आस-पास रहता है. सुदूर पूर्व की रूस की अर्थव्यवस्था में एक बड़ा निवेशक बनने की भारत में क्षमता और इच्छाशक्ति है. 2019 में रूस के शहर व्लादिवोस्तोक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दौरे ने एक नई भारतीय रणनीति “एक्ट इन द फार ईस्ट’ की शुरुआत के रूप में काम किया. इस रणनीति के तहत अंतरक्षेत्रीय व्यापार सहयोग को प्राथमिकता दी गई है. हाल के दिनों में गुजरात की प्रांतीय सरकार ने रूस के सुदूर पूर्व क्षेत्र के गवर्नरों को 2022 के वाइब्रेंट गुजरात इन्वेस्टर समिट में शामिल होने का न्योता भेजा. हम इस बात पर ज़ोर देते हैं कि भारत का ये पश्चिमी प्रांत प्रधानमंत्री मोदी की जन्मभूमि है और भारतीय अर्थव्यवस्था में ये एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. दोनों पक्ष व्लादिवोस्तोक-चेन्नई समुद्री कॉरिडोर को बढ़ावा देने पर काम कर रहे हैं जिसके लिए उत्तर-दक्षिण इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं और पहल को शुरू किया गया है. 2025 तक व्यापार और निवेश सहयोग को 30 अरब अमेरिकी डॉलर तक बढ़ाने का लक्ष्य है. क्षेत्रीय महाशक्तियों ने बड़े ऊर्जा समझौतों पर भी हस्ताक्षर किए हैं. भारत को रूस तेल की आपूर्ति करेगा जिससे द्विपक्षीय संबंध और गहरे होंगे और दोनों पक्षों को मज़बूती मिलेगी.
रूसी मीडिया के साथ एक इंटरव्यू में भारत में रूस के राजदूत निकोले कुदाशेव ने भी बयान दिया कि 2020 में सामान्य रूप से आर्थिक गिरावट के बावजूद भारत के साथ सुदूर पूर्वी संघीय ज़िले के विदेशी व्यापार टर्नओवर में 5 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई और ये 764 मिलियन अमेरिकी डॉलर पर पहुंच गया. साथ ही रूस के आर्कटिक क्षेत्र का भारतीय साझेदारों के साथ व्यापार टर्नओवर 12.6 प्रतिशत बढ़कर 800 मिलियन अमेरिकी डॉलर पर पहुंच गया. उदाहरण के लिए रोसनेफ्ट, गैज़प्रोमनेफ्ट और सिबुर की भारतीय साझेदारों के साथ कई परियोजनाएं चल रही हैं.
अफ़ग़ानिस्तान के घटनाक्रम के साथ-साथ बदले हुए अफ़ग़ानिस्तान की राजनीतिक राह को लेकर भारत संवेदनशील बन गया है.
द्विपक्षीय चर्चा के दौरान सैन्य-तकनीकी सहयोग एक महत्वपूर्ण विषय होने की संभावना है. भारत में रूसी राजदूत ने कहा “ये दावा करना अतिशयोक्ति नहीं है कि भारतीय थलसेना के 60-70 प्रतिशत उपकरण सोवियत और रूसी मूल के हैं.” स्वतंत्र विश्लेषकों के अनुसार भारतीय नौसेना के क़रीब 80 प्रतिशत हथियारों की आपूर्ति रूस से होती है जबकि वायुसेना में 70 प्रतिशत तक. जानकारों के अनुसार रूस ने हाल के वर्षों में भारत को 65 अरब अमेरिकी डॉलर के सैन्य हथियार भारत को भेजे हैं. दी डिप्लोमैट के मुताबिक दोनों देश एके203 असॉल्ट राइफल के क़ानूनी रूप से उत्पादन पर समन्वय कर रहे हैं. रूस के सरकारी मीडिया के अनुसार रूस और भारत कई द्विपक्षीय परियोजनाओं पर काम कर रहे हैं जिनमें ब्रह्मोस, पांचवीं पीढ़ी के लड़ाकू विमान का विकास, लाइसेंस के आधार पर एयरक्राफ्ट और टैंक उत्पादन शामिल हैं. 6 दिसंबर को भारतीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने ट्विटर के ज़रिए बयान दिया कि भारत ने कई छोटे हथियारों और सैन्य सहयोग समझौतों, अनुबंधों और प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर किए हैं. इसके अतिरिक्त साल ख़त्म होने से पहले भारत को एस-400 मिसाइल सिस्टम की पहली खेप हासिल होगी.
अफ़ग़ानिस्तान और आतंकवाद का विरोध
रक्षा, आतंकवाद का विरोध और अफ़ग़ानिस्तान फिलहाल रूस और भारत के बीच द्विपक्षीय संबंधों के सबसे चर्चित मुद्दे हैं. दोनों देशों के राष्ट्रपतियों ने 2021 की ग्रीष्म ऋतु में भारत और रूस के बीच एक स्थायी परामर्श की व्यवस्था स्थापित करने का निर्णय लिया जिसका नेतृत्व रूस के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार निकोलाई पेत्रुशेव और भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल करेंगे. रूसी राजदूत के अनुसार भारत ने औपचारिक तौर पर मॉस्को फॉर्मेट में हिस्सा लिया. सुरक्षा परिषद के सचिव निकोलाई पेत्रुशेव ने दिल्ली सुरक्षा चर्चा में भी भाग लिया. अफ़ग़ान समस्या को लेकर दोनों पक्ष इस बात पर विशेष रूप से ध्यान देते हैं कि रूस और भारत अपने अपेक्षाकृत नज़दीकी दृष्टिकोण से एकजुट हैं.
अफ़ग़ानिस्तान की समस्या का परीक्षण ज़्यादा गहराई से करना चाहिए. कई अलग-अलग कारणों से भारत दक्षिण एशिया में नेतृत्व का दावा कर सकता है. भारत की आर्थिक, जनसांख्यिकीय और सैन्य विशेषताएं उसके पड़ोसियों को पीछे छोड़ती हैं. इसके परिणामस्वरूप भारत के रणनीतिकार अफ़ग़ानिस्तान की घटनाओं को नज़रअंदाज़ करने का ख़तरा नहीं उठा सकते हैं. 15 अगस्त 2021 को तालिबान की जीत के बाद- तालिबान पर रूसी संघ ने प्रतिबंध लगा रखा है- भारत के लिए अफ़ग़ानिस्तान अवसरों के क्षेत्र की जगह संभावित ख़तरे का क्षेत्र बन गया है. मित्रतापूर्ण, उम्मीद के मुताबिक़ तानाशाह लेकिन अकुशल, विदेशी ताक़तों पर निर्भर और भ्रष्ट शासन व्यवस्था की जगह एक विरोधी कट्टरपंथी आंदोलन को सत्ता मिल गई जिसने आतंकवाद को एक राजनीतिक औज़ार की तरह इस्तेमाल किया है. इसका नतीजा ये हुआ है कि अफ़ग़ानिस्तान के घटनाक्रम के साथ-साथ बदले हुए अफ़ग़ानिस्तान की राजनीतिक राह को लेकर भारत संवेदनशील बन गया है. अफ़ग़ानिस्तान की राजनीति में पाकिस्तान की भूमिका में बढ़ोतरी को लेकर चिंताएं जताई गई हैं. तालिबान का गठन, उसकी फंडिंग और संरक्षण पाकिस्तानी सेना द्वारा की गई है. ये बात आम तौर पर किसी भी जानकार के लेखों में मौजूद है और इसको कभी छिपाया नहीं गया है. भारत और पाकिस्तान के बीच मनमुटाव और कश्मीर मुद्दे को देखते हुए स्पष्ट तौर पर भारत की चिंताएं और भी बढ़ गई हैं और अंतर्राष्ट्रीय मामलों की भाषा में बात करें तो ऐसा होना उचित भी है.
जो जानकार महसूस करते हैं कि तालिबान एक नियमित और असरदार सरकार चलाने और अफ़ग़ानिस्तान की समस्याओं को सुलझाने में सक्षम नहीं है, वो इस दृष्टिकोण का समर्थन करते हैं. तालिबान अपने उद्देश्यों और बर्ताव को लेकर बंटा हुआ दिख रहा है. तालिबान के भीतर कई समूह हैं जो एक-दूसरे के विरोधी हैं. शायद सबसे बेहतरीन परिदृश्य वो है जहां अपेक्षाकृत आधुनिक और नरम विचार वाले तालिबानी गुट, हक़्क़ानी नेटवर्क, जो कि पूरी तरह पाकिस्तान की सेना पर निर्भर हैं, के बेहद कट्टर समर्थकों के ख़िलाफ़ जीत हासिल करें. इसके साथ-साथ व्यावहारिक तौर पर सभी प्रमुख शक्तियां तालिबान के लिए इस बात की ज़रूरत पर ज़ोर दें कि वो राजनीतिक संघर्ष के औज़ार के रूप में आतंकवाद को छोड़ दे, अल-क़ायदा के साथ संबंध ख़त्म करे और एक समावेशी सरकार का गठन करे.
दक्षिण एशिया में भारत की भूमिका सोवियत संघ के विघटन के बाद के दौर में रूस की अलग स्थिति से मिलती-जुलती है. इसके परिणामस्वरूप संरचनात्मक नियोरियलिज़्म के दृष्टिकोण से एक क्षेत्रीय मार्गदर्शक के रूप में भारत ये दावा कर सकता है कि अफ़ग़ान संकट के संदर्भ में उसकी अलग आवाज़ को सुना जाए.
इस तरह रूस-भारत संबंध में अफ़ग़ानिस्तान मुद्दे को लेकर सहयोग सबसे महत्वपूर्ण पहलुओं में से एक के रूप में उभरकर सामने आया है. आधुनिक अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान का कब्ज़ा एक वास्तविकता है. लगता है कि सत्ता पर इस कट्टरपंथी समूह का कब्ज़ा बना रहेगा, कम-से-कम फिलहाल तो यही स्थिति है. अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद के दृष्टिकोण से ये परिस्थिति नुक़सानदायक है. तालिबान की जीत पूरी दुनिया में आतंकवादी संगठनों के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय मामलों में उससे सहानुभूति रखने वाले भागीदारों के लिए भी एक बिज़नेस मॉडल, प्रोत्साहन और उदाहरण है. इसके बावजूद हमें अफ़ग़ानिस्तान के साथ सरोकार बनाए रखना चाहिए. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सभी गंभीर किरदारों के लिए इस बातचीत में व्यापक सहयोग ज़रूरी है. रूस, अमेरिका, चीन, भारत, ईरान, पाकिस्तान, उज़्बेकिस्तान, मध्य एशियाई देशों और यूरोपीय संघ समेत कई देशों के लिए विचारों का आदान-प्रदान और अफ़ग़ान समस्या पर एक-दूसरे के रवैये को समझने की क्षमता ज़रूरी है. इस परिस्थिति में संयुक्त राष्ट्र की व्यवस्था के द्वारा एक मददगार भूमिका निभाने की संभावना है.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.