Author : Sushant Sareen

Published on May 29, 2020 Updated 0 Hours ago

चीनी घोटाले की रिपोर्ट में जिन लोगों का नाम है, उनमें से एक जहांगीर तरीन ने पाकिस्तान की सियासत में इमरान ख़ान के शीर्ष तक पहुंचने में बड़ा योगदान दिया है, इमरान ख़ान की आर्थिक मदद की है जो इमरान के राजनीतिक संकटमोचक रहे हैं

पाकिस्तान में चीनी ज्वालामुखी की खट्टी-मीठी नारियल

पूरी दुनिया कोविड19 महामारी के ख़िलाफ़ संघर्ष कर रही है लेकिन पाकिस्तान में कोरोना वायरस संकट शक्तिशाली चीनी और आटा उत्पादकों के गिरोह के कथित घोटाले को लेकर 2 जांच रिपोर्ट की वजह से पीछे चला गया है. चीनी और आटा घोटाले की रिपोर्ट को दमदार बनाती है इसमें उन लोगों की तरफ़ शक की सुई जो न सिर्फ़ सत्ता के क़रीब हैं बल्कि जिन्होंने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री पद पर इमरान ख़ान की ताजपोशी में अहम भूमिका निभाई है. ये वो लोग हैं जिन्होंने निर्दलीयों और छोटी पार्टियों के सांसदों को एकजुट कर केन्द्र और पंजाब में इमरान ख़ान की पार्टी की सरकार बनवाई. चीनी घोटाले की रिपोर्ट में जिन लोगों का नाम है, उनमें से एक जहांगीर तरीन ने पाकिस्तान की सियासत में इमरान ख़ान के शीर्ष तक पहुंचने में बड़ा योगदान दिया है, इमरान ख़ान की आर्थिक मदद की है, इमरान के राजनीतिक संकटमोचक रहे हैं, सरकार और संगठन के मामले में इमरान के सलाहकार रहे हैं और कृषि से जुड़े मुद्दों पर इमरान के ख़ास रहे हैं. जहांगीर तरीन की वजह से चीनी घोटाले की छानबीन पर सियासी नौटंकी शुरू हो गई है. अब ये देखना बाक़ी है कि अगले कुछ हफ़्तों में ये नौटंकी किसी बड़े राजनीतिक बदलाव में तब्दील होती है या अभी सिर्फ़ हंगामा होकर रह जाएगा और आने वाले समय में राजनीतिक बग़ावत होगी.

इमरान ख़ान सरकार कोविड19 संकट से निपटने में बदइंतज़ामी को लेकर काफ़ी आलोचना का शिकार बनी. संकट की गंभीरता के हिसाब से हुकूमत काफ़ी देर से जागी और वो भी तब जब सेना ने कहा. इसलिए चीनी घोटाले की छानबीन ने महामारी से निपटने में सरकार के तौर-तरीक़ों से लोगों का ध्यान हटाकर राजनीति की तरफ़ कर दिया है

वैसे तो जांच रिपोर्ट कोई बड़ी बात नहीं है. आम तौर पर पाकिस्तान की सियासत में ऐसी रिपोर्ट से कुछ वक़्त के लिए हंगामा खड़ा होता है, फिर लोग भूल जाते हैं. इसकी वजह ये है कि इस तरह की छानबीन के पीछे मुख्य मक़सद ज़िम्मेदारी तय करना और लोगों को जवाबदेह बनाना नहीं है, बल्कि किसी विवाद के संकट बनने से पहले उस पर काबू पाना है- पिछले साल जब दवा कंपनियों और स्वास्थ्य मंत्री आमिर कियानी के बीच कथित सांठगांठ की वजह से दवा के दाम अचानक बढ़ गए तो मंत्री को बर्खास्त कर दिया गया लेकिन उन पर कार्रवाई करने के बदले मामला शांत होने पर उन्हें पार्टी का महासचिव बना दिया गया- या किसी विरोधी को फंसाना, उससे राजनीतिक बदला चुकाना है. कभी-कभी इसका मक़सद किसी संकट से ध्यान हटाना भी है. इस बार ये सभी मक़सद लग रहे हैं.

पहला, इमरान ख़ान सरकार कोविड19 संकट से निपटने में बदइंतज़ामी को लेकर काफ़ी आलोचना का शिकार बनी. संकट की गंभीरता के हिसाब से हुकूमत काफ़ी देर से जागी और वो भी तब जब सेना ने कहा. इसलिए चीनी घोटाले की छानबीन ने महामारी से निपटने में सरकार के तौर-तरीक़ों से लोगों का ध्यान हटाकर राजनीति की तरफ़ कर दिया है.

दूसरा, छानबीन की शुरुआत इसलिए हुई क्योंकि जनवरी में चीनी और आटे की क़ीमत में अचानक इज़ाफ़े की वजह से सरकार की कड़ी आलोचना हुई. आरोप लगाए गए कि सरकार से जुड़े लोगों ने बाज़ार और सप्लाई में धांधली करके काफ़ी मुनाफ़ा कमाया और इसका नुक़सान आम लोगों को उठाना पड़ा. इस छानबीन ने सरकार को भरोसे के संकट से उबारने में मदद की.

आख़िरी बात, इमरान ख़ान और उनके कुछ ख़ास दोस्त हुकूमत में तरीन के असरदार बन जाने से बेहद असहज थे. सच्चा और ईमानदार नहीं होने की वजह से सुप्रीम कोर्ट द्वारा कोई सरकारी पद लेने से ज़िंदगी भर के लिए अयोग्य करार दिए जाने के बाद भी तरीन इमरान ख़ान की टीम में बेहद महत्वपूर्ण और शक्तिशाली सदस्य बने रहे. इमरान ख़ान का बेहद ख़ासमख़ास होने की वजह से पार्टी और सरकार दोनों में तरीन की तूती बोलती थी. हैरानी की बात नहीं है कि पार्टी और सरकार में तरीन के विरोधी लंबे वक़्त से मौक़े की ताक में थे. चीनी और आटा संकट ने उन्हें बदला चुकाने का मौक़ा दे दिया. वो इमरान ख़ान को ये समझाने में भी कामयाब रहे कि तरीन सत्ता के वैकल्पिक केंद्र की तरह उभर रहे हैं और उनका कद छोटा करने की ज़रूरत है. इमरान से ये भी कहा गया कि तरीन उनके राजनीतिक विरोधियों के साथ मिलकर साज़िशें रच रहे हैं और ऐसी राजनीतिक रियायतें दे रहे हैं जो पार्टी या सरकार के हित में नहीं हैं. आसान शब्दों में कहें तो इस पूरे घटनाक्रम में गुटबाज़ी का मज़बूत पहलू है जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता.

इसलिए जो जांच रिपोर्ट में कहा गया है, ये सिर्फ़ वही नहीं है. मज़ेदार बात ये है कि रिपोर्ट में जिन लोगों का नाम है, उनके ख़िलाफ़ सिर्फ़ इशारा किया गया है और साफ़-साफ़ ये ज़िक्र नहीं है कि कौन सा गैर-क़ानूनी काम चीनी कारोबारियों ने किया है. इसकी वजह ये है कि सभी लेन-देन नीतिगत फ़ैसले के बाद हुए जिसे कैबिनेट ने मंज़ूरी दी थी और जिसकी अध्यक्षता किसी और ने नहीं बल्कि ख़ुद इमरान ख़ान ने की थी और जो सब्सिडी दी गई उसका फ़ैसला इमरान ख़ान के पसंदीदा पंजाब के मुख्यमंत्री उस्मान बुज़दर ने किया था.

पाकिस्तान में जैसा कि हमेशा इस तरह की रिपोर्ट के साथ होता आया है, जितना दिखता है उससे ज़्यादा रिपोर्ट जारी करने के पीछे वजह है. पहली चीज है समय. रिपोर्ट ऐसे वक़्त में सार्वजनिक की गई है जब पाकिस्तान महामारी के संकट से जूझ रहा है जो अर्थव्यवस्था को तबाह कर सकती है और देश में गंभीर सामाजिक अशांति पैदा कर सकती है. इससे सवाल खड़ा होता है कि इमरान ख़ान का मक़सद क्या है और उनके निशाने पर कौन है. साथ ही ये सवाल भी कि शक्तिशाली चीनी लॉबी के ख़िलाफ़ इतना जोखिम भरा जुआ खेलकर इमरान ख़ान क्या हासिल करना चाहते हैं. पाकिस्तानी सेना की तरह चीनी लॉबी भी हमेशा शक्तिशाली रही है. अगर इमरान ये जंग जीतते हैं तो एक कठोर, भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ समझौना न करने वाले योद्धा की तरह उनकी विश्वसनीयता चमक जाएगी और इससे चीनी उत्पादकों के गुट को झटका लगेगा. लेकिन अगर वो हारते हैं तो आरोपों में लिप्त और शक्तिशाली चीनी लॉबी के ख़िलाफ़ खड़ा होने की वजह से उनकी तारीफ़ होगी. लेकिन इसके पीछे जोखिम ये है कि न सिर्फ पंजाब बल्कि इस्लामाबाद में भी उनकी सरकार गिर सकती है. अगर सरकार गिरती नहीं भी है तब भी वो इस कदर कमज़ोर हो जाएगी कि सरकार का बने रहना काफ़ी मुश्किल हो जाएगा.

हालांकि रिपोर्ट में जिन लोगों का नाम लिया गया है, उनके ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई करने से पहले इमरान ख़ान फोरेंसिक रिपोर्ट का इंतज़ार कर रहे हैं. अभी तक जांच रिपोर्ट जारी होने के बाद जो कुछ हुआ है, उसमें तरीन को नज़रअंदाज़ कर दिया गया है और पार्टी में वो अपने विरोधियों और इमरान के ख़ास दोस्तों के निशाने पर आ गए हैं. रिपोर्ट में जिन लोगों का नाम लिया गया है उनमें से ज़्यादातर पर कोई असर नहीं पड़ा है. पंजाब की विधानसभा के अध्यक्ष और सत्ताधारी पार्टी के एक महत्वपूर्ण गठबंधन सहयोगी परवेज़ इलाही के बेटे मूनिस इलाही को छुआ भी नहीं गया है. संघीय मंत्री खुसरो बख्तियार का विभाग बदल दिया गया है. खाद्य मंत्रालय से उन्हें आर्थिक मामलों के मंत्रालय भेज दिया गया है. दक्षिणी पंजाब के एक शक्तिशाली राजनीतिक परिवार- द्रेशक- को भी परेशान नहीं किया गया है.

इससे लगता है कि ज़िम्मेदारी का पूरा ताना-बाना सिर्फ़ संभावित प्रतिद्वंदी के ख़िलाफ़ हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने के लिए बुना गया है. निश्चित रूप से हर छानबीन में सिर्फ़ विरोधी ही नहीं बल्कि अपनों को भी नुक़सान होता है, इसलिए हल्के-फुल्के मंत्रियों और सरकारी अधिकारियों की क़ुर्बानी दी गई. हालांकि बड़े लोगों से भिड़ना बेहद जोखिम भरा होता है. बख्तियार और द्रेशक दक्षिणी पंजाब के महत्वपूर्ण नेताओं में हैं जिन्होंने 2018 के चुनाव से ठीक पहले नवाज़ शरीफ़ को  छोड़कर इमरान ख़ान का साथ दिया (साफ़ तौर पर ‘कृषि विभाग’- ISI के डर्टी ट्रिक्स डिपार्टमेंट का दूसरा नाम- के इशारे पर). इन लोगों की वफ़ादारी पर पूरा भरोसा नहीं किया जा सकता और ये लोग बहुत आसानी से इस्लामाबाद और लाहौर में उस इलाक़े के सांसदों और विधायकों के समर्थन से वहां की सरकार को हिला सकते हैं. इसी तरह अगर मजबूर किया गया तो इलाही की पार्टी पंजाब की सरकार को गिरा सकती है जो इमरान ख़ान कभी नहीं चाहेंगे.

इमरान को सेना से निपटने के लिए हर हाल में ख़ुद को तैयार करने की ज़रूरत है. वो इसके लिए दो तरीक़ों का इस्तेमाल कर रहे हैं: पहला पाकिस्तान के लिए कर्ज़ राहत पैकेज हासिल करने की कोशिश करना जिससे सेना ख़ुश हो जाएगी और दूसरा भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लड़ाई का एक बार फिर दिखावा करके सेना के हाथ को बांध देना

इसलिए अगर कोई सोचता है कि इमरान ख़ान आगे बढ़कर राजनीतिक आत्महत्या करेंगे तो उसे निराश होना पड़ सकता है. इमरान जो हासिल करना चाह रहे हैं वो अलग चीज़ है. कुछ समय पहले तक अपने सबसे क़रीबी राजनीतिक सलाहकार रहे तरीन पर निशाना साधकर इमरान पार्टी पर अपनी पकड़ बताना चाहते हैं. ये इमरान की आज़माई हुई रणनीति है. ये उन्होंने खैबर पख्तूनख्वा में अचानक तीन मंत्रियों को बर्खास्त करके (ये भी इमरान के क़रीबी थे और शक्तिशाली राजनीतिक परिवारों से ताल्लुक रखते थे) भी दिखाया था क्योंकि उन पर आरोप लगा था कि वो मुख्यमंत्री के ख़िलाफ़ बग़ावत की साज़िश रच रहे हैं. चूंकि इमरान को तरीन से जो फ़ायदा उठाना था वो पहले ही उठा चुके हैं- अब इमरान को तरीन के प्राइवेट एयरक्राफ्ट और दौलत की ज़रूरत नहीं है- इस वजह से तरीन अहम नहीं रह गए हैं. इससे भी बढ़कर तरीन को खारिज करने से ख़ुद को इमरान से क़रीबी या पार्टी और सरकार में अपने महत्व को लेकर ग़लतफ़हमी पालने वाले दूसरे लोगों में भी डर फैलेगा.

लेकिन तरीन अकेले शख़्स नहीं हैं जिन पर इमरान ने निशाना साधा है. पिछले कुछ महीनों से अफ़वाह और रिपोर्ट आ रही है कि सेना इमरान ख़ान की लापरवाह और नाकाम हुकूमत से बेसब्र हो रही है. ऐसी चर्चा है कि सरकार के कामकाज में बदलाव लाने के लिए कुछ परिवर्तन हो सकता है. देश पर इमरान ख़ान को थोपने के लिए सेना की भी कड़ी आलोचना हो रही है. सेना इमरान को उन मामलों पर ज़्यादा गौर करने के लिए कह रही है जहां हालात बेकाबू हो रहे हैं. कोविड19 संकट के दौरान भी सेना ने महामारी के ख़िलाफ़ पाकिस्तान के जवाब को तैयार करने के लिए मार्च के मध्य में न सिर्फ़ इमरान को राष्ट्रीय सुरक्षा समिति की बैठक बुलाने के लिए मजबूर किया बल्कि अब फ़ैसलों को लागू करने के लिए नेशनल कमांड और ऑपरेशन सेंटर का भी गठन किया है. इमरान को सेना से निपटने के लिए हर हाल में ख़ुद को तैयार करने की ज़रूरत है. वो इसके लिए दो तरीक़ों का इस्तेमाल कर रहे हैं: पहला पाकिस्तान के लिए कर्ज़ राहत पैकेज हासिल करने की कोशिश करना जिससे सेना ख़ुश हो जाएगी और दूसरा भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लड़ाई का एक बार फिर दिखावा करके सेना के हाथ को बांध देना. इसी दूसरे तरीक़े में चीनी घोटाले का इस्तेमाल हो सकता है.

अगर वाकई सेना अगले कुछ हफ़्तों में इमरान से छुटकारा पाने की योजना बना रही थी तो अब उसे ऐसा करने में मुश्किल होगी क्योंकि इमरान ख़ान ख़ुद को सियासी शहीद के तौर पर पेश करेंगे जिन्हें भ्रष्ट माफिया से लड़ाई की क़ीमत चुकानी पड़ी. दूसरे शब्दों में इमरान को उम्मीद है कि वो तेज़ी से घटती अपनी लोकप्रियता फिर से हासिल कर लेंगे और चीनी माफिया पर निशाना साधकर अपनी छवि फिर से बेहतर बना लेंगे. ऐसा होने से सेना का उनके ख़िलाफ़ किसी तरह का एक्शन लेना बेहद मुश्किल हो जाएगा क्योंकि सेना ‘ईमानदार’ प्रधानमंत्री के बदले माफिया के साथ खड़ी दिखाई देगी.

लेकिन इमरान के छल-कपट से ज़्यादा सेना के सामने मजबूरी है इमरान से छुटकारा पाने के बाद किसी और विकल्प का न होना. इमरान की पार्टी के ज़रिए बदलाव की कोशिश कहने में तो आसान है लेकिन करना मुश्किल. सभी पार्टियों की मिली-जुली सरकार और भी ज़्यादा मुश्किल है. फिर से चुनाव होने पर नवाज़ शरीफ़ की सत्ता में वापसी हो सकती है जबकि सेना का सीधा नियंत्रण भी ठीक नहीं है क्योंकि ऐसी हालत में पाकिस्तान को मुश्किल से बाहर निकालने के लिए कठोर फ़ैसले लेने पर सेना को इसकी ज़िम्मेदारी लेनी पड़ेगी. फिलहाल पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था कोविड19 महामारी की तबाही के कारण और भी ज़्यादा बुरी हालत में है. फिलहाल इमरान ख़ान की चाल कामयाब होती दिख रही है और उनके प्रधानमंत्री बने रहने में कोई ख़तरा नहीं दिख रहा है. लेकिन इस चाल की वजह से उन्होंने नई राजनीतिक एकजुटता को भी बढ़ावा दे दिया है जो आगे चलकर उनके लिए अभिशाप साबित हो सकता है.

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