Author : Chandra Bhushan

Published on Dec 07, 2021 Updated 0 Hours ago

ये सुनिश्चित करने के लिए देश में ऊर्जा क्षेत्र में परिवर्तन की प्रक्रिया समावेशी हो, भारत को ऐसे राज्यों और समुदायों को राहत पहुंचाने के लिए नीतिगत हस्तक्षेप करना होगा, जो ऊर्जा संक्रमण से प्रभावित होंगे.

ईमानदारी से किये गये बदलाव के ज़रिये — ‘नेट ज़ीरो’ कार्बन का लक्ष्य पाने की कोशिश!

Source Image: Getty

यह लेख हमारी निबंध श्रृंखला – शेपिंग आवर ग्रीन फ्यूचर: पाथवेज़ एंड पॉलिसीज़ फॉर नेट ज़ीरो ट्रांसफॉर्मेशन का हिस्सा है.


1.भूमिका

वैश्विक समुदाय के पास जलवायु परिवर्तन (Climate Change) से निपटने के लिए बहुत कम समय रह गया है, अगर वह इसके अपरिवर्तनीय और विनाशकारी प्रभावों से बचना चाहता है. इस साल दो रिपोर्टों ने इसके ख़तरों को लेकर “साफ़-साफ़ चेतावनी” दी है. पहली रिपोर्ट “नेट ज़ीरो बाई 2050: ए रोडमैप फॉर द ग्लोबल एनर्जी सेक्टर” अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (आईईए) द्वारा प्रकाशित की गई है, जिसमें जलवायु परिवर्तन के ख़तरों और उसकी तात्कालिकता को रेखांकित करते हुए इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि अगले तीस सालों में दुनिया के सभी देशों को पेरिस समझौते (2015) से जुड़े लक्ष्यों को लेकर सावधान रहना होगा. इसके अलावा जलवायु परिवर्तन से संबंधित अंतरसरकारी पैनल (इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज, आईपीसीसी) ने भी अपनी छठी आकलन रिपोर्ट “क्लाइमेट चेंज 2021: द फिज़िकल साइंस बेसिस” (आईपीसीसी के इस छठे आकलन रिपोर्ट का यह पहला भाग है) में चरम मौसमी परिवर्तन की आवृत्ति और तीव्रता को लेकर आगाह किया है, जो दुनिया भर में लोगों के जीवन और अर्थव्यवस्थाओं पर बुरा प्रभाव डालेगा.भारत, जो अपनी विकास ज़रूरतों के लिए काफ़ी हद तक जीवाश्म ईंधनों पर निर्भर है और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के लिहाज से बेहद संवेदनशील है, के लिए अगले तीस साल बेहद महत्त्वपूर्ण हैं. वर्तमान में, भारत की प्राथमिक ऊर्जा ज़रूरतों की 70 फीसदी आपूर्ति कोयले और तेल से होती है. इसमें भी कोयले की हिस्सेदारी 44 फीसदी और तेल की 25 फीसदी है (आईईए, 2020). हालांकि इस लेख को लिखे जाने तक भारत ने नेट ज़ीरो कार्बन के लक्ष्य की औपचारिक घोषणा नहीं की है, लेकिन इस लक्ष्य से जुड़े दो हालिया अध्ययनों ने स्पष्ट किया है कि जीवाश्म ईंधन की खपत हटाने के लिहाज़ से भारत के लिए अगले तीस से चालीस साल महत्त्वपूर्ण हैं और इसके लिए उसे किन संभावित विकास पथों को अपनाना होगा.

 भारत ने नेट ज़ीरो कार्बन के लक्ष्य की औपचारिक घोषणा नहीं की है, लेकिन इस लक्ष्य से जुड़े दो हालिया अध्ययनों ने स्पष्ट किया है कि जीवाश्म ईंधन की खपत हटाने के लिहाज़ से भारत के लिए अगले तीस से चालीस साल महत्त्वपूर्ण हैं

आईईए के एक अध्ययन के अनुसार, भारत में कोयले की मांग 2040 तक आधी हो जानी चाहिए, और 2050 तक 85 प्रतिशत कम हो जानी चाहिए. ऊर्जा एवं संसाधन संस्थान (टेरी) और शेल द्वारा किए गए एक अन्य अध्ययन के अनुसार भारत को 2050 तक अपने कोयले और तेल दोनों की मांग में 60 फीसदी तक कटौती करनी होगी.

तालिका 1: 2060 तक नेट ज़ीरो कार्बन मार्ग

जीवाश्म ईंधन क्षेत्र सतत विकास (Sustainable Development) की दशा में
2019 2030 2040 2050*
कोयले की मांग (Mtce) 590 454 298 100
तेल की मांग (mb/d) 5.0 6.2 5.8 3.48
प्राकृतिक गैस की मांग (bcm) 63 144 210 150

स्रोत: आईईए, 2021

नोट: आईईए केवल 2040 तक के लिए आंकड़ें प्रदान करता है. 2050 के लिए ये अनुमान लगाया गया है कि कोयले की मांग 2055 तक और तेल की मांग 2065 तक शून्य हो जायेगी, जबकि 2065 तक गैस की मांग 2020 के स्तर पर स्थिर रहेगी. अगर खपत के इन स्तरों को बनाए रखा जाता है तो भारत 2065 तक नेट ज़ीरो कार्बन के लक्ष्य तक पहुंच जाएगा.

तालिका 2: 2051 तक के लिए नेट ज़ीरो कार्बन मार्ग

प्राथमिक रूप से ऊर्जा की ज़रूरत (Mtoe) 2021 2051
कोयला 505 216
तेल 222 89
गैस 53 149
परमाणु 19 45
हाइड्रो 21 33
सोलर 93 876
पवन 27 548
जैविक/कचरा/अन्य

स्रोत: टेरी और शेल, 2021

कोयले और तेल के उत्पादन और उपयोग को चरणबद्ध तरीके से बंद करने से उन क्षेत्रों पर भारी असर पड़ेगा जो उन पर निर्भर हैं. वर्तमान में कोयला आधारित बिजली उत्पादन से नवीकरणीय स्रोत आधारित बिजली उत्पादन की ओर तेजी से हो रहे संक्रमण के अतिरिक्त, ये ज़रूरी है कि स्टील, सीमेंट, ऑटोमोबाइल और उर्वरक जैसे डाउनस्ट्रीम उद्योगों का भी पुनर्गठन किया जाए. जलवायु संकट से निपटने के लिए तीव्र ऊर्जा संक्रमण और औद्योगिक परिवर्तन जैसे तकनीकी उपाय आवश्यक तो हैं लेकिन काफ़ी नहीं हैं. भारतीय अर्थव्यवस्था, जहां कार्यबल का 90 फीसदी हिस्सा असंगठित क्षेत्रों में कार्यरत है, वहां ऊर्जा और आर्थिक सुधार जैसे किसी कदम को सामाजिक रूप से संवेदनशील होने की ज़रूरत है. विभिन्न क्षेत्रों में कार्यबल के वितरण, स्थानीय समुदायों की इन क्षेत्रों पर निर्भरता, और जीवाश्म ईंधन पर निर्भर क्षेत्रों और उनकी संभाव्यता को ध्यान में रखना होगा. इसलिए “न्यायोचित बदलाव” (just transition) का सवाल अत्यधिक महत्वपूर्ण हो जाता है.[i]

अगले दस साल न्यायोचित बदलाव की योजना बनाने के लिहाज़ से काफ़ी महत्वपूर्ण हैं. स्टील और सीमेंट जैसे कोयला आधारित अन्य उद्योगों में न्यायोचित बदलाव की संभावना एक दशक बाद ही संभव है. जबकि कृषिआधारित उद्योगों और अन्य क्षेत्रों में क्रमिक परिवर्तन देखा जायेगा

2.न्यायोचित बदलाव के लिए क्षेत्र आधारित विवरण

भारत में, कोयला प्राथमिक ऊर्जा का मुख्य स्रोत है.[ii] लेकिन न्यायोचित बदलाव केवल कोयला क्षेत्र तक सीमित नहीं रह सकता. नेट ज़ीरो कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य हासिल करने के लिए मौजूदा व्यवस्था में पूरी तरह से बदलाव करना होगा, जिसके लिए अगले तीन से चार दशकों में उन सभी क्षेत्रों में न्यायोचित बदलाव करना होगा, जहां कम उत्सर्जन और कम लागत वाली वैकल्पिक प्रौद्योगिकियां उपलब्ध हैं.

उदाहरण के लिए, ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी की क्षमता और उपलब्ध वैकल्पिक प्रौद्योगिकियों के एक आकलन के अनुसार, जिन क्षेत्रों को न्यायोचित बदलाव को प्राथमिकता देनी चाहिए, उनमें कोयला खनन, ताप विद्युत संयंत्र, सड़क परिवहन, उर्वरक (यूरिया) और अन्य उद्योग शामिल हैं. इन क्षेत्रों से होने वाला उत्सर्जन भारत के कुल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का 64 प्रतिशत है और इन क्षेत्रों में हरित परिवर्तन के लिए आवश्यक प्रौद्योगिकियां अगले पांच सालों में व्यावसायिक रूप से लगभग पूरी तरह से (90 फीसदी) उपलब्ध होंगी (चित्र संख्या एक को देखें). इसलिए अगले दस साल न्यायोचित बदलाव की योजना बनाने के लिहाज़ से काफ़ी महत्वपूर्ण हैं. स्टील और सीमेंट जैसे कोयला आधारित अन्य उद्योगों में न्यायोचित बदलाव की संभावना एक दशक बाद ही संभव है. जबकि कृषिआधारित उद्योगों और अन्य क्षेत्रों में क्रमिक परिवर्तन देखा जायेगा.[iii]

चित्र 1: उत्सर्जन बनाम तकनीकी उपलब्धता

Source: C. Bhushan and S. Banerjee, “Five R’s: A cross-sectoral landscape of Just Transition in India,” 2021.

3.संभावित प्रभाव और प्राथमिकताएं

भारत में स्वच्छ ऊर्जा की ओर परिवर्तन जीवाश्म ईंधन के क्षेत्र में काम कर रहे श्रमिकों और अर्थव्यवस्था पर गहरा प्रभाव डालेगा. इन प्रभावों को तीन अलग-अलग स्तरों (भौगोलिक, कार्यबल और राजस्व) को देखते हुए ये समझा जा सकता है कि स्वच्छ ऊर्जा की ओर परिवर्तन कैसा होगा और इसके क्या परिणाम होंगे?

अगले दो से तीन दशकों के दौरान ऊर्जा संक्रमण से सभी 120 जिले अलग-अलग स्तरों पर प्रभावित होंगे, लेकिन शुरुआती दस सालों में इनमें से 60 जिलों को हरित परिवर्तन योजनाओं के लिए प्राथमिकता देनी चाहिए

3.i भौगोलिक प्रभाव: भारत के 718 जिलों में से 120 जिले ऐसे हैं, जहां बड़े पैमाने पर जीवाश्म ईंधन या जीवाश्म ईंधन आधारित उद्योगों जैसे कोयला खनन, तेल और गैस उत्पादन, ताप विद्युत संयंत्र, रिफाइनरी, स्टील, सीमेंट, उर्वरक (यूरिया), और ऑटोमोबाइल की मौजूदगी है. इन जिलों की कुल जनसंख्या 33 करोड़ यानी भारत की कुल आबादी का 25 प्रतिशत है. अगले दो से तीन दशकों के दौरान ऊर्जा संक्रमण से सभी 120 जिले अलग-अलग स्तरों पर प्रभावित होंगे,[iv] लेकिन शुरुआती दस सालों में इनमें से 60 जिलों को हरित परिवर्तन योजनाओं के लिए प्राथमिकता देनी चाहिए, क्योंकि ये जिले उन भौगोलिक क्षेत्रों में हैं, जहां पर देश के 95 फीसदी कोयला और लिग्नाइट का उत्पादन होता है, जिसकी ताप विद्युत क्षमता देश की कुल क्षमता का 60 प्रतिशत है और 90 फीसदी ऑटोमोबाइल या संबंधित उपकरणों का निर्माण होता है. एक जिलों का करीब एक तिहाई हिस्सा झारखंड, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल के कोयला क्षेत्रों में स्थित है (चित्र संख्या 2 को देखें).

चित्र संख्या 2: वर्तमान दशक में न्यायोचित बदलाव के लिए प्राथमिकता वाले क्षेत्र

Source: C. Bhushan and S. Banerjee, “Five R’s: A cross-sectoral landscape of Just Transition in India,” 2021.

स्पष्ट रूप से कहा जाए तो जो राज्य और जिले इन दस सालों में स्वच्छ ऊर्जा आधारित तंत्र के निर्माण से जुड़ी सबसे कठिन समस्याओं का सामना करेंगे, वही जलवायु परिवर्तन के खतरों के प्रति भी सबसे ज़्यादा संवेदनशील हैं (चित्र संख्या 3 को देखें). इसका कारण गरीबी (इन जिलों में गरीबी रेखा से नीचे गुजर बसर करने वालों का अनुपात बहुत ज़्यादा है), लचर स्वास्थ्य व्यवस्था, अशिक्षा और ख़राब जीवन-स्तर है.[v]

चित्र संख्या 3: जलवायु परिवर्तन के प्रति सबसे अधिक संवेदनशील राज्य

Source: Department of Science and Technology, Government of India, 2020.

3.ii कार्यबल प्रभाव: आने वाले दशकों में स्वच्छ ऊर्जा की ओर जैसे-जैसे भारत आगे बढ़ेगा, उसका जीवाश्म-ईंधन और उस पर निर्भर क्षेत्रों में काम करने वाले लगभग 2 करोड़ 15 लाख लोगों पर सीधा असर पड़ेगा. ख़ासकर असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाले श्रमिकों पर इसका सबसे बुरा प्रभाव होगा, जहां संगठित क्षेत्रों की तुलना में चार गुना अधिक कार्यबल है. विशेष रूप से कोयला खनन, स्टील, सीमेंट और ईंधन के खुदरा व्यापार जैसे कुछ क्षेत्रों में असंगठित कार्यबल कहीं ज़्यादा है, और इन क्षेत्रों में लगे ज़्यादातर मजदूर अकुशल, अशिक्षित और निम्न आय वाले हैं.

कुल राज्य जैसे मध्य प्रदेश और ओडिशा सामूहिक रूप से पेट्रोल और डीजल पर लगे बिक्री कर द्वारा जितना राजस्व एकत्रित करते हैं, वह कोयला खनन से मिलने वाले राजस्व की तुलना में कहीं अधिक होता है

ऊर्जा संक्रमण का कार्यबल पर पड़ने वाले प्रभावों को मुख्य रूप से तीन भागों में बांटा जा सकता है, जिसके समाधान में उचित संक्रमण योजनाओं को अपनाया जा सकता है:

  • उत्पादन में गिरावट और अंततः परिचालन के बंद होने के कारण नौकरियां समाप्त होना
  • उत्पादन प्रक्रियाओं में परिवर्तन या सुविधाओं के पुनर्चक्रण के कारण मौजूदा कर्मचारियों की प्रशिक्षण एवं कौशल विकास संबंधी आवश्यकताओं में वृद्धि
  • नए कार्यबल को कम उत्सर्जन वाले उद्योगों की आवश्यकता अनुरूप कुशल बनाना

तालिका 3: अनुमानित कार्यबल (मिलियन में)

सेक्टर अनौपचारिक रोज़गार औपचारिक रोज़गार कुस रोज़गार
कोयला खनन 1.8 0.8 2.6
कोयला आधारित थर्मल पावर 0.05 0.13 0.18
लौह और स्टील 2.6 0.3 2.9
सीमेंट 1.2 0.2 1.4
रीफाइनरी के इतर तेल और गैस NA 0.12 0.12
रीफाइनरी 0.08 0.04 0.12
Fuel retail खुद्रा ईंधन 0.96 0.14 1.10
एलपीजी वितरण 0.01 0.09 0.10
फर्टीलाइज़र 0.2 0.02 0.22
वाहन NA NA 12.8
कुल 6.9 1.8 21.5

स्रोत: सी. भूषण और एस. बनर्जी, “फाइव आर: ए क्रॉस सेक्शनल लैंडस्केप ऑफ जस्ट ट्रांजिशन”, 2021

3.iii राजस्व प्रभाव: जीवाश्म ईंधन पर अपनी निर्भरता कम करने के कारण केंद्रीय एवं राज्य स्तर पर सार्वजनिक राजस्व पर बहुत ज़्यादा प्रभाव पड़ेगा. कोयला, तेल और गैस सम्मिलित रूप से केंद्र सरकार की कुल राजस्व प्राप्तियों का 18.8 प्रतिशत हिस्से का निर्माण करते हैं और राज्य स्तर पर इनका कुल राजस्व में योगदान 8.3 प्रतिशत है. लगभग 91 प्रतिशत राजस्व तेल और गैस से प्राप्त होता है, वहीं इसमें कोयले का योगदान महज़ 9 प्रतिशत है. इसलिए ऊर्जा संक्रमण के न्यायपूर्ण दृष्टिकोण के अनुसार, कोयले की तुलना में सार्वजनिक वित्त पर तेल और गैस का प्रभाव कहीं ज़्यादा होगा. हालांकि कोयला खनन जैसी गतिविधियों के कम होने या समाप्त होने से राज्य सरकारों, ख़ासकर कोयला सघन राज्यों पर गहरा प्रभाव पड़ेगा. राज्यों के लिए कोयला आधारित राजस्व का सबसे बड़ा जरिया डिस्ट्रिक्ट मिनरल फाउंडेशन (डीएमएफ) द्वारा दी जाने वाली रॉयल्टी और सहयोग है. कोयले के अत्यधिक भंडार वाले ज़्यादातर राज्यों, जैसे कि झारखंड और छत्तीसगढ़ में, कोयला खनन से प्रत्यक्ष राजस्व का हिस्सा (सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को ध्यान में रखते हुए, जो प्रमुख संचालक हैं) कुल राज्य राजस्व का लगभग पांच से छह प्रतिशत है.[vi] इसके अलावा कई राज्य और संघ शासित क्षेत्र अपने राजस्व का एक बहुत बड़ा हिस्सा पेट्रोल और डीजल पर लगने वाले सेल्स टैक्स यानी बिक्री कर द्वारा इकट्ठा करते हैं. कुल राज्य जैसे मध्य प्रदेश और ओडिशा सामूहिक रूप से पेट्रोल और डीजल पर लगे बिक्री कर द्वारा जितना राजस्व एकत्रित करते हैं, वह कोयला खनन से मिलने वाले राजस्व की तुलना में कहीं अधिक होता है (तालिका 4 देखें). इसके साथ ही इलेक्ट्रिक वाहनों के ज़रिए परिवहन प्रणाली में हो रहे बदलाव के कारण राज्यों को बड़े स्तर पर राजस्व घाटा उठाना पड़ेगा. गौरतलब है कि 60 फीसदी पेट्रोल खपत दोपहिया वाहनों के कारण होती है, इसलिए इलेक्ट्रिक वाहनों का प्रयोग राजस्व के लिहाज से काफ़ी ज़्यादा महत्त्वपूर्ण होगा.

तालिका 4: पेट्रोल और डीजल पर बिक्री कर, और कोयला खनन से मिलने वाला प्रत्यक्ष राजस्व

राज्य व संघ-राज्य

सेल्स कर /सीपीएसई से मिला वैट

(बिलियन रुपए)

कोयला खनन टैक्स और पीएसयू से मिला कर व राजस्व (बिलियन रुपए)
  पेट्रोल डीज़ल  
छत्तीसगढ़ 12.67 24.84 32.21
झारखंड 8.97 20.19 39.92
मध्य प्रदेश 28.71 38.75 34.10
ओडिशा 15.79 38.39 29.10

स्रोत: सी. भूषण और एस. बनर्जी, “फाइव आर: ए क्रॉस सेक्शनल लैंडस्केप ऑफ जस्ट ट्रांजिशन”, 2021

4.न्यायोचित बदलाव से जुड़ी ज़रूरतें

भारत में ‘न्यायोचित बदलाव’ के लिए एक ऐसे विकास हस्तक्षेप की आवश्यकता है, जो ऊर्जा एवं औद्योगिक क्षेत्रों में हरित परिवर्तन के कारण जीवाश्म ईंधन पर निर्भर राज्यों, जिलों, कर्मचारियों और स्थानीय समुदायों पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभावों को कम कर सके. इसके लिए निम्नलिखित पांच कारक (5Rs) महत्त्वपूर्ण होंगे:

  • अर्थव्यवस्था और उद्योगों का पुनर्गठन
  • भूमि और बुनियादी ढांचे का पुनरुद्देशीकरण
  • मौजूदा कार्यबल को पुनःप्रशिक्षण के ज़रिए फिर से कुशल बनाना और नए कार्यबल को कौशल विकास प्रशिक्षण देना
  • न्यायसंगत परिवर्तन हेतु सार्वजनिक राजस्व एवं अन्य वित्तीय संसाधनों का निवेश
  • सामाजिक और पर्यावरणीय व्यवहारों को और अधिक जिम्मेदार और जवाबदेह बनाना

झारखंड के रामगढ़ जैसे जिलों में, जहां 50 प्रतिशत खदानें लाभहीन मानी जाती हैं, वहां भी कोयले और उससे जुड़े उद्योगों का जिले का सकल घरेलू उत्पाद में 40 प्रतिशत से अधिक का योगदान है.

4.i अर्थव्यवस्था और उद्योगों का पुनर्गठन: जीवाश्म ईंधन पर निर्भर जिलों को अर्थव्यवस्था के विविधीकरण के लिए आर्थिक और औद्योगिक गतिविधियों का पुनर्गठन करना होगा. वर्तमान में, भारत के अधिकांश कोयला क्षेत्र सिर्फ एक उद्योग के प्रभुत्व वाले जिले हैं, जिनके कारण अन्य क्षेत्रों में विकास की संभावनाएं सीमित हो गई हैं. उदाहरण के लिए, छत्तीसगढ़ के कोरबा जिले, जहां पूरे भारत में 20 प्रतिशत कोयले का उत्पादन होता है, की अर्थव्यवस्था काफ़ी हद तक कोयला खनन पर ही निर्भर है और उसका क्षेत्र की जीडीपी में क़रीब 50 प्रतिशत का योगदान है. यहां तक ​​कि झारखंड के रामगढ़ जैसे जिलों में, जहां 50 प्रतिशत खदानें लाभहीन मानी जाती हैं, वहां भी कोयले और उससे जुड़े उद्योगों का जिले का सकल घरेलू उत्पाद में 40 प्रतिशत से अधिक का योगदान है.

बेहतर ढंग से निर्मित की गई और उपयुक्त वित्तीय साधनों द्वारा समर्थित एक औद्योगिक पुनर्गठन योजना न्यूनतम व्यवधान के साथ हरित परिवर्तन को संभव बना सकती है. स्थानीय संस्थाओं के साथ परामर्श करके संबंधित राज्य सरकारें जिला स्तर पर विकास योजनाओं के लिए उपयुक्त औद्योगिक नीतियों का निर्माण कर सकती हैं. आर्थिक और औद्योगिक पुनर्गठन योजनाओं को स्थानीय संसाधनों की संभावनाओं का और भी विस्तार करना चाहिए. जीवाश्म ईंधन आधारित जिलों में कृषि और वन उत्पाद, मत्स्य पालन, डेयरी और पर्यावरण अनुकूल पर्यटन आधारित उद्योगों की स्थापना के माध्यम से स्थानीय अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान की जा सकती है. उदाहरण के लिए, भारत के सघन कोयला वितरण वाले जिलों में औसतन 31 प्रतिशत से अधिक वन क्षेत्र हैं, जो भारत के कुल औसत से 10 प्रतिशत अधिक है.

भूमि सुधार के ज़रिए भी तात्कालिक और दीर्घकालिक आर्थिक अवसरों को पैदा किया जा सकता है. तात्कालिक रूप से देखें, तो भूमि सुधार एवं पुनर्विकास के लिए बड़ी संख्या में कुशल और अकुशल श्रमिकों की ज़रूरत होती है, जिससे प्रत्यक्ष रोज़गार के अवसर पैदा होते हैं

 4.ii. भूमि और बुनियादी ढांचे का पुनरुद्देशीकरण: भूमि अधिग्रहण नए उद्योगों की स्थापना से जुड़ी सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है. इसे मौजूदा जीवाश्म ईंधन उद्योगों को आवंटित भूमि और उससे जुड़ी आधारभूत संरचना के पुनर्संयोजन के माध्यम से हल किया जा सकता है. एक अनुमान के अनुसार, कोयला खनन और संबंधित सहयोगी उद्योगों जैसे कोयला आधारित ऊर्जा संयंत्र, लौह उद्योग, स्टील और सीमेंट आदि क्षेत्रों में लगभग 4.5 लाख हेक्टेयर जमीन उपलब्ध है. वास्तव में, केवल कोयला खनन और ऊर्जा संयंत्रों के पास लगभग 3 लाख हेक्टेयर भूमि उपलब्ध है.[vii]

भूमि सुधार के ज़रिए भी तात्कालिक और दीर्घकालिक आर्थिक अवसरों को पैदा किया जा सकता है. तात्कालिक रूप से देखें, तो भूमि सुधार एवं पुनर्विकास के लिए बड़ी संख्या में कुशल और अकुशल श्रमिकों की ज़रूरत होती है, जिससे प्रत्यक्ष रोज़गार के अवसर पैदा होते हैं. लंबे समय में, सुनियोजित आधारभूत परियोजनाएं पूरक निवेश की सहायता से स्थानीय अर्थव्यवस्था को दूरगामी लाभ पहुंचाती हैं.

4.iii. मौजूदा और नए कार्यबल को कौशल विकास प्रशिक्षण देना: जीवाश्म ईंधन आधारित व्यवस्थाओं में हरित परिवर्तन की गतिविधियों के चलते रोज़गार के मौजूदा अवसरों में कमी आती है, जिससे प्रभावित आबादी को राहत प्रदान करने के लिए एक क्रमिक कौशल विकास योजना की ज़रूरत होगी. कोयला-खनन, कोयला विद्युत संयंत्र, ऑटोमोबाइल सहायक उद्योग और रिफाइनरी उद्योग आदि कुछ ऐसे क्षेत्र हैं, जिनका परिचालन आने वाले दशकों में क्रमिक रूप से बंद किया जाएगा और इसके चलते इन क्षेत्रों को नौकरियों की उपलब्धता में भारी कमी का सामना करना पड़ेगा. इसलिए इन क्षेत्रों को प्राथमिकता देते हुए वैकल्पिक रोज़गार के अवसर सृजित करने होंगे. अन्य क्षेत्रों में कौशल प्रशिक्षण कार्यक्रमों के माध्यम से रोज़गार संकट की समस्या से बचाव किया जा सकेगा. इसके अतिरिक्त, कौशल विकास एवं प्रशिक्षण की सहायता से असंगठित क्षेत्रों में कार्यरत मजदूर बड़ी आसानी से वैकल्पिक रोज़गार क्षेत्रों की ओर मुड़ सकते हैं.

4.iv. न्यायसंगत परिवर्तन हेतु सार्वजनिक राजस्व एवं अन्य वित्तीय संसाधनों का निवेश: केंद्र सरकार को जीवाश्म ईंधन आधारित उद्योगों या उपक्रमों से सार्वजनिक वित्त पूंजी का प्रतिस्थापन करना होगा, जहां राज्य सरकारें सार्वजनिक राजस्व के ज़रिए न्यायोचित बदलाव प्रक्रियाओं के वित्तपोषण की अपनी भूमिका निभा सकें. इस संदर्भ में देखें, तो डीएमएफ निधि और जीएसटी क्षतिपूर्ति (मुआवजा) कर दोनों ही महत्त्वपूर्ण हैं. कोयले पर लगाया गया सबसे महत्त्वपूर्ण कर जीएसटी क्षतिपूर्ति उपकर (मूल रूप से हरित ऊर्जा परिवर्तन के लिए वित्तीय संसाधन जुटाने हेतु कोयले पर उपकर के रूप में लागू किया गया था) है, जो कोयले और लिग्नाइट के परिवहन पर प्रति टन 400 रूपये की दर से लगाया जाता है; जो वित्तीय वर्ष 2019-20 के लिए अनुमानित 400 अरब भारतीय रुपया था. हालांकि ये उपकर 2022 में समाप्त हो जायेगा, जिससे इसे कोयला उपकर में परिवर्तित के एक अवसर के रूप में देखा जा सकता है, जिसका उपयोग कोयला-खनन क्षेत्रों में न्यायपूर्ण हरित परिवर्तन के लिए किया जा सकता है. इसी तरह, स्थानीय स्तर पर निवेश के लिए उपलब्ध डीएमएफ निधियों को केवल न्यायपूर्ण हरित परिवर्तन की गतिविधियों से जोड़ा जाना चाहिए. वर्तमान में कोयला-खनन जिलों में डीएमएफ निधियों में लगभग 185 अरब रुपये संचित हैं.

पिछले कुछ दशकों से, संसाधनों के अत्यधिक दोहन ने भारत में प्रदूषण, पारिस्थितिकीय संकट, स्थानीय समुदायों के वंचन और उनके विस्थापन से जुड़ी विकराल समस्याओं को जन्म दिया है, जिसके कारण जीवाश्म ईंधन (ख़ासकर कोयले) पर निर्भर क्षेत्र गरीबी और पिछड़ेपन के शिकार हुए हैं.

4.v. सामाजिक और पर्यावरणीय व्यवहारों से जुड़ी जवाबदेही: न्यायसंगत परिवर्तन प्रक्रिया में सामाजिक और पर्यावरणीय स्तर पर जिम्मेदारीपूर्ण व्यवहार को शामिल किया जाना चाहिए, जहां इसे संसाधनों से जुड़े अभिशाप (जहां संसाधन संपन्न क्षेत्र अंधाधुंध दोहन की विकास नीतियों के चलते हर स्तर पर पीछे रह जाते हैं और पर्यावरण के विनाश पर आधारित इस विकास का लाभ कुछेक क्षेत्रों तक सिमट कर रह जाता है) को मिटाने और जनता, सरकार और निजी क्षेत्र के बीच एक नए पर्यावरणीय और सामाजिक अनुबंध की स्थापना के अवसर के रूप में देखा जाना चाहिए.

पिछले कुछ दशकों से, संसाधनों के अत्यधिक दोहन ने भारत में प्रदूषण, पारिस्थितिकीय संकट, स्थानीय समुदायों के वंचन और उनके विस्थापन से जुड़ी विकराल समस्याओं को जन्म दिया है, जिसके कारण जीवाश्म ईंधन (ख़ासकर कोयले) पर निर्भर क्षेत्र गरीबी और पिछड़ेपन के शिकार हुए हैं. इसके अलावा, स्थानीय समुदायों को अलग-थलग और नीति निर्माण प्रक्रियाओं से बाहर कर दिया गया है. किसी भी “नए समझौते” में निम्नलिखित मुद्दे शामिल होने चाहिए: समावेशी नीति निर्माण प्रक्रिया, गरीबी उन्मूलन, न्यायपूर्ण आय वितरण, सामाजिक स्तर पर मानव विकास और सामाजिक बुनियादी ढांचे में निवेश, और पारिस्थितिक संरक्षण और पर्यावरण की मरम्मत. जिसके परिणामस्वरूप, टिकाऊ रोज़गार और आय के अवसरों में वृद्धि होगी.

अगले तीन से चार दशकों के लिए, एक रणनीतिक विकास हस्तक्षेप के रूप में न्यायसंगत परिवर्तन की योजना बनाई जानी चाहिए. इस तरह का संक्रमण जल्दबाजी में क्रियान्वित नहीं किया जा सकता, और इसके लिए एक दीर्घकालिक योजना को विकसित जाने की ज़रूरत है, जो उत्सर्जन में कमी के लक्ष्य के साथ ही उपलब्ध अवसरों पर भी अपना ध्यान केंद्रित करेगा. यह एक ऐसे परिवर्तन की नींव डालेगा जो समावेशी, न्यायसंगत और व्यवहार्य है.


[i] Renewable energy-based sources are rapidly catching up.

[ii] C. Bhushan and S. Banerjee, “Five R’s: A Cross-sectoral landscape of Just Transition in India,” International Forum for Environment, Sustainability and Technology (iFOREST), New Delhi, 2021.

[iii]  E. Morena, D. Krause and D. Stevis (eds.), Just Transitions: Social Justice in the Shift Towards a Low-Carbon World (London: Pluto Press, 2019).

[iv] C. Bhushan and S. Banerjee, “Five R’s: A Cross-sectoral landscape of Just Transition in India.”

[v]  C. Bhushan and S. Banerjee, “Five R’s: A Cross-sectoral landscape of Just Transition in India.”

[vi] C. Bhushan and S. Banerjee, “Five R’s: A Cross-sectoral landscape of Just Transition in India.”

[vii] C. Bhushan and S. Banerjee, “Five R’s: A Cross-sectoral landscape of Just Transition in India.”

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