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भारत को दक्षिण एशिया से आयात के ख़िलाफ़ भेदभाव क्यों करना चाहिए जब तुलनात्मक तौर पर यह दुनिया के बाक़ी हिस्सों से आयात पर कम प्रतिंबध लगाता है?
दक्षिण एशिया की राजनीति ने हमेशा इस क्षेत्र की अर्थव्यवस्था पर असर डाला है, इसे अवसरों का दोस्ताना माहौल बनाने की जगह टैरिफ़ से भरा असंभावनाओं का घालमेल बना दिया है।
कनेक्टिविटी बेहद ही कम है, जानकारियां भी कम ही प्रसारित होती हैं और अप्रत्यक्ष शुल्क ज़्यादा हैं, जिससे पहले से ही अलग-थलग और भूमिगत क्षेत्र और बिखर रहे हैं।
शायद, ऐसा अभिशाप कहीं और देखने को नहीं मिलता है जैसादक्षिण एशिया में है, जहां सभी देश व्यापार के मुद्दे को लेकर एक-दूसरे के ख़िलाफ़ सक्रिय रूप से भेदभाव करते हैं। 2006 के दक्षिण एशिया के फ़्री ट्रेड एग्रीमेंट को लंबे “संवेदनशील सूचियों,” ने कमज़ोर कर दिया है, जो क़रीब 35 फ़ीसदी अंतर-क्षेत्रीय व्यापार को कम कर देता है।
ये आंकड़े सरकारों और उद्यमियों को जगाने का एक तरीक़ा हैं — चाहे कुछ ही समय के लिए — लेकिन इन आंकड़ों से ये पता चल जाएगा कि एक-दूसरे के साथ स्वतंत्र रूप से व्यापार न करने की वजह से उन्हें क्या क़ीमत चुकानी पड़ रही है।
आश्चर्य की बात ये है कि, दक्षिण एशिया 7 फ़ीसदी के विकास दर से दुनिया का सबसे तेज़ी से बढ़ता क्षेत्र है, लेकिन यह असंबद्ध, अलग-थलग और एक-दूसरे पर भरोसा न करने वाले देशों का समूह भी है। ये क्षेत्र इन वजहों से अपनी व्यापार क्षमता का केवल एक तिहाई ही पूरा करने में उलझा हुआ है।
यदि सब कुछ सामान्य होता तो दक्षिण एशिया के देशों के बीच 67 बिलियन डॉलर का व्यापार होता, न कि महज़ 23 बिलियन डॉलर का। ज़्यादा कारोबार ज़्यादा भरोसा पैदा कर सकता है, जो कि एक दूसरे के साथ व्यापारिक संभावनाओं को समझने में और मददगार होगा।
2015 में, दक्षिण एशिया कीक्षेत्रीय जीडीपी अंतर-क्षेत्रीय व्यापार के 1 फ़ीसदी से भी कम थी — जो दुनिया में सबसे कम है। जबकि पूर्वी एशिया और प्रशांत क्षेत्र में ये आंकड़ा 10 फ़ीसदी है। यहां तक कि लैटिन अमेरिका और कैरीबियाई देशों में भी ये आंकड़ा3 फ़ीसदी के साथ बेहतर स्थिति में है।
इसी तरह, अंतर-क्षेत्रीय व्यापार दक्षिण एशिया के कुल कारोबार का महज़ 5 फ़ीसदी था, जबकि यह पूर्वी एशिया और प्रशांत में कुल कारोबार का 50 फ़ीसदी और सब-सहारन अफ़्रीका के 20 फ़ीसदी से ज़्यादा। निश्चित तौर पर, इस आंकड़े के साथ कुछ तो ग़लत है।
ये आंकड़े हाल में रिलीज़ किताब अ ग्लास हाफ़ फ़ुल: द प्रॉमिस ऑफ़ रीज़नल ट्रेड से लिए गए हैं, जो वर्ल्ड बैंक में दक्षिण एशिया के अग्रणी अर्थशास्त्री संजय कठुरिया की अगुवाई वाली टीम द्वारा लिखी गई है। यह किताब क्षेत्रीय ज़मीनी हक़ीक़तों को विस्तार से बताती है और दक्षिण एशिया के व्यापार अधिकारियों को इसे ज़रूर पढ़ना चाहिए।
यह किताब अपने रिसर्च और विश्लेषण में व्यापक है। ऐसे क्षेत्र में इसका दायरा बढ़ाने के लिए, जहां अब भी दुनिया के 33 फ़ीसदी ग़रीब और दुनिया के 40 फ़ीसदी कमज़ोर बच्चे रहते हों, फ़ोकस्ड ग्रुप्स, सर्वे, स्टेकहोल्डर के इंटरव्यू और नए डेटा का इस्तेमाल किया गया है। कॉर्नेल में अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर और वर्ल्ड बैंक के पूर्व मुख्य अर्थशास्त्री कौशिक बसु ने प्रस्तावना में इसका ज़िक़्र किया है।
श्रीलंकाई एक दर्जन अंडे के लिए 1.23 डॉलर क्यों दें जबकि भारत में इसकी क़ीमत 0.91 डॉलर है? यही बात आलू के लिए भी लागू होती है। इस बीच, बैंकॉक, हनोई, जकार्ता और क्वालालांपुर में अंडों और आलू की क़ीमतें बेहतर लिंक और माल के बेहतर प्रवाह की वजह से कम हैं।
भारत को दक्षिण एशिया से आयात के ख़िलाफ़ भेदभाव क्यों करना चाहिए जब तुलनात्मक तौर पर यह दुनिया के बाक़ी हिस्सों से आयात पर कम प्रतिंबध लगाता है। क्षेत्रीय आयातों के ख़िलाफ़ सबसे ज़्यादा नियम-कायदे नेपाल में हैं।
निश्चित तौर पर इस क्षेत्र मेंदो बड़े दिग्गज भारत और पाकिस्तान और उनका उत्पीड़ित इतिहास रहा है। क्षेत्र के दो सबसे बड़े देशों के बीचकमज़ोर गतिशीलताकिसी भी बड़ी सफलता को काफ़ी मुश्किल बनादेतीहै। इस क्षेत्र मेंराजनीति हमेशा दख़ल देती है।
आंकड़ों में हालात जस के तस हैं। किताब के मुताबिक़, अगर कोई कृत्रिम बाधा (आर्टिफ़िशयल बैरियर) नहीं होती तो भारत और पाकिस्तान के बीच सिर्फ़ 2 बिलियन डॉलर का नहीं, बल्कि 37 बिलियन डॉलर का कारोबार होता।
लेखक राजनीति से अपनी दूरी बनाए रखते हैं लेकिन कोई ये तर्क भी दे सकता है कि ज़्यादा व्यापार से पाकिस्तानी सेना को भी ज़्यादा कमाई होती है, क्योंकि अर्थव्यवस्था के कई क्षेत्रों में इसका हाथ है।
पहले भी पाकिस्तान के नेताओं ने भारत के साथ व्यापार बढ़ाने के लिए दरवाज़े खोलने की कोशिश की है, लेकिन भारतीय उत्पादों से मिलनेवाली चुनौती के डर की वजह से इसमें सफल नहीं हुए हैं।पाकिस्तान के फ़ार्मास्यूटिकल, ऑटो और कृषि लॉबी द्वारा ज़ाहिर की गई चिंताओं ने नवाज़ शरीफ़ की सरकार की कोशिशों को झटका दिया औरइस विचार को ठंडे बस्ते में डाल दिया।
भारत ने फ़िलहाल फ़ैसला किया है कि पाकिस्तान को छोड़ कर पूर्व के देशों से संबंध बढ़ाए जाएं ताक़ि पाकिस्तान के ज़िद्दी और ना बदलने वाले रवैये से बचा जा सके। छोटी या लंबी अवधि में ऐसी कोई संभावना नहीं है कि पाकिस्तान वास्तव में भारत के साथ बातचीत के लिए क़दम उठाएगा।
कठुरिया कहते हैं कि गंभीर व्यापार वार्ता में भारत-पाकिस्तान की चिंताओं से निपटने के कई तरीक़े हैं — संवेदनशील क्षेत्रों को खोलना और घरेलू उद्योग को रफ़्तार पकड़ने के लिए समय देना। तय करें कि क्या उचित है — 10 साल या 15 साल — लेकिन दोनों पक्षों को बातचीत शुरू करने की ज़रूरत है, क्योंकि व्यापार को सामान्य नहीं करने की बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ रही है।
कठुरिया ने मुझे टेलीफ़ोन पर बातचीत में कहा था कि “व्यापार को राजनीति से तय नहीं किया जाना चाहिए।” चीन-ताइवान व्यापार या यहां तक कि भारत-चीन के व्यापार पर नज़र डालें। हमारा विश्लेषण दिखाता है कि विश्वास बनाने में व्यापार एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। दक्षिण एशियाई देशों ने ऐसा नहीं होने दिया।
उन्होंने धीमे, चरणबद्ध, कम संवेदनशील मुद्दों के ज़रिए धीरे-धीरे बढ़ने की सलाह दी है। उदाहरण के लिए भारत और पाकिस्तान की तकनीकी टीम खाद्य सुरक्षा के मानकों पर चर्चा के लिए मिल सकती हैं और वास्तविक और कथित बाधाओं को कम करने की कोशिश कर सकती हैं। उदाहरण के लिए, भारत और बांग्लादेश के बीच यह पहले से ही हो रहा है।
नॉर्थ अमेरिकन फ़्री ट्रेड एग्रीमेंट(NAFTA), जिसे हाल ही में यूनाइटेड स्टेटस-मेक्सिको-कनाडा एग्रीमेंट का रूप दिया गया था, उसका ज़िक़्र करते हुए कठुरिया कहते हैं, “मैं किसी को इसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाते नहीं देख रहा हूं और इसका महत्वपूर्ण असर होगा। कोई भी रातों-रात NAFTAबनाने की बात नहीं कर रहा है।”
एक अलग-थलग पड़े क्षेत्र में श्रीलंका-इंडिया के बीच एयर कनेक्टिविटी एक उम्मीद की किरण है। कोलंबो ने भारत से पर्यटन की संभावना को तुरंत भांप लिया था। एक हवाई यात्रा समझौते के तहत 14 भारतीय शहरों को हर हफ़्ते 147 फ़्लाइट्स के साथ श्रीलंका की राजधानी कोलंबो से जुड़ने की इजाज़त मिली।
पाकिस्तान के पास श्रीलंका के लिए सिर्फ़ 10 फ़्लाइट्स हैं जबकि बांग्लादेश से श्रीलंका के लिए महज़ छह फ़्लाइट्स हैं। वायु सेवा के क्षेत्र में उदारीकरण के लिए ओपन स्काई एग्रीमेंट का इंतज़ार नहीं करने की सिफ़ारिश है।
सुझाव एक छोटी शुरुआत का है — यह किताब भारत-बांग्लादेश सीमा पर लगने वाली साप्ताहिक “सरहदी हाटों” और सामान्य लोगों, ख़ास कर महिलाओं के जीवन पर उनके असर की पड़ताल करती है।
लेखकों ने इस पहल को बढ़ाने की सिफ़ारिश की है और कठुरिया ने वाघा बॉर्डर पर पाकिस्तान के साथ इसे आज़माने की सलाह दी है।
व्यापार को बढ़ाने और विश्वास की कमी को दूर करने के लिए भारत का नेतृत्व काफ़ी महत्वपूर्ण है क्योंकि, दूसरे देश अपने विस्तार और आर्थिक सामर्थ्य को लेकर चिंतित हैं। सभी समस्याओं के बावजूद भी भारत का इस क्षेत्र के साथ 15 बिलियन डॉलर का व्यापार अधिशेष (ट्रेड सरप्लस) है।
भारत को इस क्षेत्र से अपना आयात बढ़ाना चाहिए, जो कि फ़िलहाल कुल आयात का 0.6 फ़ीसदी है। और भारतीय कंपनियों को दक्षिण एशिया में निवेश करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।
कठुरिया कहते हैं कि दक्षिण एशिया के इस क्षेत्र में काम करने के लिए आशावाद से भरा होना चाहिए। आप विकास के दृष्टिकोण से हार नहीं मान सकते हैं। किसी दिन नीति-निर्माताओं को महसूस होगा कि मुक्त व्यापार न करने की वजह से कितनी बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ रही है और अब ये अस्वीकार्य हो गया है।
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Seema Sirohi is a columnist based in Washington DC. She writes on US foreign policy in relation to South Asia. Seema has worked with several ...
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